Monday, February 20, 2012

जी हां, एक गांव हुआ करता था यहां कभी.




जी हां, एक गांव हुआ करता था यहां कभी.

पहले वह लोगों की स्मृति से लुप्त हुआ
फिर धीरे-धीरे भूगोल से विलुप्त हुआ
जी हां, एक गांव हुआ करता था यहां कभी.

बड़, पीपल, नीम गाछ उसके सहवासी थे
एक नदी के तट पर काबा और कासी थे
गालीं गलियारों की, छींटे मनुहारों के
बाहर कुभासी हों, भीतर सुवासी थे.
जी हां, एक गांव हुआ करता था यहां कभी.

फिर अंदर-अंदर जाने क्या पकने लगा
एक धूल का गुबार सब कुछ ढंकने लगा,
इससे पहले कि कुछ पता चले लोगों को
खान-पान, आचरण सब बदलने लगा
जी हां, एक गांव हुआ करता था यहां कभी.

सरल ह्रदय लोग कुछ सयाने होते गए
पर्व सब ढकोसले पुराने होते गए
वर्षों के नाते अनजाने होते गए
शब्द वही थे, अलग माने होते गए
जी हां, एक गांव हुआ करता था यहां कभी.

छोटा-मोटा धंधा जीवित था जो घर में
वह भी जाता रहा हाथों से, चक्कर में
तप्त सरोवर, सूखे गाछ देख पतझर में
सिमट गया गांव अचानक एक सपने भर में.
जी हां, एक गांव हुआ करता था यहां कभी.

-रमेश तैलंग

चित्र सौजन्य: गूगल

मेरी चार ग़ज़लें





1

साठ -सत्तर फ़ीसदी दर पर खरीदी जाएंगीं.
और फिर ताबूतों में सब बंद कर दी जाएंगीं.

वाह री किस्मत! किताबें हिंदी में साहित्य की,
अब दहाई में बड़ी मुश्किल से बेची जाएंगीं.

जिंदगी अपनी खपा कर चल दिए लिख-लिख के जो
ख्वाहिशें उनकी, सुना है, बस अधूरी जाएंगीं.

चार,छह तमगे, समोसे, चाय और कुछ तालियां
लेखकों के साथ अब ये चंद चीजें जाएंगीं.

सोचता हूं, क्या करेगा आदमी, बाजार में-
जब सभी संवेदनाएं जब्त कर ली जाएंगी.


2.

वह कहता था- ‘वह शब्दों की खेती करता है.
और ज़िन्दगी जीते-जीते, पल-पल मरता है.’

खुद्दारी पहचान बनी जब से उसकी, तब से
हर आईना उससे नज़र मिलाते डरता है.

अस्पताल में शैया पर एक दिन वह पड़ा हुआ
लगा पूछने- ‘खोटा सिक्का कबतक चलता है?’

उसको अक्सर ही, दौरे आते थे अजब-अजब,
जिन्हें ज़माना बहुत बड़ा पागलपन कहता है.

बुरे वक्त में, एक कलम ही पूंजी थी उसकी,
पास अदीबों के इससे ज्यादा क्या रहता है?




3.

सच कहा, साहित्य से रोटी नहीं चलती.
क्या करें मन पर जबरदस्ती नहीं चलती

जिंदगी में दुख लिखे हैं, तो चलो ये ही सही
ंिजंदगी में हर समय मस्ती नहीं चलती.

वो नदी हो या समुंदर, पर सुना हमने यही
हौसले टूटे हों तो कश्ती नहीं चलती.

शौक से पाला है जिसने भी जुनूं फ़नकारी का
उसके पेशे में कभी जल्दी नहीं चलती.

जिसको जो देना था उसने वो खुशी से दे दिया
उसके आगे आपकी मर्जी नही चलती.



4.

वो जहां होगा, मचाएगा वहां पर शोर ही.
रोशनी को खींच कर लाएगा कोई और ही

देख लो इतिहास का पन्ना कोई भी खोल कर
इंकलाबी पहला होगा बस कोई कमजोर ही.

रहनुमाई में रखा है जबसे हमको आपने
जानलेवा लग रहा है अपने मुंह का कौर ही.

वो तरक्की क्या संवारेगी हमारी जिंदगी,
जो हमें लगती रही ताउम्र आदमखोर ही.

-रमेश तैलंग
(व्यंग्य यात्रा से साभार)

Sunday, February 19, 2012

मेरे चार गीत



१.
बड़े-बड़े महानगर में



बड़े-बड़े महानगर में
छोटे-छोटे मन.
दुर्लभ हो गए आज
अपने आत्मीयजन.

जीवन-शैली ही कुछ
इतनी बदल गई
गाढ़े संबंधों की
चांदनी हीं ढल गई,

ताज़ी सुगंधों को
लील गया बासीपन.

सोचा तो था लेकिन
ऐसा न सोचा था,
घातों-प्रतिघातों में
धोखा ही धोखा था,

अपनी इच्छाओं का
अपने हाथों दमन.


२-
बहुत सोचते हैं हम


अपनी कमजोरियों को
शक्ति में बदलने की
राह खोजते हैं हम.
जी हां, ये सच है कि बहुत सोचते हैं हम.

लड़ते-लड़ते अपनी-
बेचारगी से अघाये हम,
जाने कितनी दूरी को
तय कर आए हम,

मौन हो चुका घातक,
खुले-आम इसलिए
आज बोलते हैं हम.
जी हां, ये सच है कि बहुत सोचते हैं हम.

संभव है खले आपको
ये बड़-बोलापन,
पर कब तक झेलते
रहें अपना भोलापन,

हाथ जोड़ना जब भी
काम नहीं आए तो,
हाथ तोड़ते है हम.
जी हां, ये सच है कि बहुत सोचते हैं हम.

३-

आज गाने का मन है तो


झूठी प्रशस्तियां ही न केवल दुहराओ,
बंधु, आज गाने का मन है
तो लोगों के दुःख गाओ.

दुःख उनके,
जिनके अधरों पर हैं ताले पड़े
दुःख उनके,
जिनके मुंह में न निबाले पड़े
उनकी दुखती रग भी धीरे से सहलाओ
बंधु, आज गाने का मन है
तो लोगों के दुःख गाओ.

आंखें भारी
फिर भी नींद न मिली जिनको
चाही तो,
लेकिन उम्मीद न मिली जिनको
उनके विषाद राग में डूबो, उतराओ
बंधु, आज गाने का मन है
तो लोगों के दुःख गाओ.

४.
अपनी ज़मीन पर


हमने कब कहा कि बड़े हैं हम.
जो भी हैं, जैसे हैं,
अपनी ज़मीन पर खड़े हैं हम.

धूल में अंटी है
पहचान हमारी,
इसमें शर्म की क्या बात है.
हमसे ज्यादा भला
जानेगा कौन,
क्या हमारी औकात है.

पत्थर हैं, पर किसी
अंगूठी में रत्न की-
तरह नहीं जड़े हैं हम.


देह से उपस्थित हैं
हम लेकिन आपको
नज़र नहीं आते हैं
आश्चर्य! इस भद्र-
नगरी में हम विदेह
ही माने जाते हैं

पर ये इतिहास
साक्षी है कि
झूठ के विरुद्ध ही लड़े हैं हम.

----------
-रमेश तैलंग

Friday, February 10, 2012

एक लेखक दोस्त के नाम जिसके दीदार ही नहीं होते .........





जी भर के अकेले में खूब लिखते रहो जी
ऐसा भी क्या मगर कभी तो मिलते रहो जी
अरसा हुआ न आपकी सूरत दिखी हमें
लहरों की तरह ही कभी तो हिलते रहो जी
हम ही तो हैं जो आपके लिखे को पढेंगे
डिस्टर्ब भी करेंगे, भले चिढते रहो जी
हर दोस्ती का है उसूल खुशनुमा रहना
सूरजमुखी की तरह ज़रा खिलते रहो जी
पूछो कभी तो खैर-ख्वाह आप हमारी
कागज़, कलम पे ही न रोज पिलते रहो जी.

-रमेश तैलंग

Monday, February 6, 2012

शिक्षा और बाल साहित्य-डॉ. कृष्ण कुमार

शिक्षा और बाल साहित्य


डॉ. कृष्णकुमार
प्रसिद्ध शिक्षाविद एवं पूर्व निदेशक-एन सी ई आर टी

(यह महत्वपूर्ण व्याख्यान डॉ कृष्ण कुमार ने चकमक पत्रिका के ३००वें अंक के विमोचन की पूर्व संध्या पर भोपाल में दिया था.)


