मेरे प्रिय मित्र कृष्ण शलभ ने हिंदी बाल कविताओं का जो वृहत भंडार "बचपन एक समंदर" (प्रकाशक-नीरजा स्मृति बाल साहित्य न्यास –सहारनपुर) में संजोया है वह अपने आप में एक ऐसा अप्रतिम एवं दुष्कर कार्य है जिसे उन जैसा धुनी लगन वाला व्यक्ति ही संपन्न कर सकता है. क्या प्रशंसा करूं, शब्द ही नहीं हैं. उनके इस दुस्साध्य कार्य के पीछे निस्संदेह कुछ और व्यक्तियों का भी श्रम रहा होगा पर मेरा उद्देश्य यहाँ इसकी पृष्ठभूमि में जाना नहीं है वरन कुछ ऐसे बिंदुओं पर प्रकाश डालना है जो पंडित श्रीधर पाठक जी तथा श्री बाल मुकुंद गुप्त की बाल कविताओं से सम्बंधित हैं.
पंडित श्रीधर पाठक जी की लगभग सभी बाल कवितायेँ उनके काव्य संग्रह मनोविनोद के बाल विलास में संग्रहीत हुई हैं. भाई कृष्ण शलभ ने "बचपन एक समंदर " की भूमिका में जिस ग्रन्थ को आधार बनाया गया है वह है: (मनोविनोद, स्फुट कविता संग्रह, बालविलास खंड, श्रीधर पाठक, १६ से २३, नवल किशोर प्रेस) जबकि श्रीधर पाठक जी के पौत्र डॉक्टर पद्मधर पाठक द्वारा सम्पादित तथा गिरधर प्रकाशन, ८ अशोक नगर, बांसमंडी, गौतम बुध मार्ग, लखनऊ से प्रकाशित श्रीधर पाठक ग्रंथावली खंड २ के बाल विलास पृष्ठ २८९-३०१ में पाठकजी की बाल कविताओं का जो रचना काल प्रकाशित है वह कृष्ण शलभ जी के ग्रन्थ में दिये गए रचनाकाल से भिन्न है.
मैं यहाँ कृष्ण शलभ जी के ग्रन्थ की भूमिका में उद्धृत रचना काल के समक्ष पद्मधर पाठक जी के ग्रन्थ में दिए गए रचनाकाल का भी उल्लेख कर रहा हूँ जिससे स्थिति स्पष्ट हो जायेगी:
क्र.स. कविता कृष्ण शलभ के ग्रन्थ में पद्मधर पाठक के ग्रन्थ में
रचना तिथि रचना तिथि
१. उठो भई उठो ०८-०८-१९०६ ०८-०४-१९००
२. धूप आ गई ०८-०८-१९०६ शामिल नहीं है.
३. बिल्ली के बच्चे ०८-०८-१९०६ ०८-०४-१९०६
४. मैना २६-०७-१९०१ २६-०१-१९०९
५. चकोर १६-०७-१९०९ २६-०१-१९०९
६. मोर १२-०८-१९०९ १२-०८-१९०१
७. कुक्कुटी १२-०८-१९०९ ०२-०८-१९०१
इनके अलावा कृष्ण शलभ द्वारा उल्लिखित तीतर, और कौआ कविताओं पर पाठकजी द्वारा दी गई रचना तिथि ०९-०८-१९०७ है.
यह आश्चर्य की बात है कि गुड्डी लोरी कविता श्रीधर पाठक ग्रंथावली-खंड दो में नहीं है जबकि कृष्ण शलभ ने इसे पाठकजी की उल्लेखनीय बाल कविताओं में माना है. इस ग्रन्थ के अनुसार पाठक जी की सबसे ज्यादा चर्चित बाल कविता “बाबा आज देल छे आये, ११-०१-१९२८ की रचना है. इन बाल कविताओं के अलावा पाठक जी की एक और उपदेशात्मक बाल कविता है : कभी मत जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं:
बालको कभी लड़ो मत. रार में पडो कभी मत.
भ्रात से भिडो कभी मत. बात से चिडो कभी मत ......
यह रचना १२-१२-१९२७ की है.
इसमें संदेह नहीं कि श्रीधर पाठक जी की बाल कविता उठो भई उठो, की रचना तिथि पद्मधर पाठक द्वारा सम्पादित ग्रंथावली के अनुसार ०८/०४/१९०० मान ली जाए, तो वह पाठक जी की सबसे पहली बाल कविता ठहरती है.
अब जहाँ तक श्रीधर पाठक को हिंदी का पहला बाल कवि मानने का सवाल है तो इस पर मतभेद हो सकता है. इस सम्बन्ध में पहले निरंकार देव सेवक रचित बालगीत साहित्य से उद्धरण देख लें : “हिंदी में पहला बालगीत कब लिखा गया यह तो कोई खोज करके ही निश्चित बता सकता है . प्रमुख बाल गीतकार कवियों में पंडित श्रीधर पाठक, बालमुकुंद गुप्त, अयोध्याप्रसाद सिंह उपाध्याय “हरिऔध” और सुखराम चौबे “गुणाकर” समकालीन थे. इनमे पंडित श्रीधर पाठक और बाल मुकुंद गुप्त ने सबसे पहले लगभग एक ही समय में बच्चों के लिए भी कविताएं लिखना प्रारंभ किया था. श्रीधर पाठक बड़ों के एक सुविख्यात कवि होने के साथ बच्चों के कवि के रूप में प्रकाश में आए . प्राप्त जानकारी के अनुसार उन्होंने ही सबसे पहले स्वतंत्र रूप से मनोरंजक बालगीत लिखे. इसलिए उन्हें ही हिंदी का पहला बाल गीतकार कवि माना जा सकता है.” – पृष्ठ-१३०
पर यहाँ कृष्ण शलभ जी की भूमिका का पृष्ठ ११ पर प्रकाशित यह पैराग्राफ भी ध्यातव्य है.:
“ बालमुकुंद गुप्त जी की बाल कविता “खिलौना: का प्रकाशन उन्नीसवीं शताब्दी में हो चुका था. क्योंकि हिंदी शिक्षावली की प्रत्यालोचना २९ जनबरी सन १९०० के “भारत मित्र” में हुई. इससे पूर्व पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा इसकी आलोचना १८९९ में हो चुकी थी, जो मर्चंट प्रेस रैलिगंज कानपुर से मुद्रित हुई थी.”...........
“बाल कविता के बाल सुलभ मिजाज़ और संरचना की दृष्टि से बालमुकुंद गुप्त जी की कविता “गिलहरी का ब्याह” की पंक्तियाँ जो बच्चों की भावनाओं से सटकर रची गई हैं, गुप्त जी की सृजन सामर्थ्य का पता देती हैं . इस कविता का प्रारंभ ही बाल-कविता के स्वर को प्रकट करने के लिए पर्याप्त है:
“धम-धमा-धम ब्याह गिलहरी का है सुनिए आज.
आसान पोथी लेकर चली, पंडित जी महाराज.”
................यहाँ उल्लेखनीय है कि “खिलौना” और “खेल-तमाशा” का प्रकाशन १८९९ का है. स्पष्टतः गुप्त जी की बाल कविता पुस्तकें उन्नीसवीं शताब्दी में ही प्रकाशित हो चुकी थीं.”.........
शलभ जी की पुस्तक में दिए गए उक्त उद्धरणों से स्पष्ट हो जाता है कि श्री बाल मुकुंद गुप्त की खिलौना/गिलहरी का ब्याह पाठक जी की पहली बाल कविता उठो भई उठो से पूर्व में प्रकाशित हो चुकी थी इसलिए गुप्त जी को हिंदी का पहला बाल कवि मानने में किसी को एतराज नहीं होना चाहिए. यह और बात है कि गुप्त जी की इस/इन बाल कविता/ओं पर पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी ने व्याकरण सम्बन्धी दोष लगाया था और इस पर पाठकजी, द्विवेदीजी, तथा एक सज्जन राजाराम का तीखा पत्र व्यवहार हुआ था. जिसका उल्लेख कृष्ण शलभ जी की पुस्तक “ बचपन एक समंदर” के पृष्ठ १३ पर मौजूद है.
पंडित श्रीधर पाठक और श्री बाल मुकुंद गुप्त में से कौन हिंदी का पहला बाल कवि हसी, जैसे प्रश्न पर कुछ पाठकों को लग सकता है कि भई आप आम खाओ, गुठलियों को गिनने में क्यों सिर खपा रहे हो. पर मुझे लगता है कि शोधार्थियों के लिये यह एक बहुत ही महत्त्व पूर्ण विषय है.
जहाँ तक श्रीधर पाठक जी की बाल कविताओं की सही रचना तिथि का सवाल है, मेरी दृष्टि में डॉक्टर पद्मधर पाठक के ग्रन्थ को ही प्रामाणिक माना जाना चाहिए क्योंकि वे स्वयं श्रीधर पाठक के पौत्र तो हैं ही और न केवल शोध-दृष्टि संपन्न विद्वान हैं बल्कि एक प्रतिष्ठित शोध संस्थान के पूर्व निदेशक भी रहे हैं.
Tuesday, May 31, 2011
Saturday, May 28, 2011
एक संस्मरण के बहाने पंडित श्रीधर पाठक हिंदी के प्रथम राष्ट्रकवि पर संक्षिप्त संवाद ..............
३० मार्च, सन २००६ का दिन.
कथाकार एवं उपन्यासकार विनायक के बाल/किशोर उपन्यासों पर केंद्रित एक साहित्यिक समारोह में मुझे हिस्सेदारी करने हेतु लखनऊ जाने का अवसर मिला. विनायक का आमंत्रण था और उनके ही निवास पर आतिथ्य की व्यवस्था थी. वहाँ डॉक्टर शुकदेव सिंह, डॉक्टर श्री प्रसाद, डॉ. शम्भुनाथ तिवारी, डॉक्टर सुरेन्द्र विक्रम, अखिलेश श्रीवास्तव चमन, संजीव जैसवाल “संजय” तथा ज़ाकिर अली रजनीश सभी से सुखद भेंट हो गई.
विनायक जी के बहाने मेरा एक कार्य और सिद्ध होना था.. बड़ी ही इच्छा थी कि राजस्थान प्राच्य विद्या संस्थान, जोधपुर, के पूर्व निदेशक डॉक्टर पद्मधर पाठक जो पंडित श्रीधर पाठक के पौत्र हैं और लखनऊ में ही अपनी पुत्रियों (सुश्री सोनी और राधा) के साथ निवास करते हैं, का सानिध्य भी ग्रहण कर लिया जाए, फिर अल्प काल के लिए ही क्यों न सही.
पद्मधर पाठक जी के परिवार से मेरे और मेरी पत्नी कमलेश के पारिवारिक, प्रगाढ़ एवं आत्मीय सम्बन्ध रहे हैं. जोधपुर छोड़कर जब से वे लखनऊ गए तब से उनसे मिलना नहीं हुआ था. शायद एक बार वे जोधपुर से हिंदुस्तान टाइम्स के दफ्तर में मुझसे अवश्य मिलने आये थे. तो सुअवसर निकाल कर मैं अपनी पत्नी कमलेश के साथ पाठक जी के अशोक नगर स्थित निवास पर पहुँच गया और दो दिन तक उनका सानिध्य लाभ ग्रहण किया. उस समय वे कुछ अस्वस्थ चल रहे थे पर ऊर्जा कि कोई कमी नहीं दिख रही थी उनमे.
यह एक विरल अवसर था जब उन्होंने अपने पितामह पंडित श्रीधर पाठक के बारे में बहुत सी अंतरंग बातें कीं और सस्नेह मुझे स्वयं द्वारा सम्पादित त्रिखंडीय श्रीधर पाठक ग्रंथावली भी भेंट की. इसके अलावा उन्होंने एक और दुर्लभ पुस्तक भेंट की “जय हिंद” जिसका मुखपृष्ठ निम्नवत है:
“जय हिंद
हमारा कौमी नारा व अन्य राष्ट्रगीत .
हिंदी के प्रथम राष्ट्रकवि श्रीधर पाठक रचित :
चयन : पद्मधर पाठक :
उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर
पंडित जवाहर लाल नेहरु की स्मृति में.”
पुस्तक का मुखपृष्ठ देखते ही मैं चौंका. पूछा- हिंदी के राष्ट्रकवि तो मैथिलीशरण गुप्त माने जाते हैं फिर ........ इस पर पाठक जी कुछ देर मौन रहे फिर बोले- इस पुस्तक में दो उद्धरण छपे हैं डॉक्टर हरिवंश राय बच्चन और मन्मथ नाथ गुप्त के. वे इस बारे में बहुत कुछ कहते हैं, उन्हें पढ़ लो. जय हिंद का कौमी नारा भी हिंदी को प्रथम बार देने वाले पंडित श्रीधर पाठक ही थे. उनकी जय हिंद रचना विक्रम संवत १९४२ यानी सन १८८५ में लिखी गई थी जब कान्ग्रेस कि स्थापना भी नहीं हुई थी.
संदर्भवश मैं इन दोनों उद्धरणों को साभार यहाँ दे रहा हूँ:
“ श्री हरिवंशराय बच्चन-
“पंडित श्रीधर पाठक के भारत-गीतों में देशभक्ति की धारा बहुत निर्मल होकर बही है. उनका “हिंद-वंदना” गीत बहुत प्रसिद्ध हुआ-
जय देश हिंद, देशेष, हिंद
जय सुखमा-सुख-निःशेष हिंद
यह कम सौभाग्य की बात नहीं है कि जिस “जय हिंद” को सुभाषचंद्र बोस ने आज़ादी कि पहली सेना में सलामी का शब्द माना था और जिससे हमारे देश में एक दिन बिजली की-सी लहर दौड गई थी और जो आज भी हमारी कौमी सलामी का शब्द है, वह “जय हिंद” पहली बार एक हिंदी कवि की लेखनी से निकला था. पाठक जी के गीतों में जहां हिंदुओं में देशभक्ति जगाने की पूर्ण क्षमता है, वहाँ उनके कुछ भी ऐसा संकुचित, संकीर्ण, पक्षपातपूर्ण नहीं, जिससे किसी मुसलमान को किसी तरह की चोट पहुंचे, हाँ थोड़ी उदारता की अपेक्षा उससे भी की जायेगी. पाठक जी से प्रेरणा लेकर बहुत से कवियों ने भारत वंदना के गीत गाये....(“बच्चन रचनावली-खंड-६, पृ.२०३, राजकमल प्रकाशन,१९८३)”
श्री मन्मथ नाथ गुप्त –
कांग्रेस के जन्म से पूर्व ही पाठक जी अपनी कविता में स्वाधीन भारत का स्वप्न देख और दिखा चुके थे. वस्तुस्थिति यह है कांग्रेस ने बहुत बाद में जाकर स्वाधीनता का नारा दिया. श्रीधर पाठक ने “हिंद-वंदना” में गाया था-
जय देश हिंद, देशेष हिंद
जय सुखमा-सुख-निशेष हिंद
जय जयति सदा स्वाधीन हिंद
जय जयति जयति प्राचीन हिंद.
यहाँ और एक पहलू पर ध्यान दिलाना उचित होगा. नेताजी सुभाष द्वारा दिया हुआ नारा “जय हिंद” की जड़ें बहुत गहरी थीं, श्रीधर पाठक तक में भी थीं, इसी कारण वह एकाएक इतना जनप्रिय हुआ. श्रीधर पाठक हिंदी के प्रथम और प्रमुख राष्ट्र कवि थे. उनके बाद आये मैथिलीशरण और दिनकर.”
(द्विवेदीजी के पत्र-पाठकजी के नाम पृ. १८५, गिरिधर प्रकाशन, जोधपुर, १९८२)
मेरी व्यक्तिगत धारणा है कि इन दो उद्धरणों से स्थिति काफी कुछ स्पष्ट हो जाती है.
श्रीधर पाठक जी की “हिंद वंदना” ९० पंक्तियों का कौमी तराना है.
श्री पद्मधर पाठक जी के कथंनानुसार –“एक उल्लेखनीय संयोग और बनता है. इस कौमी नारे की रचना उसी प्रयाग (इलाहाबाद अथवा पंडित मोतीलाल नेहरु के कथनानुसार फकीराबाद) में हुई थी, जहाँ आगरा छोड़ पाठकजी व मोतीलालजी दोनों चले आये थे और धीरे-धीरे प्रयाग राजनीतिक हलचल का केंद्र बनता गया.”
श्रीधर पाठकजी की “हिंद वंदना” को पाठक यदि चाहेंगे तो अगली बार पूरी रचना को उद्धृत करने का प्रयास करूँगा.
संभव हुआ तो उनके बारे में कुछ और भी चर्चा करने का विनम्र प्रयास करूँगा. तब तक के लिए अल्प विराम....
कथाकार एवं उपन्यासकार विनायक के बाल/किशोर उपन्यासों पर केंद्रित एक साहित्यिक समारोह में मुझे हिस्सेदारी करने हेतु लखनऊ जाने का अवसर मिला. विनायक का आमंत्रण था और उनके ही निवास पर आतिथ्य की व्यवस्था थी. वहाँ डॉक्टर शुकदेव सिंह, डॉक्टर श्री प्रसाद, डॉ. शम्भुनाथ तिवारी, डॉक्टर सुरेन्द्र विक्रम, अखिलेश श्रीवास्तव चमन, संजीव जैसवाल “संजय” तथा ज़ाकिर अली रजनीश सभी से सुखद भेंट हो गई.
विनायक जी के बहाने मेरा एक कार्य और सिद्ध होना था.. बड़ी ही इच्छा थी कि राजस्थान प्राच्य विद्या संस्थान, जोधपुर, के पूर्व निदेशक डॉक्टर पद्मधर पाठक जो पंडित श्रीधर पाठक के पौत्र हैं और लखनऊ में ही अपनी पुत्रियों (सुश्री सोनी और राधा) के साथ निवास करते हैं, का सानिध्य भी ग्रहण कर लिया जाए, फिर अल्प काल के लिए ही क्यों न सही.
पद्मधर पाठक जी के परिवार से मेरे और मेरी पत्नी कमलेश के पारिवारिक, प्रगाढ़ एवं आत्मीय सम्बन्ध रहे हैं. जोधपुर छोड़कर जब से वे लखनऊ गए तब से उनसे मिलना नहीं हुआ था. शायद एक बार वे जोधपुर से हिंदुस्तान टाइम्स के दफ्तर में मुझसे अवश्य मिलने आये थे. तो सुअवसर निकाल कर मैं अपनी पत्नी कमलेश के साथ पाठक जी के अशोक नगर स्थित निवास पर पहुँच गया और दो दिन तक उनका सानिध्य लाभ ग्रहण किया. उस समय वे कुछ अस्वस्थ चल रहे थे पर ऊर्जा कि कोई कमी नहीं दिख रही थी उनमे.
यह एक विरल अवसर था जब उन्होंने अपने पितामह पंडित श्रीधर पाठक के बारे में बहुत सी अंतरंग बातें कीं और सस्नेह मुझे स्वयं द्वारा सम्पादित त्रिखंडीय श्रीधर पाठक ग्रंथावली भी भेंट की. इसके अलावा उन्होंने एक और दुर्लभ पुस्तक भेंट की “जय हिंद” जिसका मुखपृष्ठ निम्नवत है:
“जय हिंद
हमारा कौमी नारा व अन्य राष्ट्रगीत .
हिंदी के प्रथम राष्ट्रकवि श्रीधर पाठक रचित :
चयन : पद्मधर पाठक :
उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर
पंडित जवाहर लाल नेहरु की स्मृति में.”
पुस्तक का मुखपृष्ठ देखते ही मैं चौंका. पूछा- हिंदी के राष्ट्रकवि तो मैथिलीशरण गुप्त माने जाते हैं फिर ........ इस पर पाठक जी कुछ देर मौन रहे फिर बोले- इस पुस्तक में दो उद्धरण छपे हैं डॉक्टर हरिवंश राय बच्चन और मन्मथ नाथ गुप्त के. वे इस बारे में बहुत कुछ कहते हैं, उन्हें पढ़ लो. जय हिंद का कौमी नारा भी हिंदी को प्रथम बार देने वाले पंडित श्रीधर पाठक ही थे. उनकी जय हिंद रचना विक्रम संवत १९४२ यानी सन १८८५ में लिखी गई थी जब कान्ग्रेस कि स्थापना भी नहीं हुई थी.
