Friday, July 27, 2012

अन्ना हजारे आंदोलन पर ओम प्रकाश कश्यप का एक विचारोत्तेजक लेख




जुलाई 27, 2012 · 10:39 अपराह्न
इस आंदोलन को सफल होना ही चाहिए

अन्ना हजारे गांधी नहीं हैं. पर वे अच्छे उद्देश्य के लिए अड़ जाने वाले नेता हैं. ऐसे व्यक्ति उन चुनौतियों को आसानी से पार करने में सफल हो जाते हैं, जहां लक्ष्य का एका हो तथा समूह की बागडोर पूरी तरह अपने हाथों में हो. जहां बहुत से शक्ति-केंद्र हों, उलझाव-भरी, जटिल सत्ता-संरचना हो, जहां मौजूद लोगों में अधिकांश का उद्देश्य महज स्वार्थ-सिद्धि हो, ऐसे लोगों को सही रास्ते पर लाने के लिए जैसा बुद्धि-चातुर्य तथा रणनीतिक कौशल चाहिए, उसका उनमें अभाव है. इसलिए यह संघर्ष अन्ना हजारे और सरकार के बीच न होकर टीम अन्ना और सरकार के बीच है. टीम अन्ना के दूसरे सदस्य अरविंद केजरीवाल राजनीति के क्षेत्र में व्याप्त अराजकता, अनैतिकता, अनाचार तथा भ्रष्टाचार से आहत, भावुक और संवेदनशील इंसान दिखते हैं. कई बार वे अपने जज्बात पर काबू नहीं रख पाते. किरन बेदी ने अपनी छवि सख्त पुलिस अधिकारी की बनाई थी. बाद में प्रशासन से पटरी न बैठ पाने के कारण वे नौकरी से इस्तीफा देकर समाज सेवा के क्षेत्र में गईं. उन्हें वहां प्रतिष्ठा भी मिली. परंतु कुछ अति उत्साह, कुछ उनकी गलती से सरकार उनकी छवि को दागदार करने में कामयाब रही है. इकानॉमी क्लॉस में यात्रा करके, बिजनिस क्लॉस का किराया लेना उनकी नैतिकता पर सवाल बनकर आया. इससे भी भारी पड़ा था रामलीला मैदान में किरन बेदी छाप प्रहसन, जिसने उनकी गंभीरता को सवालों के घेरे में ला दिया. शांति भूषण और प्रशांत भूषण पिता-पुत्र का योगदान आंदोलन से जुड़े कानूनी मुद्दे देखना है. अभी तक उन्होंने अपनी भूमिका का सफल निर्वाह किया है. पिछले वर्ष अगस्त आंदोलन में अन्ना हजारे द्वारा रिहाई की पेशकश को ठुकराकर थाने में धरना देने की घोषणा उनकी रणनीतिक जीत थी. मनीष सिशौधिया प्रायः लो-प्रोफाइल दिखते हैं. जनलोकपाल से इतर राजनीतिक, सामाजिक और प्रशासनिक सुधार के लिए उनके पास भी कोई ठोस रणनीति नहीं है. बाकी सदस्य बाड़ के समान हैं. संख्या बढ़ाने वाले. भ्रष्टाचार जो टीम अन्ना का केंद्रीय मुद्दा है, को लेकर भी जनलोकपाल बिल पर मौन सहमति से आगे नहीं जाते. यही कारण है कि सरकार को घेरने के लिए टीम अन्ना पुराने मुद्दों से आगे नहीं बढ़ पाई है. वह अभी तक जनलोकपाल पर अटकी हुई है, जिसे लेकर सरकार और बुद्धिजीवियों में अनेक मतभेद हैं. उसी का लाभ उठाकर सरकार मुद्दे को लगातार टालती आ रही है.

एक कानून के रूप ‘जनलोकपाल’ एक प्रतिबंधात्मक व्यवस्था है. वह अपराधियों को दंड दिलवाने पर केंद्रित है. अपराध की स्थितियां पैदा ही न हों, उसकी यह कोई व्यवस्था नहीं करता. दूसरे यह केवल आर्थिक अपराधों पर विचार तथा उनके निषेध तक सीमित रहता है. सामाजिक कदाचार, निजी क्षेत्र के भ्रष्टाचार पर वह चुप्पी साधे हुए है. जो कदाचित आर्थिक भ्रष्टाचार से भी खतरनाक है. उनके सहयोगी बाबा रामदेव का मुख्य मुद्दा विदेशों में जमा धन वापस लाना है. आगे क्या होगा, इस बारे में वे भी कोई विचार नहीं रखते. विदेशी बैंकों में जमा धनराशि को वापस लाना अव्वल तो आसान नहीं है. यदि यह चमत्कार संभव भी हो जाए तब क्या होगा? क्या गारंटी है कि उस धन को लेकर उनके नए-पुराने दावेदार परोक्षरूप में कोर्ट में दावेदारी पेश नहीं करेंगे! तब क्या यह संभव नहीं कि पद्मनाभ मंदिर के खजाने की तरह वह भी दिखावटी बनकर रह जाए! विनोबा ने भूदान में चालीस लाख एकड़ से अधिक भूमि जुटाई थी. ठोस एवं सक्षम कार्यनीति के अभाव में वह, पचास-साठ वर्षों के बाद आज तक, भूमिहीनों में नहीं बांट पाई है. परिणामस्वरूप अधिकांश भूमि पर दबंगों ने कब्जा कर लिया है.