मुझे आप सबके बीच खुद को यहां पाकर बहुत प्रसन्नता हो रही है। खासकर एक ऐसे अवसर पर जब हम एक बच्चों की पत्रिका की 25 वीं साल गिरह मनाने जा रहे हैं, 300 एक बहुत बड़ी संख्या है।
हिन्दी बाल साहित्य की अगर एक मोटी समीक्षा करें, पिछले 100 वर्षां की, तो इतने अरसा अभी तक केवल दो पत्रिकाएं चल सकी हैं। बाल सखा जो 50 वर्ष पूरे कर चुकी है और बालक जो लगभग 45 वर्ष पूरे कर चुकी हैं। यह अपने आप में एक बड़ा आंकड़ा है कि चकमक आज के दिन अपने 300 अंक पूरे कर रही है।
और हम इस विशेष अवसर की पूर्व संध्या पर बाल साहित्य और शिक्षा के संबंधो पर विचार करने के लिए यहां एकत्र हुए हैं। जाहिर है यह अवसर कुछ मुड़ के देखने का है, कुछ आगे की तरफ देखने का है, और हम कहां है इस बात का जायजा लेने का भी, यह अवसर हैं।
25 वर्ष पहले भारतीय शिक्षा पद्धति व्यवस्था कहां थी। आज क्या हम उससे कुछ मामलों में बेहतर स्थिति में है, कुछ मामलों में बद्तर स्थिति मैं हैं। किस तरह की मनः स्थिति का एहसास हम खुद को दें । रुक के सोचने के लिए इस प्रश्न से जुड़ी बहुत सी सामग्री है, बहुत सारी नई कि हम कैसा महसूस करें, आज इस अवसर पर।
इन पिछले 25- 30 वर्षों को जब हम याद करते हैं तो जाहिर है कि बेहतर या बद्तर के वर्गों में बांटने का मन होता है, लेकिन एक चीज़ है इसको लेकर मैं समझता हूं कि कोई असहमत नहीं हो सकता और वह चीज़ है, बदलाव। जैसा भी है, और बहुत बड़े बदलाव से शिक्षा और समाज गुजरे। इन बदलावों का आंकलन करने का आज कोई विशेष प्रसंग नहीं हैं। क्योंकि हम लोग एक बारीक चीज़ की तरफ विचार करने के लिए, उस तरफ देखने के लिए यहां एकत्र हुए हैं। और यह बदलाव उसकी एक बहुत बड़ी पृष्ठभूमि रचते हैं।
फिर भी संक्षेप में यह कहना बहुत जरुरी है कि अगर हम बच्चों के संदर्भ में विचार कर रहे हैं शिक्षा पर तो निश्चित रुप से ये 20 -25 वर्ष एक बहुत बड़ी सामाजिक परिघटना के वर्ष हैं थोड़ा आगे चलकर मैं कुछ और भी इस संबंध में कहना चाहूंगा, पर फिलहाल इतना इशारा करना बहुत है कि 25 वर्ष पहले इस बात की कल्पना बहुत कम लोग कर सकते थे कि पांच व छः वर्ष की आयु के लगभग सभी बच्चे किसी न किसी रुप में किसी न किसी स्कूल में प्रवेश पा चुके होंगे।
ये बात अब एक सरकारी कल्पना भर नहीं हैं। कोई सौ साल पहले 1911 में गोपाल कृष्ण गोखले ने उस समय की इम्पीरियल लेजिस्लेटिव असेम्बली में एक बिल रखा था। बच्चों की शिक्षा को लेकर, और उस समय उन्होनें सिर्फ लड़को की शिक्षा की बात की थी। तो शिक्षा को अनिवार्य निःशुल्क और सार्वजनिक बनाने के लिए ये बिल पर्याप्त संख्या में मत नहीं पा सका था। कई तो भारतीय सदस्यों ने ही उनके विरूद्ध में मत दिया था इसलिए गोखले का बिल असफल हो गया था।
1911 की तुलना में 2011 का दृश्य हमको अवश्य कुछ न कुछ इस बात का संतोष देता है कि भले ही बहुत देर से ये संभव हुआ। लेकिन गोपाल कृष्ण गोखले का प्रयास आज एक कानून की शक्ल ले चुका है। भले ही इसको लेकर तमाम तरह के प्रश्न हैं, विवाद हैं इत्यादि। ये लोकतन्त्र का लक्षण है कि ये सब चीज़ें होती हैं, सोचने का मतलब ये है कि इतने समय बाद तन्त्र का यह कानून अब हमारे बीच किस तरह की सामाजिक व्याप्ति पायेगा। हमारे जीवन काल में इस कानून के ज़रिये क्या बच्चा नये तरीके से रचा जाएगा। क्या भारत की शिक्षा व्यवस्था अपनी ओपनिवैशिक विरासत से कुछ और मुक्ति पा सकेगी।
ये सभी सवाल बाल साहित्य के संदर्भ में विशेष महत्वपूर्ण हैं क्योंकि आप सब लोग जिन्होने बाल साहित्य की शिक्षा में जगह बनाने के लिए काम किया है। आपको मालूम होगा आप तो जानते ही हैं। कि ये एक तरह का संघर्ष सिद्ध हुआ।
जब मैं एकलव्य के बारे में सोचता हूं, जिसने आज का ये कार्यक्रम आयोजित किया हं अपनी इस पत्रिका के 300 वें अंक के अवसर पर तो मुझे डॉ.अनिल सद्गोपाल का यह शीर्षक याद आता है जो उन्होने स्वर्गीय शंकर गुहा नियोगी की जीवनी को दिया था, ‘निर्माण और संघर्ष’। एकलव्य इन दोनों ही चीज़ांे का, दोनों ही कामों का जीवन जीता है। मैं जब इनके अतीत पर गौर करता हूं तो महसूस करता हूं कि दोनों साथ साथ ही चले हैं और अलग- अलग भी चले हैं, कभी निर्माण का दौर ज्यादा जोर से चला, कभी संघर्ष का दौर ज्यादा जोर से चला इन वर्षो में दोनों काम मिले-जुले दिखाई देते हैं।
जहॉ तक बाल साहित्य का सवाल है। उसको इस दिशा में अगर एकलव्य के इधर के काम पर गौर करें तो, लगता है कि यह निर्माण के वर्ष हैं। बहुत बड़ी मात्रा में बाल साहित्य का प्रकाशन, बाल साहित्य का प्रसार और उस पर चिन्तन, उसके चित्रों पर, उसकी साहित्यिकता पर, भाषा पर इन तमाम चीज़ों पर इस संस्था ने देश में चिन्तन को आगे बढ़ाने में बहुत बड़ी भूमिका इधर के वर्षो में निभाई है। तो यह सिर्फ निमार्ण का काम नही हैं, स्वयं इधर के साथी और यहां उपस्थित अन्य संस्थाओं के साथी ये जानते हैं कि यह भी एक प्रकार का संघर्ष रहा है, और अभी है। संघर्ष का मतलब होता है एक तरह का टकराव, यानी कि व्यवस्था से टकराव का साधन, माध्यम या कम से कम इसका लक्षण बाल साहित्य पर गया है। किसी तरह से इसकी व्याप्ति शिक्षा व्यवस्था में है नहीं, या हो नहीं पा रही है। जगह हम बनाते हैं, जब तक हम इस जगह के आस पास पहरेदारी करने के लिए बैठते हैं, तब तक वह जगह रुकती है। वहां से जैसे ही छूटे तो फिर उस जगह पर गर्म हवाएं आ जाती हैं, पानी से वह जगह घिर जाती है, और क्या वजह ? क्या चीज़ है ? बच्चों का साहित्य जैसा एक सुन्दर सरल विषय है। क्या झगड़ा है इसका शिक्षा व्यवस्था से ? जिसकी वजह से ये संघर्ष होता है।
संघर्ष का बुनियादी अर्थ यही होता है। कोई चीज रगड़ खा रही हैं, और किसी चीज़ से टकरा रही है। आज की शाम इस विषय पर कुछ समय हमारे पास विचार करने के लिए है। और अगर आप इसे बहुत गौर से देखना चाहें , न भी देखना चाहें सहज रुप से ही पूछें कि किस चीज़ से बाल साहित्य की शिक्षा में व्याप्ति रुकती है, परेशान होती है तो सहज ही आपको थोड़ी देर में वह चीज़ दिखने लगेगी।
आज दोपहर में आप में से कई लोगो से मेरी भेंट हुई तो ये चीज़ सामने आ गई थी। और वोएक ऐसी चीज़ है जिस पर हमारे आज के अध्यक्ष उदयनजी एक बहुत सुन्दर लेख लिख चुके हैं, यह दिखाने के लिए कि वह चीज़ दरअसल है क्या ? आप सोच रहे होंगे कि मैं किस चीज़ का नाम ले रहा हूं, उदयनजी का एक मशहूर लेख है जो कई वर्ष पहले छपा था ये बताने के लिए कि पाठ्पुस्तक अपने आप में एक संरचना हैं। और उसके अन्दर क्या हैं, वह तो विवाद का विषय बनता हैं। कई बार बल्कि बनता ही रहता है। लेकिन उसके अन्दर आप नहीं जाएं तब भी वह स्वयं ही एक ढ़ाचे के रुप में भी चिन्ता का विषय है।
क्योंकि पाठ्य पुस्तक वह चीज़ है जो कि हमारी व्यवस्था को उसका औपनिवेषिक चरित्र देती हैं। बाल साहित्य की व्याप्ति के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट हमारी शिक्षा व्यवस्था का यह चरित्र है कि वह पाठ्य पुस्तक केन्द्रित है और पाठ्य पुस्तक के इर्द गिर्द ही सारी शिक्षा व्यवस्था घूमती है। अध्यापक का सारा प्रयास उसके आस पास ही होता है, उसको लेकर ही रहता है।
और शिक्षा व्यवस्था की जो धुरी है वो तो बिल्कुल ही पाठ्य पुस्तक से चिपकी हुई चलती हैं। पाठ्य पुस्तक स्वयं परीक्षा व्यवस्था से पैदा होने वाले भावों से आवेशित हो उठती हैं और जो डर परीक्षा के बारे में सोचकर बच्चों को लगता है, वहीं डर षिक्षकों को पाठ्य पुस्तकों को देखकर लगने लगता है। क्योंकि उनको मालूम होता है कि ये वह चीज़ है जो मुझे उस मेजोरीटी से बात करायेगी। और वहीं चीज़ है जो पढ़ने का मन नहीं होता लेकिन वहीं चीज़ है जो मुझे पढ़नी है, पढ़नी तो होती है। तो बच्चे के दृष्टिकोण से अगर आप देखें तो बच्चे के मन में जिस तरह का मंथन चलता होगा इस विषय पर जो बहुत सी चीज़ो के बारे में समझा जा सकता है कि ये चीज़ कहां से आई, कैसे हुआ ये मामला कि एक बहुत ही चुनिन्दा चीज़ का प्रतीक बन गई पाठ्य पुस्तक।
ऐसा प्रतीक बन गई जिसके सामने दुनिया भर में फैला हुआ अनुभव जगत, बच्चे का ज्ञान बच्चे को खुद मिलने वाली खुराक अपने जीवन की, उन सबका कोई मायना नहीं रहा। इसके जरिये हर चीज़ का परीक्षण होगा। इसके जरिये ही स्कूल चलेगें, इसकी धुरी पर चलेंगे। और अगर आप सरकार की इन कोशिशों को देखें तो बहुत बड़ी कोशिश यही रहती है कि पाठ्य पुस्तक समय पर पंहुच जाये और उसकी पढ़ाई शुरु हो जाये।
जो अच्छे स्कूल माने जाते है, इसे सरकारी ढ़ाचे में देखें तो केन्द्रीय विद्यालय सबसे अच्छे स्कूल माने जाते है। उनकी व्यवस्था तो इतनी पुख्ता है, कि केंन्द्रीय विद्यालय का राष्ट्रीय आयुक्त जो दिल्ली में बैठता है वो अपने कमरे में बैठा हुआ आपको बता सकता है कि आज लक्ष्यद्वीप के केंन्द्रिय विद्यालय में कौनसा पाठ किस बात के संग चल रहा है। बल्कि उस पाठ का भी कौन सा हिस्सा आज पढ़ाया जा रहा होगा। हर कोई को मालूम होता है। पूरे देश में वो एक साथ चलता है और आज के समय में जो कई प्रयास कई प्रदेशो में हुए है जिसमें हमारा प्रदेश भी शामिल है, मध्य प्रदेश।
कि कोशिश यह रही है कि हर समय इस बात पर नजर रखी जाए, कि कहां क्या चल रहा है। और वो एक साथ चले। शिक्षक को कितना समय किस इकाई पर देना है। किन अध्यापकों को कितना समय लगाना है। पाठ किस दिन शुरु हो और किस दिन खत्म हो जाए इस बात की पूरी निगरानी रखी जाती है, निगरानी करने का जिम्मा अधिकारी से ज्यादा पाठ्यपुस्तक पर है। पाठ्य पुस्तक अपने आप में एक निगरानी करती हैं। यानि वो हमारी तरफ देखती है। किन्तु आज हमारे जमाने में यह सभी तरीके से शिक्षा व्यवस्था और शिक्षक को भी नियन्त्रित रखती है, बच्चों को भी नियन्त्रित रखती है।
और समाज में माता- पिताओं को भी लगातार यह सांत्वना देती रहती है, कि जो कुछ काम हो रहा है कायदे से हो रहा है। और कायदा यहा पर दिखलाई देता है कि ये 26 पाठ नहीं है 36 पाठ हैं। ये इस तरीके से हर महीने आगे बढ़ेगंे और अन्त में जाकर इन छत्तीस पाठों पर परीक्षा ली जाएगी इसमें कुछ भी अनहोनी नही हैं, कुछ भी गलत नही हैं आप जानते है कि आज का जमाना इमानदारी का नही है, पारदर्शिता का है। आप अगर गलती कर रहे है तो वेबसाइट पर आप दिखाते जाए, तो यह सही माना जाता है, तो ये पाठ्यपुस्तक के ज़रिये पैदा होने वाली शैक्षिक कसावट या इमानदारी इसी तरह की चीज है।