संदर्भवश मैं इन दोनों उद्धरणों को साभार यहाँ दे रहा हूँ:
“ श्री हरिवंशराय बच्चन-
“पंडित श्रीधर पाठक के भारत-गीतों में देशभक्ति की धारा बहुत निर्मल होकर बही है. उनका “हिंद-वंदना” गीत बहुत प्रसिद्ध हुआ-
जय देश हिंद, देशेष, हिंद
जय सुखमा-सुख-निःशेष हिंद
यह कम सौभाग्य की बात नहीं है कि जिस “जय हिंद” को सुभाषचंद्र बोस ने आज़ादी कि पहली सेना में सलामी का शब्द माना था और जिससे हमारे देश में एक दिन बिजली की-सी लहर दौड गई थी और जो आज भी हमारी कौमी सलामी का शब्द है, वह “जय हिंद” पहली बार एक हिंदी कवि की लेखनी से निकला था. पाठक जी के गीतों में जहां हिंदुओं में देशभक्ति जगाने की पूर्ण क्षमता है, वहाँ उनके कुछ भी ऐसा संकुचित, संकीर्ण, पक्षपातपूर्ण नहीं, जिससे किसी मुसलमान को किसी तरह की चोट पहुंचे, हाँ थोड़ी उदारता की अपेक्षा उससे भी की जायेगी. पाठक जी से प्रेरणा लेकर बहुत से कवियों ने भारत वंदना के गीत गाये....(“बच्चन रचनावली-खंड-६, पृ.२०३, राजकमल प्रकाशन,१९८३)”
श्री मन्मथ नाथ गुप्त –
कांग्रेस के जन्म से पूर्व ही पाठक जी अपनी कविता में स्वाधीन भारत का स्वप्न देख और दिखा चुके थे. वस्तुस्थिति यह है कांग्रेस ने बहुत बाद में जाकर स्वाधीनता का नारा दिया. श्रीधर पाठक ने “हिंद-वंदना” में गाया था-
जय देश हिंद, देशेष हिंद
जय सुखमा-सुख-निशेष हिंद
जय जयति सदा स्वाधीन हिंद
जय जयति जयति प्राचीन हिंद.
यहाँ और एक पहलू पर ध्यान दिलाना उचित होगा. नेताजी सुभाष द्वारा दिया हुआ नारा “जय हिंद” की जड़ें बहुत गहरी थीं, श्रीधर पाठक तक में भी थीं, इसी कारण वह एकाएक इतना जनप्रिय हुआ. श्रीधर पाठक हिंदी के प्रथम और प्रमुख राष्ट्र कवि थे. उनके बाद आये मैथिलीशरण और दिनकर.”
(द्विवेदीजी के पत्र-पाठकजी के नाम पृ. १८५, गिरिधर प्रकाशन, जोधपुर, १९८२)
मेरी व्यक्तिगत धारणा है कि इन दो उद्धरणों से स्थिति काफी कुछ स्पष्ट हो जाती है.
श्रीधर पाठक जी की “हिंद वंदना” ९० पंक्तियों का कौमी तराना है.
श्री पद्मधर पाठक जी के कथंनानुसार –“एक उल्लेखनीय संयोग और बनता है. इस कौमी नारे की रचना उसी प्रयाग (इलाहाबाद अथवा पंडित मोतीलाल नेहरु के कथनानुसार फकीराबाद) में हुई थी, जहाँ आगरा छोड़ पाठकजी व मोतीलालजी दोनों चले आये थे और धीरे-धीरे प्रयाग राजनीतिक हलचल का केंद्र बनता गया.”
श्रीधर पाठकजी की “हिंद वंदना” को पाठक यदि चाहेंगे तो अगली बार पूरी रचना को उद्धृत करने का प्रयास करूँगा.
संभव हुआ तो उनके बारे में कुछ और भी चर्चा करने का विनम्र प्रयास करूँगा. तब तक के लिए अल्प विराम....
कुछ और पंक्तियाँ ...............
१.
सपना तब तक ही सुंदर है
सपना तब तक ही सुंदर है।
जब तक आँखों के अंदर है।
खुशियों को सहेज कर रखना
उनके खो जाने का डर है।
बुरे वक़्त में दुःख ही है, जो
साथ निभाने को तत्पर है।
रिश्तों का बनना आसां है
रिश्तों का बचना दुष्कर है।
इंसानों की मुश्किल ये है
उनके भीतर हमलावर है।
२.
सब कुछ अपने मन का ही हो
सब कुछ अपने मन का ही हो, ऐसा कब होता है
गतिरोधों से टकरा कर, जीवन संभव होता है।
पलकों तक आए और मन में, हलचल पैदा नहीं करे
ऐसा आँसू ज़िंदा हो कर भी एक शव होता है।
एकाकी लोगों से पूछो तो शायद यह पता चले
सूनेपन के अंदर-अंदर भी कलरव होता है
भली-भली बातों से कोई अच्छी कथा नहीं बनती
श्याम रंग का श्वेतों में गहरा मतलब होता है।
३.
जिससे थोड़ा लगाव होने लगा
जिससे थोड़ा लगाव होने लगा।
बस उसी का अभाव होने लगा।
ये नियति का ही तो क़रिश्मा है,
ज़िंदा सच एक ख़्बाव होने लगा।
जिस्म दो जान एक थे जो कल,
आज उनमें हिसाब होने लगा।
गर्म बाज़ार हुआ रिश्तों का,
हर जगह मोल-भाव होने लगा।
पहले होता था सिर्फ क़िश्तों में,
दर्द अब बेहिसाब होने लगा।
४.
बच्चों पर दिन भारी देखे
बच्चों पर दिन भारी देखे।
जब से कांड निठारी देखे।
मासूमों का सौदा करते
बड़े-बड़े व्यापारी देखे।
जो आचार संहिता लाए
उनमें ही व्यभिचारी देखे।
जिन्हें देखना कभी न चाहा,
बदकिस्मती हमारी, देखे।
सपना तब तक ही सुंदर है
सपना तब तक ही सुंदर है।
जब तक आँखों के अंदर है।
खुशियों को सहेज कर रखना
उनके खो जाने का डर है।
बुरे वक़्त में दुःख ही है, जो
साथ निभाने को तत्पर है।
रिश्तों का बनना आसां है
रिश्तों का बचना दुष्कर है।
इंसानों की मुश्किल ये है
उनके भीतर हमलावर है।
२.
सब कुछ अपने मन का ही हो
सब कुछ अपने मन का ही हो, ऐसा कब होता है
गतिरोधों से टकरा कर, जीवन संभव होता है।
पलकों तक आए और मन में, हलचल पैदा नहीं करे
ऐसा आँसू ज़िंदा हो कर भी एक शव होता है।
एकाकी लोगों से पूछो तो शायद यह पता चले
सूनेपन के अंदर-अंदर भी कलरव होता है
भली-भली बातों से कोई अच्छी कथा नहीं बनती
श्याम रंग का श्वेतों में गहरा मतलब होता है।
३.
जिससे थोड़ा लगाव होने लगा
जिससे थोड़ा लगाव होने लगा।
बस उसी का अभाव होने लगा।
ये नियति का ही तो क़रिश्मा है,
ज़िंदा सच एक ख़्बाव होने लगा।
जिस्म दो जान एक थे जो कल,
आज उनमें हिसाब होने लगा।
गर्म बाज़ार हुआ रिश्तों का,
हर जगह मोल-भाव होने लगा।
पहले होता था सिर्फ क़िश्तों में,
दर्द अब बेहिसाब होने लगा।
४.
बच्चों पर दिन भारी देखे
बच्चों पर दिन भारी देखे।
जब से कांड निठारी देखे।
मासूमों का सौदा करते
बड़े-बड़े व्यापारी देखे।
जो आचार संहिता लाए
उनमें ही व्यभिचारी देखे।
जिन्हें देखना कभी न चाहा,
बदकिस्मती हमारी, देखे।
Friday, May 27, 2011
काऊ के बोलोश ना!
(यह आलेख काफी समय पहले नागरिक उत्तर प्रदेशमें प्रकाशित हुआ था. शिवानी मेरी सबसे प्रिय लेखिका रही है इसलिए इसे में इस ब्लॉग पर नागरिक उत्तर प्रदेश से साभार पुनर्प्रकाशित कर अपने मित्रों के साथ बाँट रहा हूँ. )
हिंदी की सर्वाधिक लोकप्रिय, निर्भीक, एवं गरिमामयी कथा-लेखिका गौरा पन्त शिवानी जन्मी भले ही गुजरात में पर "कृष्णकली" के रेवतिशरण तिवारी परिवार की गृहस्वामिनी की तरह ही उनके व्यक्तित्व में "कुमाऊँ एवं बंगाल की संस्कृति का अद्भुत मिश्रण" था. उनके बहुत से उपन्यासों में जहाँ एक ओर कुमाऊँ अंचल के लोक जीवन का सुन्दर और सटीक चित्रण मौजूद है वहीँ दूसरी ओर उनकी रचनाओं में तत्सम, समास-युक्त शब्दावली के साथ-साथ बांग्ला साहित्य और बांग्ला भाषा का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है. इस प्रभाव के पीछे शिवानी के अपने पारिवारिक तथा वे प्रारंभिक शिक्षा-संस्कार थे जो उन्हें शांति निकेतन आश्रम में लगभग नौ वर्षों के शिक्षा काल में मिले.
शांति निकेतन में शिवानी को अपने गुरुजनों के रूप में न केवल गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर बल्कि बलराज साहनी, गुरदयाल मल्लिक, डॉक्टर एलेक्स एरंसन, मिस मार्जारी साइक्स तथा क्षितीश राय जैसी नामी-गिरामी हस्तियों का शिष्यत्व एवं सान्निध्य मिला. यही नहीं, यहाँ उन्हें ऐसे सहपाठी भी मिले जो आगे चलकर अपने-अपने क्षेत्र में सुविख्यात हुए. इनमे से एक माणिक दा यानी सत्यजित रे थे जिनके साथ आगे चल कर शिवानी का प्रगाढ़ सम्बन्ध बना. इन सभी लोगों का स्मरण शिवानी ने अपने अनेक संस्मरणों में बड़ी ही आत्मीयता एवं श्रद्धा भाव से किया है.
शिवानी के ये संस्मरण पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखे गए कालमों तथा उनकी कुछ कृतियों में प्रकाशित हुए हैं जिनमे "स्मृति-कलश", "झरोखा" तथा "एक थी रामरती" के नाम उल्लेखनीय हैं. इन संस्मरणों को पढते हुए मुझे बार-बार देवेन्द्र सत्यार्थी की पुस्तक "यादों के काफिले" याद आती रही. गौरतलब है कि सत्यार्थी जी ने भी लोकगीत खोजने की धुन में देश-दुनिया का भ्रमण करते हुए गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर, नन्द लाल बसु, अवनींद्र नाथ ठाकुर, बलराज साहनी आदि का सान्निध्य प्राप्त किया था और अपने चिरपरिचित अंदाज में इन सभी का स्मरण किया, हालांकि शिवानी की संस्मृतियों में आश्रम की गुरु-शिष्य परंपरा की जैसी विरल छवियाँ हैं देवेन्द्र सत्यार्थी की पुस्तक में नहीं.
शिवानी के छात्र-जीवन के प्रसंगों में सबसे अधिक रोचक कीट्स की कविता वाला प्रसंग है. शिवानी लिखती हैं-"एक बार हमारी कक्षा में दक्षिण का एक नया छात्र शिवशंकर मुन्दुकर आ गया. तब तक कक्षा में प्रथम आने का सौभाग्य मुझे प्राप्त था. अपने जर्मन प्रोफेसर डॉक्टर एलेक्स एरनसन की मैं प्रिय छात्र थी किन्तु मुन्दुकर के आने के साथ ही मेरी प्रतिभा भी म्लान होने लगी. एक बार हमें कीट्स कि एक कविता का क्रिटिकल अप्रिसिएशन लिखने को दिया गया कि घर से लिख कर लाना. बेईमानी की प्रचुर गुंजाईश थी. इसी से मैं भागी गुरुदेव के पास "प्लीज, आप लिखा दीजिए , फिर देखूँगी कैसे पछाड पाता है वह दक्षिणी छात्र. पहले तो गुरुदेव ने डोंट कर भगा दिया फिर भी मैं अडी रही. कुछ ही पंक्तियों में कीट्स को धन्य कर दिया गुरुदेव ने. मैंने दूसरे दिन कॉपी "सबमिट" की. तीसरे दिन कॉपी मिली तो रवींद्रनाथ को मिले दस में चार और "टू इल्यूसिव (बहुत ज़टिल) के कटु शब्द. मुन्दुकर को दस में से छः. मेरी हाड-मज्जा भस्म हो गई. मैं फिर भागी गुरुदेव के पास, "देखा, आप कहते थे अपने विदेशी गुरुजनों का आदर करो, विदेशी गुरु ने ही आपको चार नम्बर दिए"
बड़ी जोर से हँसे वे. बोले, " काऊ के बोलोश ना!" (किसी से कहना मत)
ऐसा ही एक मजेदार प्रसंग आश्रम की मासिक साहित्य-सभा में आयोजित आशुकवि प्रतियोगिता का है जिसमे शिवानी ने एक दिग्गज प्रतियोगी, जो उनके अपने ही बड़े भाई "त्रिभुवन" थे, को हराकर गुरुदेव से पहला पुरस्कार प्राप्त किया था. शिवानी के शब्दों में "समस्यापूर्ति के लिए उस दिन लड़कियों को मिली थी ये पंक्ति-"इफ आय वेयर ए बॉय!" और लड़कों को "इफ आय वेयर ए गर्ल!" मैंने तत्काल लिखा था-" इफ आय वेयर ए बॉय व्हाट वुड बिकम ऑफ द बॉय आय लव? पुरस्कार तो मिल गया पर दूसरे दिन से शिवानी का आश्रम से निकलना दूभर हो गया. जहां जाती, लड़के चीखते, "हे, हूँ इज द लकी वन?
शांति निकेतन में शिवानी के अंग्रेजी के दो अध्यापक थे. एक गुरुदयाल मल्लिक और दूसरे बलराज साहनी. बलराज साहनी और उनकी पत्नी दमयंती के जो व्यक्तिचित्र शिवानी ने खींचे हैं वे किसी आनंद-कथा से कम नहीं.
"हमारे दूसरे अंग्रेजी के अध्यापक थे श्री बलराज साहनी जो बाद को फिल्म-जगत के नक्षत्र बनकर चमके. गोरा रंग, सजीला व्यक्तित्व, लाल खद्दर का कुरता और सवा लाख की चाल. लगता सेहरा बांधे कोई दूल्हा चला आ रहा है. वे हमारी अंग्रेजी कविता की क्लास लेते थे. उनकी शिक्षा-प्रणाली मौलिक थी. किसी भी अंग्रेजी अखबार का संपादकीय दी कर कहते, "पहले इसे पढ़ो, फिर इसी विषय पर अपने ढंग से सम्पादकीय लिखो. आज जो थोड़ी बहुत ठसक कलम में आ पाई है, वह मेरे उसी गुरु की देन है.
उनकी पत्नी दमयंती दी तब हमारे छात्रावास में रहती थीं. दम्मो दी गज़ब की आनंदी युवती थीं. गोरा रंग, बेहद घुंघराले बाल, जो उनके सलोने चेहरे पर कुंडल किरीट बन कर छाये रहते, कानों में लंबे -लंबे लाल चेरी बने बुँदे और खड्ग के धार-सी तीखी सुभग नासिका. अब जब कभी किसी धारावाहिक में उनके बेटे परीक्षित साहनी को देखती हूँ, तो बार-बार उन दम्मो दी की याद हो आती है, जो मुझे परीक्षा के सन्निकट त्रास से क्षण भर को मुक्ति दिलाने बरबस अपने कमरे में खींच ले जाती, " ए पढाकू लड़की, क्या हर वक्त किताबों में घुसी रहती है? चल महफ़िल जमाएं."
और फिर दम्मो दी की महफ़िल किसी मोती-सी पुस्तक की डफली बजाते हुए इस गाने के साथ जगती- "अध्धी राती/चन्न् तारे/ परशु प्यारा/अंख मारे/परशुरामा मथासड्इया/दिल मेरा छीना तूने."
शांति निकेतन में ही शिवानी के एक सहपाठी था गिरधारी. उसके पिता डॉक्टर हीरालाल सौराष्ट्र की रियासत जसदन में डॉक्टर थे. बचपन से आश्रम में रहने के कारण गिरधारी पूरी तरह बंगाली बन गया था और फर्राटेदार बांगला बोलता था. आश्रम में उसे घंटा कुमार कहा जाता था क्योंकि आश्रम के घंटे की रस्सी उसी के हाथों में रहती.
एक बार आश्रम से सटे संथाल ग्राम में भीषण आग लग गई और आग की लपटों का आश्रम तक पहुँचने का खतरा देख गिरधारी डोरी खींच-खींच कर जोर से घंटा बजाने लगा. आश्रम के लोग बाल्टियों में पानी भर-भर कर ग्राम की आग बुझाने दौड पड़े. शिवानी ने, जो अब तक ठगी हुई सी खड़ी थी, गिरधारी की मदद करने के लिए घंटे पर बंधी रस्सी लपक ली. रस्सी का लपकना था कि गिरधारी शिवानी पर बरस पड़ा-"किसने कहा तुमसे यह करने को? जानती नहीं यह काम मेरा है, केवल मेरा." शिवानी को वह पीड़ा ता-उम्र याद रही.
वर्षों बाद जब शिवानी का दुबारा शांति निकेतन जाना हुआ तब गिरधारी पहले वाला गिरधारी नहीं रह गया था. गुरुदेव की पुत्री पूपे यानी नंदिनी, जो उसकी प्रेयसी थी पर जिसका विवाह मुंबई के प्रसिद्ध उद्योगपति घराने में अजित खटाऊ से कर दिया गया था, पहले पति की मृत्यु के बाद गिरधारी से दूसरा विवाह कर चुकी थी और दादा बना गिरधारी अपनी प्रौढावस्था में आसन्न मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था.
विगत स्मृतियों में डूबी शिवानी ने जब रुग्ण शैया पर पड़े गिरधारी और क्षीणकाय पूपे को देखा तो हक्की-बक्की रह गई. शिवानी की पीड़ा का पार नहीं था. “अब शायद ही तुझसे कभी मिलना हो.” गिरधारी ने भग्न स्वर में कहा था, “में अब अधिक दिन नहीं बचूंगा. गले में दर्द रहने लगा है.”
शिवानी ने सांत्वना डी- “कैसी बातें कर रहे हो? गले में दर्द तो तुम्हे पहले भी रह्ता था. हमेशा गुलुबन्द लपेटे रहते थे. खूब बचोगे, अभी तो दादा ही बने हो, अभी पुत्र-प्रपौत्र भी तो देखोगे.” पर, गिरधारी को अपना भवितव्य पता था – नहीं, यह वह टोंसिल का दर्द नहीं, हर वक्त गले में काँटा सा चुभने लगा है.”
और एक दिन सचमुच ही वह घातक काँटा मृत्यु-कंटक बन कर उपजा. कलकत्ता से भेजे गए उसके पुत्र के पात्र द्वारा शिवानी को सूचना मिली –“बाबा नहीं रहे. गले का केंसर हो गया था.”
बीती मैत्री ना स्मरण/
हैये रही गया/
(बीती मैत्री कि स्मृति हृदय में रह गई. लिखने वाला चुपचाप चला गया.
गिरधारी के अलावा शिवानी को अपनी कुछ सम्वयसिनियों की अकाल मृत्यु भी बुरी तरह विचलित करती रही. इनमे अरुंधती उर्फ नुकू, सुशीला और माताहारी से सम्बंधित उनकी संस्मृतियाँ तो सचमुच हृदयविदारक हैं.
