Wednesday, May 18, 2011

नानी की चिट्ठियां -1

मेरे प्यारे चम्पू, पप्पू, टीटू, नीटू, गोलू, भोलू, किट्टी, बिट्टी
चिंकी, पिंकी, लीला, शीला, लवली, बबली!
पता है, आज सुबह दस बजते ही मैं सीधे डाकखाने गई और पूरे तीन सौ पैंसठ लिफाफे खरीद कर ले आई. अब आज से हर दिन एक चिट्ठी लिख कर तुम्हे भेजा करूंगी.
तुम सब सोच रहे होगे की नानी तो पगला गई है, रोज़ एक चिट्ठी लिख कर भेजेगी. भाट ए जोक? बुढापे मैं क्यों अपने रिटायर्ड हाथों को तकलीफ दे रही है बेचारी. अरे, ज़माना बदल गया है, सबके पास मोबाइल फोन हो गए हैं, बस मोबाइल फोन उठाओ, नंबर मिलाओ और जब जी चाहे, जितनी चाहे बातें करो.
सो बिटवा, बात तो तुम्हारी सोलह आने सच है. पर उसमे भी झोल है अब देखो, तुम्हारी नानी सो काल्ड बूढी ज़रूर हो गई है पर उसके हाथ-पैर, आँख-कान और दिल, दिमाग भगवान् की दया से अभी भी सही काम कर रहे हैं. इसलिए सोचती हूँ कि इनकी कसरत करते रहनी चाहिए. और भई, देखो, मोबाइल पर तुम जिसे बातचीत करना कहते हो, मैं उसे बकर-बकर करना कहती हूँ. पांच मिनट भी बकर-बकर करो तो कान गर्म हो जाते हैं. पर चिट्ठी की बात कुछ और है. चिट्ठी सामने होती है तो लगता है जैसे भेजने वाला बिलकुल सामने खड़ा है.
अब तुम्हारा खुराफाती दिमाग फिर किलबिल-किलबिल कर रहा होगा की मैं क्या उलटी बात कर रही हूँ. मोबाइल फोन से भी आगे अब तो विडियो फोन आ गए हैं. कंप्यूटर...इन्टरनेट... भी तो हैं, चैटिंग-शैटिंग करो नानी...क्या दकियानूसी चिट्ठी राग अलापे जा रही हो. अच्छी-खासी पढ़ी-लिखी हो तो मोडर्न बनो नानी...मोडर्न .
अब मैं तुम्हारी बात मान भी लूं तो फिर उनके बारे में कैसे सोचूँ जिनके पास मोबाइल तो क्या ठीक से दो जून खाने को रोटी भी नहीं है. और मोबाइल फोन क्या मुफ्त की चीज है? उसमे पैसे नहीं लगते? मुझसे पूछो तो क्या मोबाइल, क्या कंप्यूटर, क्या इन्टरनेट सब के सब एक छोटी सी चिट्ठी के आगे पानी भरे हैं. तुम ही सोचो, क्या ये सब उस इंतज़ार का मज़ा देसकते हैं जो तुम आँखें बिछाकर नानी की चिट्ठी के लिए करोगे.
जानते हो जब मेरे ज़माने में इकन्नी के पोस्टकार्ड पर किसी भी अपने की चिट्ठी आती थी तो पूरे घर में छीना- झपटी हो जाती थी इस बात पर की कौन सबसे पहले पढ़ेगा. हाय, कितनी प्यारी लगती थी वह मोती जैसे अक्षरों से लिखी चिट्ठी. पता है आज भी मैंने ऐसी कितनी ही चिट्ठियां अपने बक्से में सम्भाल कर राखी हुई है. कभी-कभी अकेले में
उन्हें निकाल कर पढ़ती हूँ तो पूरा का पूरा वक्त पलटी मार जाता है. आँखों के आगे धुंधलाई तस्वीरें अपना रंगफिर पकड़ने लगती हैं. एक-एक चिट्ठी
देख कर कभी रोती हूँ तो कभी हंसती हूँ.
आज एक बात कहती हूँ तुम सबसे. जिंदगी में कितना भी तेज दौड़ना तुम क्यों न सीख लो पर उस पल को
सदा याद रखोजब तुम पहली बार पंजों के बल पर खड़े हुए थे. नए के चक्कर में गए को बिलकुल भुला देना
बेईमानी है. संभाल कर रखो उन पलों को अपने सीने में जो आज एंटिक चीज हो गए हैं.
हर एंटिक चीज कीमती होती है. कल, यह चिट्ठी भी होने वाली है बिलकुल वैसे ही....जैसे.........

तुम्हारी अपनी नानी....

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