इसका क्या अर्थ है ? शिक्षक को इस हद तक बांध देने की क्या आश्यकता हैं ? इसका क्या औचित्य है ? ये सब प्रश्न आज एक तरह से बेमानी से हो गये हैं। हांलाकि इन प्रश्नों को बहुत समय से उठाया जाता रहा हैं। शायद तब से विरोध के साथ, उस आदमी ने उठाया था जिसने पूरे साम्राज्य को उखाड़ फैंका। मैं महात्मा गांधी का जिक्र कर रहा हूं जिन्होंने 1939 में साफ किया था कि अगर पाठ्य पुस्तक को ही तथ्य मान लिया जाए और उसी पर उनकी शिक्षा व्यवस्था टिक जाये तो, शिक्षा और शिक्षक की वाणी की कीमत ही क्या रहेगी। और इसलिए उन्होने अपनी शिक्षा व्यवस्था का जो प्रस्ताव दिया था, उसमें पाठ्पुस्तक के लिए कोई स्थान नहीं था। कुछ समय तक हमारी शिक्षा व्यवस्था इसके अनुसार थोड़ी बहुत चल सकी, पर आज हमारे बीच में उसके बहुत कम नमूने रह गए हैं। बहरहाल गांधी की वकालत को याद करने का उद्देश्य यह हैं कि हम उस रुकावट का जायजा ले लें, कि उसके आकार का, उसके प्रकार का और उसके अतीत का, उसकी विरासत का जायजा ले लंे जो बाल साहित्य की व्याप्ति को लगातार संघर्षरत रखती है।
हम सब लोग बाल साहित्य के शौकीन है, सोचते रहते है, ये क्षेत्र क्यों लगातार दिक्कत पैदा करता हैं। मामला सिर्फ बाल साहित्य का ही नहीं हैं कई और चीजों का भी है। कलाओं का मामला है। स्कूल में कलाओं की व्याप्ति नही हो सकी है। पुस्तकालय की व्याप्ति नहीं हो सकी हैं। हम बनाते जरुर है इसमें बहुत सा पैसा भी खर्च होता है। लेकिन वह चीज़ दिखती नहीं हैं।
कलाओं में अगर आप चारों कलाओं पर गौर करे क्ले वर्क पर गौर करें ,नृत्य पर गौर करें , संगीत पर सोचें या कि चित्रकला कला पर तो इन चारों कार्य को आप देखेगें तो स्कूल में चारों को लेकर एक तनाव लगातार बना रहता हैं। साल का एक ही दिन होता है जिस दिन तनाव कुछ हटता सा है या उनके उपर एक पर्दा सा पड़ जाता है। आप सोच सकते हो वह कौन सा दिन होता है। आप में से कोई बता सकता है उस दिन का क्या नाम होता है। वार्षिक उत्सव।
वार्षिक उत्सव के दिन एक मंच पर बालिकाएं नृत्य करती हैं, कोई वी.आई.पी होता है। कोई पुरस्कार देता है, कोई चित्रों के गैलेरी से गुजरता है। इत्यादि इत्यादि। स्कूल में कलाओं के लिए ये दिन तय किया जाता है। ये सभी चीज़े, खेलकूद की भी हर बच्चे को जरुरत होती है खेलकूद। लेकिन स्कूल के जीवन में खेल की व्याप्ति प्रतियोगिता के ज़रिये से की जाती है। जो बच्चे बाहर से पुरस्कार इत्यादि जीतते है, खेल उनके लिए है। बाकी के लिए पढ़ाई मेहनत अच्छे अच्छे गुणो की भी यही परिस्थिति हैं।
तो यह सब देखकर हम समझ सकते है कि बाल साहित्य के साथी कौन है। कलाएं उनके साथी है। खेल उनके साथी हैं । पुस्तकालय उनका साथी हैं। और इसके शत्रु कौन है, या अवरोधक कौन है? इन अवरोधो की गिनती हम गिन रहे है एक तरफ तो इसका सबसे बड़ा प्रतीक और अवरोध दोनों ही पाठ्पुस्तक है। पाठ्य पुस्तक पर टिकी हुई व्यवस्था।
बड़े पैमाने पर शिक्षा व्याप्त समाज में भी है। समाज के हरेक वर्ग के विकास में की जरूरत है। शिक्षा के ज़रिये वो आगे बढ़ सकता है। उसकी सन्तान अधिक आमदनी या उंची हैसियत की कल्पना कर सकती है कि अगर वह शिक्षा पाये। शिक्षा का यही एक बहुत बड़ा योगदान है कि, उसने समाज को एकत्रित रखने में ,स्पर्धा का एक रुपक पूरे देश में फैलाया है, उसको एक संभव सपने की तरह विस्तारित किया हैं।
शिक्षा का ही जादू है। हमारे बीच में हम देखते है, जिसके पास आज कुछ भी नही हैं। वह यह कल्पना करता है कि मेरे पास नही हैं, तो मेरा बच्चा अगर स्कूल में पढ़ जाएगा। कॉलेज से निकल जायगा। तो वो मेरे मुकाबले कहीं ज्यादा बेहतर जीवन जी सकेगा। शिक्षा ही इन सपनों की संचालिका हैं। और इन सपनों के ज़रिये उसने एक और गहरे स्तर पर समाज को, देश को एकत्रित रखने कम से कम एक तरह के सूत्र से एकत्रित रखने का प्रयास किया।
शिक्षा को इतनी आसानी से आलोचना का विषय नहीं बना सकते हैं। पर कहीं कुछ गड़बड़ी है, उसकी अपनी संरचना को देखना बहुत जरुरी हैं। कि उसने क्या- क्या किया है। किन साधनों से किया है। और दूसरी तरफ हम बाल साहित्य के प्रेमी हैं। आज एक विशेष अवसर पर एकत्र हुए हैं जाहिर है कि हम चिन्तित भी है, परेशान भी है, क्यों ये सुन्दर प्रयास स्कूल के जीवन में हमेशा ही संघर्षरत रहता हैं। परेशान रहता है। और सरकारें भी इनको लेकर बहुत ज्यादा करने में असमर्थ रहती हैं।
कम से कम पिछले 1984-85 के बाद से तो ये कतई नहीं जा सकता कि भारत की शासकीय व्यवस्था बाल साहित्य को लेकर उपेक्षा का दृष्टिकोण बनाये रख सकी, ऐसा नही कहा जा सकता। 80 के दशक के मध्य में ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड का एक बहुत बड़ा कार्यक्रम शायद शिक्षा के इतिहास में पहला बड़ा कार्यक्रम था। जिसके तहत बाल साहित्य की खऱीद संभव हुई जिसके जरिये इसे बहुत मात्रा में फैलाया गया। उसके बाद के जितने कार्यक्रम हैं। उन सभी में बाल साहित्य के लिए, पुस्तकालयों के लिए पिछले 60 वर्षो में अगर आप गौर करे तो शुरु के 40 वर्षो के मुकाबले कहीं अधिक राशि का प्रबंधन भी हुआ और आवंटन हुआ। वो राशि स्कूलों तक पंहुची भी है। एक बहुत बड़ा परिवर्तन हैं कि इन स्कूलों में आज कहीं भी जाइए आप भले ही बन्द मिलें लेकिन किताबें एक न एक आलमारी में मिलेगी। बहुत सी जगह पर खुली भी हैं। बहुत सी जगहों पर आप जैसे लोग जहॉ काम कर रहे है वहॉ पढ़ी भी जाती है। यह सब भी एक बहुत बडे़ परिवर्तन का संकेत है। लेकिन जिसको व्याप्ति कहते है वो आज़ भी नही है।
परीक्षा में क्या मदद करेगी ये किताबें, माता- पिता पूछना चाहते है। हां बच्चे खुश हैं इनको पढ़ना चाहते है। वो देखता है लेकिन इससे आश्वस्त नहीं होता कि इससे शिक्षा के उद्देश्य पूरे होंगे जिनको वो समझता हैं। दूसरी तरफ हम यह देख रहे है कि बाल साहित्य के जरिये जो आनन्द मिलता है। जिस आनन्द की बात हम कर रहे हैं उसने भी स्कूली व्यवस्था को दो हिस्सों में बांट दिया है। सरकारी व्यवस्था आनन्द आनन्द आनन्द का नारा लगातार दोहराती रही हैं। हर बात में नया कार्यक्रम आता है, वो उसी आनन्द को लेकर आगे बढ़ता है। डी.पी.ई.पी.में बकायदा जॉय फूल लर्निंग, जैसे कि और भी कोई लर्निंग हो सकती है। जॉय फूल लर्निंग का नारा लगा। उसके बाद से लगातार ये नारा लग रहा है। पढ़ना -बढ़ना हमारे मध्यप्रदेश का दिया गया एक नारा है, जो कि एक सीरीज का नाम भी है।
और उसको भी अगर आप ध्यान से देखंे तो उसका भी पूरा मामला उसी तरह है। तो एक तरफ सरकारी स्कूल है जो कि, शिक्षा को आनन्दमयी बनाने की बात कहते रहे हैं। दूसरी तरफ निजी स्कूल हैं जिनका दायरा लगातार बढ़ता चला गया है। वो शिक्षा को लगातार स्पर्धा का, मेहनत का, प्रतियोगिता के लिए मेहनत का, माध्यम बनाते चले गये हैं। तो मेहनत और आनन्द के बीच एक बंटवारा हुआ हैं। जो आप मोटे तौर पर देखें तो अमीरों और गरीबों के बीच का बंटवारा है। गरीबों की शिक्षा आनन्दमयी होगी। अमीरों की शिक्षा मेहनत और परीक्षा, प्रतियोगिता के लिए बच्चों को तैयार करेगी। आप कह सकते है ये भी एक काफी लाक्षणिक मामला है, कि हम इसको कैसे समझें, कि उन वर्गों में बंटते हुए समाज में शिक्षा के दो महत्वपूर्ण आयामों का इस तरह ध्रुवीकरण हम देखते चले आ रहे हैं।
परिश्रम शिक्षा का ही एक हिस्सा है। और कोई भी बच्चा, कोई भी व्यक्ति शिक्षा में बहुत आगे नहीं बढ़ेगा, अगर उनको परिश्रम की आदत नहीं पड़ी। परिश्रम के लिए जो एकाग्रता चाहिए, परिश्रम के लिए अपने उद्देश्यों को थोड़ा दूर हटकर देखने की आदत चाहिए। तुरन्त नतीजा न पाने की जगह धैर्य रखने की जो आदत चाहिए। वो तमाम चीजे़ं मेहनत का अंग है। वह शिक्षा का अनिवार्य अंग है। दूसरा आनन्द शिक्षा का अनवार्य अंग है।
ऐसी शिक्षा जो दुखी कर दे। निराश कर दे। इतना निराश कर दे कि, आगे हमें कुछ दिखे ही नहीं। ऐसी शिक्षा कैसी शिक्षा हो सकती है। ये दोनों ही शिक्षा के अंग है लेकिन हम देखते है कि इनका ध्रुवीकरण हुआ हैं। जैसे समाज का ध्रुवीकरण हो रहा है। सरकार और व्यवसायों के बीच, गरीबों और अमीरों के बीच एक ध्रुवीकरण हो रहा है।
वैसा ही अलग- अलग अवधारणाओं के स्तर पर हम देख रहे है। इन सबके बीच में इस सवाल को रखकर मैं देख रहा हूं कि, बाल साहित्य की व्याप्ति क्यों नही हो सकीं। कितना प्रयास है। कहां दिक्कत है। किसी हद तक इसका फैलाव हुआ। इसका प्रकाशन का जिम्मा आज पहले से ज्यादा संस्थाएं उठाये हुए हैं। कहीं ज्यादा मात्रा में उनका प्रकाशन हो रहा है। ऐसी पुस्तकों का और वो पंहुच भी रही हैं। लेकिन फिर भी इस तरह का संघर्ष जारी हैं। इस संदर्भ में मुझे इन दोनों ही बातों के बारे में, इन दोनों ही शब्दों पर कुछ मिनट लगाने की इच्छा है।
साहित्य और दूसरे बाल साहित्य इन दोनों को ही थोड़ी देर सोचंे। ताकि बाल साहित्य अगर साहित्य है। तो फिर इसका क्या मायना बनता है। और साहित्य से हम आज की परिस्थिति के बारे में क्या जान सकते हैं। और दूसरा यह भी सोचें कि अगर ये ऐसा साहित्य है जो बच्चे को संबोधित करता है। तो बच्चे की हमारे समाज में आज क्या स्थिति है। एक बड़े परिप्रेक्ष्य में भी देखें। अपने-अपने अनुरोध के संदर्भ में भी देखें। बाल साहित्य को लेकर जिस तरह का संघर्ष हम महसूस करते हैं। साहित्य मात्र भी इस संघर्ष से जुदा नहीं है।
समाज में अगर बाल साहित्य या शिक्षा व्यवस्था में बाल साहित्य की व्याप्ति को लेकर एक संकट दिखाई देता है, अवरोध दिखाई देता है। तो कुछ वैसा ही अवरोध, वैसा ही संकट बल्कि शायद उससे ज्यादा बड़ा संकट हमको, साहित्य के क्षेत्र में भी दिखाई देता हैं। स्वयं साहित्य आज क्या भारतीय समाज का, उसके किसी भी वर्ग का एक अनिवार्य हिस्सा है। इस प्रश्न का उत्तर मेरे ख्याल से अध्यक्षीय टिप्पणी करते समय उदयनजी मुझसे बेहतर देंगे। लेकिन एक दो चीजें यहां चिन्हित करते चलना बहुत जरुरी है।
साहित्य की जरुरत क्या है। किसी समाज को साहित्य की क्या आवश्यकता होती है। सो वह याद करे, और सोचे, तमाम लोगो ने इस प्रश्न का अपने अपने ढ़ग से उत्तर दिया है। कोई कहता है कि हां साहित्य के ज़रिये एक परम्परा बनती है। साहित्य के जरिये भाषा गढ़ी जाती है जिसमें कोई संदेह नही हैं। और साहित्य के स्वास्थ्य को जांचने के लिए भाषा का स्वास्थ्य जांच लेना पर्याप्त होता है। भाषा हमें बताती है कि उसके साहित्य की क्या स्थिति है। साहित्य हमें बताता है कि भाषा की क्या स्थिति है। दोनों के बीच एक गहरा रिश्ता है।