यहाँ यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि शिवानी ने अपनी संस्मृतियों में सिर्फ “सेलिब्रिटीज” को ही नहीं समेटा बल्कि रामरती जैसी अपनी अपढ़ लेकिन सरल-ह्रदय सेविका को भी बराबर का सम्मान और स्थान दिया और उसके दिवंगत होने पर उसकी पूरी कथा ही लिख डाली जो उनकी “एक थी रामरती” कृति में शामिल है.
शिवानी ने साहित्य, संगीत और कला जगत की कुछ ऐसी शिखरस्थ शख्सियतों के बारे में अपने संस्मरण लिखे हैं जो आज भी हमारे प्रेरणास्रोत हैं और जिनके बारे में अधिक से अधिक जानने की हमारी लालसा न कभी खत्म हुई है और न ही होगी. इन शख्सियतों में सत्यजित रे, गंगा बाबू,, बेगम अख्तर, सिद्धेश्वरी देवी, भीम सेन जोशी, अमृत लाल नागर, मैत्रेयि देवी, बनारसी दास चतुर्वेदी, शरद जोशी सभी शामिल हैं.
माणिक दा यानी सत्यजित रे शिवानी के बड़े भाई के मित्र थे और शांतिनिकेतन आश्रम के सहपाठी भी. आश्रम में घटी एक घटना की याद करते हुए शिवानी “झरोखा” पुस्तक में लिखती हैं –“देखने में चुपचाप सत्यजित अक्सर जुटने पर हम छात्राओं को अपनी पेनी कलम के प्रहार से आहत करने से नहीं चूकता. एक नाटक में मुस्लिमवेशी नायक बनने पर मैंने अपना अभिनय और प्रभावशाली बनाने के लिया अजवाइन-भरी सिगरेट फूंक आश्रम के स्टेज पर नकली सिगरेटी धूम्र-रेखा उड़ाने का दुस्साहस किया. तालियाँ तो खूब मिली किन्तु दूसरे ही दिन आश्रम की हस्तलिखित पत्रिका में मेरे अभिनय की तीव्र आलोचना हुई- उस मुस्लिम छोकरे ने आश्रम के रंगमंच पर लड़की होने पर भी सिगरेट पीने की धृष्ठता की कैसे?
...और इतने वर्षों बाद मैंने जब स्वयं उस प्रख्यात अपराधी से अपराध उगलवाया तो माणिक दा बड़ी जोर से हँसे –“तो तम्हे पा चल गया था कि मैंने ही लिखा था.”
शिवानी का एक लघु उपन्यास है “कैंजा” जिससे सम्बंधित एक मार्मिक संस्मरण है उनका. एक बार उनके पास मुंबई से एक हितेषी मित्र का पत्र आया कि उनके उपन्यास “कैंजा” को लेकर किसी ने “कर्म” पिक्चर बना ली है. उन्होंने शिवानी को लिखा था-“तुम क्या सोती रहती हो? अविलम्ब कानूनी कदम उठाकर चित्र का प्रदर्शन रुकवादो.”
शिवानी ने इसकी चर्चा माणिक दा से की – दुःख यह होता है कि तस्करी, उस मित्र की सूचनानुसार किसी बांग्ला लेखक ने की है –बंगाल से मुझे यह उम्मीद नहीं थी.
माणिक दा का जवाब था-“अब बंगाल भी बदल गया है. तुम कुछ कर नहीं पाओगी-फिल्म जगत में तस्करी भी पेशेवर अंदाज से की जाती है.
(कैंजा के साथ हुई इस दुर्घटना के सन्दर्भ में मुझे लेखक-कथाकार ओंकार शरद के एक उपन्यास के कोपीराईट भंग की घटना याद आ रही है जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी कृति “व्यक्तिगत” में किया है. हुआ यह है उनके एक उपन्यास “आँचल का आसरा” की पाण्डुलिपि के प्रकाशक ने स्वयं न छाप कर दूसरे प्रकाशक को कुछ रूपये दी कर, छापने के लिए दी दी और न तो लेखक की अनुमति ली और न ही कोई पारिश्रमिक दिया. लेखकों के साथ ऐसी दुर्घटना अक्सर होती रहती है. जहां तक कोपिराइट का प्रश्न है तो एक प्रख्यात लेखक ने तो यहाँ तक कह दिया था कि पाठकों के पास पहुँचने के बाद पुस्तक लेखक की नहीं रह जाती, वह पाठकों की हो जाती है.
-----बहरहाल बात शिवानी की चल रही थी.
शिवानी का कैशोर्य रामपुर और ओरछा (टीकमगढ़) रियासतों में बीता जहाँ सारी-सारी रात संगीत की महफ़िलें जमा करती थीं. ओरछा से जुडी शिवानी की एक संस्मृति देखिये –“मुझे याद है जब ओरछा युवराज राजा बहादुर की सगाई के ज़लसे में गाने के लिए पधारी सिद्धेश्वरी मेघ राग गा रही थीं और समां बंध ही रहा था कि कुछ पेशेदार आपस में फुसफुसाने लगे. उन्होंने चट गाना रोक दिया. चेहरा तमतमा उठा और उठने को तत्पर हो कर गरजीं. “अन्नदाता, पहले सुनने वाले तैयार कर लीजिए, तब सुनाने वालों को बुलाइए.” आखिर स्वयं महाराज वीरसिंह जू देव ने बड़े मान मनुहार से उन्हें मनाकर रोका और एक ही गरज में सचमुच सुनने वाले सुनना सीख गए.”
पंडित भीमसेन जोशी और उनकी पत्नी वत्सला जी के साथ विताये क्षणों की स्मृतियाँ तो, लगता है, शिवानी की अमूल्य निधि रही हैं. शिवानी खाने के बाद ज़र्दे का सेवन किया करती थीं. एक बार पंडितजी ने शिवानी को अपने ज़र्दे का कमाल दिखाया और बोले-“लीजिए यह चख कर देखिए!”
शिवानी ने जैसे ही चुटकी मुंह में भरी तो तम्बाकू का स्वाद पूरे देसी तमंचे के बारूद जैसा लगा. थूकें तो थूंके कहाँ? कंठ में ही नीलकंठ बन कर घुटक लिया और ब्रह्माण्ड की परिक्रमा कर ली. सोचा, इस एटमिक चुटकी के बाद पंडित जी गा कैसे पाते हैं?
“क्यों कैसे लगा?” पंडित जी ने पूछा.
शिवानी के मुंह से बस इतना ही निकला-“जो खायेगा, सोई परम पद पायेगा.”
नागरजी से शिवानी का सम्बन्ध बहुत ही आत्मीय और भावुकतापूर्ण रहा. शिवानी के पति जब दिवंगत हुए तो नागर जी ने उन्हें ढांढस बंधाया – “देखो गौरा बेन, मनुष्य दो तरह से जीता है, एक घुल कर, एक तप कर. हम नहीं चाहते तुम घुल कर जियो, तुम्हे तप कर जीना है, खूब लिखो और उसी स्याही में अपना दुःख मिलादो. यह भी एक विडंबना ही है कि जब स्वयं नागरजी की पत्नी का देहांत हुआ तो वे विह्वलता में शिवानी से बोल उठे-“बेन, ह वे हूँ नही लिख शकूं.”
शोक की उस कठिन घड़ी में शिवानी को ही उन्हें याद दिलाना पड़ा, आप? “आप यह क्या कह रहे हैं. भूल गए, आपने मुझसे क्या कहा था?
शिवानी “गौरा” से शिवानी कैसे हुई इसका खुलासा दुर्गा प्रसाद नौटियाल (खेद है कि ...नौटियालजी जो मेरे घनिष्ठ मित्र थे, भी अब दिवंगत हो चुके हैं) को दिए गए एक साक्षात्कार में मिलता है-“ मेरा नाम वैसे गौरा है. मैंने धर्मयुग में १९५१ में एक छोटी कहानी –“में मुर्गा हूँ” लिखी थी. उसमे शिवानी नाम दिया था. बांगला में “गौरा” नहीं होता गुरुदेव भी मुझे “गोरा” कहकर पुकारते थे. वहाँ सभीई मुझे टोकते थे कि “गोरा” नाम तो लड़कों का होता है. बांगला की एक पत्रिका थी “सोनार बांगला”. उसमे भी मैंने “मरीचिका” नामक एक कहानी लिखी थी. लेकिन नाम उसमे गौरा ही छपा था. गौरा नाम छोड़कर साहित्यिक नाम शिवानी रखने के पीछे और कोई विशेष कारण नहीं है.
इसी साक्षात्कार में शिवानी ने अपने लेखन के बारे में और भी कई ऐसी बातें कहीं जो अब किसी दस्तावेज से कम नहीं. उदाहरणतः –“मैंने अपने अधिसंख्य चरित्र वास्तविक जीवन से लिए हैं और सुने-सुनाये चरित्रों पर कभी कलम नहीं चलाई...”भैरवी में मैंने अघोरी साधू का सच्चा वर्णन किया है. मेरी पहली रचना तब छपी जब मैं बारह वर्ष की थी...आलोचकों को मैं कभी महत्त्व नहीं देती..उन्होंने मेरे साथ न्याय नहीं किया...मैं शब्दकोष खोलकर नहीं लिखती. जो भाषा बोलती हूँ, वैसे ही लिखती हूँ. उसे बदल नहीं सकती...कृष्णकली मेरी सबसे अधिक चर्चित कृति रही है...फिर भी यदि आप मेरी प्रिय रचना कहकर मुझसे जानना चाहते हैं तो मैं यात्रा-वृत्तान्त “चरैवैती” का नाम लूंगी. इसमें भारत से मोस्को तक की यात्रा का विवरण है. मेरी प्रिय रचना यही है...मैं नहीं मानती कि कोई किसी घटना से प्रभावित हो कर लेखक बन सकता है. उदाहरण के लिए किसी प्रियजन की मृत्यु से दुखी हो कर कोई सन्यासी तो बन सकता है, किन्तु लेखक नहीं बन सकता.
शिवानी आज हमारे बीच नहीं हैं और उनका स्मरण मैं उन्ही के संस्मरणों से कर रहा हूँ. इसमें कुछ बुरा भी नहीं, शिवानी की संस्मृतिया निस्संदेह उनकी अपनी हैं और उनमे मेरा कहने को कुछ नहीं. पर उन्हें पढकर जो आनंद मुझे मिला है उसे तो कम से कम मैं अपने सहृदय पाठकों तक पहुंचा ही सकता हूँ. और जहाँ तक इन संस्मरणों की सराहना का प्रश्न है तो शिवानी के एक संस्मरण को पढकर तो हिंदी के परम विद्वान गंगा बाबू भी अभिभूत हो गए थे और उन्होंने शिवानी को लिखा था-“संस्मरण ऐसा हो कि जिसे कभी देखा भी न हो, उसकी साक्षात् छवि ही सामने आ जाये, उसका क्रोध, उसकी परिहास रसिकता, उसकी दयालुता, उसकी गरिमा, उसकी दुर्बलता सब कुछ सशक्त लेखनी आंकती चली जाए, वही उसकी सच्ची तस्वीर है. वही सफल संस्मरण है.
ज़ाहिर है कि शिवानी ने अपनी संस्मृतियों में इन सभी बातों का भरसक निबाह किया.
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Monday, May 23, 2011
नानी की चिठ्ठियाँ -५
मेरे प्यारे चम्पू, पप्पू, टीटू, नीटू, गोलू, भोलू, किट्टी, बिट्टी ,
चिंकी, पिंकी, लीला, शीला, लवली, बबली
खुश रहो, स्वस्थ रहो और जुग-जुग जियो.
कहते हैं, खुशी एक ऐसी दौलत है जो जितनी बांटो, उतनी ही बढती है. ऐसा कह कर मैं तुम्हे कोई उपदेश नहीं दे रही. बस, एक वाकये को शेयर कर रही हूँ जो पिंकी ने अपनी चिठ्ठी में मुझे लिख भेजा है.
दरअसल पिछले पांच सितम्बर को पिंकी के स्कूल में एक फंक्शन था. अब तुम तो जानते हो, पांच सितम्बर को सभी स्कूलों में शिक्षक दिवस मनाया जाता है. तो पिंकी के स्कूल में भी कुछ इसी तरह था. उस फंक्शन में उसके स्कूल में एक डॉक्युमेंटरी फिल्म भी दिखाई गई ; "चिल्ड्रन फुल ऑफ लाइफ". पिंकी लिखती है कि इस डॉक्युमेंटरी फिल्म में चौथी कक्षा को पढाने वाले एक ऐसे जापानी शक्षक की कहानी है जो बच्चों कि जिंदगी संवारने के लिए पूरी समर्पित है. शिक्षक का नाम है - तोशीरो कनामोरी जो टोक्यो के उत्तर-पश्चिम में बसे कंजावा के एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाते हैं.
तोशीरो अपने शिष्यों से कहते हैं कि व न केवल अच्छे विद्यार्थी बनें बल्कि अपने जीवन को भी पूरी तरह से जियें. क्योंकि ऐसी शिक्षा किसी काम की नहीं जो उनके जीवन में काम न आए. इसके लिए तोशीरो एक प्रयोग करते हैं. वे अपनी कक्षा के बच्चों से कहते हैं कि वे अपने या दूसरों के बारे में जो कुछ भी सोचते हों, उसे वे एक चिठ्ठी में लिख कर पूरी कक्षा के सामने जोर से पढ़ कर सुनाएं. इससे होगा यह कि बच्चों को एक दूसरे के बारे में जानने का ज्यादा मौक़ा मिलेगा और इस तरह न केवल वे अपने विचारों को खुल कर प्रकट कर सकेंगे बल्कि एक दुसरे के दुःख-सुख में शामिल होने के लिए भी तैयार हो सकेंगे.
अब होता क्या है कि आज की दुनिया में हर आदमी सिर्फ अपने बारे में सोचता है और दूसरों की परवाह ही नहीं करता है. भला ऐसे काम चलता है क्या? इकल्खोर बन कर ही जिंदगी को जी लिया जाता तो समाज की रचना ही क्यों होती? फिर तुम लोग जिसे "टीम स्पिरिट" कहते हो वह तो कहीं भी नज़र नहीं आती. तो तोशीरो इसी "टीम स्पिरिट" को शिक्षा के ज़रिये अपनी कक्षा के बच्चों में जगाने की कोशिश करते हैं.
पिंकी ने लिखा है - " नानी तुम तो स्वयं एक शिक्षिका रही हो और शिक्षा के महत्त्व को समझती हो, इसलिए तोशीरो कनामोरी के काम को भी मन से सराहती होगी? तो मेरे नन्हे-मुन्नो, अच्छे काम को भला कौन नहीं सराहता? वो कहते हैं न, कर भला हो भला. अब तुम कहोगे कि नानी ने फिर एक कहावत चिपका दी. तो इसके जवाब में मैं इतना ही कहूँगी कि वह नानी ही क्या जिसके पास किस्से-कहानियों या मुहावरों-कहावतों के टोटे हों.
येल्लो, बातों-बातों में पिंकी की एक बात बताना तो भूल ही गई. वह बात यह है कि अगर तुम इस डॉक्यूमेंट्री फिल्म यानी "चिल्ड्रेन फुल ऑफ लाइफ" को देखना चाहो तो डब्ल्यू.डब्ल्यू.डब्ल्यू.यूट्यूब.कोम पर जब चाहे देख सकते हो मुफ्त में.
तो अब तुम यह फिल्म देखो और मुझे छुट्टी दो रात भर के लिए. शुभ-रात्रि .
तुम्हारी अपनी नानी.
चिंकी, पिंकी, लीला, शीला, लवली, बबली
खुश रहो, स्वस्थ रहो और जुग-जुग जियो.
कहते हैं, खुशी एक ऐसी दौलत है जो जितनी बांटो, उतनी ही बढती है. ऐसा कह कर मैं तुम्हे कोई उपदेश नहीं दे रही. बस, एक वाकये को शेयर कर रही हूँ जो पिंकी ने अपनी चिठ्ठी में मुझे लिख भेजा है.
दरअसल पिछले पांच सितम्बर को पिंकी के स्कूल में एक फंक्शन था. अब तुम तो जानते हो, पांच सितम्बर को सभी स्कूलों में शिक्षक दिवस मनाया जाता है. तो पिंकी के स्कूल में भी कुछ इसी तरह था. उस फंक्शन में उसके स्कूल में एक डॉक्युमेंटरी फिल्म भी दिखाई गई ; "चिल्ड्रन फुल ऑफ लाइफ". पिंकी लिखती है कि इस डॉक्युमेंटरी फिल्म में चौथी कक्षा को पढाने वाले एक ऐसे जापानी शक्षक की कहानी है जो बच्चों कि जिंदगी संवारने के लिए पूरी समर्पित है. शिक्षक का नाम है - तोशीरो कनामोरी जो टोक्यो के उत्तर-पश्चिम में बसे कंजावा के एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाते हैं.
तोशीरो अपने शिष्यों से कहते हैं कि व न केवल अच्छे विद्यार्थी बनें बल्कि अपने जीवन को भी पूरी तरह से जियें. क्योंकि ऐसी शिक्षा किसी काम की नहीं जो उनके जीवन में काम न आए. इसके लिए तोशीरो एक प्रयोग करते हैं. वे अपनी कक्षा के बच्चों से कहते हैं कि वे अपने या दूसरों के बारे में जो कुछ भी सोचते हों, उसे वे एक चिठ्ठी में लिख कर पूरी कक्षा के सामने जोर से पढ़ कर सुनाएं. इससे होगा यह कि बच्चों को एक दूसरे के बारे में जानने का ज्यादा मौक़ा मिलेगा और इस तरह न केवल वे अपने विचारों को खुल कर प्रकट कर सकेंगे बल्कि एक दुसरे के दुःख-सुख में शामिल होने के लिए भी तैयार हो सकेंगे.
अब होता क्या है कि आज की दुनिया में हर आदमी सिर्फ अपने बारे में सोचता है और दूसरों की परवाह ही नहीं करता है. भला ऐसे काम चलता है क्या? इकल्खोर बन कर ही जिंदगी को जी लिया जाता तो समाज की रचना ही क्यों होती? फिर तुम लोग जिसे "टीम स्पिरिट" कहते हो वह तो कहीं भी नज़र नहीं आती. तो तोशीरो इसी "टीम स्पिरिट" को शिक्षा के ज़रिये अपनी कक्षा के बच्चों में जगाने की कोशिश करते हैं.
पिंकी ने लिखा है - " नानी तुम तो स्वयं एक शिक्षिका रही हो और शिक्षा के महत्त्व को समझती हो, इसलिए तोशीरो कनामोरी के काम को भी मन से सराहती होगी? तो मेरे नन्हे-मुन्नो, अच्छे काम को भला कौन नहीं सराहता? वो कहते हैं न, कर भला हो भला. अब तुम कहोगे कि नानी ने फिर एक कहावत चिपका दी. तो इसके जवाब में मैं इतना ही कहूँगी कि वह नानी ही क्या जिसके पास किस्से-कहानियों या मुहावरों-कहावतों के टोटे हों.
येल्लो, बातों-बातों में पिंकी की एक बात बताना तो भूल ही गई. वह बात यह है कि अगर तुम इस डॉक्यूमेंट्री फिल्म यानी "चिल्ड्रेन फुल ऑफ लाइफ" को देखना चाहो तो डब्ल्यू.डब्ल्यू.डब्ल्यू.यूट्यूब.कोम पर जब चाहे देख सकते हो मुफ्त में.
तो अब तुम यह फिल्म देखो और मुझे छुट्टी दो रात भर के लिए. शुभ-रात्रि .
तुम्हारी अपनी नानी.
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Sunday, May 22, 2011
नानी की चिठ्ठियाँ -४
मेरे प्यारे चम्पू, पप्पू, टीटू, नीटू, गोलू, भोलू, किट्टी, बीतती,
चिंकी, पिंकी, लीला, शीला, लवली, बबली
खुश रहो, स्वस्थ रहो और जुग-जुग जियो.