इधर सरकार तथा जनलोकपाल आंदोलन का विरोध कर रहे दलों को लगता है कि वे टीम अन्ना के सदस्यों से लोगों का विश्वास डिगाने में कामयाब हो चुके हैं. इसलिए वे पूरी तरह जनलोकपाल के विरोध में उतर आए हैं. कानून मंत्री का हालिया कथन कि आंदोलनकारी सरकारी रवैये से असहमत हैं तो वे संयुक्त राष्ट्र में जा सकते हैं, बहुत ही बचकानी और गैरजिम्मेदराना टिप्पणी है. यह लोकपाल या जनसरोकारों से युक्त अन्य मसलों पर बिल के प्रति सरकार की उपेक्षा और उसकी दीठता को दर्शाता है. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि गत वर्ष अगस्त आंदोलन के बाद अन्ना हजारे की रैलियों में लोगों की उपस्थिति घटी है. इस बार टीम अन्ना का फेसबुक अभियान भी पहले जैसा नहीं है. संभव है उसको सेंसर किया जा रहा हो. लेकिन यदि टीम अन्ना का कथित ‘सोशल’ साइट्स से भरोसा टूटा है तो यह अच्छा ही है. जिसे सोशल मीडिया कहा जाता है, वह प्रायः समाज से कटे या ऐसा महसूस कर रहे व्यक्तियों के लिए आभासी संबंधों का मंच है. उससे सूचनाओं का त्वरित आदान-प्रदान तो संभव है. लेकिन समुचित विवेक-निर्माण और समाज की संगठित ऊर्जा का सकारात्मक उपयोग संभव नहीं है. आभासी समूहों का प्रत्येक सदस्य स्वयं को समूह का नायक अथवा नायक-जैसा माने रहता है. वह काल्पनिक और गढ़ी हुई आभासी दुनिया होती है, जिसमें सहमति या असहमति कंप्यूटर की मात्र एक ‘क्लिक’ जितना महत्त्व रखती है. अव्वल तो वह व्यावहारिक चुनौतियों से दूर रहता है, लेकिन उसकी स्थिति बने भी तो उनका नायकत्व एक झटके में बिखर जाता है. सोशल मीडिया द्वारा समाज का ऐसा विवेक निर्माण संभव नहीं है, जिससे वह अपने अंतद्र्वंद्वों से उभरकर एकजुट हो, विकास के रास्ते पर आगे बढ़ सके. 2011 के आरंभ में अरब देशों में हुई क्रांति इसका उदाहरण है. साल-डेढ़ साल के भीतर वहां नई पोशाक में पुराना निजाम वापस आ चुका है.

ऐसी परिस्थितियों में क्या टीम अन्ना से मोह भंग हो जाना चाहिए? उनके चालू आंदोलन को चंद सिरफिरों की उछलकूद मानकर क्या हमें स्वयं को उससे पूरी तरह अलग कर लेना चाहिए? यदि यह हुआ तो वह बहुत ही बुरा होगा. टीम अन्ना के हम प्रशंसक हों या आलोचक, परंतु हमें यह हरगिज नहीं मानना चाहिए कि जनता में बदलाव की इच्छा मर चुकी है. न सरकार को यह लगने देना चाहिए कि जनता का मनोबल टूट चुका है. बल्कि अधिक विचारवान ढंग से, अधिक जागरूकता, समर्पण एवं चेतना-शक्ति से लोगों को मतभेद भुलाकर इस आंदोलन में साथ देना चाहिए. जिन लोगों की टीम अन्ना से सैद्धांतिक असहमति है, उन्हें सकारात्मक विरोध की नई संभावनाओं के बारे में सोचना चाहिए. मेधा पाटकर, अरुंधति राय, सुंदरलाल बहुगुणा जैसे आंदोलनकारी इससे पहले भी जनसहभागिता के बल पर निरंतर आंदोलन करते रहे हैं, लेकिन लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप पर सवाल खड़ा करने वाला यह शायद अकेला आंदोलन है. इसकी सफलता देश में लोकतंत्र की बुनियादी मजबूती के लिए अपरिहार्य है.