इस तरीके से भी बहुत से लोग साहित्य की परिभाषा गढ़ते हैं। मोटे तौर पर अगर हम सहज होकर सोचना चाहें कि, यह मसला है क्या तो आप देखेंगे कि कहीं न कहीं साहित्य का संदर्भ जीवन मात्र से है कि जीवन में जो क्षण हमको सुख देते हैं। कुछ वैसा ही सुख हमें साहित्य से मिलता है। अगर आप उन क्षणों पर गौर करें तो साहित्य के स्वभाव का या साहित्य के चरित्र का मर्म नहीं तो मर्म के आस पास की भूमिका नजर आने लगेगी।
जब हम किसी की नज़रों में नही होते जब हम चैन महसूस करते हैं। जब हम स्वतन्त्र होते हैं, वो क्षण हमें सुख देते हैं सबसे ज्यादा सुख देते हैं। कहने के लिए बहुत लम्बा चौड़ा हिसाब लगाने की जरुरत नहीं है। जब हम घर लौटते हैं बैठते हैं। हमारे ऊपर लोगो की निगाहें नहीं होतीं। हमारी अपेक्षित भूमिकाओं को जांचने वाले हमारे इर्द गिर्द नही होते वो क्षण होते हैं। जिनमें हम चैन महसूस करते हैं।
अगर आप साहित्य पर गौर करें, किसी भी विधा को लें, कविता को लें, कहानी को लें, नाटक को लें तो उसमें डूबने का अर्थ यही होता है कि हम कुछ क्षणों के लिए उन जंजीरों से मुक्त हो जाते हैं। जो हमे वैसे अपेक्षित भूमिकाओं में बांधे रखती हैं। हमें इन्ही स्वतन्त्रता का क्षणिक ही सही, एक अहसास साहित्य दिलाता है।
साहित्य पढ़ते समय, उसकी पढ़ाई के बाद उसको याद करते हुए या किसी से ये जिक्र करते हुए भी हम उस तरह के आनन्द से गुजरते हैं। जो सहज स्वतन्त्रता से मिलता है। कि मैं मनुष्य हूॅ ,इस नाते स्वतन्त्र हंू, किसी और नाते नहीं कि मुझे किसी ने स्वतन्त्रता दी या मेरा यह अधिकार है इत्यादि। साहित्य बगैर किसी विशेष आग्रह के, हमको कुछ समय के लिए ही सही कभी एहसास दिलाता हैं। कि मनुष्य होने के नाते हम बुनियादी तौर से स्वतन्त्र हैं। भले ही समाज का, देश का अंग होने के नाते, एक अर्थव्यवस्था का अंग होने के नाते, एक परिवार का अंग होने के नाते, समुदाय का इतिहास का अंग होने के नाते हमें तरह तरह की भूमिकाएं बांधती हैं।
हम अपेक्षित व्यवहारों में ही व्यस्त रहते हैं। दबाव महसूस करते हैं। इन तमाम चीज़ों से कुछ समय के लिए साहित्य की कोई भी विधा हमें थोड़ी देर के लिए मुक्त करती हैं। साहित्य इस मुक्ति का माध्यम है, इस मुक्ति का माध्यम बनाने वाली, हमें वो मुक्ति देने वाली कोई भी रचना इस तरह से आप साहित्य की श्रेणी में ला सकते हैं। किस तरह से वह करती है लम्बा चौड़ा इतिहास उसका है। क्या करती है ? ये सामूहिक रुप से कैसे संभव बनाती हैं, कई बार किताबी रुप में संभव बनाती है। एक बहुत बड़ा शास्त्र है जिसकी और मैं केवल इशारा कर के उसे छोड़ रहा हूं। पर साहित्य की यह विशेषता है और बाकी चीजें तो वे हैं कि ये काम वह भाषा के ज़रिये करता है। इसलिए भाषा और साहित्य के बीच में एक गहरा रिश्ता है। भाषा स्वयं हमारी स्वतन्त्रता का लक्षण है। और अगर भाषा पर गौर करेंगे तो सहज ही समझ में आ जाएगा कि क्या समस्या होगी, उनको जो इस भाषा का इस्तेमाल रचना के लिए कर रहे हैं। सोचने का मुद्दा है कि हमारे बीच जब साहित्य लिखा जाता है, शिक्षा में उसको स्थान देने का प्रयास होता है। तो किस किस तरह की समस्याएं आती हैं।
शिक्षा के कई ऐसे गुण है, ऐसी इसकी विशेषताएं हैं। एक व्यवस्था के रुप में जो साहित्य के इस मुक्तिदायी स्वभाव से टकराती है साहित्य अगर मुक्ति देता है, तो शिक्षा व्यवस्था नियन्त्रण की और प्रेरित है। साहित्य अगर चयन देता है, तो शिक्षा व्यवस्था लगातार एक दबाव बनाने की चेष्टा करती है।
साहित्य यदि प्रर्वतन का माध्यम हैं। हर रचना के जरिये आपकी भाषा में एक नया प्रर्वतन हो रहा होता है। शब्द के स्तर पर, वाक्य विन्यास के स्तर पर, किसी न किसी स्तर पर वह कुछ नया प्रर्वतन करता है। उधर शिक्षा है, जिसकी प्रवर्तित को प्रचारित करने में ही बड़ी भूमिका है। कि जो परिवर्तित हो चुका है, जो तथ्य बन गया है, उसको जानना सब लोगों के लिए अनिवार्य बनाने वाली शिक्षा ही आधुनिक शिक्षा हैं। इस तरह के सहज अन्तर विरोध इन दोनों के बीच में नजर आते हैं। जिनसे यह समझ में आता है कि मामला सिर्फ बाल साहित्य का नहीं है साहित्य का भी हैं।
अगर आप बाल साहित्य को एक क्षण के लिए भूल जाएं, और आज से 30 -40 साल पहले वास्तव में इस तरह की सभा में कोई बाल साहित्य की चर्चा करता तो उसका कोई मायना नहीं होता। लेकिन साहित्य फिर भी था, हिन्दी, अंग्रेजी इस तरह की विषयों की पढ़ाई में भाषा के अलावा साहित्य का भी एक महत्व रहता था। तब उस समय भी यह समस्या थी कि साहित्य को किस तरह पढ़ाया जाय। इसको लेकर यह मत भेद हमेशा ही रहता था।
साहित्य एक अपेक्षित अर्थ को जानने का ज़रिया है उसके जरिये कुछ रुपाकारों को, कुछ रुपकों को प्रचारित करने का माध्यम है। वो बच्चों को, विद्यार्थी को इस मुक्ति का छोटा सा अनुभव देने का माध्यम है, जो मनुष्य के नाते सबका अधिकार हैं । और इसलिए साहित्य के अर्थ को लेकर, साहित्य की परीक्षा को लेकर, साहित्य पर कैसे प्रश्न पूछे जाए उसको लेकर लगातार काफी सघन विमर्श रहा है।
अभी हाल में मेरी भेंट एक श्री रतिम मुकोपाध्याय से हुई जो कि शान्ति नेकतन में काम करते है। जो षान्तिनिकेतन में बैठकर ढूंढ़ते रहे है कि टेंगोर ने शान्ति नीकेतन में क्या क्या किया। तो उन्होने बताया कि उनको अभी हाल में टैगोर के अपने हाथ से लिखे हुए ऐसे अनेक प्रश्न पत्र मिले जो उन्होने इसलिए बनाए थे जिससे कि लोगों को बताया जा सके कि हिन्दी साहित्य के प्रश्न पत्र इस तरह बनाये जाते है। कि वो देखते थे कि उस समय और आजकल भी प्रश्न पत्र साहित्य के इसी तरह के बनते है, कि इसका केन्द्रिय भाव बताओ।या यहां कवि क्या कहना चाहता है ? इस प्रश्न का वैसे भी सहज उत्तर यह होना चाहिए कि कवि यह जानता होता कि वो क्या कहना चाहता है, तो कविता नहीं लिखता।
वह सहज ही एक चिठ्ठी लिखता या गद्य में यह बता देता कि भैया मैं ये कहना चाहता हूं। तुम समझ लेना। उसके जरिये तुम्हारे मन में कोई कविता बनती हो तो बना लेना। इन तमाम बाध्यताओं के बीच परीक्षा व्यवस्था लगातार साहित्य को लहूलुहान करती रही है। बहुत समय से सौ वर्ष से अधिक हो गया। गनिमत है कि पहले केवल अंग्रेजी को लहूलुहान करती थी। उसके बाद से उसने हमारी भाषाओं को भी उसी तरह 1920 के बाद से जब से हिन्दी में इन्टर मीडियेट परीक्षा शुरु हुई हैं। उसको लेना संभव हुआ तब से हिन्दी साहित्य में भी यही स्थिति बन गई। कि साहित्य की परीक्षा लेने का एक तरीका बन गया। उसके बाद साहित्य की पाठ्य पुस्तकें बनाने का एक तरीका बन गया। और बहुत से लोग तो केवल पाठ्य पुस्तक में, जा सकने वाली सामग्री को रचकर अमर होने का स्वप्न देखने लगे। पाठ् पुस्तके के कवि, कहानीकार व्यंग्यकार।
जब मुझे एन.सी.ई.आर.ई.टी. में काम करने का मौका मिला तो मेरी डाक का एक काफी बड़ा हिस्सा लगातार ऐसे कवियों की रचनाएं रही जो चाहते थे कि मेरे ज़रिये उनकी रचनाये पाठ्य पुस्तकों में पंहुच जायंे। अब मुझे अहसास हुआ है, कि एक बहुत बड़ी संख्या में कवि समाज में ऐसे लोग है, जो पाठ्य पुस्तकों को गम्भीरता से इसलिए लेते है क्योंकि उनको लगता है कि ये प्रकाशन व्यवस्था के तन्त्र से उसको मुक्ति दिला देगी। कि वे सीधे पाठ्य पुस्तक में प्रवेश कर जायें तो पीढ़ियों तक पढ़े जायेंगे।
कुछ कवि ऐसे है जो प्रवेश पाकर पढ़े गये बहुत लम्बे समय तक। मसला इस पूरी व्यवस्था में साहित्य की आत्मा का, साहित्य की आत्मा को शिक्षा में समझने वालों का है। रविन्द्र नाथ ठाकुर ने जाहिर है, उस चीज़ को अपनी ही संस्था बनाकर समझ लिया था, कि जब ये काव्य, कहानी उनकी अपनी रचनाएं बहुत सी थी जो, कि उस समय स्कूलों में पढ़ाई जाती थी। इनके अपने स्कूल में पढ़ाई जाती थी। जब ये परीक्षा की चक्कर घिरनी से गुजरेगी तो इनका क्या हाल होगा। तो उन्होने कुछ के प्रश्न पत्र बनाकर दिखाने की कोशिश की कि साहित्य का जब हम इम्तहान लें तो हमारे लिए कतई जरुरी नहीं है कि हम उसके इम्तहान को उस तरह से लें जिस तरह से ये तथ्य केन्द्रित शिक्षा अन्य विषयों का इम्तहान लेती हैं।
क्योंकि साहित्य का तथ्य अगर कोई है, तो वह कल्पना ही हैं। जो कि मूलतः एक तथ्य विरोधी क्षमता है। जिसको ईश्वर ने मनुष्य में इसी नाते प्रत्यारोपित किया होगा। प्रकृति को देखकर कि अगर हम मनुष्य को ही दे दें, तो मनुष्य लगातार अपनी दुनिया को बदलते रहने के लिए या कम से कम उसके स्वप्न देखते रहने लिए स्वतन्त्र रहेगा।
साहित्य उसी की रक्षा करने के लिए लगातार संघर्षरत रहता है। और इसी कारण शिक्षा व्यवस्था के साथ उसकी टकराहट बनी रहती है। कि वो कल्पना की बात कर रहा है। शिक्षा बुद्धि की बात कर रही है। वो आगे की बात कर रहा है, शिक्षा पीछे की बात कर रही है। वो ऐसी बातें कर रहा है जो दुनिया में नहीं हैं। शिक्षा उन बातों को कर रही है, जो कि तथ्य हैं, दुनिया उसे मान रही है। इस वजह से कई समस्याएं साहित्य के साथ पैदा होती हैं उनमें से कई समस्याएं बाल साहित्य को भी भोगनी पड़ती है। इसलिए इस ज्यादा बड़े परिवार के साथ अगर बाल साहित्य के प्रति चिन्तित लोग रहे हैं, रहेंगे तो मैं समझता हूं कि वे रणनीति बेहतर बना सकेंगे, क्योंकि कई बड़े सवाल हैं। जो सिर्फ छोटे बच्चों के लिए नहीं हैं। सीधे उच्च शिक्षा तक ये सवाल जाते हैं। जब साहित्य शिक्षा में आता है तो उसका क्या होता है। क्या वो यह मौका देता है कि हम साहित्य को अपने अपने ढंग से पढ़ सकें उसका एक ही कोई अर्थ न निकालंे। क्या वह हमें यह मौका देता है कि हम समालोचना के जरिये पैदा की गई बहुत तरह की लकीरों के पार जा सकें। और स्वयं अपने भीतर पैदा हुई प्रतिक्रियाओं को अभिक्रियाओं को, चिन्हित कर सकें कि ये क्षमताएं साहित्य की पढ़ाई से उत्पन्न होती हैं। ये मसले बाल साहित्य के बहुत करीब हैं। और इसलिए बहुत जरुरी है कि हम बाल साहित्य की बहस को शिक्षा के साथ उसके रिश्ते को, इन बहसों के साथ चलायंे।
अब कुछ समय उस दूसरे वाले शब्द पर डालंे बाल साहित्य, बच्चों का साहित्य क्या जरुरत है हमको बच्चों के अलग से साहित्य की। इस प्रश्न का दर असल अपने परिवेश में हमने विचार नहीं किया। हम लोगो ने सोचा है कि दुनिया में, और देशो में बाल साहित्य होता है तो हमारे यहां भी होना चाहिए। उससे बाल साहित्य की शक्लें भी कुछ इस तरह से बन गई है कि जैसा वहां होता है वैसा हमारे यहां होना चाहिए। इस पर बहुत कम लोगांे ने गौर किया है कि दरअसल बाल साहित्य दुनिया के हर देश में नहीं लिखा गया।