आज बबली के फोन से पता चला कि वह अपने स्कूल के साथियों के साथ दस दिनों का असाम टुअर लगा कर लौटी है. बड़ी खुश लग रही थी. न जाने कितनी बातें बता रही थी असाम के बारे में. ब्रह्मपुत्र का विशाल सौंदर्य, चाय बागानों की हरीतिमा, महा भैरव और भैरवी के मंदिर, नामेरी और काजीरंगा, नेशनल पार्क, ओरांग सेंक्चुअरी आदि...आदि.
भई, असाम की खूबसूरती है ही प्रशंसा की चीज. और असाम ही क्या अपना तो पूरा देश ही खूबसूरत है. पर असाम की बात चली है तो असाम की एक और मशहूर चीज बताती हूँ तुमको.
जानती हो क्या?
अरे, चाय नहीं शैतानों, मिर्ची.
तेजपुर की मिर्ची. नाम है भूत्जोलकिया.
तुम सोच रहे होगे, वाह, क्या नाम है भूत्जोलकिया. पर मेरे नन्हे-मुन्नो, इसी भूत्जोलकिया ने मेक्सिको की हॉट-हॉट मिर्ची "रेड सेविना हवानेरो" को टक्कर दे कर संसार में धूम मचा दी है.
अच्छा एक बात बताओ, मिर्ची में ऐसा क्या है जो जीभ पर रखी नहीं की सी-सी करता हुआ आदमी नाचने लगता है.
अच्छा चलो, मैं ही बताती हूँ. मिर्ची के अंदर बीजों से भरा जो सफ़ेद-सा धागा या टिशु होता है वही तो होता है सारे फसाद की जड़.
सबसे तेज, सबसे गर्म.
इस गर्म मिजाज़ मिर्ची का असर क्या होता है इसका एक और उदाहरण देती हूँ. छोटे बच्चों को जब किसी की नज़र लग जाती है तो घर में बड़ी-बूढ़ीं जिनमे माँ, नानी, दादी, बुआ कोई भी हो सकती है, पता है क्या करती हैं? शनिवार या इतवार को लाल मिर्ची जलाकर उनकी नज़र उतारती हैं. कहते हैं कि मिर्ची जलने की जितनी ज्यादा महक फैलती है उतनी ही जल्दी बच्चे की नज़र उतर जाती है. ऐसे टोटके तुम्हे आज के ज़माने में बेवकूफी भरे लगते होंगे पर हमारे सामाँजिक जीवन में इनकी अच्छी खासी घुसपैठ है. चलो, यह तो हुई टोटके की बात पर अब इसी तरह की एक वैज्ञानिक कोशिश का उदाहरण देती हूँ तुम्हे . और वह भी असाम का है.
किस्सा यूँ है की असाम में किसानो को अपने खेतों में जानवरों ,खासकर हाथियों के झुण्ड के घुस आने से काफी नुक्सान उठाना पड़ता था तो वहाँ के वैज्ञानिकों ने इस घुसपैठ को रोकने का ऐसा तरीका खोज निकाला जिसे सुन कर तुम्हे आश्चर्य होगा. उन्होंने असाम की इसी गर्म मिजाज़ मिर्ची भूत्जोल्किया को जला कर उसका धुआं फैलाना शुरू किया. बस, किसानों के लिए यही तेज धुआं सुरक्षा दीवार की तरह साबित हुआ. इस धुएं की वजह से हाथियों की घुसपैठ बिलकुल बंद हो गई. मज़े की बात यह है कि यह खबर जब साउथ अफ्रीका पहुंची तो वहाँ भी इस तरीके को सफलता पूर्वक इस्तेमाल किया गया. अब असाम की यही गर्म मिजाज़ मिर्ची भारतीय सीमा को लांघ कर अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुकी है.
तो बबली बेटी, असाम की खूबसूरत चीजों में इस गर्म मिजाज़ मिर्ची का नाम जोड़ना मत भूलना. और सुन, तेरी लवली बहन किस्सा कहानी की फर्माइश कर रही है तो उससे कहना, " बेटा, वैसे तो मेरी हर चिठ्ठी में एक किस्सा होता है पर चलो अगली चिठ्ठी में कोई अच्छी-सी कहानी भी सुनाऊंगी. पर अभी तो इस नानी की आँखें नींद से भारी हो रही हैं. इसलिए तब तक के लिए शुभ-रात्रि.
तुम्हारी अपनी नानी.
चिंकी, पिंकी, लीला, शीला, लवली, बबली
खुश रहो, स्वस्थ रहो और जुग-जुग जियो.
आज बबली के फोन से पता चला कि वह अपने स्कूल के साथियों के साथ दस दिनों का असाम टुअर लगा कर लौटी है. बड़ी खुश लग रही थी. न जाने कितनी बातें बता रही थी असाम के बारे में. ब्रह्मपुत्र का विशाल सौंदर्य, चाय बागानों की हरीतिमा, महा भैरव और भैरवी के मंदिर, नामेरी और काजीरंगा, नेशनल पार्क, ओरांग सेंक्चुअरी आदि...आदि.
भई, असाम की खूबसूरती है ही प्रशंसा की चीज. और असाम ही क्या अपना तो पूरा देश ही खूबसूरत है. पर असाम की बात चली है तो असाम की एक और मशहूर चीज बताती हूँ तुमको.
जानती हो क्या?
अरे, चाय नहीं शैतानों, मिर्ची.
तेजपुर की मिर्ची. नाम है भूत्जोलकिया.
तुम सोच रहे होगे, वाह, क्या नाम है भूत्जोलकिया. पर मेरे नन्हे-मुन्नो, इसी भूत्जोलकिया ने मेक्सिको की हॉट-हॉट मिर्ची "रेड सेविना हवानेरो" को टक्कर दे कर संसार में धूम मचा दी है.
अच्छा एक बात बताओ, मिर्ची में ऐसा क्या है जो जीभ पर रखी नहीं की सी-सी करता हुआ आदमी नाचने लगता है.
अच्छा चलो, मैं ही बताती हूँ. मिर्ची के अंदर बीजों से भरा जो सफ़ेद-सा धागा या टिशु होता है वही तो होता है सारे फसाद की जड़.
सबसे तेज, सबसे गर्म.
इस गर्म मिजाज़ मिर्ची का असर क्या होता है इसका एक और उदाहरण देती हूँ. छोटे बच्चों को जब किसी की नज़र लग जाती है तो घर में बड़ी-बूढ़ीं जिनमे माँ, नानी, दादी, बुआ कोई भी हो सकती है, पता है क्या करती हैं? शनिवार या इतवार को लाल मिर्ची जलाकर उनकी नज़र उतारती हैं. कहते हैं कि मिर्ची जलने की जितनी ज्यादा महक फैलती है उतनी ही जल्दी बच्चे की नज़र उतर जाती है. ऐसे टोटके तुम्हे आज के ज़माने में बेवकूफी भरे लगते होंगे पर हमारे सामाँजिक जीवन में इनकी अच्छी खासी घुसपैठ है. चलो, यह तो हुई टोटके की बात पर अब इसी तरह की एक वैज्ञानिक कोशिश का उदाहरण देती हूँ तुम्हे . और वह भी असाम का है.
किस्सा यूँ है की असाम में किसानो को अपने खेतों में जानवरों ,खासकर हाथियों के झुण्ड के घुस आने से काफी नुक्सान उठाना पड़ता था तो वहाँ के वैज्ञानिकों ने इस घुसपैठ को रोकने का ऐसा तरीका खोज निकाला जिसे सुन कर तुम्हे आश्चर्य होगा. उन्होंने असाम की इसी गर्म मिजाज़ मिर्ची भूत्जोल्किया को जला कर उसका धुआं फैलाना शुरू किया. बस, किसानों के लिए यही तेज धुआं सुरक्षा दीवार की तरह साबित हुआ. इस धुएं की वजह से हाथियों की घुसपैठ बिलकुल बंद हो गई. मज़े की बात यह है कि यह खबर जब साउथ अफ्रीका पहुंची तो वहाँ भी इस तरीके को सफलता पूर्वक इस्तेमाल किया गया. अब असाम की यही गर्म मिजाज़ मिर्ची भारतीय सीमा को लांघ कर अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुकी है.
तो बबली बेटी, असाम की खूबसूरत चीजों में इस गर्म मिजाज़ मिर्ची का नाम जोड़ना मत भूलना. और सुन, तेरी लवली बहन किस्सा कहानी की फर्माइश कर रही है तो उससे कहना, " बेटा, वैसे तो मेरी हर चिठ्ठी में एक किस्सा होता है पर चलो अगली चिठ्ठी में कोई अच्छी-सी कहानी भी सुनाऊंगी. पर अभी तो इस नानी की आँखें नींद से भारी हो रही हैं. इसलिए तब तक के लिए शुभ-रात्रि.
तुम्हारी अपनी नानी.
स्त्रियाँ - मेरी चार कविताएँ
युद्ध
कपूर की गंध की तरह
उड़ जाने वाली
महीने भर की तनख्वाह
पत्नी को पकडाते ही
आप हो जाते हैं मुक्त
और पत्नी के लिए
शुरू होता है
एक न जीता जाने वाला
मानसिक युद्ध.
उँगलियों पर लगाती है वह हिसाब
कितने दिन दूध नहीं दिया दूध वाले ने
कितने दिन अखबार नहीं आया महीने में
कितना बचाना है हारी-बीमारी को
कहाँ-कहाँ मारनी हैं मन की इच्छाएं
कहाँ-कहाँ देने हैं झूठे दिलासे
कहाँ-कहाँ खोलनी है
बंधी हुई मुठ्ठी
कहाँ कहाँ पीनी है
अपमान की घुट्टी.
निरापद सी जगह
दिन भर की मेहनत-मशक्कत
के बाद
थोड़ी सी फुर्सत निकाल
वह बैठ जाती है
बीस साल पुरानीं अलमारी खोल कर
सधे हुए हाथों से कई-कई बार
सँभालती है फिर
वही गिनी-चुनी साड़ियां,
जतन से छुपा कर रखे गए
दो तीन प्रेम पत्र,
चोरी गए आभूषणों का
खाली पड़ा मखमली डिब्बा,
कुल देवता की पूजी हुई
चाँदी की टिकुली,
विवाह के समय खींचा गया
इकलौता श्वेत-श्याम चित्र,
मुडी-तुड़ी कोने में पड़ी
बीमार डिग्री.
अन्पूरे सपनों को छूने के लिए
एक निरापद सी जगह
शायद यहीं मिलती है उसे
कभी-कभी.
चीजों के बीच में
भरे-पूरे घर में
हर चीज अपनी जगह पर
उपस्थित थी
टी वी की जगह टी वी
सोफा की जगह सोफा
पर्दों की जगह परदे
चिंताओं की जगह चिंताएं
दुखों की जगह दुःख
इन ढेर सारी
चीजों के बीच
पता नहीं
कहाँ थे गुम
हम---और---तुम.
स्त्रियों को पता होता है
स्त्रियों को पता होता है
अखबार पढ़े बिना
आटे-दाल का भाव
आखिर घर चलाती हैं वे.
स्त्रियों को पता होता है
पुरुषों की जेब में
कहाँ-कहाँ धन है
और कहाँ-कहाँ ऋण.
स्त्रियों को पता होता है
कितना कुछ बोला जा सकता है
चुप्पी के माध्यम से.
स्त्रियां
अब भी
एक अनवरत खोज हैं
पुरुषों के लिए.
-----
कपूर की गंध की तरह
उड़ जाने वाली
महीने भर की तनख्वाह
पत्नी को पकडाते ही
आप हो जाते हैं मुक्त
और पत्नी के लिए
शुरू होता है
एक न जीता जाने वाला
मानसिक युद्ध.
उँगलियों पर लगाती है वह हिसाब
कितने दिन दूध नहीं दिया दूध वाले ने
कितने दिन अखबार नहीं आया महीने में
कितना बचाना है हारी-बीमारी को
कहाँ-कहाँ मारनी हैं मन की इच्छाएं
कहाँ-कहाँ देने हैं झूठे दिलासे
कहाँ-कहाँ खोलनी है
बंधी हुई मुठ्ठी
कहाँ कहाँ पीनी है
अपमान की घुट्टी.
निरापद सी जगह
दिन भर की मेहनत-मशक्कत
के बाद
थोड़ी सी फुर्सत निकाल
वह बैठ जाती है
बीस साल पुरानीं अलमारी खोल कर
सधे हुए हाथों से कई-कई बार
सँभालती है फिर
वही गिनी-चुनी साड़ियां,
जतन से छुपा कर रखे गए
दो तीन प्रेम पत्र,
चोरी गए आभूषणों का
खाली पड़ा मखमली डिब्बा,
कुल देवता की पूजी हुई
चाँदी की टिकुली,
विवाह के समय खींचा गया
इकलौता श्वेत-श्याम चित्र,
मुडी-तुड़ी कोने में पड़ी
बीमार डिग्री.
अन्पूरे सपनों को छूने के लिए
एक निरापद सी जगह
शायद यहीं मिलती है उसे
कभी-कभी.
चीजों के बीच में
भरे-पूरे घर में
हर चीज अपनी जगह पर
उपस्थित थी
टी वी की जगह टी वी
सोफा की जगह सोफा
पर्दों की जगह परदे
चिंताओं की जगह चिंताएं
दुखों की जगह दुःख
इन ढेर सारी
चीजों के बीच
पता नहीं
कहाँ थे गुम
हम---और---तुम.
स्त्रियों को पता होता है
स्त्रियों को पता होता है
अखबार पढ़े बिना
आटे-दाल का भाव
आखिर घर चलाती हैं वे.
स्त्रियों को पता होता है
पुरुषों की जेब में
कहाँ-कहाँ धन है
और कहाँ-कहाँ ऋण.
स्त्रियों को पता होता है
कितना कुछ बोला जा सकता है
चुप्पी के माध्यम से.
स्त्रियां
अब भी
एक अनवरत खोज हैं
पुरुषों के लिए.
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बाल गीत - चक्की चले
चक-चक चकर-चक चक्की चले,
हो रामा! हो रामा! हो रामा!
भोर से उठ माँ रामधुन गाए,
ठस हाथ उस हाथ पाट घुमाए,
पाट जो घूमे तो धरती ‘हले’,
हो रामा! हो रामा! हो रामा!
पंछी को दाना, ढोरों को सानी,
चिंता जगत की माँ में समानी,
माँ, तेरे दम से गिरस्थी चले,
हो रामा! हो रामा! हो रामा!
हो रामा! हो रामा! हो रामा!
भोर से उठ माँ रामधुन गाए,
ठस हाथ उस हाथ पाट घुमाए,
पाट जो घूमे तो धरती ‘हले’,
हो रामा! हो रामा! हो रामा!
पंछी को दाना, ढोरों को सानी,
चिंता जगत की माँ में समानी,
माँ, तेरे दम से गिरस्थी चले,
हो रामा! हो रामा! हो रामा!
बाल गीत - अम्माँ की रसोई में
हल्दी दहके, धनिया महके,
अम्माँ की रसोई में ।
आन बिराजे हैं पंचायत में
राई और जीरा ।
पता चले न यहाँ किसी को
राजा कौन फकीरा ।
सिंहासन हैं ऊँचे सबके
अम्माँ की रसोई में ।
आटा-बेसन, चकला-बेलन,
घूम रहे हैं बतियाते ।
राग-रसोई बने प्यार से
ही अच्छी, ये समझाते ।
रूखी-सूखी से रस टपके
अम्माँ की रसोई में ।
थाली, कड़छी और कटोरी,
को सूझी है मस्ती।
छेड़ रही है गर्म तवे को
दूर-दूर हँसती-हँसती।
दिखलाती हैं लटके-झटके
अम्माँ की रसोई में।
अम्माँ की रसोई में ।
आन बिराजे हैं पंचायत में
राई और जीरा ।
पता चले न यहाँ किसी को
राजा कौन फकीरा ।
सिंहासन हैं ऊँचे सबके
अम्माँ की रसोई में ।
आटा-बेसन, चकला-बेलन,
घूम रहे हैं बतियाते ।
राग-रसोई बने प्यार से
ही अच्छी, ये समझाते ।
रूखी-सूखी से रस टपके
अम्माँ की रसोई में ।
थाली, कड़छी और कटोरी,
को सूझी है मस्ती।
छेड़ रही है गर्म तवे को
दूर-दूर हँसती-हँसती।
दिखलाती हैं लटके-झटके
अम्माँ की रसोई में।
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महाश्वेता क्या लिखती हैं
महाश्वेवता
गल्प नहीं लिखतीं ।
महाश्वेता रचती हैं
आदिम समाज की करुणा का महासंगीत ।
वृक्षों की,
वनचरों की,
लोक की चिंताओं का अलापती हैं राग ।
महाश्वेवता की अनुभूतियाँ
जब ग्रहण करती हैं आकार
वृक्षों का कंपन,
वनचरों का नर्तन,
लोक का वंदन
सब कुछ समाहित होता चलता है
उनकी रचनाओं में ।
महाश्वेता नहीं बाँचती अपनी प्रशस्तियों
या अपने दुःखों के अतिरंजित अध्याय,
वे घूमती हैं अरण्यों के बीच...
निःशंक,
प्रकाशपुँज की तरह,
जगाती हैं प्रतिरोध की शक्ति
निर्बल, असहाय, आकुल मनों में ।
देती हैं आर्त्तजनों को आश्रय
घोर हताशा के क्षणों में ।
महाश्वेता
अपने समय की सच्चाई को
मिथकों में ढाल कर
जोड़ती हैं स्मृतियों से,
परंपराओं से,
पुराकथाओं से ।
द्रोपदी मझेन,दूलन गंजू,
चण्डी वायेन, श्रीपद लाल,
जटी ठकुराइन
नहीं हैं महाश्वेता की कल्पना के पात्र,
हाड-मांस वाले जीते जागे चरित्र हैं वे
इसी चराचर जगत के ।
महाश्वेता का लिखा,
महाश्वेता का कहा,
महाश्वेता का जिया
हर शब्द...
हर कर्म...
सत्ता के अनाचार से सीधा टकराता है ।
वह लोक-रंजन का नहीं,
लोक-चिंतन का रास्ता दिखाता है ।
गल्प नहीं लिखतीं ।
महाश्वेता रचती हैं
आदिम समाज की करुणा का महासंगीत ।
वृक्षों की,
वनचरों की,
लोक की चिंताओं का अलापती हैं राग ।
महाश्वेवता की अनुभूतियाँ
जब ग्रहण करती हैं आकार
वृक्षों का कंपन,
वनचरों का नर्तन,
लोक का वंदन
सब कुछ समाहित होता चलता है
उनकी रचनाओं में ।
महाश्वेता नहीं बाँचती अपनी प्रशस्तियों
या अपने दुःखों के अतिरंजित अध्याय,
वे घूमती हैं अरण्यों के बीच...
निःशंक,
प्रकाशपुँज की तरह,
जगाती हैं प्रतिरोध की शक्ति
निर्बल, असहाय, आकुल मनों में ।
देती हैं आर्त्तजनों को आश्रय
घोर हताशा के क्षणों में ।
महाश्वेता
अपने समय की सच्चाई को
मिथकों में ढाल कर
जोड़ती हैं स्मृतियों से,
परंपराओं से,
पुराकथाओं से ।
द्रोपदी मझेन,दूलन गंजू,
चण्डी वायेन, श्रीपद लाल,
जटी ठकुराइन
नहीं हैं महाश्वेता की कल्पना के पात्र,
हाड-मांस वाले जीते जागे चरित्र हैं वे
इसी चराचर जगत के ।
महाश्वेता का लिखा,
महाश्वेता का कहा,
महाश्वेता का जिया
हर शब्द...
हर कर्म...