पर्याप्त लोक-चेतना के अभाव में राजनेता मनमानी पर उतर आए हैं. उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने अपने पुत्र अखिलेश यादव को प्रदेश के मुख्यमंत्री की गद्दी देकर वंशवाद की राजनीति में एक नया आयाम जोड़ा है. वही काम अब कांग्रेस करने जा रही है. राहुल गांधी को सरकार में अतिरिक्त जिम्मेदारी देने की घोषणा इसी का संकेत है. उत्तर प्रदेश के दो चुनावों में असफलता का मुंह देर चुके राहुल की कामयाबी पर पूरा भरोसा तो खुद कांग्रेसियों को भी नहीं है. मंच पर बांह चढ़ाकर दो हाथ करने की मुद्रा में भाषण देने से संभव है एक-दो प्रतिशत वोट और अधिक मिल जाएं. लेकन पार्टी और देश को सफलतापूर्वक चलाने के लिए दूरदर्शी सोच और विवेक की जरूरत पड़ती है. उसका कोई प्रमाण राहुल ने अभी तक नहीं दिया है. लोकतंत्र के नाम पर वंशवाद की अमरबेलि, राजनीति के नाम पर अनाचार, विकास योजनाओं के पीछे छिपे भ्रष्टाचार पर यदि अंकुश लगाना है तो उसका केवल एक ही उपाय है, सरकार को लगे कि जनता उसके प्रत्येक धत्कर्म पर नजर रखे है. इसके लिए आवश्यक है कि सरकार जनलोकपाल जैसे परिवर्तनकामी आंदोलनों को कामयाबी मिले. उससे जनता के आत्मविश्वास में वृद्धि हो. सरकार को लगे कि सर्वकल्याणकारी राजनीति की मांग को अब और टालना असंभव है. फिलहाल ‘जनलोकपाल’ आंदोलन संभवतः अकेला ऐसा उदाहरण है जिसने इस देश के लोकतांत्रिक विकारों को लेकर बहस की शुरुआत की है. ऐसे आंदोलनों का बचे रहना, देश में लोकतंत्र अच्छी सेहत के लिए बहुत जरूरी है, फिर बहाना चाहे जनलोकपाल बिल हो या कुछ और.

ओमप्रकाश कश्यप


आखरमाला से साभार 

Sunday, July 22, 2012

अवधूता, गगन घटा गहराई रे




मेधा बुक्स,एक्स -११, नवीन शाहदरा, दिल्ली-३२ द्वारा प्रकाशित कुमार गन्धर्व पर उनके अंतरंग मित्र वसंत पोतदार द्वारा बहुत आत्मीयता से लिखी गई एक अदभुत किताब : (मूल्य सजिल्द ३००/- रूपये/ पेपरबैक ७५/- रुपये - )
इसका एक अंश  इसी किताब से साभार
अवधूता, गगन घटा गहराई रे