अगर आप युरोप के दो प्रमुख देशो पर ही विचार करें । ब्रिटेन और फ्रंास दोनों ही बहुत बड़ी ओपनिवेशिक शक्तियां रही हैं। दोनों ही भाषाओं के साहित्य के साथ कुछ समय बितायें या उनकी पुस्तकें देखें तो इस विषय पर आप पायेंगे और आप थोड़ा हैरत में पड़ जायेंगे। जहां एक तरफ 19 वीं सदी का ब्रिटेन बाल साहित्य के विषय की दृष्टि से बहुत ही उर्वर सिद्ध हुआ।
वहीं फ्रंास में बाल साहित्य के नाम पर कुछ विशेष नहीं हुआ। बल्कि आज भी जबकि 20-25 वर्षो से उसको लेकर एक विमर्श फ्रंास में चल रहा हैं। और कुछ लोग कोशिश करते रहे हैं कि हम बच्चों के लिए अलग से कुछ लिखें। आज भी फ्रांस में उस तरह से बाल साहित्य का कोई लम्बा चौड़ा विस्तार नहीं हैं न ही कोई इतिहास हैं।
बच्चों के लिए किताबें है। लेकिन अगर आप इनकी तुलना ब्रिटेन के बाल साहित्य से करेंगे तो आप पायेगें कि उस दृष्टि से उसे विपन्न कहेंग,े भले ही फ्रांस के लोग कभी नहीं मानते कि हम किसी भी दृष्टि से विपन्न है। लेकिन अगर आप तुलना करेंगे बाहर से तो ऐसा लगेगा। बहरहाल मेरा उद्देश्य इन दोनों समाजों के बीच तुलना करने का नहीं था। मेरा उद्देश्य यह था कि हम इस पर विचार करे। बाल साहित्य किन परिस्थितियों में जन्म लेता है। क्यों जन्म लेता है। इस तुलना से शायद हमें इस प्रश्न का उत्तर देने में कुछ मदद मिलेगी।
कुछ और देशों की तरफ गौर करें तो आप पायेंगे, जैसे रुस में रुसी क्रान्ति के बाद बाल साहित्य एक तरह की मुहिम बनाया गया। और उस मुहिम के ज़रिये बहुत सा बाल साहित्य लिखा गया। उसमें से बहुत सा बाल साहित्य हमारे देश में भारत सोवियत मैत्री के तहत आजादी के बाद के लगभग तीन साढे़ तीन दशकों तक, जब तक सोवियत संघ का विघटन नहीं हो गया तब तक बडे पैमाने पर प्रसारित किया गया। दरअसल अगर कोई भारतीय बाल साहित्य प्रकाशन उद्योग की अर्थ व्यवस्था का अध्ययन करेगा। तो जरुर यह महसूस करेगा कि इस अर्थ व्यवस्था में खेलने के लिए समतल मैदान नहीं था। कोई कितना ही अच्छा बाल साहित्य का प्रकाशक होता वो सोवियत संघ से आई हुई सरकारी सबसिडी प्राप्त रंग बिरंगी अच्छे कागज पर छपी हुई, किताबों की कीमतों का मुकाबला नहीं कर सकता था। और इसलिए यह कहना कोई बहुत अवैज्ञानिक नहीं होगा 50 के 60 के 70 के दशक में आजादी के पहले विकसित हो चुका बाल साहित्य का हिन्दी उद्योग, खासकर हिन्दी भाषा का उद्योग पल्लवित होने की बजाय मुरझाता चला गया। और एक के बाद एक पत्रिकाएं बंद होती चली गई। कई प्रकाशन समूह तो बिल्कुल ही बन्द हो गये। या बाल साहित्य को छापना उन्होने बन्द कर दिया। शायद सबसे मशहूर किस्सा इंडियन प्रेस इलाहाबाद का हैं।
और यह क्रम चलता रहा इस बीच सोवियत साहित्य फैला, प्रसारित हुआ बहुत से लोगों ने उसी को बाल साहित्य के प्रसार का मानक बना लिया। और चूंकि उसके साथ कई ओर चीज़ें जुड़ी हुई थी। प्रगतिशिलता की अवधारणा जुड़ी हुई थी। बहुत सी प्रेरणा का स्रोत भी सोवियत संघ था। उन कारणों से ही उस साहित्य का प्रसार हुआ। पर कीमत भी एक कारण थी। इन देशो की तुलना में सोवियत संघ और ब्रिटेन, ब्रिटेन 19 वीं सदी में और उसके बाद से लगातार अब सोवियत संघ मुख्यतः 1920 के बाद से बाल साहित्य के लिए सबसे उपर्युक्त समय सिद्ध हुआ। इन तमाम चीज़ों पर विचार करने से हमको कुछ लाभ मिलेगा। इसलिए क्योंकि जिसको हम बाल कह रहे हैं। उसकी सामाजिक व्याप्ति उसका जन्म अब हमारे बीच दरअसल हो रहा हैं। अभी भी उसमें बहुत सी बाधाएं है। लेकिन जिसको हम बालक कहते है या बालिका कहते है। बच्चा कहते हैं। भारत वर्ष की बहुत लम्बी सभ्यता के इतिहास में उसका सामाजिक जन्म अभी पूरी तरह होना हैं। अभी वो एक जीवन का एक चरण हैं। इसकी जैविक छवि तो है समाज में जैसा कि बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक सुधीर कक्कड़ अपने ढ़ग से कहते रहे है, कि दरअसल हमारे समाज में शैशव की अवधारणा तो है, लेकिन बचपन की नहीं है।
तीन चार वर्ष की आयु बीतने के बाद से हमारे समाज, हमारे परिवार में बच्चे से की जाने वाली अपेक्षाएं दरअसल व्ययस्क बनाने की तैयारी होती हैं। वो बचपन को स्वीकृति नहीं देती। लड़कियों के बचपन को तो उस समय भी स्वीकृति नहीं देती जब वोे शैशव काल में होती हैं। तो उसके बाद से तो खैर उनका बचपन होता ही नहीं है।
बांग्ला में आप जानते ही है कि बचपन के लिए ऐसा शब्द ही नही है जो लड़कियों को भी शामिल कर सके। छले बाबा वाला जो शब्द है वह मुख्यतः लड़कांे के लिए है, लड़कांे का यह बचपन होता है अनहोना देवी के उपन्यास आपको हम याद दिलाते है, कि लडकियों का तो कोई बचपन होता नहीं है। बालविवाह की दृष्टि से देखें तो हमारे सामने तकलीफ़ का उत्पीड़न का, एक बहुत भयानक इतिहास है, जो भारत की संस्कृति का, आधुनिक युग की संस्कृति का भी एक बहुत बड़ा इतिहास है। जिसके ज़रिये आधा बचपन तो गायब हो जाता है। जहां तक लड़कों का सवाल भी बचता है। उसको लेकर के भी ये जो वर्ष है जिनको पश्चिमी दुनियां में खासकर ब्रिटेन और अमेरीका की अंग्रेजी भाषी दुनिया में बाल साहित्य के वर्ष या सबसे सुनहरे वर्ष बताया जाता है।
ये वर्ष हमारे समाज में अभी सामाजिक रुप से गढ़े जाना शुरु हो सका है। हालांकि अभी संभव नहीं हो पाया है। बहुत विकसित नहीं हो पाया ये वर्ष है 5 से 11 या 12 वर्ष होने के वर्ष। जिनकों लेकर मनोविज्ञान में व्याख्याएं अनेक की गई हैं, कि ये वो वर्ष हैं जिनमें जीवन के शैशवकाल की योनिकता नीचे चली जाती है। और एक उद्यमी बच्चे का उदय होता हैं। जो हर चीज़ छूना उलटना, पलटना दुनिया को समझना चाहता है। उसके बारे में बोलना चाहता है। सुनना चाहता है। तरह तरह का वह विस्तार कर रहा होता है। वह अपना उद्यम बढ़ाना चाहता है। नये नये यंत्रों के जरिये वो दूनिया को काबू पाना चाहता है। ये वो वर्ष कहलाते है। 4-5 वर्ष से लेकर के 11-12 वर्ष। यही वो वर्ष है। जिन वर्षो में स्कूल शुरु होता है और स्कूल अपने ढ़ग से बच्चे को सम्भालना शुरु करता है।
अगर आप प्राथमिक स्कूल के इन वर्षों पर विचार करें जो 5-6 वर्ष से शुरु होते हैं। आजकल तो प्राथमिक से भी पहले ही स्कूल शुरु हो जाता है। इसलिए बहुत से लोग कहेंगे कि आप तीन साल से शुरु कर सकते हं। फिर भी अगर आप 4-5 साल से भी शुरु करें और गौर करें कि इन वर्षो में क्या समस्याएं है शिक्षा के सामने। तो आप पायेंगे कि सबसे बड़ी समस्या ही यही है कि प्रशिक्षित शिक्षक ही नहीं समझता है कि इन वर्षो से गुजरा हुआ बालक इन वर्षों की विशेषताओं में बहुत वर्षो तक नहीं रहता।
ये एक तरह का ऐसा दौर है जिससे बच्चा गुजर रहा है। दरअसल उसका जीवन उसके बाद शुरु होगा। इसलिए इन वर्षों में जो प्रगट हो रहे हैं ये लक्षण जो समस्याएं प्रगट हो रही हैं , इनको बहुत ज्यादा गंभीरता से देखना उचित नहीं है। क्या अर्थ है इसका इन वर्षो में बच्चे सब कुछ करना चाहते हैं। हरेक अनुभव से गुजरना चाहते हैं। लेकिन हमारे समाज में इन वर्षों में जब कोई बच्चा किसी चीज़ में बहुत ज्यादा रुचि लेता है, तो हम सोचते हैं कि वो बनना चाहता हैं जिस चीज़ में वो रुचि ले रहा है। जबकि वो केवल उन चीज़ों से गुजरना चाहता है। हो सकता है एक दो साल के लिए चित्रकला में बहुत रुचि ले, तो हमें लगने लगता है कि यह चित्रकार बनने जा रहा है तो हम चित्रकाला में एक तरह से आगे बढ़ायें। और हम देखते हैं कि बच्चा छः आठ महिने बाद चित्र बनाना छोड़ देता है। हम निराश होते हैं कि हमने इतना पैसा खर्च किया हमने उसके लिए ब्रश लाये। रंग लाये, कागज़ लाये ये सब हुआ लेकिन उसने इस चीज़ को भी छोड़ दिया। बच्चा एक क्रम से गुजर रहा है। जिसमें वो अनेक मनोदशाओं से गुजरेगा। क्योंकि वो जीवन के तमाम आयामों को अपने स्तर पर छू रहा है।
इसके ज़रिये ही संज्ञानात्मक विकास होगा। गल्तियां करता है, जाहिर है राष्टीªय पाठ्यचर्या की रुप रेखा जब लिखी जा रही थी। तो इस बारे भी कुछ पंक्तियां लिखना थी। बहुत से लोग तो इन पंक्तियों को लेकर शुरु से ही विवादग्रस्त वातावरण में अपने आपको महसूस कर रहे थे। क्योंकि इन पंक्तियों में हम लोगो ने ये पाया कि कुछ हमारे जानकार लोग है, विशेषज्ञों ने यह लिखा। कि कक्षा 1 से लेकर 4 तक मेहरबानी कर के बच्चे की किसी गलती को मत सुधारिये, न ही उसको बताइये, कि वर्तनी में ये गलती हो रही है, उच्चारण में वो गलती हो रही है। या वाक्य विन्यास में ये गलती हो रही है, कुछ भी मत बताइये। उसको लिखने दीजिये, बोलने दीजिये, पढ़ने दीजिये, सुनने दीजिये। चार, चौथी कक्षा से जब वो गुजर जाये। तब फिर इन सब चीज़ों के बारे में समय निकालियेगा और वो भी एक एक करके, इक्कठा मत ठीक कर दीजियेगा। कि बिल्कुल आप उसको रीडर की जगह प्रूफ रीडर बना दें।
कुछ इस तरह का मामला हमारे स्कूलों में होता है। आप जाते है कक्षा 1 में बच्चे अभी अभी बोलने की कोशिश कर रहे है स्कूल में आकर के। लेकिन सबसे पहला ध्यान हमारा उनके उच्चारण पर जाने लगता है। बड़ी मुश्किल से दो दो, तीन तीन अक्षरों के शब्द बना रहे है और अभी से अक्षरों की आकृतियों को लेकर हम चिन्तित हैं। या मात्राओं के सहीपन को लेकर चिन्तित है इत्यादि। ये सब चीज़े दिखाती है कि समाज़ में बच्चे के इन वर्षो को लेकर ऐसी कोई व्यापक समझ नहीं है। और न ही शिक्षकों में ऐसी समझ है कि, ये वर्ष दरअसल उड़ने के वर्ष हैं। फलने, फूलने के, फैलने के वर्ष हैं। इन वर्षो में बच्चों में क्षमताओं का विस्तार होता है। और जब वह विस्तार होता है तो जाहिर है कि गलतियां होती है, चोटें भी लगती हैं। तरह तरह की विकृतियां भी उत्पन्न होती हैं। भगवान ने उनके पास बहुत समय दिया है उनको ठीक करने के लिए।
अब अगर हम विश्वास पूर्वक इन वर्षों में बच्चों को उड़ने दे। इस दृष्टिकोण से अगर आप देखे तो आप पायेंगे कि जिसको हम बचपन कहते है। दरअसल हमारे समाज में अभी उसका आविर्भाव हो रहा है। किस तरह का उसका आविर्भाव कर रहे हैं। फिलहाल उसका आविर्भाव केवल कानूनी मदद से कर पा रहे है। ये अपने आप में एक बहुत बड़ा चिन्ता का लक्षण है कि कानून से जब किसी चीज़ की शुरुआत होती है, तो समाज में संस्कृति में व्यापकता पाते पाते बहुत समय लेती है वों चीज़। ये चीज़ हमने कई माध्यमांे से जानी हैं। जैसे कि हमने देखा कि 19 सदी के उत्तरार्ध में एक कानून बना था कि छोटी बच्चियों की हत्या नहीं करना चाहिए। लेकिन आज सौ वर्ष बाद छोटी बच्चियों की भ्रूण में ही हत्या नये सिरे से जन्म ले रही हैं। वो कानून कभी सफ़ल नहीं हो पाया।