सत्ता के अनाचार से सीधा टकराता है ।
वह लोक-रंजन का नहीं,
लोक-चिंतन का रास्ता दिखाता है ।
Saturday, May 21, 2011
लहराती धुनों पर बलखाती नागिनें
राजस्थान की अनेक घुमंतू जनजातियों में से एक जनजाति है - कालबेलिया, जो अपना सम्बन्ध नाथ संप्रदाय से जोडती है. पीढ़ियों से इस जनजाति के लोग साँपों को पकड़ने और उन्हें लोकरंजन के लिए प्रदर्शित करने का व्यवसाय करते आ रहे हैं. पर अब इस व्यवसाय में म्हणत ज्यादा और कमाई कम होने के कारन वे सांपों के खेल की अपेक्षा नाच-गानों पर ज्यादा निर्भर रहने लगे हैं.
इसमें संदेह नहीं की राजस्थान के अन्य लोक नृत्यों (भवई, घूमर, गैर, डांडिया) की तरह कालबेलिया नृत्य ने भी अपनी एक विशेष पहचान बनाई है. गत कुछ दशकों में गलियों-सड़कों की चौहद्दी पार कर पांचसितारा होटलों तक का सफ़र तय कर आई है.
कालबेलियों की नृत्यकला और इस सफ़र के पीछे प्रमुख भूमिका रही है पर्यटन और संस्कृति विभाग की. गुलाबो और मेवा, ये दो नाम ऐसे है हैं जो कालबेलिया नृत्य के लिए ही अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुके हैं. इन्ही में एक नाम और जुदा है पूरण नाथ संपेरा पार्टी का जो विदेश भ्रमण के साथ-साथ देश के हर प्रमुख उत्सव मापने दल सहित उपस्थित रहते हैं. पर इतने सब के बावजूद कालबेलियों के जीवन-स्तर में न तो अपेक्षित सुधार आया है और न ही उनके प्रति सजग मानवीय दृष्टिकोण अपनाया गया है. यदि इसे अतिशयोक्ति न समझा जाए तो कमोबेश रूप से कालबेलिये इस उपभोक्तावादी संस्कृति के शिकार हुए हैं जिसका शिकार अन्य कई लोक-कलाकार होते आये हैं. अपवादों को छोड़ दें तो इस जनजाति के ज़्यादातर परिवार आज भी कच्ची बस्तियों में गंदगी के बीच गुजर-बसर कर रहे हैं और जीवन-यापन की जटिल समस्याएं उन्हें एक जगह से दूसरी जगह भटकने के लिए विवश कर रही हैं.
शहर शहर घूम कर रोजी-रोटी कमाने वाले इन सपेरों के साथ कालबेलिया शब्द किस तरह जुड़ा इसके पीछे एक ही कारण दिखता है. सर्प को "काल" या "मृत्यु" भी कहा गया है और आश्चर्य नहीं की सर्प (काल) को पिटारी में बंदी बना कर रखने वाले ये सपेरे शायद इसीलिए "काल बेडिया" या "काल बलिया" कहलाने लगे हों. नाथ संप्रदाय के गुरु गोरखनाथ को अपना परमपुरुष माने वाला काल्बेलिये राजस्थान के लोक देवता गोगाजी एवं तेजाजी के प्रति भी सामान भक्ति-भाव रखते हैं और उनकी स्मृति में होने वाला हर मेले में उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं.
वस्त्रों में जहाँ कालबेलिया पुरुष जोगियों की तरह भगवे रंग के वस्त्र पहनते हैं और उसी रंग का साफा बांधते हैं, वहीँ उनकी स्त्रियाँ अवसरानुकूल काले, कत्थई एवं गहरे नीले रंग का घाघरा (बूँद), ब्लाउज, और ओढ़नी पहनती हैं. ब्लाउज में कांचली, कांचली के नीचे पहनी जाने वाली पेटी और पेटी के नीचे पहना जाने वाला पूट होता है. भड़कीले परिधानों के अलावा लाख, धातु आदि के आभूषण भी पहने जाते हैं जिनमे पारंपरिक राजस्थानी गहने पणडा, बाली, नसब, बालों, मुरका, हंसुली, कड़ो, मादलिया, झंचरी शामिल है. कालबेलियों द्वारा बजाया जाने वाला प्रमुख वाद्य "पूंगी" है जो बीन की तरह हे फूंक से बजती है. पूंगी से निकलती स्वर लहरियों पर जब कालबेलिया नर्तकियां काली नागिनों की तरह लहराती, बलखाती हु नाचती हैं तो दर्शक मंत्रमुग्ध हो कर रह जाते हैं. नाच की रफ़्तार जैसे-जैसे बढती जाती है वैसे-वैसे उसका आनंद चरमोत्कर्ष पर पहुँचने लगता है.
पूंगी, घिया अथवा तुम्बे की बनी होती है जिसका मुंह लगभग डेढ़ बालिश्त लंबा होता है. उसके नीचे के हिस्से में थोडा सा छेड़ कर दिया जाता है. फिर दो पतले बांस की दो पोरी अर्थात दो भून्गलियाँ ली जाती हैं. इन भून्गलियों में से एक के तीन छेड़ बना देते हैं
और एक के नौ कर देते हैं. फिर उन दोनों को एक दुसरे से मोम से चिपका देते हैं. नल बांस से लेकर दो पात बना लिए जाते हैं. वे दोनों पात उन भून्गलियों के मुंह में बिठा दिए जाते हैं. इनसे आवाज़ पैदा होती है. फिर उन दोनों जुडी हुई भून्ग्लियों को नल बांस सहित उस तुम्बी के छेड़ में मोम की सहायता से जमा दिया जाता है. यह भी नक् सांसी से बजती है. उसमे एक अचल स्वर "सा" के रूप में बजता रहता है. पूंगी पर कालबेलियों द्वारा बजाई जाने वाली पारंपरिक धुनों में "ईडोणी", पणिहारी और "लूर" प्रमुख है. इसके अलावा और भी कई लहरे बजाये जाते हैं. गीत-संगीत और नृत्य के इस संगम में फर्मैशी तौर पर कभी-कभी फ़िल्मी धुनें भी सम्मिलित कर ली जाती हैं.
पारंपरिक लोक गीतों में " पड़ोसन बड़ी चकोर ले गई ईडोणी", सागर पाणी डै नै जाऊं सा हो नज़र लग जाए, मारी सामली हवेली वालो लारे लग जाए,"हालूड़ो हीवे रे दर्जी दो दिन मोड़ो हीवे रे", म्हारी सवा पाव री ईडोणी, म्हारो सवा तार को सूत गमगी ईडोणी, ओ जी ओ मने पाणीडो पोमचियो रंग दे मोरी माय, लूवर रमबा म्हें जास्युं " आदि प्रचलित हैं. पूंगी के अलावा काल्बेलिये खंजरी भी बजाते हैं जो आम की बनी हुई होती है. इसकी चौड़ाई सामन्यता आठ-दस अंगुल की होती है. इसको भी चंग की तरह एक ही तरफ से मढ़ते हैं. घेरे की चौड़ाई चार अंगुल की होती है. इसको दाहिने हाथ से पकड़ते हैं और बाएं हाथ से बजाते हैं. बजने में यह अछि लगती है और दूर से ढोलक जैसी दिखती है.
साँपों के साथ दिन-रात का वास्ता होने के कारण कालबेलिये सांपों के बारे में अच्छी-खासी जानकारी रखते हैं और ज़रुरत पड़ने पर विशेषोपचार की विधियाँ भी जानते हैं पर लोकमानस में फैली सांपों से सम्बंधित कई भ्रांतियों के बारे में वे चुप रहना हीज्यादा उचित समझते हैं. एक तो वे खुद भी अंधविश्वासों की गिरफ्त से नहीं बच सकते हैं और दुसरे इन भ्रांतियों का निराकरण उनके व्यवसाय पर अनुकूल प्रभाव नहीं डालता . यूँ पूरण नाथ संपेरा इस बात से इनकार नहीं करते हैं की सांपों के बाहरी कान नहीं होते हैं और वे केवल ज़मीन में पैदा होने वाली ध्वनि तरंगों को ही ग्रहण करते हैं. सांपों का फेन उठाकर झूमना शायद किसी हिलती चीज को खतरे की निशानी मान कर अपने बचाव एवं जवाबी हमले के लिए तैयार रहने का परिचायक है न की उनके पूंगी के स्वर लहरियों पर नाचने का. फिर भी दर्शकों को इसके वैज्ञानिक विश्लेषण से क्या फर्क पड़ता है? असली बात तो उनका मनोरंजन हिया और यह मनोरंजन सांपों से ज्यादा उनकी स्त्रियाँ अपने नृत्य द्वारा कर रही हैं.
विदेश भ्रमण के दौरान गुलाबो एवं मेवा ने कालबेलिया नृत्य द्वारा थोडा-बहुत धन तो अवश्य कमाया पर उसके बाद भी गरीबी का साया उन पर से नहीं उठा है. विदेश के अनुभव भी उनके ज्यादा अछे नहीं रहे. अंग्रेजी माहोल में वे अपने को कटी-कटी सी महसूस करती रहीं. कहा तो यह भी जाता है की "अपना उत्सव" में गुलाबो को कडुवा अनुभव झेलना पड़ा. उसके अनुसार वहां दर्शक नाच कम देखते थे और भद्दी बातें ज्यादा करते थे. शायद यही कारण है की गुलाबो अपनी बेटी को नाचने का काम सिखान्ने में रूचि नहीं रखती. दर्शकों की भद्दी प्रतिक्रियाओं के अनुभव पूरण नाथ संपेरा एंड पार्टी की नर्तकियों को भी होते रहे हैं पर वे इसे अपने व्यवसाय का ही एक हिस्सा मान कर नज़रअंदाज करती रही हैं.
कालबेलिया कलाकारों की एक विडम्बना यह भी रही है की उनकी कला को बिचोलिओं और दलाल किस्म के व्यक्ति व्यापार के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं. और कमाई का अधिकाँश हिस्सा उनकी जेबों में जाता रहा है.पर्यटन विभाग द्वारा प्रायोजित कार्यक्रमों में यद्यपि उन्हें समय-समय पर शामिल करके प्रोत्साहित किया जाता है पर इन कार्यक्रमों में एक तो लम्बा अंतराल होता है, दुसरे पारिश्रमिक की राशि भी ज्यादा नहीं होते है. इसलिए कालबेलिया कलाकारों का वह सपना जब वे स्वयं को पूर्णकालिक लोक-कलाकार के रूप में स्थापित कर पायेंगे, इतनी जल्दी सच होता नहीं दिखता..
इसमें संदेह नहीं की राजस्थान के अन्य लोक नृत्यों (भवई, घूमर, गैर, डांडिया) की तरह कालबेलिया नृत्य ने भी अपनी एक विशेष पहचान बनाई है. गत कुछ दशकों में गलियों-सड़कों की चौहद्दी पार कर पांचसितारा होटलों तक का सफ़र तय कर आई है.
कालबेलियों की नृत्यकला और इस सफ़र के पीछे प्रमुख भूमिका रही है पर्यटन और संस्कृति विभाग की. गुलाबो और मेवा, ये दो नाम ऐसे है हैं जो कालबेलिया नृत्य के लिए ही अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुके हैं. इन्ही में एक नाम और जुदा है पूरण नाथ संपेरा पार्टी का जो विदेश भ्रमण के साथ-साथ देश के हर प्रमुख उत्सव मापने दल सहित उपस्थित रहते हैं. पर इतने सब के बावजूद कालबेलियों के जीवन-स्तर में न तो अपेक्षित सुधार आया है और न ही उनके प्रति सजग मानवीय दृष्टिकोण अपनाया गया है. यदि इसे अतिशयोक्ति न समझा जाए तो कमोबेश रूप से कालबेलिये इस उपभोक्तावादी संस्कृति के शिकार हुए हैं जिसका शिकार अन्य कई लोक-कलाकार होते आये हैं. अपवादों को छोड़ दें तो इस जनजाति के ज़्यादातर परिवार आज भी कच्ची बस्तियों में गंदगी के बीच गुजर-बसर कर रहे हैं और जीवन-यापन की जटिल समस्याएं उन्हें एक जगह से दूसरी जगह भटकने के लिए विवश कर रही हैं.
शहर शहर घूम कर रोजी-रोटी कमाने वाले इन सपेरों के साथ कालबेलिया शब्द किस तरह जुड़ा इसके पीछे एक ही कारण दिखता है. सर्प को "काल" या "मृत्यु" भी कहा गया है और आश्चर्य नहीं की सर्प (काल) को पिटारी में बंदी बना कर रखने वाले ये सपेरे शायद इसीलिए "काल बेडिया" या "काल बलिया" कहलाने लगे हों. नाथ संप्रदाय के गुरु गोरखनाथ को अपना परमपुरुष माने वाला काल्बेलिये राजस्थान के लोक देवता गोगाजी एवं तेजाजी के प्रति भी सामान भक्ति-भाव रखते हैं और उनकी स्मृति में होने वाला हर मेले में उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं.
वस्त्रों में जहाँ कालबेलिया पुरुष जोगियों की तरह भगवे रंग के वस्त्र पहनते हैं और उसी रंग का साफा बांधते हैं, वहीँ उनकी स्त्रियाँ अवसरानुकूल काले, कत्थई एवं गहरे नीले रंग का घाघरा (बूँद), ब्लाउज, और ओढ़नी पहनती हैं. ब्लाउज में कांचली, कांचली के नीचे पहनी जाने वाली पेटी और पेटी के नीचे पहना जाने वाला पूट होता है. भड़कीले परिधानों के अलावा लाख, धातु आदि के आभूषण भी पहने जाते हैं जिनमे पारंपरिक राजस्थानी गहने पणडा, बाली, नसब, बालों, मुरका, हंसुली, कड़ो, मादलिया, झंचरी शामिल है. कालबेलियों द्वारा बजाया जाने वाला प्रमुख वाद्य "पूंगी" है जो बीन की तरह हे फूंक से बजती है. पूंगी से निकलती स्वर लहरियों पर जब कालबेलिया नर्तकियां काली नागिनों की तरह लहराती, बलखाती हु नाचती हैं तो दर्शक मंत्रमुग्ध हो कर रह जाते हैं. नाच की रफ़्तार जैसे-जैसे बढती जाती है वैसे-वैसे उसका आनंद चरमोत्कर्ष पर पहुँचने लगता है.
पूंगी, घिया अथवा तुम्बे की बनी होती है जिसका मुंह लगभग डेढ़ बालिश्त लंबा होता है. उसके नीचे के हिस्से में थोडा सा छेड़ कर दिया जाता है. फिर दो पतले बांस की दो पोरी अर्थात दो भून्गलियाँ ली जाती हैं. इन भून्गलियों में से एक के तीन छेड़ बना देते हैं
और एक के नौ कर देते हैं. फिर उन दोनों को एक दुसरे से मोम से चिपका देते हैं. नल बांस से लेकर दो पात बना लिए जाते हैं. वे दोनों पात उन भून्गलियों के मुंह में बिठा दिए जाते हैं. इनसे आवाज़ पैदा होती है. फिर उन दोनों जुडी हुई भून्ग्लियों को नल बांस सहित उस तुम्बी के छेड़ में मोम की सहायता से जमा दिया जाता है. यह भी नक् सांसी से बजती है. उसमे एक अचल स्वर "सा" के रूप में बजता रहता है. पूंगी पर कालबेलियों द्वारा बजाई जाने वाली पारंपरिक धुनों में "ईडोणी", पणिहारी और "लूर" प्रमुख है. इसके अलावा और भी कई लहरे बजाये जाते हैं. गीत-संगीत और नृत्य के इस संगम में फर्मैशी तौर पर कभी-कभी फ़िल्मी धुनें भी सम्मिलित कर ली जाती हैं.
पारंपरिक लोक गीतों में " पड़ोसन बड़ी चकोर ले गई ईडोणी", सागर पाणी डै नै जाऊं सा हो नज़र लग जाए, मारी सामली हवेली वालो लारे लग जाए,"हालूड़ो हीवे रे दर्जी दो दिन मोड़ो हीवे रे", म्हारी सवा पाव री ईडोणी, म्हारो सवा तार को सूत गमगी ईडोणी, ओ जी ओ मने पाणीडो पोमचियो रंग दे मोरी माय, लूवर रमबा म्हें जास्युं " आदि प्रचलित हैं. पूंगी के अलावा काल्बेलिये खंजरी भी बजाते हैं जो आम की बनी हुई होती है. इसकी चौड़ाई सामन्यता आठ-दस अंगुल की होती है. इसको भी चंग की तरह एक ही तरफ से मढ़ते हैं. घेरे की चौड़ाई चार अंगुल की होती है. इसको दाहिने हाथ से पकड़ते हैं और बाएं हाथ से बजाते हैं. बजने में यह अछि लगती है और दूर से ढोलक जैसी दिखती है.
साँपों के साथ दिन-रात का वास्ता होने के कारण कालबेलिये सांपों के बारे में अच्छी-खासी जानकारी रखते हैं और ज़रुरत पड़ने पर विशेषोपचार की विधियाँ भी जानते हैं पर लोकमानस में फैली सांपों से सम्बंधित कई भ्रांतियों के बारे में वे चुप रहना हीज्यादा उचित समझते हैं. एक तो वे खुद भी अंधविश्वासों की गिरफ्त से नहीं बच सकते हैं और दुसरे इन भ्रांतियों का निराकरण उनके व्यवसाय पर अनुकूल प्रभाव नहीं डालता . यूँ पूरण नाथ संपेरा इस बात से इनकार नहीं करते हैं की सांपों के बाहरी कान नहीं होते हैं और वे केवल ज़मीन में पैदा होने वाली ध्वनि तरंगों को ही ग्रहण करते हैं. सांपों का फेन उठाकर झूमना शायद किसी हिलती चीज को खतरे की निशानी मान कर अपने बचाव एवं जवाबी हमले के लिए तैयार रहने का परिचायक है न की उनके पूंगी के स्वर लहरियों पर नाचने का. फिर भी दर्शकों को इसके वैज्ञानिक विश्लेषण से क्या फर्क पड़ता है? असली बात तो उनका मनोरंजन हिया और यह मनोरंजन सांपों से ज्यादा उनकी स्त्रियाँ अपने नृत्य द्वारा कर रही हैं.
विदेश भ्रमण के दौरान गुलाबो एवं मेवा ने कालबेलिया नृत्य द्वारा थोडा-बहुत धन तो अवश्य कमाया पर उसके बाद भी गरीबी का साया उन पर से नहीं उठा है. विदेश के अनुभव भी उनके ज्यादा अछे नहीं रहे. अंग्रेजी माहोल में वे अपने को कटी-कटी सी महसूस करती रहीं. कहा तो यह भी जाता है की "अपना उत्सव" में गुलाबो को कडुवा अनुभव झेलना पड़ा. उसके अनुसार वहां दर्शक नाच कम देखते थे और भद्दी बातें ज्यादा करते थे. शायद यही कारण है की गुलाबो अपनी बेटी को नाचने का काम सिखान्ने में रूचि नहीं रखती. दर्शकों की भद्दी प्रतिक्रियाओं के अनुभव पूरण नाथ संपेरा एंड पार्टी की नर्तकियों को भी होते रहे हैं पर वे इसे अपने व्यवसाय का ही एक हिस्सा मान कर नज़रअंदाज करती रही हैं.
कालबेलिया कलाकारों की एक विडम्बना यह भी रही है की उनकी कला को बिचोलिओं और दलाल किस्म के व्यक्ति व्यापार के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं. और कमाई का अधिकाँश हिस्सा उनकी जेबों में जाता रहा है.पर्यटन विभाग द्वारा प्रायोजित कार्यक्रमों में यद्यपि उन्हें समय-समय पर शामिल करके प्रोत्साहित किया जाता है पर इन कार्यक्रमों में एक तो लम्बा अंतराल होता है, दुसरे पारिश्रमिक की राशि भी ज्यादा नहीं होते है. इसलिए कालबेलिया कलाकारों का वह सपना जब वे स्वयं को पूर्णकालिक लोक-कलाकार के रूप में स्थापित कर पायेंगे, इतनी जल्दी सच होता नहीं दिखता..