पश्चिम दिशा से मृत्यु के कृष्ण मेघ बहते आ रहे हैं (पच्छिम दिशा से उल्टी बदली). विचक्षण कुमार गन्धर्व को डेढ़ महीना पहले ही उसका आभास हुआ होगा. यम नामक ठगवा अपनी जीवन-नगरी लूटने आ रहा है, इसका आभास. अर्थात यह संगति उनकी मृत्यु के बाद ही लगाईं गई.
     मृत्यु से एक महीना दो दिन पहले, यानी १० दिसंबर १९९१ को कुमार जी की एक महफ़िल पुणे के मशहूर सवाई गन्धर्व संगीतोत्सव में हुई. उनकी बुलंद और अनहतनाद  की पुकार करनेवाला सुर पुणे में ही  आखिरी बार गूंजा.
     उससे पूर्व बंगलौर में वास्तुशिल्पी चंदावरकर के घर महफ़िल हुई. वह आखिरी  खासगी (प्राइवेट) बैठक हुई. कुमार जी के एक बड़े हितचिन्तक थे, केनरा बैंक के सर्वेसर्वा श्री कामत. उनकी मृत्यु भी कुमार जी को झेलनी पड़ी थी. कामत साहब की पत्नी श्रीमती निरुपमा कामत बंगलौर में थीं. उनसे मिलकर कुमार जी मल्लेश अप्पा (मल्लिकार्जुन मंसूर) से मिलने धारवाड गए. साथ थे श्रीराम पुजारी और राम कोल्हटकर. घंटाभर मल्लेश अप्पा से कांनडी में बातचीत करके निकलते वक्त कुमार जी ने अपने मित्रों से कहा था-मल्लेश अप्पा नामक झरना फिर से शुरू हुआ है. अब यह गाना रुकेगा नहीं.
     मगर कुमार  गन्धर्व नामक झरना सूख ही गया और फिर मल्लिकार्जुन मंसूर भी शांत हो गए.
     गंगूबाई हंगल से भी कुमार जी आखिरी  बार मिलकर आए. फिर ऐसे गायक के पास गए और खाना खाकर आए जिनके पास कुमार जी पहले कभी गए नहीं थे. उनका नाम संगमेश्वर गुरव.
     बाद में बेलगांव में परिवार के साथ दो दिन रहे. कुमार जी ने बेल्लारी से अपनी बहन को बुलवा लिया था और मिराज से बुलाया ठा गन्धर्व महाविद्यालय मंडल के सचिव श्री बलवंत गोपाल जोशी को. मिराज के केन्द्रीय मंडल के कार्यालय में संगीत का जो विशाल संग्रहालय है, उसका कैटलाग कुमार जी के पास हमेशा रहता. बेल्गाओं के सत्कार होटेल में कुमार जी ने जोशी से कहा मुझे खट राग पर काम करना है. आपके पास जितना खट होगा  कृपया टेप करके भेज दीजिए.
     कोमकली-परिवार से अंतिम बार मिलकर कुमार जी कोल्हापुर से होते हुए पूना गए. प्रो. चिरमुले  की बीमारी के कारण पुणे में वे श्रेयस होटल में रुके. गत दस-बारह वर्ष कुमार जी का पुणे का मुकाम चिरमुले  जी का घर होता था. भोर होते ही दोनों उठ जाते थे और मध्यरात्रि तक संगीत चर्चा चलती रहती.
     चिरमुले  के पास बहुत समय चुपचाप बैठे रहे कुमार जी. उठने के बाद बोले मार्च ९२ में फिर से आ रहा हूं पुणे. तब तक तंदरुस्त हो जाइए. चिरमुले  अब उठेंगे नहीं यह कुमार  जी को पता चल चुका था.
रामजी देशमुख के पास मुम्बई में अनेक साल रहे थे कुमार जी. उनके कुछ हितचिंतकों में से एक था देशमुख दम्पती. सेवानिवृत्ति के बाद रामजी पुणे में स्थापित हो गए हैं. उनसे आखिरी  बार मिलने गए कुमार जी और बातों- बातों में क्षमा-याचना करते हुए बोले, रामजी, पुणे में मैं आपके बजाय चिरमुले  जी के पास रहता हूं, इसका बुरा मत माना. मैं आपका ही हूं.
फिर कलापिनी से कुमार जी ने ठुमरी गाने को कहा, उसकी आवाज भानु जैसी ही है यह भी कहा. फिर घंटाभर ठुमरी पर बोले. बड़े गुलाम अली ने ठुमरी कितनी और कहां-कहां सुनाई- यह जानकारी देते हुए कुमार जी ने कहा ठुमरी की सुरावत गायक को एस्त्ब्लिश करनी चाहिए. सिर्फ शब्द नहीं. नदिया किनारे मोरा गांव ये शब्द ही ठुमरी नहीं. भाव, रस, स्वर से बनती है ठुमरी. उसके बाद खयाल कहां खत्म होता है और ठुमरी कहां शुरू होती है-यह विषद कहने के बाद कुमार जी ने ठुमरी पर नृत्य भी किया.
नया साल शुरू हुआ-१९९२. देवास में कड़ाके की ठण्ड थी. इनदोर की मित्र-मण्डली को नए साल की शुभकामनाएं देना हर साल का कार्यक्रम. रविवार, पांच जनवरी को जाने का तय हुआ. चाणक्य मलिका देखकर कुमार जी सपरिवार इंदौर गए. सुबह से ही उन्हें बुखार था. यात्रा के काबिल नहीं था स्वास्थ्य. फिर भी आम्ही जातो अमुच्या गाव-संत तुकाराम (हम चले हमारे देस), यह मन ही मन कहकर अपने दीर्घ साथ के मित्रों को आखिरी राम-राम करने वे गए.