इसका मतलब समाज और संस्कृति में वो व्याप्त नही हो सका। बालविवाह के खिलाफ कानून का भी यही इतिहास है। 1929 के बाद तीन बार बदला गया है सबसे पहले फिलहाल 2006 में बदला गया। 2006 वाले कानून में लिखा हुआ है कि हर जिले में एक अधिकारी नियुक्त होगा जो बाल विवाह पर नजर रखेगा और उस तरह की एक सूची बनायेगा। देश के किसी जिले में अभी तक वह अधिकारी नियुक्त नही हो सका।
जाहिर है कि कुछ ऐसे मसले हैं जिन पर संस्कृति या समाज और राज्य के बीच एक संघर्ष चल रहा है। ये संघर्ष स्वतन्त्रता आंदोलन में बहुत बड़े पैमाने पर चला। कई मुद्दों पर चला। यहां तक कि लोकमान्य तिलक ने भी बाल विवाह को नियन्त्रित करने वाले कानून का विरोध ही किया था। इन तमाम चीज़ो को हमंे इसलिये सोचना होगा क्योंकि हम जिस चीज़ को आज थोड़ा बहुत अपने बीच पा रहे हैं, बचपन की अवधारणा को उसको लेकर हमे स्वयं सोचना है कि अभी बहुत ही नाजूक पौधा हैं। जिसके इर्द गिर्द बहुत सी बाड़ लगानी होगी तब जाकर किसी हद तक पल्लवित हो पायेगा।
बचपन की अवधारणा के हिसाब से अगर भारत के आज के समाज पर गौेर करे तो आप देखेंगे कि उसकी संभावानाएं ही देश के करोड़ो बच्चों के लिए बहुत क्षीण है। कुपोषण की दुनिया में अगर चलं,े आप लोगो से पूछंे कि भाई भारत में कुपोषण के आंकड़े क्या कहते हैं तो आप पायेंगे और ये आंकड़े बताते है कि 75 प्रतिशत से उपर बच्चे 6 से 8 वर्ष की आयु में कुपोषित पाये जाते हैं। लड़कियों मं यह आंकड़ा 85 से उपर है।
ऐसी स्थिति में जब बच्चे के स्वास्थ्य को समाज इतनी उपेक्षा की दृष्टि से देखता है ,खासकर गरीबों के बच्चो को तो जाहिर है कि हमें मानना पड़ेगा कि बचपन के वर्ष अभी हमारे लिए राष्ट्रीय चिन्ता का वर्ष नहीं बने, केवल कानूनी चिन्ता का वर्ष बने हैं। वो भी इसलिए क्योंकि यह कानून अभी हाल में पास हो सका है। और वो भी लम्बे संघर्ष के बाद, उसको पास होने में भी करीब 6 साल लग गये।
जो कहता है कि 8 वर्ष की शिक्षा हर बच्चे का बुनियादी अधिकार है। इस कानून को लेकर भी तमाम तरह की बहसें अभी भी चल रही हैं, लेकिन उस कानून के जरिये कम से कम यह स्वीकारा गया है कि हां बच्चे का भी कोई अधिकार होता है। उसके लिए कुछ और लोग लड़ सकते हैं बच्चा स्वयं भी लड़ सकता है।
आशय यह है कि यह एक तरह का उषा काल है। इसमें बहुत सी चीजें साफ दिख रही हैं, बहुत सी चीज़े साफ नहीं दिख रही हैं। जिस तरह सुबह का समय होता है। स्पष्टतता से कोई चीज़ नज़र नही आती। इसलिए हमारे जो साथी बाल साहित्य की व्याप्ति को लेकर चिन्तित हैं। उनको यह देखकर प्रेरणा भी ग्रहण करना चाहिए कि यह एक शुरुआत है उस समाज में, जिसमें बच्चे की अवधारणा बहुत अहिस्ता अहिस्ता तमाम तरह के अवरोधो के साथ आगे बढ़ रही हैं। एक जैविक अवधारणा सामाजिक अवधारणा में तब्दील हो रही है कि बच्चा सिर्फ एक जैविक छोटा प्राणी नहीं है। जो कि छोटे का बड़ा संस्करण हो, उसका अलग व्यक्तित्व है। प्लेटो ने कहा था कि बच्चा दरअसल बड़ों के बीच एक विदेशी की तरह होता है, जिसकी भाषा आपको न आती हो। जब आप बात करते हैं तो आपको मालूम होता है कि मेरी कई बातें वो ठीक समझेगा, कई नहीं समझेगा या गलत समझ जायेगा और बच्चा जो कुछ बोलता है अपनी भाषा में बोलता है और हमको उसकी भाषा नही आती तो हम भी उसकी पूरी बात नही समझ पाते। कुछ समझते है कुछ नहीं समझते है, और इस तरीके से जो आदान प्रदान होता है वह आधा अधूरा ही रहता है।
प्लेटो ने जरुर इस रुपक को यह सब सोच कर रखा होगा केवल इस कारण कि ये बच्चा अभी मनुष्य जैसा दिखता है। ये न सोचें कि ये मेरी बात को समझेगा और मैं इसकी बात को समझंूगा। उनके बीच में ये गुंजाइश रहे कि वे दोनों ही एक दूसरे के बात को नहीं समझ पायेगें संप्रेषण का एक बहुत बड़ा क्षेत्र रहेगा। जो अंधेरे में रहेगा। जाहिर है उस समय इतना मनोविज्ञान विकसित नही हुआ था कि प्लेटो यह समझ सकता कि क्यों अंधेरा रहता है। लेकिन उसने फिर भी एक बहुत बड़ी बात कही थी और इस आधार पर साथ में यह अनुशंसा भी की थी कि जैसा सम्मान हम विदेशियों को देते हैं अपने बीच में, वैसा ही सम्मान हमे बच्चों को भी देना चाहिए। समझ में नही आ रहा है, लेकिन क्या पता बाद में वही सही निकले। वैसे भी बाद में वही रहेगा, हम तो रहेगें नही। तो इस नाते कम से कम एक संस्कार बनाने की कोशिश प्लेटो ने की थी।
और पिछले 2000 सालों पर गौर करें तो ऐसे कई लोग हुए। जिन्होने हम लोगों को याद दिलाया कि भई बच्चों को गम्भीरता से लेने की जरुरत है। हमारे देश में भी ऐसे लोग लगातार होते रहे हैं। आप सोचिये अगर सूर के शब्दों को विचार करें । जिन्होने अपने पदों के जरिये बच्चों को झूठ बोलने की प्रवृति पर, बहाना बनाने, छिपने की प्रवृति पर विचार किया था। और यशोदा को एक ऐसी मां के रुप में स्थापित किया कि ये सब सहन करती हैं। और बहाना सुन के कहती नही है कि मुझे पता है कि ये तुम्हारा बहाना है। बल्कि गले लगा लेती है। तो कौन सा रुपक रच रहे थे। वो वही रुपक रच रहे थे कि बच्चों की दुनिया में लोकपाल बनने की कोशिश मत कीजिए। उनको छिपने की जगह दीजिए। उनको झूठ बोलने की जगह दीजिए। उनको बहाना बनाने की जगह दीजिए। उनको अपनी कल्पना की दुनिया में रहने का मौका दीजिए। इसको लेकर अनेक परम्पराएं है। लोक आख्यान है, कोई कमी नहीं है।
आप विचार करना शुरु करेगें मिसाल के तौर पर अगर आप ‘‘खरगोश और शेर‘‘ की कहानी पर विचार करें जो कि पंचतन्त्र की सबसे लोक प्रिय कहानी में गिनी जाती है। मैने उसको पढ़ा भी है आप लोगों में से बहुत से इसका इस्तेमाल करते रहे हैं। मूल रुप से इसमें क्या होता है खरगोश जो वहां एक बच्चे की तरह से है। बहुत छोटा खरगोश है जिसके लिए यह तय कर दिया गया है कि आज वह शेर के हाथांे मारा जाने वाला है। क्योंकि शेर बूढ़ा हो चुका है उसको खाने के लिए रोज जानवरों ने कुछ न कुछ भेजने का निर्णय किया है। और उस समय इस खरगोश की यह हालत है कि उसको पता है कि आज तो मुझे जाना है। खरगोश के पास अनुभव नहीं है। क्या होता है शेर। शेर के समाने जाना। ये सब उसको नहीं पता है। माता-पिता जाहिर है उस दिन मायूस होंगे। हम तो अपने बच्चे को भेज रहे हैं। सोचा होगा क्यों उसे नाष्ता खिलायंे बरबाद करें। उसको तो मरना ही है। मां सोच रही होगी कि कैसा क्षण है। लेकिन खरगोश चूंकि उस अनुभव से मुक्त है, जो कि शेर के सामने जाने पर होता है। इसलिए उसके मन में उस तरह के भाव नहीं है। तो देखना यह है कि माता पिता बहुत घबराये हुए हैं। जाहिर है कि कुछ न कुछ संकट होगा। इसलिए वह क्या करता है, रास्ते में, पंचतन्त्र की कथा हमे नहीं बताती, हमे सिर्फ इतना बताती है कि जब वह पंहुचा दोपहर में, तब उसने क्या किया।
ये बताती है कि उसने शेर से कहा कि रास्ते में इसलिए हमे देर हो गई क्योंकि रास्ते में आपके जैसा एक और शेर पानी में दिखाई दिया उसने कहा। आप जानते ही हैं कि शेर होने का अर्थ ही यही होता है, कि प्रतिद्वंदिता स्वीकार न हो इसी को तो शेर कहते है। सीधा पहले उससे निपट ले फिर मैं अपनी भूख शान्त करुंगा। इस बहाने खरगोष उसको ले गया उस कुंए के पास जहां शेर को अपनी आकृति दिखाई दी ठहरे हुए पानी में। और वह कूद पड़ा पानी में और मर गया ये कहानी है।
इस कहानी को अगर आप संक्षेप में कहें, नवनीत प्रकाशन जो किताबें छापता है। और लोग भी छापते हैं नीचे लिखते है कि इस कहानी से आपको क्या शिक्षा मिलती है। तो उत्तर यही होगा कि इस कहानी से हमको यह शिक्षा मिलती है कि झूठ बोलकर जीवन की रक्षा की जा सकती है। लेकिन अगर आप थोड़ा और गौर से विचार करें थोड़ा और आगे चलें कि क्या किया होगा इस खरगोश ने। तो ये दो संभावनाएं बनती है। या तो उसने देखा होगा कि माता-पिता का ही अनुभव था। उसने देखा होगा कि जब भूख लगती है। भूख बहुत समय तक लगी रहती है। तो लोगो का अपने ऊपर नियत्रंण खो जाता है। उसने घर में जरुर ये देखा होगा कि पिताजी खासकर आग बबूला हो जाते हैं अगर खाना थोड़ा देर से बने, या ठीक से न बना हो। तो ये सोचा होगा। तो उसने यह सोचा होगा कि अगर मैं और कुछ तो कर नही सकता। मुझे बता रहे है कि शेर ने मुझे खाने के लिए बुलाया है। तो क्यों नही मैं थोड़ा देर से जाऊं।
क्योंकि खरगोश के लिए आपको पता है कि देर से चलना बड़ा मुश्किल काम है। स्वभाविक गति उसकी बड़ी तेज है। तो उसने अपने उपर नियत्रंण किया होगा कि मैं किसी तरह से देर से पहुंचूं। जिससे शेर इतना क्रोधित हो जाए कि आपा खो बैठे। और फिर मैं उनसे कुछ भी नही कहूंगा ,देखा जाएगा। या तो उसकी कुछ ये रणनीति रही होगी। कि भई सुबह सुबह न पहुंचें दोपहर में पहुंचें। थोड़ी गर्मी भी हो जाएगी तब वह भूख के मारे पागल भी हो जाएगा। और रास्ते में शायद उसने कुछ ऐसा सोचा हो कुछ ऐसा करे।
या मेरी एक और थीसीस है उसको लेकर मेरा एक अनुमान है कि ये खरगोश जैसा कि बच्चों का स्वभाव होता है कि आसपास डोलते रहते हैं। मंडराते रहते हैं चीज़ो को देखते रहते हैं। तो जंगल का ज्ञान उसको खूब था कि कहां क्या है, और जरुर रास्ते में ऐसा कोई सूखा हुआ या बहुत कम पानी वाला कंुआ उसको कई बार इधर उधर मंडराते हुए दिखा होगा। ऐसे अवसरों पर जब आदमी थोड़ा चिन्तित हो, ऐसी जगह पर जाता है। तो हो सकता है यह खरगोश उस दिन वहां गया हो। और वहां ये देखकर कि उसमें कुछ पानी है, अचानक उसके मन में आर्कमिडीज की तरह यह सिद्धान्त आया हो कि अपनी छाया अपनी जैसी दिखाई देती है। और अपनी छाया से बड़े बड़े भी मोहित हो जाते है।
पंचतन्त्र के समय नातीशीष का जो आख्यान है। जरुर जीवित रहा होगा। जो कि विश्व का पहला ऐसा मनुष्य कहा जाता है जो अपनी ही आकृति से मोहित हो गया। हमारे समय में इतनी बड़ी बड़ी अभिनेत्रियां इतने अभिनेता इस परंपरा में चल रहे हैं। सुबह अपन अपने आइने में देखते है तो अपने से खुश हो जाते है। अपने से मुग्ध हो जाते है।
उस खरगोश ने जब उस परिचित पानी में अपने को देखा होगा। तो उसको लगा होगा कि ये हो सकता हैं यह विचार उसके मन में आया हो। यह विचार उसके मन में आता ही नहीं अगर उसकी दिनचर्या किसी स्कूल से घिरी होती। अगर वह मंडराने के लिए स्वतन्त्र न होता। इधर उधर समय बिताने के लिये। इधर उधर यूं ही घुमते रहने के लिए, आवारा होकर घूमने के लिए समय न होता, तो उसको अंदाज ही नहीं होता कि कहां कहां कितने कुंए है। कितने सूखे हुए हैं। कितने में कितना पानी है। जहां पर ऐसा किया जा सकता है। ये सारी चीज़े सम्भव हैं। जिनको लेकर यह विचार कब उसको आया कब नहीं आया।