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एक छतनार बिरछ से झरती कविता सुगंध
(पंजाबी के यशस्वी एवं वरिष्ठ कवि, विद्वान्, आलोचक डॉक्टर हरभजन सिंह की सरस्वती सम्मान से अलंकृत काव्यकृति "रुख ते ऋषि" पर मेरे एक संक्षिप्त आलेख रविवासरीय हिंदुस्तान में काफी समय पहले प्रकाशित हुआ था. अपने इस ब्लॉग पर उसे पुनर्प्रकाशित कर मै डॉक्टर सिंह के प्रति अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा हूँ: )
अनेक शिखर पुरस्कारों से सम्मानित डॉक्टर हरभजन सिंह की कृतियों का पाठक वर्ग पंजाबी से कहीं अधिक इतर भाषाओँ मे उपस्थित है. डॉक्टर सिंह के व्यक्तित्व मे जहाँ परिपक्वता एवं विनम्रता दोनों का मणि-कांचन योग है, वहीँ उनके कृतित्व मे अक्खडपन और फक्कडपन, चिंतन और दर्शन के मिले-जुले तत्व देखे जा सकते हैं. समर्थ आलोचक एवं अनुवादक होने के बावजूद हरभजन सिंह अपने काव्य-कर्म के लिए ज्यादा ख्यात रहे हैं. उनका अनुभव संसार विस्तृत भी है और विविधतापूर्ण भी. जिंदगी के साथ उनकी कविता का रिश्ता मोह का, रौशनी का और असफलता का है. मुकम्मल असफलता के बाद भी वे पहले जैसे और रिश्ते जोड़ने से नहीं कतराते और अपनी गलतियों के नतीजे भोग कर फिर उसी तरह गलतियाँ करने के लिए तैयार रहते हैं. कविता उनके लिए आसमान से उतरी हुई दें नहीं, धरती से उगी सौगात है. उनके शब्दों मे - " पंजाबी कविता विशुद्ध दरवेशों की विरासत है] जिसका पैसे
से कोई सम्बन्ध नहीं.. एथे हाट न चलई न को वणज करे."
उम्र के तीन-चौथाई वसंतों के पार उनकी जीवन-यात्रा का फ्लेशबैक देखा जाये तो वहां दीखता है अल्पवय मे ही अन्नत हुआ एक बालक जो स्वाभाव से अंतर्मुखी एवं एकाकी है और कई मुश्किलों से जूझते हुए जो अपनी पढ़ाई ज़ारी रखता है. अध्ययन की सीढियां चढ़ने के साथ-साथ यही बालक युवा हो कर एक प्रौढ़ कवि के रूप स्थापित होता है. हरभजन सिंह का सम्पूर्ण जीवन तल्ख़ सच्चाइयों का एक वृहत संस्करण है, जिसमे कई कच्चे लेख हैं. इनमे से एक कच्चा लेख उनका सिख होना है. एक हिन्दुस्तानी होना है और एक पंजाबी होना है. वे नहीं मानते की सिख धर्म सवसे उत्तम है या कि पंजाबी सभी भाषाओं से श्रेष्ठ है. वे तो यह भी नहीं मानते कि " सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा ". अपने यतीम होने का ज्ज़िक्र भी वे यूँ करते हैं जैसे सीन पर तमगा टंगा हो.
उनके "न सराहने योग्य" अनुभवों मे सा एक टुकड़ा बचपन के उस अनुभव का है जिसमे एक मछली उनके हाथ से छिटक कर रास्ते मे गिर गई है. रात मे, पास लेती हुई बहन उन्हें कहानी नहीं सुनती, पूछती है - "तू मछली को राह मे अकेली क्यों फेंक आया? अगर कोई तुझे इस तरह फेंक आये, तो? बालक हरभजन रोने लगता है कि मछली को ढूंढ कर घर ले आया पर मछली नहीं मिलती. हरभजन सिंह के ही शब्दों मे यह उनकी जिंदगी का मॉडल है. शुरुआत का कच्चा लेख. "घर से दूर तड़पती मछली मेरे जिंदगी का ब्यौरा है, और लालटेन लेकर उसे ढूंढना मेरी कविता. अभी तक मैं मछली को ढूंढ नहीं सका, पर उसे ढूँढने का यातना भी नहीं छोड़ा. मेरे सामने मेरी ऐसे तस्वीर खडी है.
हरभजन सिंह की जिंदगी के फ्लैशबैक में अँधेरे और उजाले दोनों हैं. "अँधेरा ही ऐसा, जिसमे मनुष्य चाह कर भी मुक्त नहीं हो पता. "अँधेरा चला भी जाये/उसकी दहशत रहती है." इसीलिए शिखर पर चढ़कर भी वे पीछे देखने सा घबराते हैं या कहिए कि कतराते हैं. जीवन का यह बहुत बड़ा सच है कि वहां पीछे का मोह भी है और आगे का आकर्षण भिया वे स्वयं से कहते हैं - " पीछे मत देख, जहाँ केवल कुदरत है/आगे देख जहाँ कुदरत भी है, कार भी है." पीछे उनका बचपन है जो उम्र के रास्ते पर कहीं छित कर दूर जा पड़ा है. अब उसे ढूंढना सहज नहीं. "पानी में घुली हुई / नमक की डली ढूंढ सकता हूँ/पर अपने में समाया हुआ बचपन नहीं मिलता." जहाँ वे आज खड़े हैं और जहाँ कल उनका बचपन खोया था, इन दो बिन्दुओं को किसी सड़क ने बाँट दिया है. "सड़क" का प्रतीक हरभजन सिंह की कविता मे एकार्थी नहीं अनेकार्थी है. राग, द्वेष, घृणा आदि मनोविकारों की न जाने कितनी सड़के हैं जिन्होंने बिछड़े दिलों की बस्ती को बाँट रखा है. "जहाँ-जहाँ सड़क है/परस्पर बिछड़े दिलों की बस्ती है/भरपूर कायम है अब कहीं-कहीं अनबंटे मैदान/बस्तियों से पहले वहां आएँगी सड़कें /बसने से पहले ही सबको बाँट देगीं.
आत्मान्वेषण के मामले में हरभजन सिंह जितने निर्मम हैं, उतने ही ईमानदार भी. उन्हें अपने बारे में कोई ग़लतफ़हमी नहीं. वे अपने सौंदर्य और असौंदर्य दोनों से वक्किफ हैं. स्वयं को स्वयं के सामने प्रस्तुत करते समय व्यक्ति पर कोई आवरण नहीं टिक सकता,इसलिए वे जब भी अपने ऊपर से छिलके उतार कर गूदे तक पहुँचने की कोशिश करे हैं तो इस बात का हमेशा ध्यान रखते हैं."अपने सम्मुख खड़ा होना स्ट्रिपटीज जैसा कर्म है. स्ट्रिपटीज, जिसका कोई एवज नहीं. दुसरे जिसका जिस्म सुन्दर है वह तो स्ट्रिपटीज करे, मेरे जैसे अष्टावक्र को इस इलाके में प्रवेश का क्या हक है पर अपने सम्मुख होने के लिए अपना स्ट्रिपटीज ज़रूरी है. स्ट्रिपटीज सिर्फ आवरण उतरने का नाम नहीं, उसके साथ-साथ शर्म भी उतारनी पड़ती है. दूसरों की मौजदगी का भय शर्म को इतनी सहजता से उतरने नहीं देता. " कपड़ों से ज्यादा/मुझ पर शर्म को बोझ था/कपडे तो उतर जाते हैं/शर्म नहीं उतरती.ईश्वर से साक्षात मैली चुनरिया के साथ नहीं होता. हर कोई दास कबीर नहीं, जो बरसों तक इस चुनरिया को जातं से ओढ़कर ज्यों का त्यों रख दे. हरभजन सिंह मनुष्य के नाते अपनी इस कमजोरी को भी जानते हैं इसीलिए वे विनीत हो कर कहते हैं - " नहीं, नहीं, यह नहीं हो
सकता/ऋषिदेव! मुझे उसी रूप में स्वीकारो/जैसे में हूँ/जैसे में हो सकता हूँ.
हरभजन सिंह की कृति "रुख ते ऋषि" पर गुरु नानक जी देव के "जपुजी" का गहरा प्रभाव है पर उनके जीवन के कच्चे लेखों में बहुत कुछ ऐसा है जो उनके मित्रों, प्रशंसकों और निंदकों को न भये. उनके बारे में कोई भी राय अंतिम नहीं हो सकती. वे निर्भाव और निर्भीक रूप से अपने स्वाभाव और कर्मों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हैं-"मैं दुनिया में रह कर भी दुनिया से अलग हूँ. अपनी मात्रभाषा को भी अजनबियों की तरह इस्तेमाल करता हूँ. यह सांस्कृतिक दुर्गुण है. बेशक मैं अपनी संस्कृति का गुनाहगार हूँ."
हरभजन सिंह की एक कविता है-"तेरे दरबार में" जिसमे उनकी रूधि विरोधी, यथार्थजीवी और प्रगतिशील जीवन दृष्टि का परिचय मिलता है. कृष्ण चन्द्र लाल के शब्दों में "हरभजन सिंह प्रभु के ऐश्वर्या से चमत्कृत नहीं होते, बल्कि विरोध की नै चेतना से लैस होते हैं. उन्हें देवलोक सुहाता नहीं, उनमे वितृष्णा और घृणा पैदा करता है -"तेरे इन्द्र और तेरे देव अनेक/उम्र भर जिन्होंने कभिसाहे नहीं/सीने में शूल, देह में सेंक-तेरी परियां सदा जवान/अंगों के सांचे में जैसे ढला हो संगीत/मैं इतनी ऐश करूँ? यह मेरी
जुर्रत नहीं/यह मेरी हिम्मत नहीं/और फिर मुझे कब फुर्सत देता है तेरा ज़हान/तेरे दरबार में आया हूँ भगवान्/करके मदिरा स्नान."हरभजन सिंह की कविता यह तेवर "रुख ते ऋषि" नाम की लम्बी कविता से नदारद है. दरअसल "रुख ते ऋषि" की विचार भूमि दूसरी ही है. वहां उलझ हुए प्रतीक हैं और रहस्य की भूल-भुलैया. शब्दों में गुथी हुई कविता और कविता में गुथे हुए शब्द दोनों बीज रूप में हैं जिनके अर्थ धीरे धीरे अनेक रूप में खुलते हैं.
"रुख ते ऋषि" के कवितांशों को पढ़कर ज़रूरी नहीं कि आप भी वाही अर्थ गृहण करें जो दूसरा गृहण कर रहा है. यह एक "एबस्त्रक्ट" चित्र की तरह है जिसे देखते हुए दर्शक अपनी-अपनी समझ के अनुसार अपनी भावनाओं को चित्र में प्रतिरूपित करता है. कभी-कभी मुझे लगा है जैसे "रुख ते ऋषि" कविता अपने सम्पूर्ण रूप में अपनी जड़ों को तलाशने की ही कोशिश है. कितने ही प्रश्न हैं जिनके उत्तर विश्व के मनीषी तलाशते रहे हैं पर प्रश्न हैं की अभी भी अनुत्तरित हैं.फिर भी यह तो निश्चित ही है की हमारी जड़ें हमारे भूमंडल में ही हैं. इन जड़ों से दूर जाना या विलग होना हमारे वश में नहीं और न ही हमारी हित में. "अपने भूमंडल से टूट कर/जधीन बिरछ सदा सूख जाते हैं / समय या स्थान से दूर ता जाते किसी ने नहीं देखे/ " हरभजन सिंह का
यह कवितांश उनकी पारम्परिकता से विलग नहीं होने देता. वे ईश्वर को महँ सत्ता एवं परमपिता के रूप में मानते हैं और उसे अलग-अलग ढंग से संबोधित करते हैं पर उनका ईश्वर, उनका रब वह नहीं, जो तथाकथित धर्मांध लोगों का रब है. उनकी दृष्टि में "लोगों के पास रब था, बाड़ों और दीवारों वाला, वने वनाये पथ और गलियारे/हमारे पास रब था/जो आप घर से बाहर
था/बाहर वाली दुनिया के बाहर/मेरी मैया और मैं/दोनों ही गम हो गए, भटक गए/माँ ने कहा : बेटा इस रब का क्या करें/जो हमारा हिमायती नहीं रहा/
हरभजन सिंह के इस कवितांश में कटु यथार्थ भी है और गंभीर व्यंग्य भी. अपने समय की विद्रूपताओं और सच्चाइयों को उजागर करना हरभजन सिंह की कविता की शक्ति है. इसी शक्ति के कारन वे अपनी पीढ़ी के अग्रणी कवी और चिन्तक माने जाते हैं. मनुष्य और मानवता की चीनता उनके समस्त लेखन में मौजूद है. उनके काव्य एक छतनार बिरछ की तरह है, जिससे एक भीनी-भीनी सुगंध जहर रही है, हमारे मन और आत्मा को सराबोर करती हुई. झर-झर-झर.
अनेक शिखर पुरस्कारों से सम्मानित डॉक्टर हरभजन सिंह की कृतियों का पाठक वर्ग पंजाबी से कहीं अधिक इतर भाषाओँ मे उपस्थित है. डॉक्टर सिंह के व्यक्तित्व मे जहाँ परिपक्वता एवं विनम्रता दोनों का मणि-कांचन योग है, वहीँ उनके कृतित्व मे अक्खडपन और फक्कडपन, चिंतन और दर्शन के मिले-जुले तत्व देखे जा सकते हैं. समर्थ आलोचक एवं अनुवादक होने के बावजूद हरभजन सिंह अपने काव्य-कर्म के लिए ज्यादा ख्यात रहे हैं. उनका अनुभव संसार विस्तृत भी है और विविधतापूर्ण भी. जिंदगी के साथ उनकी कविता का रिश्ता मोह का, रौशनी का और असफलता का है. मुकम्मल असफलता के बाद भी वे पहले जैसे और रिश्ते जोड़ने से नहीं कतराते और अपनी गलतियों के नतीजे भोग कर फिर उसी तरह गलतियाँ करने के लिए तैयार रहते हैं. कविता उनके लिए आसमान से उतरी हुई दें नहीं, धरती से उगी सौगात है. उनके शब्दों मे - " पंजाबी कविता विशुद्ध दरवेशों की विरासत है] जिसका पैसे
से कोई सम्बन्ध नहीं.. एथे हाट न चलई न को वणज करे."
उम्र के तीन-चौथाई वसंतों के पार उनकी जीवन-यात्रा का फ्लेशबैक देखा जाये तो वहां दीखता है अल्पवय मे ही अन्नत हुआ एक बालक जो स्वाभाव से अंतर्मुखी एवं एकाकी है और कई मुश्किलों से जूझते हुए जो अपनी पढ़ाई ज़ारी रखता है. अध्ययन की सीढियां चढ़ने के साथ-साथ यही बालक युवा हो कर एक प्रौढ़ कवि के रूप स्थापित होता है. हरभजन सिंह का सम्पूर्ण जीवन तल्ख़ सच्चाइयों का एक वृहत संस्करण है, जिसमे कई कच्चे लेख हैं. इनमे से एक कच्चा लेख उनका सिख होना है. एक हिन्दुस्तानी होना है और एक पंजाबी होना है. वे नहीं मानते की सिख धर्म सवसे उत्तम है या कि पंजाबी सभी भाषाओं से श्रेष्ठ है. वे तो यह भी नहीं मानते कि " सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा ". अपने यतीम होने का ज्ज़िक्र भी वे यूँ करते हैं जैसे सीन पर तमगा टंगा हो.
उनके "न सराहने योग्य" अनुभवों मे सा एक टुकड़ा बचपन के उस अनुभव का है जिसमे एक मछली उनके हाथ से छिटक कर रास्ते मे गिर गई है. रात मे, पास लेती हुई बहन उन्हें कहानी नहीं सुनती, पूछती है - "तू मछली को राह मे अकेली क्यों फेंक आया? अगर कोई तुझे इस तरह फेंक आये, तो? बालक हरभजन रोने लगता है कि मछली को ढूंढ कर घर ले आया पर मछली नहीं मिलती. हरभजन सिंह के ही शब्दों मे यह उनकी जिंदगी का मॉडल है. शुरुआत का कच्चा लेख. "घर से दूर तड़पती मछली मेरे जिंदगी का ब्यौरा है, और लालटेन लेकर उसे ढूंढना मेरी कविता. अभी तक मैं मछली को ढूंढ नहीं सका, पर उसे ढूँढने का यातना भी नहीं छोड़ा. मेरे सामने मेरी ऐसे तस्वीर खडी है.
हरभजन सिंह की जिंदगी के फ्लैशबैक में अँधेरे और उजाले दोनों हैं. "अँधेरा ही ऐसा, जिसमे मनुष्य चाह कर भी मुक्त नहीं हो पता. "अँधेरा चला भी जाये/उसकी दहशत रहती है." इसीलिए शिखर पर चढ़कर भी वे पीछे देखने सा घबराते हैं या कहिए कि कतराते हैं. जीवन का यह बहुत बड़ा सच है कि वहां पीछे का मोह भी है और आगे का आकर्षण भिया वे स्वयं से कहते हैं - " पीछे मत देख, जहाँ केवल कुदरत है/आगे देख जहाँ कुदरत भी है, कार भी है." पीछे उनका बचपन है जो उम्र के रास्ते पर कहीं छित कर दूर जा पड़ा है. अब उसे ढूंढना सहज नहीं. "पानी में घुली हुई / नमक की डली ढूंढ सकता हूँ/पर अपने में समाया हुआ बचपन नहीं मिलता." जहाँ वे आज खड़े हैं और जहाँ कल उनका बचपन खोया था, इन दो बिन्दुओं को किसी सड़क ने बाँट दिया है. "सड़क" का प्रतीक हरभजन सिंह की कविता मे एकार्थी नहीं अनेकार्थी है. राग, द्वेष, घृणा आदि मनोविकारों की न जाने कितनी सड़के हैं जिन्होंने बिछड़े दिलों की बस्ती को बाँट रखा है. "जहाँ-जहाँ सड़क है/परस्पर बिछड़े दिलों की बस्ती है/भरपूर कायम है अब कहीं-कहीं अनबंटे मैदान/बस्तियों से पहले वहां आएँगी सड़कें /बसने से पहले ही सबको बाँट देगीं.
आत्मान्वेषण के मामले में हरभजन सिंह जितने निर्मम हैं, उतने ही ईमानदार भी. उन्हें अपने बारे में कोई ग़लतफ़हमी नहीं. वे अपने सौंदर्य और असौंदर्य दोनों से वक्किफ हैं. स्वयं को स्वयं के सामने प्रस्तुत करते समय व्यक्ति पर कोई आवरण नहीं टिक सकता,इसलिए वे जब भी अपने ऊपर से छिलके उतार कर गूदे तक पहुँचने की कोशिश करे हैं तो इस बात का हमेशा ध्यान रखते हैं."अपने सम्मुख खड़ा होना स्ट्रिपटीज जैसा कर्म है. स्ट्रिपटीज, जिसका कोई एवज नहीं. दुसरे जिसका जिस्म सुन्दर है वह तो स्ट्रिपटीज करे, मेरे जैसे अष्टावक्र को इस इलाके में प्रवेश का क्या हक है पर अपने सम्मुख होने के लिए अपना स्ट्रिपटीज ज़रूरी है. स्ट्रिपटीज सिर्फ आवरण उतरने का नाम नहीं, उसके साथ-साथ शर्म भी उतारनी पड़ती है. दूसरों की मौजदगी का भय शर्म को इतनी सहजता से उतरने नहीं देता. " कपड़ों से ज्यादा/मुझ पर शर्म को बोझ था/कपडे तो उतर जाते हैं/शर्म नहीं उतरती.ईश्वर से साक्षात मैली चुनरिया के साथ नहीं होता. हर कोई दास कबीर नहीं, जो बरसों तक इस चुनरिया को जातं से ओढ़कर ज्यों का त्यों रख दे. हरभजन सिंह मनुष्य के नाते अपनी इस कमजोरी को भी जानते हैं इसीलिए वे विनीत हो कर कहते हैं - " नहीं, नहीं, यह नहीं हो
सकता/ऋषिदेव! मुझे उसी रूप में स्वीकारो/जैसे में हूँ/जैसे में हो सकता हूँ.