भानुकुल में आते ही वे बोले-कुछ ठीक नहीं लग रहा.
शरीर तप हुआ देखकर ताई ने थर्मामीटर लगाया तो डेढ़ डिग्री ताप. बुखार आया है यह पहले कहा होता तो इंदौर नहीं जाते. ऐसा ताई के कहते ही कुमार जी बोले-सबको मिलना था. कुमार जी ने यह नहीं कहा कि आज न जाते तो फिर कभी जाना न होता. क्योंकि अगले रविवार से (५ जनवरी से) मृत्यु तक वे बिछौने पर ही पड़े रहे. पहले पांच दिन बुखार, फिर दस्त, आखिर में दमा.
मगर पत्नी से उन्होंने कहा कि ये बीमारी मेरे वश की नहीं लगती. इस बीमारी में मैं समाप्त हो जाऊंगा-ऐसा मुझे लगता है. प्रखर जिजीविषा का, क्षय से लेकर अपंगावस्था तक के रोगों से लड़नेवाला यह लड़वैया क्षुद्र फ्ल्यु के बुखार से बचूंगा नहीं कह रहा था. उससे पूर्व कुमार जी अपनी बीमारी के बारे में हंसते हुए कहते आए थे-कोई भी बीमारी हुई कि मैं उसका बारीकी से अभ्यास करता हूं. इसलिए कि वह फिर से आई तो उससे कैसे लड़ें - इसकी तैयारी हो तो अच्छा. मगर वह फिर से आती ही नहीं. च्या मारी, नया ही कुछ उभरता है. एक बार की आई हुई बीमारी फिर मुंह नहीं दिखाती. हर बार बीमारी की नई ही गायकी होती है साली.
१० जनवरी को बुखार उतरा तो दस्त शुरू हुए. हर बार उठ रहे हैं. संडास जा रहे हैं. रात को स्थिति विकट हुई. कपड़े गंदे होने लगे. आखिर ११ जनवरी को इंदौर में डॉ. मुकर्जी के पास जाने का तय हुआ. उसमे भी दो रोडे. एक- भयानक ठण्ड. दो- उस दिन इंदौर बंद की घोषणा थी. डॉक्टर ने अस्पताल में भर्ती करने को कहा तो कुछ तकलीफ न हो, इसलिए देवास से चाय-कॉफी सहित सब आवश्यक सामन लेकर ताई और कलापिनी निकले. जुलाब काबू में आ रहे थे, मगर सांस जोरों से चल रही थी.
डॉ. मुकर्जी ने सघन जांच की. मृत्यु बारह गंतों पर जीवन की राह हमेशा के लिए रोकने को चाहे खड़ी है, मगर डॉक्टर ने अंदाजा और ही लगाया., डरों मत! सांस जोर से चल रही है, फिर भी वर्स्ट इज ओवर. अपताल में दाखिल करने की ज़रूरत नहीं..मैं दवाई देता हूं, वह लीजिए.
देवास का वापसी प्रवास! कुमार जी ने कुछ महीन पहले पान -तम्बाखू छोड़ दी थी. मगर क्षिप्रा के पास गाड़ी रोककर उन्होंने मालवी पां मंगाया. गाड़ी रोककर ही उन्होंने तबीयत से पां का स्वाद लिए. थूकने के बाद बोले, देवास के डॉक्टरों के नाम यह पान थूका है. अब उन्हें तबीयत नहीं दिखाऊंगा.
सच तो यह कि उन्होंने जीवन के नाम पर ही पान थूका था. १९६१ साल में उन्होंने पूर्व अफ्रीका के दौरे पर पान थूका था. अब सीधे उन्होंने जिंदगी पर ही थूक डाला.
शाम को भानुकुल में आए. दमा अचानक बढ़ गया. ऑक्सीजन की नाली घर में थी. मगर मीटर बिगड़ा हुआ था. कलापिनी अस्पताल से नई नाली और मास्क लाई. वह सिलिंडर आधा ही भरा हुआ था. घर का फोन उसी वक्त नादुरस्त हुआ. रात नौ बजे ताई नई नली लाई. रात दस बजे दमे का जोर ज्यादा ही बढ़ गया. मगर कुमार जी ने डॉक्टर को बुलाने नहीं दिया.
जुलाब चालू थे ही. खुद चलकर संडास जाते कुमार जी. रात सवा तीन बजे वे संडास गए. कमोड  पर बैठे और हृदय-विकार  का जबरदस्त झटका. अपनी काया-नगरी में रहने वाला आत्मा यानी हंस-कब उड़ गया, यह कुमार जी को भी पता न चला होगा.
कुमार जी को कितना नया करना था! संगत के वाद्य लिए बिना सिर्फ दो तान्पूरों में ही गाना था. सिर्फ तराना-गायन का कार्यक्रम करना था. वैसा ही केवल गज़लों का. खट राग पर भी महफ़िल करनी थी. और भी कई प्रयोग करने थे.सब रह गया....
रामू भैय्या दाते कहते –‘सारे कलाकार मरकर स्वर्ग जाते हैं. कुमार स्वर्ग से ही प्रथ्वी पर उतरा है, वह मरने के बाद कहां जाएगा?
कुमार जी कहीं भी गए हों, मगर वे अब अपने में नहीं - यह है रेगिस्तानी सत्य. जग में सात आश्चर्य हों या सात सौ, अब्बल नंबर का आश्चर्य है मृत्यु.
कुमार गन्धर्व संगीत-सृष्टि का एक दुर्लभ कलाकार!
मृत्यु सम्पूर्ण सृष्टि को ही दुरगम्य!
     