बहरहाल अन्त में उसने क्या किया ये आप सोचते है। और इस कहानी से हम अन्त में पाते है कि दरअसल कोई ऐसी स्पष्ट शिक्षा नहीं मिलती जिसको हम नैतिक शिक्षा कह सकें। बहुत से लोग ये कहते है कि इसका सार संक्षेप इस तरह का होना चाहिए कि अक्ल बड़ी होती है। शेर बाहुबली था लेकिन खरगोश अक्लमंद था। तब अक्ल का इस्तेमाल उसने कैसे किया। क्या आपके संस्कारी ढ़ग से किया। आजकल बहुत सारे स्कूल खुद को संस्कार स्कूल कहते हैं। कुछ लोग संस्कार माउन्टेन या संस्कार वैली और कुछ जोड़ देते है। क्या संस्कारी ढ़ग से उसने यह काम किया। या उसने कुछ गलत ढ़ग से किया। और एक स्थिति पर विजय पाई। जब हम इस तरह के प्रश्नों से जुझते है तो हम पाते है तो दरअसल साहित्य हमको कोई ऐसा उत्तर नहीं देता। अच्छा साहित्य जिसका सार संक्षेप किया जा सके या जिसको नीति में तब्दील किया जा सके। साहित्य वास्तव में मुक्ति की गाथा है। जिसका कोई संक्षेप सम्भव नहीं है। उसका लक्षण यही है। इस दृष्टिकोण से जब हम देखते हैं और अपने बच्चों के बचपन पर विचार करते हैं तो हम जरुर यह विचार कर सकते है कि अगर बाल साहित्य के रास्ते में इतने अवरोध है तो ये अवरोध स्कूल को लचीला किये बगैर, शिक्षक के दिमाग को थोड़ा सा खोले बगैर। अफसरों के मंत्रियों के पूरी व्यवस्था के चरित्र को थोड़ा और मानवीय बनाये बैर संभव नही हैं।
इस संघर्ष का ये बेहत्तर स्वरुप हमारे सहज संघर्ष का हमारे दैनिक संघर्ष का ही हिस्सा है। कि हम जहां जहां पुस्तकालय की जगह बनाने की कोशिश कर रहे है वहां वहां दरअसल ये अतिरिक्त कर्म हैं। जो हमे करने ही होंगे। संवाद के स्तर पर, लेखन के स्तर पर, एक माहौल बनाने के स्तर पर कि हम बच्चे की अवधारणा खासकर बचपन की अवधारणा का भी विस्तार करते रहंे। विकास करते रहंे। लड़के और लडकियों के संदर्भ में उसकी अलग अलग व्याख्या करते रहंे, और समाज को याद दिलाते रहें कि अभी ये सपना कितना लम्बा है। जिसकी शुरुआत अभी हो रही है। और कितनी तरह के अवरोध उसके रास्ते में हैं। जो कि शिक्षा से पैदा किये हुए नहीं हैं। जो संस्कृति के पैदा किये हुए हैं।
तभी इन अवरोधों को थोड़ा थोड़ा खोला जा सकेगा। इस बातचीत को एक निष्कर्ष की तरफ पंहुचाने के लिए मैं आपको एक कहानी सुनाता हूं। और उस कहानी का शिक्षा में क्या होगा इसकी कल्पना भी करना आपके बीच जिससे आप समझ सकें, अन्दाज लगा सके, कि दरअसल बाल साहित्य की क्या समस्याएं हैं। इस कहानी को मैने एन.सी.ई.आर.टी. के दौरान अपने काम के वर्षों में कई बार बच्चों को सुनाया। हर बृहस्पती वार को हमारे परिसर में ही एक स्कूल था। वहां कक्षा 1 में एक कहानी सुनाता था। कई बार दो दो तीन तीन कहानियां सुनानी पड़ती थी। ये कहानी कई बार मुझे सुनाने का मौका मिला। पर इसको कहने का एक दिन का ऐसा अवसर था। जिसको लेकर मैं पहले से बिल्कुल तैयार नही था। लेकिन जिसके हो जाने पर मुझे लगा कि जैसे भाषा, बच्चों का मनोविज्ञान, साहित्य और दुनिया से इनका संबंध मेरे लिए एकाएक खुल गया। कहानी मैं आपको सुनाना चाहता हूं। केवल कहानी नहीं ये कहानी शंकर की लिखी हुई लोक कथा है।
कहानी है ‘‘बुढ़िया की रोटी‘‘ कहानी कुछ यू है कि एक गाँव में एक बुढ़िया रहती थी। झोपड़ी के सामने उसने एक चूल्हा बना रखा था। उस चूल्हे पर वह सुबह से रोटी बनाती थी। उस दिन सुबह उठकर जैसे ही उसने रोटी बनाई। उस झोपड़ी के सामने खड़े हुए नीम के ऊपर रहने वाला कौआ अचानक नीचे उतरा और रोटी को झपट के ले गया। और जाकर सीधे नीम के उपर जा बैठा। बुढ़िया बहुत परेशान हुई। उसने पेड़ ़के पास जाकर पेड़ से कहा कि तुम अपनी डालियां जोर जोर से हिलाओ, कि कौआ मेरी रोटी ले गया। तो पेड़ ने कहा कि मातजी मैं तो अपनी डालियां तभी हिलाता हूं जब जोर से हवा चले मैं खुद तो नहीं हिला पाउंगा। ऐसा कुछ उसने कहा या कहा होगा। ये तो मुझसे नहीं होगा। माफ कीजिए। बुढ़िया बहुत हैरान हुई कि मैं इसके सामने ही रहती हूॅ और फिर भी मेरी बात नहीं मान रहा है। तो वृक्षों के अमर शत्रु है, लकड़हारे वहां भी एक लकड़हारा रहता था।
बुढ़िया अपनी लाठी टेकती हुई लकड़हारा के घर गई। सुबह का समय था लकड़हारा अभी अभी उठा था कि बुढ़िया ने आकर दरवाजे पर जोर से दस्तक दी। वह आया और पूछा कि माताजी क्या बात है ? बुढ़िया ने कहा कि मैं सुबह सुबह रोटी बना रही थी। रोटी जैसे ही बनी कौआ ले गया और नीम के पेड़ के उपर बैठ गया। और मैंने पेड़ से कहा कि तुम अपनी डालियां हिलाओ लेकिन वह मेरी बात नहीं मान रहा है। तो लकड़हारा ने कहा कि माताजी मैं क्या कंरु। तो तुम अपनी कुल्हाड़ी लेकर जाओ और पेड़ को धमकाओं कि मैं तुम्हे काट दूंगा। तो लकड़हारे ने कहा कि माताजी इतना प्रचार हो रहा है कि पेड़ नहीं काटने चाहिए मैं तो बड़ी मुश्किल से अपनी आजीविका चला रहा हूं। जंगल में जाकर काटता हूं, ये तो अपने गाँव का पेड़ है यहां पर कैसे काटूंगा ? ये तो मुझसे नहीं होगा। शंकर ने इतने विस्तार से नहीं कहा है। मैं लकड़हारे का विमर्श थोड़ा फैला रहा हूं।
पर्यावरण का युग है। बहरहाल लकड़हारे ने कहा कि माताजी मैं ये काम नहीं कर पाउंगा। बुढ़िया और दुखीः हुई। बुजुर्गांे की बात नहीं मानते हैं। ये लोग बिल्कुल ही सीधे सीधे अवज्ञा पर उतर आये हैं। तो उसको ख्याल आया कि आस पास चूहे का एक बिल है। और चूहे अक्सर उसकी झोपड़ी में आया करते थे। तो बुढ़िया चूहे के पास गई, उसने कहा निकलो बाहर, मेरी मदद करो। चूहे ने कहा मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूं। मुझे तो आप हमेशा ही भगाती रहती हैं। बुढ़िया ने पूरी कहानी सुनाई। मैंने रोटी बनाई, कौआ मेरी रोटी लेकर पेड़ के ऊपर बैठ गया। मैने उससे कहा कि तुम जोर जोर से अपनी डालियां हिलाओ मगर वो मानता नहीं है। फिर मैं लकड़हारे के पास गई। वो भी नहीं मानता है। तो चूहे ने कहा कि मैं क्या करुं ? बुढ़िया बोली तुम लकड़हारे के घर पे जाके उसकी मूंछ कुतर दो। तो शायद कुछ मान जाये। तो चूहे ने कहा मैं तो कबीठ खाता हूं, कपड़े खाता हूं। अच्छी अच्छी रोटी खाता हूं। लेकिन मूंछ कुतरने की कोशिश करुंगा तो मेरे दांत ही टूट जाएंगे। तो मुझसे नहीं होगा। तो बुढ़िया और भी ज्यादा दुखीः हुई। तो ध्यान आया कि मंदिर के पास एक बिल्ली रहती है। तो वहां पहुंची, तो बिल्ली एक मुण्डेर पर बैठी हुई थी। बुढ़िया ने उसके पास जाकर पूरी कहानी सुनाई। कि मेरी रोटी कौआ ले गया। पेड़ अपनी डालियां नहीं हिला रहा है। लकड़हारा कोई धमकी देने को तैयार नहीं है। चूहा उसकी मूंछ कुतरने के लिए तैयार नहीं है। तो तुम चूहे को खा जाओ। चूहे के पीछे भागो। तो बिल्ली ने कहा चूहा जिसकी तुम बात कर रही हो, बीमार सा है, छोटा सा है। सुबह का समय है इतनी जल्दी नहीं कर पाउंगी। इस तरह उसने एक बहाना बनाया और माताजी को उसने भी निराश कर दिया। इस समय बुढ़िया को याद आया कि मंदिर के पीछे एक कुत्ता रहता है। कुत्ते को वो कभी कभी रोटी भी देती थी। तो वह कुत्ते के पास गई। और उसने कुत्ते को पूरी कहानी सुनाई।
देखिये अनहोनी वफा का मामला है। कुत्ता मान गया और कुत्ता बिल्ली के पीछे भागा। बिल्ली चूहे के पीछे भागी। चूहा लकड़हारे के घर में घुसने लगा। पीछे पीछे माताजी आ रही थी। लकड़हारा समझ गया कि ये वही चूहा है जो मेरी मूंछ काटने आ रहा है। लकड़हारे ने अपनी कुल्हाड़ी उठाई। और वह पेड़ की तरफ गया। पेड़ भी हैरान हो गया कि लकड़हारा अपने गाँव का पेड़ काटने आ पंहुचा है पता नहीं क्या होगा। तो उसने जोर जोर से अपनी डालियां हिलाई। और कौए को डर लगा सचमूच में ये घोसला नहीं गिर पड़े। कौए ने रोटी नीचे गिरा दी। रोटी सीधे बुढ़िया की थाली में गिरी। बुढ़िया खुश हुई और उसने खा ली।
ये कथा कुल मिलाकर कुछ इस तरह की है। अगर आप इस कथा के ज़रिये कुछ विचार करना आरम्भ करें। अब साहित्य कि कुछ परिस्थितियों पर खुद नज़र डाल सकेंगे। तो आपको दिखाई देगा कि साहित्य दरअसल क्या करता है। और कैसे करता है। आप इस बात पर विचार करें कि इस बीच में जबकि बुढ़िया तरह तरह के लोगो के पास जा रही है। अपनी रोटी को वापस लेने के लिए उस बीच में कौआ रोटी खाता नहीं है। पर कौए का ये स्वभाव नहीं है। कौआ इस पूरे नाटक के दौरान जो समय बीत रहा है, उस दौरान कैसे धैर्यपूर्वक उसके परिणाम की प्रतीक्षा करता है। हम देख रहे हैं कि कुछ हुआ नहीं, कौए के पास उसकी चोंच में रोटी सुरक्षित है। यानी कि समय के दो फलक चल रहे हैं एक समय जिसमें हम बुढ़िया के साथ आगे बढ़ रहे है। गांव के तमाम चरित्रों से गुजर रहे है। बुढ़िया के अनुभव जगत से, बुढ़िया के जज़बातों से पेश आ रहे है। दूसरी तरफ कौआ और उसका समय है। जिसमें वह बैठा हुआ है यह समय साहित्य ने पैदा किया है। यह समय संसार में नहीं है। वरना कौओं का स्वभाव होता हैं कि जो भी उन्होंने छीना है झपटा हैं वह तुरन्त खा लेते हैं। कि साहित्य में यहां पर संसार का एक तरह से पुर्नसर्जन किया है। ये केवल साहित्य की छवि नहीं है, साहित्य ने संसार की यह छवि बनाई। उसका एक प्रतिबिम्ब है या उसका एक दर्पण है इस तरह की बातें लोग करते हैं। ये भूल जाते हैं कि साहित्य संसार का नये सिरे से प्रबन्धन करता हैं तब जाके पूरी कहानी बन पाती है। वरना यह कहानी बनना सम्भव ही नहीं है। कि जब तक ये तमाम चक्र हुआ कि इतना बड़ा मंत्री बिल्ली के पीछे दौड़ा। बिल्ली अधिकार के पीछे दौड़ी, अधिकारी जिले स्तर के पटवारी के पीछे दौड़ा, ये तमाम चेन जब जाग्रत हुई तब, अन्त में कौए को डर लगा कि पेड़ मेरा घोसला गिरा देगा।
यह मामला सिर्फ अगर इतना ही होता तो आप समझ सकते हैं कि जब पेड़ हिलाने का समय आता तब तक कौआ रोटी खाकर उड़ चुका होता। और इस रचना के ज़रिये जिस चीज़ की भी रचना हो रही है। वो नीति है, या वह अनुभव है, या वो एक विचार है। जिस किसी की भी रचना हो रही है यहां पर, वह रचना संभव ही नही थी। अगर कौए को इस मंच के एक तरफ रोक कर नहीं रखा जाता कि तुम अपनी प्रकृति के विपरित कुछ देर धेर्य करो। धेर्य रखो देखो इस बीच में क्या हो रहा है दुनिया में।