हरभजन सिंह की कृति "रुख ते ऋषि" पर गुरु नानक जी देव के "जपुजी" का गहरा प्रभाव है पर उनके जीवन के कच्चे लेखों में बहुत कुछ ऐसा है जो उनके मित्रों, प्रशंसकों और निंदकों को न भये. उनके बारे में कोई भी राय अंतिम नहीं हो सकती. वे निर्भाव और निर्भीक रूप से अपने स्वाभाव और कर्मों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हैं-"मैं दुनिया में रह कर भी दुनिया से अलग हूँ. अपनी मात्रभाषा को भी अजनबियों की तरह इस्तेमाल करता हूँ. यह सांस्कृतिक दुर्गुण है. बेशक मैं अपनी संस्कृति का गुनाहगार हूँ."
हरभजन सिंह की एक कविता है-"तेरे दरबार में" जिसमे उनकी रूधि विरोधी, यथार्थजीवी और प्रगतिशील जीवन दृष्टि का परिचय मिलता है. कृष्ण चन्द्र लाल के शब्दों में "हरभजन सिंह प्रभु के ऐश्वर्या से चमत्कृत नहीं होते, बल्कि विरोध की नै चेतना से लैस होते हैं. उन्हें देवलोक सुहाता नहीं, उनमे वितृष्णा और घृणा पैदा करता है -"तेरे इन्द्र और तेरे देव अनेक/उम्र भर जिन्होंने कभिसाहे नहीं/सीने में शूल, देह में सेंक-तेरी परियां सदा जवान/अंगों के सांचे में जैसे ढला हो संगीत/मैं इतनी ऐश करूँ? यह मेरी
जुर्रत नहीं/यह मेरी हिम्मत नहीं/और फिर मुझे कब फुर्सत देता है तेरा ज़हान/तेरे दरबार में आया हूँ भगवान्/करके मदिरा स्नान."हरभजन सिंह की कविता यह तेवर "रुख ते ऋषि" नाम की लम्बी कविता से नदारद है. दरअसल "रुख ते ऋषि" की विचार भूमि दूसरी ही है. वहां उलझ हुए प्रतीक हैं और रहस्य की भूल-भुलैया. शब्दों में गुथी हुई कविता और कविता में गुथे हुए शब्द दोनों बीज रूप में हैं जिनके अर्थ धीरे धीरे अनेक रूप में खुलते हैं.
"रुख ते ऋषि" के कवितांशों को पढ़कर ज़रूरी नहीं कि आप भी वाही अर्थ गृहण करें जो दूसरा गृहण कर रहा है. यह एक "एबस्त्रक्ट" चित्र की तरह है जिसे देखते हुए दर्शक अपनी-अपनी समझ के अनुसार अपनी भावनाओं को चित्र में प्रतिरूपित करता है. कभी-कभी मुझे लगा है जैसे "रुख ते ऋषि" कविता अपने सम्पूर्ण रूप में अपनी जड़ों को तलाशने की ही कोशिश है. कितने ही प्रश्न हैं जिनके उत्तर विश्व के मनीषी तलाशते रहे हैं पर प्रश्न हैं की अभी भी अनुत्तरित हैं.फिर भी यह तो निश्चित ही है की हमारी जड़ें हमारे भूमंडल में ही हैं. इन जड़ों से दूर जाना या विलग होना हमारे वश में नहीं और न ही हमारी हित में. "अपने भूमंडल से टूट कर/जधीन बिरछ सदा सूख जाते हैं / समय या स्थान से दूर ता जाते किसी ने नहीं देखे/ " हरभजन सिंह का
यह कवितांश उनकी पारम्परिकता से विलग नहीं होने देता. वे ईश्वर को महँ सत्ता एवं परमपिता के रूप में मानते हैं और उसे अलग-अलग ढंग से संबोधित करते हैं पर उनका ईश्वर, उनका रब वह नहीं, जो तथाकथित धर्मांध लोगों का रब है. उनकी दृष्टि में "लोगों के पास रब था, बाड़ों और दीवारों वाला, वने वनाये पथ और गलियारे/हमारे पास रब था/जो आप घर से बाहर
था/बाहर वाली दुनिया के बाहर/मेरी मैया और मैं/दोनों ही गम हो गए, भटक गए/माँ ने कहा : बेटा इस रब का क्या करें/जो हमारा हिमायती नहीं रहा/
हरभजन सिंह के इस कवितांश में कटु यथार्थ भी है और गंभीर व्यंग्य भी. अपने समय की विद्रूपताओं और सच्चाइयों को उजागर करना हरभजन सिंह की कविता की शक्ति है. इसी शक्ति के कारन वे अपनी पीढ़ी के अग्रणी कवी और चिन्तक माने जाते हैं. मनुष्य और मानवता की चीनता उनके समस्त लेखन में मौजूद है. उनके काव्य एक छतनार बिरछ की तरह है, जिससे एक भीनी-भीनी सुगंध जहर रही है, हमारे मन और आत्मा को सराबोर करती हुई. झर-झर-झर.
एक कमल मेरे लिए
गीत
नील कमल फूले फिर ताल में
राजा जी एक कमल मेरे लिए
लाना जी एक कमल मेरे लिए.
एक पंखुरी में भर चांदनी दान करूंगी
एक पंखुरी में भर वारुनी पान करूंगी,
गूंथूंगी केशों के जाल में.
राजा जी एक कमल मेरे लिए
लाना जी एक कमल मेरे लिए.
देखो सौगंध हमारी टूटे न बात,
प्राणों से प्यारे मुझे नीले जलजात,
आना हो इधर कभी साल में.
राजा जी एक कमल मेरे लिए
लाना जी एक कमल मेरे लिए.
नील कमल फूले फिर ताल में
राजा जी एक कमल मेरे लिए
लाना जी एक कमल मेरे लिए.
एक पंखुरी में भर चांदनी दान करूंगी
एक पंखुरी में भर वारुनी पान करूंगी,
गूंथूंगी केशों के जाल में.
राजा जी एक कमल मेरे लिए
लाना जी एक कमल मेरे लिए.
देखो सौगंध हमारी टूटे न बात,
प्राणों से प्यारे मुझे नीले जलजात,
आना हो इधर कभी साल में.
राजा जी एक कमल मेरे लिए
लाना जी एक कमल मेरे लिए.
मेरी दो ग़ज़लें
१.
दिल के रिश्ते गाढे हों और बोलाचाली बनी रहे.
मांग दुआ, आँखों के आगे ये हरियाली बनी रहे.
नए चाँद की खुशियाँ ले कर ईद हमारे घर आये,
और तुम्हारे आँगन में हर रोज़ दिवाली बनी रहे.
शक-शुबहों के धूल भरे जाले हो जाएँ साफ़ ज़रा,
ऐसा भी क्या जब देखो तब नज़र सवाली बनी रहे.
संजीदा चेहरों को तकते-तकते सालों गुज़र गए,
अब मुखड़ों पर लाली आई है तो लाली बनी रहे.
बहुत रुलाया है हम बिछुडों को कमबख्त सियासत ने,
कोई सूरत कर कुछ दिन तो अब खुशहाली बनी रहे.
२.
दीवारों के बीच कहीं पर एक झरोखा रखना.
कभी-कभी इंसानों की तरह भी सोचा करना.
बुरे बक्त की यादें आ कर सिर्फ रुलायेंगी ही
बहुत दिनों तक सीने पर न बोझ ग़मों का रखना.
सीधे सच्चे लोग बहुत ही ज़ज्बाती होते हैं,
उनसे जब भी करना कोई सच्चा सौदा करना.
तेरी मिटटी में मेरी मिटटी की खुशबू शामिल है,
मुमकिन कैसे हो पायेगा उसे अलहदा रखना.
दिल के रिश्ते गाढे हों और बोलाचाली बनी रहे.
मांग दुआ, आँखों के आगे ये हरियाली बनी रहे.
नए चाँद की खुशियाँ ले कर ईद हमारे घर आये,
और तुम्हारे आँगन में हर रोज़ दिवाली बनी रहे.
शक-शुबहों के धूल भरे जाले हो जाएँ साफ़ ज़रा,
ऐसा भी क्या जब देखो तब नज़र सवाली बनी रहे.
संजीदा चेहरों को तकते-तकते सालों गुज़र गए,
अब मुखड़ों पर लाली आई है तो लाली बनी रहे.
बहुत रुलाया है हम बिछुडों को कमबख्त सियासत ने,
कोई सूरत कर कुछ दिन तो अब खुशहाली बनी रहे.
२.
दीवारों के बीच कहीं पर एक झरोखा रखना.
कभी-कभी इंसानों की तरह भी सोचा करना.
बुरे बक्त की यादें आ कर सिर्फ रुलायेंगी ही
बहुत दिनों तक सीने पर न बोझ ग़मों का रखना.
सीधे सच्चे लोग बहुत ही ज़ज्बाती होते हैं,
उनसे जब भी करना कोई सच्चा सौदा करना.
तेरी मिटटी में मेरी मिटटी की खुशबू शामिल है,
मुमकिन कैसे हो पायेगा उसे अलहदा रखना.
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Friday, May 20, 2011
मिठास बतरस की
प्यारे, ये है मिठा...स बतरस की.
प्रेम पगीं बतियों के क्या माने,
स्वाद चखे जो, बस वो ही जाने,
हर कोई इसे कहाँ पहचाने?
प्यारे, ये है मिठा...स बतरस की.
बातें जब चलें तो चलती जाएँ,
जलतरंग जैसी बजती जाएँ,
भारी मन हल्का करती जाएँ,
प्यारे, ये है मिठा...स बतरस की.
बातें पलाशों जैसी दहकें,
बातें गुलाबों जैसी महकें,
बातें परिंदों जैसी चहकें,
प्यारे, ये है मिठा...स बतरस की.
बातों से मैल सभी धुल जाएँ,
मन की गांठें सारी खुल जाएँ,
बातों के हम कितने गुण गायें,
प्यारे, ये है मिठा...स बतरस की.
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प्रेम पगीं बतियों के क्या माने,
स्वाद चखे जो, बस वो ही जाने,
हर कोई इसे कहाँ पहचाने?
प्यारे, ये है मिठा...स बतरस की.
बातें जब चलें तो चलती जाएँ,
जलतरंग जैसी बजती जाएँ,
भारी मन हल्का करती जाएँ,
प्यारे, ये है मिठा...स बतरस की.
बातें पलाशों जैसी दहकें,
बातें गुलाबों जैसी महकें,
बातें परिंदों जैसी चहकें,
प्यारे, ये है मिठा...स बतरस की.
बातों से मैल सभी धुल जाएँ,
मन की गांठें सारी खुल जाएँ,
बातों के हम कितने गुण गायें,
प्यारे, ये है मिठा...स बतरस की.
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अपने रहे न घने नीम के साए
धान पराया हुआ, हल्दी परायी,
चढ़ गयी नीलामी पर अमराई
ऐसी विदेसिया ने करी चतुराई.
अपने रहे न घने नीम के साए
गमलों में कांटे ही कांटे उगाये,
पछुवा के रंग में रंगी पुरवाई.
ऐसी विदेसिया ने करी चतुराई.
पानी तो बिक गया बीच बाजारी,
धूप-हवा की कल आएगी बारी,
सौदागरों ने है मंडी लगाईं.
ऐसी विदेसिया ने करी चतुराई.
रोज दिखाके नए सपने सलोने,
हाथों में दे दिए मुर्दा खिलोने,
राम दुहाई मेरे राम दुहाई.
ऐसी विदेसिया ने करी चतुराई.
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चढ़ गयी नीलामी पर अमराई
ऐसी विदेसिया ने करी चतुराई.
अपने रहे न घने नीम के साए
गमलों में कांटे ही कांटे उगाये,
पछुवा के रंग में रंगी पुरवाई.
ऐसी विदेसिया ने करी चतुराई.
पानी तो बिक गया बीच बाजारी,
धूप-हवा की कल आएगी बारी,
सौदागरों ने है मंडी लगाईं.
ऐसी विदेसिया ने करी चतुराई.
रोज दिखाके नए सपने सलोने,
हाथों में दे दिए मुर्दा खिलोने,
राम दुहाई मेरे राम दुहाई.
ऐसी विदेसिया ने करी चतुराई.
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घाव देकर गए जब बादाम
मूंगफलियों ने मरहम लगाया हमें
घाव दे कर गए जब बादाम.
कैसे भूलें, कहो, उनके अहसान को
जो हमारे कलेजे से लगके रहे,
जब अँधेरा घना छा गया सामने
बन के दीपक जो आँखों में जलते रहे
तंग गलियों ने रस्ता दिखाया हमें
राजपथ पर लगा जब भी जाम.
शोहरतें हमको भाईं न कंक्रीट की
गीली मिटटी ही मन में महकती रही,
काम आई फटी जेब अपनी बहुत
जब मुखौटे ये दुनिया बदलती रही,
मुश्किलों में इसी ने बचाया हमें,
मुफ्त बँटने लगे जब ईनाम.
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घाव दे कर गए जब बादाम.
कैसे भूलें, कहो, उनके अहसान को
जो हमारे कलेजे से लगके रहे,
जब अँधेरा घना छा गया सामने
बन के दीपक जो आँखों में जलते रहे
तंग गलियों ने रस्ता दिखाया हमें
राजपथ पर लगा जब भी जाम.
शोहरतें हमको भाईं न कंक्रीट की
गीली मिटटी ही मन में महकती रही,
काम आई फटी जेब अपनी बहुत
जब मुखौटे ये दुनिया बदलती रही,
मुश्किलों में इसी ने बचाया हमें,
मुफ्त बँटने लगे जब ईनाम.
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अपाहिज भोर होती है
ईंट पत्थर पर टिकी आराधना कमजोर होती है.
जो दिखावे के लिए हो प्रार्थना वो शोर होती है.
भीड़ का चेहरा नहीं होता कोई भी
भीड़ के केवल हज़ारों हाथ होते हैं,
और उन्मादी किसम के लोग ही बस
भीड़ की परछाइयों के साथ होते हैं,
लोग - जिनकी देह तो क्या आत्मा भी चोर होती है.
वाकज़ालों में उलझ जाएँ अगर तो
पुण्यतम संकल्प भी न अर्थ पाते हैं,
हो नहीं सम्मान जो सम्पूर्ण रचना का
धर्म हो या कर्म सारे व्यर्थ जाते हैं,
संधि करले कालिमा से तो अपाहिज भोर होती है.
जो दिखावे के लिए हो प्रार्थना वो शोर होती है.
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जो दिखावे के लिए हो प्रार्थना वो शोर होती है.
भीड़ का चेहरा नहीं होता कोई भी
भीड़ के केवल हज़ारों हाथ होते हैं,
और उन्मादी किसम के लोग ही बस
भीड़ की परछाइयों के साथ होते हैं,
लोग - जिनकी देह तो क्या आत्मा भी चोर होती है.
वाकज़ालों में उलझ जाएँ अगर तो
पुण्यतम संकल्प भी न अर्थ पाते हैं,
हो नहीं सम्मान जो सम्पूर्ण रचना का
धर्म हो या कर्म सारे व्यर्थ जाते हैं,
संधि करले कालिमा से तो अपाहिज भोर होती है.
जो दिखावे के लिए हो प्रार्थना वो शोर होती है.
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नानी की चिट्ठियां - 3
मेरे प्यारे चम्पू, पप्पू, टीटू, नीटू, भोलू, गोलू, किट्टी, बिट्टी,
चिंकी, पिंकी, लीला, शीला, लवली, बबली,
खुश रहो, स्वस्थ रहो और जुग जुग जियो!
आज सबसे पहले तुम्हे एक कहानी सुनती हूँ. जीते -जागते उस सच्चे इंसान की जो अपने ही देश का है और जिसे बच्चों से अगाध प्यार है. इस इंसान का नाम है वी. मणि.
वी मणि रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया बंगुलुरु में सहायक महाप्रबंधक रहे हैं. वे जब भी घर से अपने कार्यालय जाते तो उनके रास्ते में वहां का केंद्रीय कारागार पड़ता जिसके दरवाजे के आगे ऐसे बंदियों के सगे सम्बन्धी और उनके बच्चे रोते-बिलखते दीखते जिनके अभिभावक किसी न किसी अपराध में कारागार की सजा भुगत रहे थे. ऐसे बेसहारा बच्चों को देख कर वी मणि का मन अन्दर ही अन्दर पसीज उठता. उन्होंने निश्चय किया कि वे किसी भी तरह इन बच्चों का वर्त्तमान और भविष्य सुधारेंगे.
वी मणि जब सेवानिवृत्त हुए तो अपनी पत्नी सरोज के सहयोग से उन्होंने १९९९ में एक स्वेच्छिक संस्था बनाई. सो केयर नाम कि इस संस्था को बनाने में उन्होंने रिटायर्मेंट का सारा पैसे खर्च कर दिया. आज इस संस्था में सौ से अधिक बच्चे आश्रय ले कर अपना भविष्य संवार रहे हैं. वी. मणि कि पत्नी तो अब इस दुनिया में नहीं है पर मणि-दम्पति द्वारा देखा गया सपना अब सच हो कर एक दशक से ऊपर का हो चुका है.
वी. मणि हृदय रोग के आघात से उबर चुके हैं फिर भी वे निरंतर अपना समय इस संस्था को देते हैं और बंदियों के बच्चों को अच्छी शिक्षा-दीक्षा सहित सभी तरह से स्वालंबी बनाने कि व्यवस्था करते हैं. कभी-कभी जब कोई बंदी अपनी सज़ा काट कर या पेरोल पर छूट कर अपने बच्चों से मिलने आता है तो वी. मणि की इस संस्था का तहे दिल से आभार व्यक्त करने से नहीं चूकता. चाहने पर भी बंदियों का मन अपने बच्चों को वापस घर ले जाने का नहीं होता. वे कहते हैं - "उन जैसे हत्या, डकेती के अपराधियों के बच्चों को समाज सहजता व सम्मान सहित कैसे स्वीकारेगा. उनके माता पिता तो अब वी मणि ही हैं.
मैं सोच रही हूँ कि कहाँ तो अपने देश में वी. मणि जैसे लोग जो अपना सर्वस्व सौंप कर बच्चों का जीवन संवार रहे हैं और कहाँ ऐसे निर्मम, देशद्रोही, दानवीय प्रवृत्ति के लोग जो अपनी स्वस्थ्लिप्सा की पूर्ति हेतु मासूम बच्चों को सौ-सौ रुपये देकर बम रखवाने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं.
तुम लोगों से दूर पड़ी मैं दिन रात तुम सबके बारे सोचती रहती हूँ कि कहीं कोई बुरा साया तुम्हारे सर पर न पड़े. भय लालच या भावावेश के कारण ही तुम्हारे जैसे मासूम बच्चे आतंकवादी संगठनों के चंगुल में फंस जाते हैं और जब कोई भाग्यशाली बच्चा उस चंगुल से बाहर निकलता है तो उसके पास एक भयावह कहानी सुनाने को होती है.
ईश्वर तुम सबकी रक्षा करे और संसार के सही भटके हुए लोगों को सद्बुद्धि और सही रास्ता चुनने के प्रेरणा दे, इस आशीर्बाद के साथ
तुम्हारी अपनी नानी.
चिंकी, पिंकी, लीला, शीला, लवली, बबली,
खुश रहो, स्वस्थ रहो और जुग जुग जियो!
आज सबसे पहले तुम्हे एक कहानी सुनती हूँ. जीते -जागते उस सच्चे इंसान की जो अपने ही देश का है और जिसे बच्चों से अगाध प्यार है. इस इंसान का नाम है वी. मणि.
वी मणि रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया बंगुलुरु में सहायक महाप्रबंधक रहे हैं. वे जब भी घर से अपने कार्यालय जाते तो उनके रास्ते में वहां का केंद्रीय कारागार पड़ता जिसके दरवाजे के आगे ऐसे बंदियों के सगे सम्बन्धी और उनके बच्चे रोते-बिलखते दीखते जिनके अभिभावक किसी न किसी अपराध में कारागार की सजा भुगत रहे थे. ऐसे बेसहारा बच्चों को देख कर वी मणि का मन अन्दर ही अन्दर पसीज उठता. उन्होंने निश्चय किया कि वे किसी भी तरह इन बच्चों का वर्त्तमान और भविष्य सुधारेंगे.