 -कुमार गन्धर्व-वसंत पोतदार (मेधा बुक्स, दिल्ली-३२ से साभार)

Sunday, July 15, 2012

प्रख्यात हिंदी कवि, कला-चिंतक हेमंत शेष की कविताएँ





हेमंत शेष 




समकालीन हिंदी कविता को  नई  धार देने वाले कुछ विरल कवियों में हेमंत शेष ने अपनी अलग ही पहचान बनाई है. वे बहुपठित एवं बहुचर्चित कवि  और कला-चिंतक हैं.  यहां बहुत ही सम्मान से उनकी  तीन कविताएँ  प्रस्तुत हैं . आशा है इस ब्लॉग के पाठकों को ये पसंद आयेंगीं:


निमिष के लिए एक कविता 


बचपन में बच्चा
एक नसीहत है.
प्रौढ़ चेहरों में बदलते हुए
पत्थरों के लिए
क्षमा में सब कुछ
भूलना उसकी सम्पत्ति है
जिस आदत के लिए
तरस जाना हमारी नियति
एक बच्चे को याद रखने के पाठ सौंपते हुए
हम क्रूरता और बेवकूफी
दोनों को साधते हैं
उसकी अर्थ भरी मुस्कान के विवेक से
डरते हुए
हमें किसी दिन
बंद कर देना चाहिए यों बिना परिश्रम
बड़े होना
और कहलाना.






अभाव-अभियोग


एक पत्नी
अपने पति के
सपनों में चिल्लाती है.
उसकी चीख से त्रस्त
चुपचाप वह निकल जाता है
झोला लिए.

अभाव उसे खा जाते हैं, बाजार ही में
कुतरा  हुआ शरीर जब आता है लौट कर
टूटता है सपना.
वह झल्लाता है और देखता है
पत्नी सोयी हुई है उसी तरह.

कई बरसों से
घर और सपनों पर टंगा है
एक झोला
जिसमें  बाजार
एक डकार की सूरत में भरा है.
और जो
पत्नी की चीख की वजह है.


चीटियाँ 


चीटियाँ मृत्यु तक सर्वशक्तिमान हैं
भूमि पर स्थित हर चीज तक उनकी पहुंच है.

वे जानती हैं
मनुष्य की क्षुद्र और नश्वर दुनिया के बहुत से तथ्य
अपनी सूक्ष्म नाकों से भी वे
सूंघ सकती हैं चीनी और चावल के दानों की उपस्थिति
हर बार सुराग लग ही जाता है उन्हें
मेज के नीचे फैले अन्न-कणों का
हर बार मालूम होता है वहां से चीटियों को
अपने घर का सबसे छोटा रास्ता
वे व्यस्त्तापूर्वक उस पर चल पड़ती हैं
और कभी पलटकर नहीं देखतीं.

न वे प्रतीक्षा करती हैं
न पूछताछ
वे कभी नहीं देखतीं अपना भविष्यफल
पत्र-पत्रिकाओं में
सफर कर निकलने के लिए उन्हें नहीं
जमाना पड़ता हजामत का सामान
उन्हें अपने साहसिक अभियानों की खबर अखबारों में
छपवाने में भी कोई दिलचस्पी नहीं होती
चीटियों  के जीवन पर बनायी जाती हैं फ़िल्में
दिए जाते हैं विज्ञानसम्मत भाषण
उन पर लिखे जाते हैं दिलचस्प नाटक
पर वे कभी उन्हें देखने नहीं आतीं
उन्हें पता होती है यह बात
जून के बाद आता है जुलाई
तब उन्हें सांस लेने तक की फुर्सत नहीं मिलती
बरसात की ऋतु से पहले ही अपने बच्चों के लिए
अटा देती हैं वे बिलों को राशन से
अपने से कई गुना मजबूत और बड़ी चीजों को
अत्यधिक छोटे मुन्हों से
गंतव्य तक खींच कर ले आने की कला में
निष्णात होने के बावजूद
वे गर्व में भर कर फूल नहीं जाती
और पुरानी शक्लों में ही बनी रहती हैं.

हवाई जहाज़ों की खिड़कियों से
बेशक चीटियाँ दिखलाई नहीं देतीं
पर उस वक्त भी
वे पूरी पृथ्वी पर फ़ैली होती हैं
नन्हें अन्न कणों की तरह
और
सबसे बड़ी बात तो यह कि चीटियों
पूरी प्रगतिशीलता और काव्यात्मकता के बावजूद
कभी कवि होने की गलतफहमी नहीं होती.


(आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी से साभार)

Monday, July 9, 2012

दो कमरे का मन -कहानी संग्रह -कलानाथ मिश्र


महानगरीय संत्रास और मूल्यों के संघर्ष को उकेरती कहानियां


समाज एवं परिवार जैसी संस्थाओं के जन्म के साथ-साथ मनुष्य का सामाजिक होना  और उसके इर्द-गिर्द आत्मीय संबंधों का एक विस्तृत अंतरजाल निर्मित होना यदि मानव इतिहास की सबसे बड़ी घटना है तो बाजारवाद, भूमंडलीकरण और तकनीक के विस्तार के साथ-साथ मनुष्य का निरंतर एकाकी, अवसादग्रस्त और असंवेदनशील होते जाना हमारे वर्तमान की उससे भी बड़ी दुर्घटना है.
            विडंबना यह है कि यह सब हमारे सामने घटित हो रहा है और  इस पूरे परिदृश्य को हम न केवल कातर दृष्टि से देखने के लिए विवश हैं अपितु हम इसे आधुनिक जीवन के सामान्य बदलाव के रूप में स्वीकृत भी किये जा रहे हैं. समृद्धि का अर्थ यदि अंदर से खाली होते जाना है तो ऐसी समृद्धि किस काम की? असहिष्णुता और असंवेदनशीलता की दुहरी मार हमारी वर्तमान पीढ़ी को किस खतरनाक मोड़ पर लाकर खड़ी कर चुकी है, यह सोचना ही भयावह लगता है.
कलानाथ मिश्र की ग्यारह कहानियों का सद्यः प्रकाशित संग्रह  'दो कमरे का मन' पाठकों को इसी भयावह स्थिति से दो-चार कराता है. आपा-धापी भरे महानगरीय जीवन में संयुक्त परिवारों की टूटन, पैसा कमाने की होड़, रहने की जगह की सीमितता, दाम्पत्य जीवन के तनाव और अपनी निजता बचाये रखने की मजबूरी जैसे प्रश्न जब समवेत रूप से सामने खड़े होते हैं तो समूची ज़िन्दगी ही खोखली लगने लगती है दो कमरे का मन के कथा-नायक सुदीप का दोस्त तापस जाते-जाते जब सुदीप और उसकी पत्नी सुलेखा के सामने यह सवाल छोड़ जाता है –‘कमरा छोटा होने से क्या दिल भी छोटा हो जाता है? तो बरबस रमेश रंजक की पंक्तियाँ याद हो आती हैं –‘बंधु रे, हम-तुम घने जंगल की तरह होते, नाम भर वाले अगर रिश्ते नहीं ढोते.
रिश्तों की यह टूटन मोक्ष कहानी में और भी ज्यादा उभरकर सामने आती है. बेटे का विदेश चले जाना और वहां की चमक-दमक में खोकर माँ-बाप की वर्षों सुधि न लेना और यही नहीं, निजी धनलिप्सा की पूर्ति के लिए उन्हें उन्हीं की सम्पति से बेदखल कर असहाय छोड़ देना किसी श्राप से कम नहीं, भले ही सुरेश बाबू सहृदयता से उसे मोक्ष नाम दे कर संतोष कर लें.
तेज़ाब कहानी इंसानी आस्था की अकाल मृत्यु का हिला देने वाला ऐसा बयान है जो हमें अंदर तक झकझोर देता है. सेवानिवृत्त कोंस्टेबल बनारसी को जब पता चलता है कि उसके जाली दस्तखत करके उसके नाम पर उसी के बॉस डिप्टी साहेब ने बैंक से क़र्ज़ उठा लिया है तो बैंक के प्रति उसका समूचा आक्रोश धराशायी हो जाता है और वह भावशून्य होकर रह  जाता है. बैंक के कर्मचारी उसकी निरीहता पर व्यंग्य कसते हैं –‘देखो, कल तक उसी डिप्टी साहब के बल पर हम सबों को धमका रहा था बेचारा...! भगवान समझता था उसे, उसी ने धोखा दे दिया.
      पैसा कमाने की होड़ व्यक्ति को किस हद तक असंवेदनशील बनाकर प्रकृति से दूर कर देती है और किस तरह दो पीढ़ियों के मूल्यों के संघर्ष में फलित होती है इसी को उकेरती कहानियां है आम का पेड़ पार्क और अतिथि