वी मणि जब सेवानिवृत्त हुए तो अपनी पत्नी सरोज के सहयोग से उन्होंने १९९९ में एक स्वेच्छिक संस्था बनाई. सो केयर नाम कि इस संस्था को बनाने में उन्होंने रिटायर्मेंट का सारा पैसे खर्च कर दिया. आज इस संस्था में सौ से अधिक बच्चे आश्रय ले कर अपना भविष्य संवार रहे हैं. वी. मणि कि पत्नी तो अब इस दुनिया में नहीं है पर मणि-दम्पति द्वारा देखा गया सपना अब सच हो कर एक दशक से ऊपर का हो चुका है.
वी. मणि हृदय रोग के आघात से उबर चुके हैं फिर भी वे निरंतर अपना समय इस संस्था को देते हैं और बंदियों के बच्चों को अच्छी शिक्षा-दीक्षा सहित सभी तरह से स्वालंबी बनाने कि व्यवस्था करते हैं. कभी-कभी जब कोई बंदी अपनी सज़ा काट कर या पेरोल पर छूट कर अपने बच्चों से मिलने आता है तो वी. मणि की इस संस्था का तहे दिल से आभार व्यक्त करने से नहीं चूकता. चाहने पर भी बंदियों का मन अपने बच्चों को वापस घर ले जाने का नहीं होता. वे कहते हैं - "उन जैसे हत्या, डकेती के अपराधियों के बच्चों को समाज सहजता व सम्मान सहित कैसे स्वीकारेगा. उनके माता पिता तो अब वी मणि ही हैं.
मैं सोच रही हूँ कि कहाँ तो अपने देश में वी. मणि जैसे लोग जो अपना सर्वस्व सौंप कर बच्चों का जीवन संवार रहे हैं और कहाँ ऐसे निर्मम, देशद्रोही, दानवीय प्रवृत्ति के लोग जो अपनी स्वस्थ्लिप्सा की पूर्ति हेतु मासूम बच्चों को सौ-सौ रुपये देकर बम रखवाने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं.
तुम लोगों से दूर पड़ी मैं दिन रात तुम सबके बारे सोचती रहती हूँ कि कहीं कोई बुरा साया तुम्हारे सर पर न पड़े. भय लालच या भावावेश के कारण ही तुम्हारे जैसे मासूम बच्चे आतंकवादी संगठनों के चंगुल में फंस जाते हैं और जब कोई भाग्यशाली बच्चा उस चंगुल से बाहर निकलता है तो उसके पास एक भयावह कहानी सुनाने को होती है.
ईश्वर तुम सबकी रक्षा करे और संसार के सही भटके हुए लोगों को सद्बुद्धि और सही रास्ता चुनने के प्रेरणा दे, इस आशीर्बाद के साथ
तुम्हारी अपनी नानी.
Wednesday, May 18, 2011
नानी की चिठ्ठियाँ -2
मेरे प्यारे चम्पू, पप्पू, टीटू, नीटू, गोलू, भोलू, किट्टी, बिट्टी
चिंकी, पिंकी, लीला, शीला, लवली, बबली!
देखा, पहली ही चिट्ठी ने जादू का असर कर दिया न तुम सब पर.
चम्पू का तो फोन भी आ गया, बोल रहा था - "आपकी चिट्ठी पा कर मज़ा आ गया नानी! पर एक शिकायत हिया जब मैंने पूछा कि क्या तो बोला - अब मैं बड़ा हो गया हूँ नानी पर आप हैं कि अभी भी चम्पू...चम्पू... लिखती रहती हैं. अरे चम्पक नाम है मेरा, वाही लिखा करो न. पता है, मेरे क्लास के लड़के और यहाँ तक कि मेरे इंग्लिश के सर सब मुझे चैम्प कहते हैं. अपनी टीम का चैम्पियन जो हूँ.
सुन कर मुझे हंसी आ गई. मैं बोली...अरे बेटा, ये नानी न तो तुम्हारी क्लास मेट है और न ही तुम्हारी क्लास टीचर इसलिए उनके लिए भले ही तुम चैम्प बन जाओ पर मेरे लिए तो वाही बने रहोगे चम्पू के चम्पू . वो क्या हैं न बेटा, ऐसे नाम होम मेड रेसिपी कि तरह होते हैं जो दर असल बनाये नहीं जाते, आप ही बन जाते हिना जैसे दाल-भात के लिए दल्लू-भत्तु. अब बच्चों से दल्लू-भत्तु कहने में जितना मज़ा आता है उतना मज़ा दाल-भात कहने में थोड़े ही आता है.
ज़रा अपनी भी तो सोचो तुम लोग अंग्रेजी में माँ को मम्मी, मम्मा, पापा को पैप और डैडी को डेड पता नहीं क्या क्या अटरम-शटरम बोलते रहते हो. क्या तुमने कभी सोच है कि डेड का मतलब क्या होता है. पर तुम्हारे पिता ने तो तुमसे कभी नहीं कहा कि तुम उन्हें डेड क्यों कहते हो?
दरअसल कोई भी भाषा या बोली स्थिर नहीं होती, देश-काल के साथ उसमे बदलाव आते रहते हैं. पता नहीं तुमने सुना है कि नहीं, एक शब्द है -ज़िह्वालाघव. थोडा कठिन है पर बोल सकते हो. इसका मोटा मतलब कि हमारी जबान को जो भी सहज लगे.
संस्कृत के बड़े-बड़े कठिन और तत्सम शब्द कैसे देशज रूप में आ कर हमारी हिंदी में घुल-मिल गया इसकी बड़ी ही रोचक कहानी है. एक तरह से यह पीछे की यात्रा है. सूत्र कहीं से भी पकड़ो और पीछे चलते-चलते उस शब्द के मूल या उद्गम स्थल तक पहुँच जाओ.
नानी शब्द ने मातामही से चल कर कितने पडाव पार किये और कितनी अन्य भाषाओँ तथा बोलियों से दोस्ती गांठी इसकी कहानी कभी फुर्सत में सुनाऊंगी. अभी तो बस मेरे लिटिल चैम्प , अपनी प्यारी नानी के लिए चम्पू ही बने रहो.
ये लो, अब तुम कहोगे कि ये पूरी चिट्ठी तो चम्पू के गोरख धंधे में ही फंस कर रह गई, बाकी किसी कि तो खबर ही नहीं ली नानी ने पर मेरे नन्हे-मुन्नों और मुनियों, चम्पू का तो बहाना था. बात तो मैं तुम सभी से कर रही थी.
इधर एक अजीब सी खबर पढ़ी है. अपने देश के एक सीमावर्ती राज्य में एक चरमपंथी संगठन १०० रुपयों के बदले सार्वजनिक स्थलों पर बम रख्बाने के लिया बच्चों का इस्तेमाल कर रहा है. या तो बच्चों के साथ भयावह दुष्कर्म है और देश के लिए घातक भी.
अगली चिट्ठी में इस बारे में तुमसे बात करूंगी.
तब तक के लिए ढेर सारे आशीर्वाद.
तुम्हारी अपनी नानी....
चिंकी, पिंकी, लीला, शीला, लवली, बबली!
देखा, पहली ही चिट्ठी ने जादू का असर कर दिया न तुम सब पर.
चम्पू का तो फोन भी आ गया, बोल रहा था - "आपकी चिट्ठी पा कर मज़ा आ गया नानी! पर एक शिकायत हिया जब मैंने पूछा कि क्या तो बोला - अब मैं बड़ा हो गया हूँ नानी पर आप हैं कि अभी भी चम्पू...चम्पू... लिखती रहती हैं. अरे चम्पक नाम है मेरा, वाही लिखा करो न. पता है, मेरे क्लास के लड़के और यहाँ तक कि मेरे इंग्लिश के सर सब मुझे चैम्प कहते हैं. अपनी टीम का चैम्पियन जो हूँ.
सुन कर मुझे हंसी आ गई. मैं बोली...अरे बेटा, ये नानी न तो तुम्हारी क्लास मेट है और न ही तुम्हारी क्लास टीचर इसलिए उनके लिए भले ही तुम चैम्प बन जाओ पर मेरे लिए तो वाही बने रहोगे चम्पू के चम्पू . वो क्या हैं न बेटा, ऐसे नाम होम मेड रेसिपी कि तरह होते हैं जो दर असल बनाये नहीं जाते, आप ही बन जाते हिना जैसे दाल-भात के लिए दल्लू-भत्तु. अब बच्चों से दल्लू-भत्तु कहने में जितना मज़ा आता है उतना मज़ा दाल-भात कहने में थोड़े ही आता है.
ज़रा अपनी भी तो सोचो तुम लोग अंग्रेजी में माँ को मम्मी, मम्मा, पापा को पैप और डैडी को डेड पता नहीं क्या क्या अटरम-शटरम बोलते रहते हो. क्या तुमने कभी सोच है कि डेड का मतलब क्या होता है. पर तुम्हारे पिता ने तो तुमसे कभी नहीं कहा कि तुम उन्हें डेड क्यों कहते हो?
दरअसल कोई भी भाषा या बोली स्थिर नहीं होती, देश-काल के साथ उसमे बदलाव आते रहते हैं. पता नहीं तुमने सुना है कि नहीं, एक शब्द है -ज़िह्वालाघव. थोडा कठिन है पर बोल सकते हो. इसका मोटा मतलब कि हमारी जबान को जो भी सहज लगे.
संस्कृत के बड़े-बड़े कठिन और तत्सम शब्द कैसे देशज रूप में आ कर हमारी हिंदी में घुल-मिल गया इसकी बड़ी ही रोचक कहानी है. एक तरह से यह पीछे की यात्रा है. सूत्र कहीं से भी पकड़ो और पीछे चलते-चलते उस शब्द के मूल या उद्गम स्थल तक पहुँच जाओ.
नानी शब्द ने मातामही से चल कर कितने पडाव पार किये और कितनी अन्य भाषाओँ तथा बोलियों से दोस्ती गांठी इसकी कहानी कभी फुर्सत में सुनाऊंगी. अभी तो बस मेरे लिटिल चैम्प , अपनी प्यारी नानी के लिए चम्पू ही बने रहो.
ये लो, अब तुम कहोगे कि ये पूरी चिट्ठी तो चम्पू के गोरख धंधे में ही फंस कर रह गई, बाकी किसी कि तो खबर ही नहीं ली नानी ने पर मेरे नन्हे-मुन्नों और मुनियों, चम्पू का तो बहाना था. बात तो मैं तुम सभी से कर रही थी.
इधर एक अजीब सी खबर पढ़ी है. अपने देश के एक सीमावर्ती राज्य में एक चरमपंथी संगठन १०० रुपयों के बदले सार्वजनिक स्थलों पर बम रख्बाने के लिया बच्चों का इस्तेमाल कर रहा है. या तो बच्चों के साथ भयावह दुष्कर्म है और देश के लिए घातक भी.
अगली चिट्ठी में इस बारे में तुमसे बात करूंगी.
तब तक के लिए ढेर सारे आशीर्वाद.
तुम्हारी अपनी नानी....
नानी की चिट्ठियां -1
मेरे प्यारे चम्पू, पप्पू, टीटू, नीटू, गोलू, भोलू, किट्टी, बिट्टी
चिंकी, पिंकी, लीला, शीला, लवली, बबली!
पता है, आज सुबह दस बजते ही मैं सीधे डाकखाने गई और पूरे तीन सौ पैंसठ लिफाफे खरीद कर ले आई. अब आज से हर दिन एक चिट्ठी लिख कर तुम्हे भेजा करूंगी.
तुम सब सोच रहे होगे की नानी तो पगला गई है, रोज़ एक चिट्ठी लिख कर भेजेगी. भाट ए जोक? बुढापे मैं क्यों अपने रिटायर्ड हाथों को तकलीफ दे रही है बेचारी. अरे, ज़माना बदल गया है, सबके पास मोबाइल फोन हो गए हैं, बस मोबाइल फोन उठाओ, नंबर मिलाओ और जब जी चाहे, जितनी चाहे बातें करो.
सो बिटवा, बात तो तुम्हारी सोलह आने सच है. पर उसमे भी झोल है अब देखो, तुम्हारी नानी सो काल्ड बूढी ज़रूर हो गई है पर उसके हाथ-पैर, आँख-कान और दिल, दिमाग भगवान् की दया से अभी भी सही काम कर रहे हैं. इसलिए सोचती हूँ कि इनकी कसरत करते रहनी चाहिए. और भई, देखो, मोबाइल पर तुम जिसे बातचीत करना कहते हो, मैं उसे बकर-बकर करना कहती हूँ. पांच मिनट भी बकर-बकर करो तो कान गर्म हो जाते हैं. पर चिट्ठी की बात कुछ और है. चिट्ठी सामने होती है तो लगता है जैसे भेजने वाला बिलकुल सामने खड़ा है.
अब तुम्हारा खुराफाती दिमाग फिर किलबिल-किलबिल कर रहा होगा की मैं क्या उलटी बात कर रही हूँ. मोबाइल फोन से भी आगे अब तो विडियो फोन आ गए हैं. कंप्यूटर...इन्टरनेट... भी तो हैं, चैटिंग-शैटिंग करो नानी...क्या दकियानूसी चिट्ठी राग अलापे जा रही हो. अच्छी-खासी पढ़ी-लिखी हो तो मोडर्न बनो नानी...मोडर्न .
अब मैं तुम्हारी बात मान भी लूं तो फिर उनके बारे में कैसे सोचूँ जिनके पास मोबाइल तो क्या ठीक से दो जून खाने को रोटी भी नहीं है. और मोबाइल फोन क्या मुफ्त की चीज है? उसमे पैसे नहीं लगते? मुझसे पूछो तो क्या मोबाइल, क्या कंप्यूटर, क्या इन्टरनेट सब के सब एक छोटी सी चिट्ठी के आगे पानी भरे हैं. तुम ही सोचो, क्या ये सब उस इंतज़ार का मज़ा देसकते हैं जो तुम आँखें बिछाकर नानी की चिट्ठी के लिए करोगे.
जानते हो जब मेरे ज़माने में इकन्नी के पोस्टकार्ड पर किसी भी अपने की चिट्ठी आती थी तो पूरे घर में छीना- झपटी हो जाती थी इस बात पर की कौन सबसे पहले पढ़ेगा. हाय, कितनी प्यारी लगती थी वह मोती जैसे अक्षरों से लिखी चिट्ठी. पता है आज भी मैंने ऐसी कितनी ही चिट्ठियां अपने बक्से में सम्भाल कर राखी हुई है. कभी-कभी अकेले में
उन्हें निकाल कर पढ़ती हूँ तो पूरा का पूरा वक्त पलटी मार जाता है. आँखों के आगे धुंधलाई तस्वीरें अपना रंगफिर पकड़ने लगती हैं. एक-एक चिट्ठी
देख कर कभी रोती हूँ तो कभी हंसती हूँ.
आज एक बात कहती हूँ तुम सबसे. जिंदगी में कितना भी तेज दौड़ना तुम क्यों न सीख लो पर उस पल को
सदा याद रखोजब तुम पहली बार पंजों के बल पर खड़े हुए थे. नए के चक्कर में गए को बिलकुल भुला देना
बेईमानी है. संभाल कर रखो उन पलों को अपने सीने में जो आज एंटिक चीज हो गए हैं.
हर एंटिक चीज कीमती होती है. कल, यह चिट्ठी भी होने वाली है बिलकुल वैसे ही....जैसे.........
तुम्हारी अपनी नानी....
चिंकी, पिंकी, लीला, शीला, लवली, बबली!
पता है, आज सुबह दस बजते ही मैं सीधे डाकखाने गई और पूरे तीन सौ पैंसठ लिफाफे खरीद कर ले आई. अब आज से हर दिन एक चिट्ठी लिख कर तुम्हे भेजा करूंगी.
तुम सब सोच रहे होगे की नानी तो पगला गई है, रोज़ एक चिट्ठी लिख कर भेजेगी. भाट ए जोक? बुढापे मैं क्यों अपने रिटायर्ड हाथों को तकलीफ दे रही है बेचारी. अरे, ज़माना बदल गया है, सबके पास मोबाइल फोन हो गए हैं, बस मोबाइल फोन उठाओ, नंबर मिलाओ और जब जी चाहे, जितनी चाहे बातें करो.
सो बिटवा, बात तो तुम्हारी सोलह आने सच है. पर उसमे भी झोल है अब देखो, तुम्हारी नानी सो काल्ड बूढी ज़रूर हो गई है पर उसके हाथ-पैर, आँख-कान और दिल, दिमाग भगवान् की दया से अभी भी सही काम कर रहे हैं. इसलिए सोचती हूँ कि इनकी कसरत करते रहनी चाहिए. और भई, देखो, मोबाइल पर तुम जिसे बातचीत करना कहते हो, मैं उसे बकर-बकर करना कहती हूँ. पांच मिनट भी बकर-बकर करो तो कान गर्म हो जाते हैं. पर चिट्ठी की बात कुछ और है. चिट्ठी सामने होती है तो लगता है जैसे भेजने वाला बिलकुल सामने खड़ा है.
अब तुम्हारा खुराफाती दिमाग फिर किलबिल-किलबिल कर रहा होगा की मैं क्या उलटी बात कर रही हूँ. मोबाइल फोन से भी आगे अब तो विडियो फोन आ गए हैं. कंप्यूटर...इन्टरनेट... भी तो हैं, चैटिंग-शैटिंग करो नानी...क्या दकियानूसी चिट्ठी राग अलापे जा रही हो. अच्छी-खासी पढ़ी-लिखी हो तो मोडर्न बनो नानी...मोडर्न .
अब मैं तुम्हारी बात मान भी लूं तो फिर उनके बारे में कैसे सोचूँ जिनके पास मोबाइल तो क्या ठीक से दो जून खाने को रोटी भी नहीं है. और मोबाइल फोन क्या मुफ्त की चीज है? उसमे पैसे नहीं लगते? मुझसे पूछो तो क्या मोबाइल, क्या कंप्यूटर, क्या इन्टरनेट सब के सब एक छोटी सी चिट्ठी के आगे पानी भरे हैं. तुम ही सोचो, क्या ये सब उस इंतज़ार का मज़ा देसकते हैं जो तुम आँखें बिछाकर नानी की चिट्ठी के लिए करोगे.
जानते हो जब मेरे ज़माने में इकन्नी के पोस्टकार्ड पर किसी भी अपने की चिट्ठी आती थी तो पूरे घर में छीना- झपटी हो जाती थी इस बात पर की कौन सबसे पहले पढ़ेगा. हाय, कितनी प्यारी लगती थी वह मोती जैसे अक्षरों से लिखी चिट्ठी. पता है आज भी मैंने ऐसी कितनी ही चिट्ठियां अपने बक्से में सम्भाल कर राखी हुई है. कभी-कभी अकेले में
उन्हें निकाल कर पढ़ती हूँ तो पूरा का पूरा वक्त पलटी मार जाता है. आँखों के आगे धुंधलाई तस्वीरें अपना रंगफिर पकड़ने लगती हैं. एक-एक चिट्ठी
देख कर कभी रोती हूँ तो कभी हंसती हूँ.
आज एक बात कहती हूँ तुम सबसे. जिंदगी में कितना भी तेज दौड़ना तुम क्यों न सीख लो पर उस पल को
सदा याद रखोजब तुम पहली बार पंजों के बल पर खड़े हुए थे. नए के चक्कर में गए को बिलकुल भुला देना
बेईमानी है. संभाल कर रखो उन पलों को अपने सीने में जो आज एंटिक चीज हो गए हैं.
हर एंटिक चीज कीमती होती है. कल, यह चिट्ठी भी होने वाली है बिलकुल वैसे ही....जैसे.........
तुम्हारी अपनी नानी....
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