धन लिप्सा की यही विद्रूपता और मूल्यों का यही संघर्ष डॉलरपुत्र कहानी में भी देखने को मिलता है हालांकि वहां बालेश्वर बाबू के रूप में पूर्ववर्ती तीसरी पीढ़ी भी मौजूद हैंजो शैलेश बाबू और उनके पुत्र भानूं के चरमराते संबंधों से निराश हो कर अपनी स्थिति पर संतोष कर लेती हैं-शैलेश मुझे खुद पर ईर्ष्या होती है. मैं तुमसे अधिक भाग्यशाली पिता हूं...मुझे लगता है इसमें भानू की भी कोई गलती नहीं. सब समय का खेल है. समय के प्रवाह से कोई बच नहीं सकता. सबको उसके साथ बहना ही है. आज पूरे विश्व में स्पर्धा है, पैसे का बोलबाला है. ऐसे में डॉलर कमाना भी तो एक उपलब्धि है. भानू समय के हाथों विवश है. हो सकता है समय फिर पलटी खाय. पर अभी तुम अपने डॉलर पुत्र के डॉलर प्रेम में ही खुश रहो.
निर्मम कहानी में रिश्तों का अजनबीपन कुछ दूसरी तरह का है जहां राजलक्ष्मी इस बात को नहीं भूल पाती कि किस तरह उसके पिता उसे और उसकी छोटी बहन को उनकी माँ के गुजरने के बाद बचपन में ही देश से कोसों दूर लन्दन के होस्टल में निर्ममता पूर्वक छोड़ गए थे. यह एक घटना ही राजलक्ष्मी को सुजाता में एक नए आत्मीय रिश्ते की तलाश करने को प्रेरित करती है. उसका छिन्न-भिन्न व्यक्तित्व यह कहने को मजबूर कर देता है-क्या करूँ दीदी! मैं तो टुकड़ों में बंट गयी हूं. एक ओर बहन का मोह खींचता है तो दूसरी ओर मात्रभूमि, जन्मस्थान की मिट्टी के मोह...
ज्वार-भाटा कहानी जहां युवावस्था में विधवा हुई तनु के अपनी शिक्षा जारी रखने की मजबूरी और उसके मन की ऊहा-पोह को चित्रित करती है तो सृष्टिचक्र कहानी पारिवारिक जिम्मेदारियों से बचने तथा कम से कम समय में अधिक से अधिक पैसा कमाने के लिए बच्चों को जन्म न देने की प्रवृति पर सटीक व्यंग्य करती है.-डिंक...यानि डबल इनकम नो किड्स.
संग्रह की ही एक और कहानी शिकायत में भी युवा पीढ़ी के मोहभंग और मन की ऊहां-पोह का मनोवैज्ञानिक चित्रण हुआ है.
इसमें संदेह नहीं कि मिश्र जी की इन कहानियों का फलक बड़ा है और उनके अनुभव भी विविध हैं. पर पाठकों  के मन में एक सवाल का उठना स्वाभाविक है पुरानी और नई पीढ़ियों के मूल्यों के जिस संघर्ष और असंवेदनशीलता की भयावहता का बयां ये कहानियां करती हैं क्या वही हमारा अंतिम सच है?
इन कहानियों के लेखक के रूप में मिश्र जी ऐसा कोई दावा कहीं नहीं करते. यूं भी, महानगरों को छोड़ दें तो भारत के ग्रामीण अंचलों में अभी भी आत्मीय संबंधों की गर्माहट, सहजता और सघनता के दर्शन किये जा सकते हैं. हालांकि महानगरीय चमक-दमक और तद्जन्य संत्रास की धमक वहां बहुत पहले से पहुंच चुकी है. पर सब कुछ नष्ट होने के बाद भी बहुत कुछ शेष रहता है. एक रचनाकार की यही आश्वस्ति भी है और  संबल भी.
अंत में अगर इन कहानियों की भाषा पर बात की जाए तो इनमे साहित्य और बोलचाल की भाषा, दोनों का मणिकांचन योग देखा जा सकता है. बोलचाल की भाषा से मेरा तात्पर्य टी-वी और पत्रकारिता की भाषा से बिलकुल नहीं है जहां हिंगलिश का भदेस घालमेल बना हुआ  है.बल्कि मेरा संकेत उस भाषा की ओर है जिसमे स्थानीयता का प्रभाव अपने स्वाभाविक रूप में मौजूद होता है. शायद यही कारण है कि यहां सुलेखा टी.वी ऑन कर रखी थी, कौशल्या के कान में यह यथार्थ का दस्तक था, तुम क्या जानो बेटा क्वालिटी ऑफ लाइफ क्या होता है?, आपकी बैंक से मुझे ---- या रिक्शा आगे निकल चुकी थी, जैसे वाक्य हमें चौंकाते नहीं हैं.



-रमेश तैलंग
e-mail: rtailang@gmail.com

दो कमरे का मन
कहानी संग्रह:लेखक-कलानाथ मिश्र
इन्द्रप्रस्थ प्रकशन के -27 कृष्णा नगर, दिल्ली-110032.
प्रथम संस्करण 2011, मूल्य : 200/- रूपये.