कौआ ऊपर से बैठकर एक तरह से ये सब देख रहा है। साहित्य के ज़रिये ये सम्भव होता है लेकिन हमारी निगाहें उस पर नही होती। इसलिए साहित्य एक तरह का सम्मोहन भी रचता हैं। और दरअसल हम इसलिए उसको अपने ध्यान में नहीं ला पाते हैं कि ये कितनी अस्वभाविक बात है कि कौआ न खाये। और आप महाकाव्य पर गौर करें तो खलनायक भी किसी मर्यादा से संचालित होता है। हम देखते हैं रामायण में बहुत बड़ी चीज़ है अनुराग वाजपेयी बहुत बड़े समालोचक रहे हैं उन्होने कहा कि रावण स्वयं एक मर्यादा से संचालित है तब रामायण सम्भव हो पाती है। और उसका जो भी नीति शास्त्र है तब तर्क उभर पाता है। लोक साहित्य में हम लगातार देखते हैं कि साहित्य केवल बने बनाये संस्कारों नियमों के आधार पर नहीं चलता है। वो नये संस्कारों को गढ़ता है। किस तरह गढ़ता है इसी तरह गढ़ता है कि वो स्थान को समय को, और ज्ञान को इन तीनों को अपने ढ़ग से प्रबन्धित करता है।
शेर को क्या पता है और खरगोश को क्या पता है दोनों का ज्ञान जगत थोड़ा थोड़ा भिन्न है । और अलग अलग स्तरों पर चल रहा है। तभी यह प्रबन्धन सम्भव होता है कि छोटा सा जानवर दुनिया का सबसे कमजोर जानवर, दुनिया के सबसे शक्तिशाली जानवर को मारने में समर्थ होता हैं। ये मामला सिर्फ अति का नही है। ये मामला कहानी के द्वारा समय, स्थान और ज्ञान के प्रबन्धन का है।
ये सारे विषय दरअसल शिक्षा के लिए उपयोगी हैं, लेकिन स्वयं शिक्षा इनको लेकर एक प्रकार से आप कह सकते हैं कि अंधी है। या शिक्षा में अभी इस बारीक विमर्श की गुंजाइश नही पैदा हुई हैं कि इसके जरिये हम शिक्षकों को, माता-पिताओं को आश्वस्त कर सकें कि बाल साहित्य का या साहित्य मात्र का बच्चे के हरेक पक्ष से सम्बंध है। बच्चे की कल्पना से उसके संज्ञान जगत से उसके बुद्धि जगत से उसके निर्णय जगत से इन सभी से सम्ंबंध है और उसको किसी एक चीज़ में घेर देना उसको अनिवार्य कर देना है। ये बहुत बड़ी भूल होगी। इसके जरिये साहित्य का तो नुकसान हो रहा है वो तो होगा ही, बच्चे का सबसे ज्यादा नुकसान होगा। ये आपके लिए चिन्ता का विषय होना चाहिए। साहित्य के विमर्श को अगर हम शिक्षा के विमर्श के साथ जोड़ते हुए दोनों को फैला सकें। तो मैं समझता हूं कि वो अवरोध किसी हद तक घटेगा। इस कहानी में और भी बहुत कुछ आप देखते हैं। आप देखते है कि समाज की रचना में हर स्थान, हर जगह का किस तरह का महत्व है। अगर बुढ़िया आज के समय की एक पात्र होती तो कहती कि मैं तो मुख्यमंत्री को जानती हूं क्यों बीच वालों के पास जाऊं। मैं सीधे कुत्ते के पास जाती हूं। आप समझ सकते हो कि तब यह कहानी ही नहीं होती।
मैं जब एन.सी.ई.आर.टी.में था तो कई बार सोचता था कि लोग बताते थे कि मैं चूंकि उनका परिचित हूं, सीधे मेरे पास आते थे कि साहब मेरे साथ अन्याय हो रहा है। क्योंकि आपके यहां एक सेक्शन आफिसर है। एक डिप्टी सेक्रेट्ररी है। एक हेड ऑफ द डिपार्टमेंट है उन सबसे आपकी फाइल गुजरी है।. कहते थे कि आप भी अफसर हो गये आप भी उसी तरह की बाते करने लगे। ये लाल फीताषाही है। मैं उसे कटवाने के लिए आपके पास आया हूं। मुझे इच्छा होती थी कि उनको बिठाके बुढ़ियां की रोटी सुना दूं। आप समझिये देखिये कि मैं कुत्ते के स्थान पर हूं। अगर आपका काम इस कुत्ते ने कर दिया तो, यह कहानी समाप्त हो जाएगी। और कहानी के ज़रिये यह जो संसार रचा गया है, यह बड़ा रोचक संसार है।
इस संसार को जीवित रखने के लिए पेड़ की भी जरुरत है, लकड़हारे की भी जरुरत है, चूहे की भी जरुरत है और बिल्ली की भी जरुरत है। और समय समय पर इनको अगर आप चाहते है कि उन्हे शिक्षित किया जा सके। तो इनके जरिये गुजरिये, बुढ़िया की तरह अपनी लाठी टेकते हुए उन अनुभवों से गुजरिये। निश्चय गुस्सा महसूस कीजिए। देखिये कि गाँव का क्या हाल हुआ है। उस गाँव का लकड़हारा सबसे बुजूर्ग औरत की बात नहीं सुन रहा है। उस गाँव का चूहा छोटा सा काम करने के लिए, नाटक करने के लिए भी तैयार नहीं है। बुढ़िया जिस पेड़ के सामने रहती है वह पेड़ भी कुछ नही सुन रहा है। इसके ज़रिये कुछ सीखिये, बुढ़िया के अनुभव को इतना त्याज्य मत मानिये, इतना बेकार मत मानिये कि अब आपको उस अनुभव से गुजरने की जरुरत ही न हो ।
संसार का, लोक जीवन का एक रुप कोई भी साहित्यक रचना देती हैं, बहुत गहराई से देती है। अगर वो एक सच्ची रचना है। और उस रचना के बारे में अगर आप उसका मूल रुप देखेंगे जो शंकर ने लिखा है। तो आप स्वयं ही देखेंगें कि किताब के रुप में कुछ मानक तय होते हैं। जिसकी मदद से हम अच्छा बाल साहित्य क्या हैं ? उसको लेकर एक विमर्श चला सकते है।
देखिये मैने आपको वायदा किया था कि मैं उस दिन की कहानी आपको बताउंगा जिस दिन ये कहानी मेरे लिए शिक्षा मनोविज्ञान, बचपन तमाम चीज़ों के बारे में नये सिरे से सोचने का माध्यम बनी। उस दिन क्या हुआ ? मैं इस कहानी को आठ दस बार सुना चुका था। फिर भी यह कहानी उन बच्चों के बीच काफी लोकप्रिय रहती थी। और उसके साथ वे कई तरह के अभिनय भी करने लगे थे। जैसे कि बुढ़िया रोटी बेलती है तो वे बेलते थे। अन्त में जब रोटी बिल जाती है तो किस के साथ खाई होगी उसको लेकर चर्चा होती थी कि आचार के साथ खाई होगी, कोई कहता था नहीं उसने सब्जी बनाई होगी या कहीं से ली होगी इत्यादि। इसके बाद बुढ़िया ने क्या किया होगा तो बच्चे कहते थे कि सो गई होगी। थोड़ी देर के लिए वो सो भी जाते थे वहां पर।
तो कई तरह से वो इस कहानी से जुड़ चुके थे। और उनके मानस में बुढ़िया और इन तमाम
अन्य चरित्रों की बहुत गहारई से जगह बन चुकी थी। उस दिन सुबह चलते समय कुछ ऐसा ही दिमाग मेरा चला कि मैंने अपने साथ एक रोटी ले ली। रात की बची हुई थी सुबह जब मैं निकला आठ बज़े घर से तो डब्बा खोल के एक रोटी अपने साथ रख ली प्लास्टिक की थैली में। और जब कहानी समाप्त होने को हुई। यानी की जब कौए ने घबराकर रोटी गिराई और वह रोटी सीधे बुढ़िया की थाली में गिरी उस समय मैंने कहा बच्चों वह रोटी मेरे पास है। आप देखेगें! तो मैने वह थैला खोल के रोटी दिखाई। आप कल्पना नहीं करेंगे, उस क्षण की कल्पना कर नही सकते कि वहां क्या हुआ होगा। अव्वल तो उस क्लास में हमेशा ही चार पांच बच्चे कुछ न कुछ शोर मचाते ही रहते थे। एकदम सन्नाटा छा गया और उसके बाद हरेक बच्चा उस रोटी को छुने के लिए लालायित हो रहा था। बाद में जब मैं निकलने लगा तो कई बच्चों ने पूछा कि सर आपको यह कहां से मिली ? यानी कि वो रोटी इस कहानी के द्वारा छू ली गई थी। और उनको विश्वास हो गया था। हालांकि वो आधुनिक युग के बच्चे हैं। टेलिविजन देखते हैं। केन्दी्रय विद्यालयों में इन्टरनेट भी आ चुका है। सब कुछ है लेकिन उनके उपर ये सब जादू और दुनिया और सम्मोहन ये रहस्य खतम हो चुका है। फिर भी वो कुछ क्षणो के लिए ये मानने के लिए तैयार थे कि वो रोटी वही है। जो कौए के मुंह से गिरी थी। और किसी न किसी प्रकार से मेरे हाथ में पंहुच गई है, और सर हमारे लिए लाये है वो रोटी। एक साधारण रोटी थी इसमें जगह जगह कुछ इस तरह के छेद बने हुए थे कि लगे वहां कौए की चोंच लग गई हो। इसलिए एक बच्चे ने पूछा भी कि क्या यहीं पर उसने चोंच गड़ाई थी। और पूरी क्लास में हर बच्चे के हाथ से वह रोटी गुजरी उसको छूकर देखा जैसे कि कोई बहुत बड़ी निराली चीज़ संग्रहालय से लाई गई हो, इस तरह से इसे छू के देखा।
मैं उस दिन बहुत ही विचलित सा महसूस कर रहा था। कि ये जो चीज़ आज हुई हैं इस कक्षा में इसकी किस तरह की मीमांसा करें। तो उस दिन शाम को मुझे एहसास हुआ कि दरअसल यहां साहित्य ने एक ऐसा काम किया जो साहित्य का सबसे बुनियादी कर्म है। और ये है कि वो भाषा और संसार के बीच जो पुल भाषा ने बनाये, उनकी मरम्मत करता है। रोटी शब्द से जो चीज़ व्यंजिंत होती है उस रोटी शब्द को दुबारा इस कहानी में बनाया गया। दुबारा उसको सेंका। और उस रोटी ने, उसको छू सकने में एक विलक्षणता का बोध इस कहानी के जरिये ताज़ा करना सम्भव हो गया। और रोटी इतनी साधारण चीज़ है। फैंकी जाती है बड़ी मात्रा में जगह जगह स्कूलों में भी फैंकी जाती है, अच्छी न बनी हो तो।
रोटी को लेकर आज की दुनिया में इस तरह से कोई नहीं सोचता। लेकिन उस साधारण चीज़ को इस कृति ने एक असाधारणता थोड़ी देर के लिए दी। और निश्चत रुप से अगर आप तकनीकी संदर्भ में भी देखे तो वो सम्मोहन का समय था। जो हमारे सामने होता है वो हमे नहीं दिखता जो नहीं होता वो दिखता है। अगर जादूगर कहता है कि गुलाब का फूल तुम्हे सुंघा रहा हूं। यदि वह फूल कागज़ का हो तो उसमें भी आपको गंध आती है गुलाब की। इस कहानी में बहुत सहज ढ़ंग से उसको सम्भव बनाया। एक तरह का चमत्कृत होने का क्षण था। जिसमें एकदम समझ में आया कि ये जो तमाम मनोविज्ञान में कहा जाता है कि जब कोई बच्चा किसी चीज़ को नाम देता है कि यह बिल्ली है, कि यह मेज़ है, तो तो वह बिल्ली या मेज़ एक पूरा जगत होती है उसके लिए। और उस शब्द में जगत व्यंजित होता है लेकिन कालान्तर में शब्द घिस जाता है। जहां शब्द पराजित होते है वहीं शस्त्र हमसे जीतते है और हम देख रहे हैं। हमारे चारों तरफ अच्छे से अच्छे शब्द भी घिस गये हैं। उनमें अब जीवन नहीं बचा। वे केवल शब्द कोष में रह गये हैं। और हम इसका इस्तेमाल अच्छे, बुरे,गन्दे ढ़ग से करते रहते हैं।
इस स्थिति में साहित्य इस बात की आाशा जगाता है। साहित्य इस बात की संम्भावना जगाता है कि शब्द को दुबारा जाग्रत करना सम्भव है। जब कोई कवि, कहानीकार, कोई नाटककार, अपने ढंग से किसी शब्द को खर्च करता है। तो वो शब्द में नई जान डाल देता है। तब वो इस शब्द में जान नहीं डालता जब वो शब्द के द्वारा व्यंजित किये जाने वाली चीज़ और वह शब्द के बीच संबंध को नये सिरे से स्थापित कर देता है। इसकी पुताई भी करता है इसकी मरम्मत भी करता है। वो हमारे लगातार उठते हुए जीवन को, लगातार उठते हुए संसार को,लगातार खण्डहर बनते हुए अनुभव जगत को मरम्मत का सुख देता है। और यह एहसास भी दिलाता है कि यह मरम्मत संभव है। तो भाषा का यह बहुत महत्वपूर्ण काम एक तरह से भाषा की संजीवनी शक्ति है यह जिसको साहित्य के जरिये भाषा करवा पाती है। ये साहित्य भाषा का ही एक सेवक है। भाषा संजीवनी तभी तक है जब तक साहित्य का योगदान उसको मिल रहा है। लेकिन साहित्य की अपनी दशा हमारे बीच, हमारे शिक्षा जगत के बीच, हमारे बच्चों के बीच, बड़ों के बीच भी हमारी चिन्ता का विषय वृहत्तर परिप्रेक्ष में बने। तब हम बाल साहित्य की एक ऐसी शुरुआत कर पायेंगे। जो कि हमे पश्चिम जैसा बाल साहित्य लिखना है, वाले अन्दाज की जगह अपने सिलसिले में अपने संदर्भ में बाल साहित्य क्या होगा ? ये सोचने के लिए बाध्य करेगा। क्योकि हम देखते है कि अगर हम बाल साहित्य के इतिहास पर गौर करें तो न तो बहुत बड़े नाम मिलते हैं और जो बहुत बड़े थोड़े बहुत हुए भी हैं जिन्होने कुछ रचनाएं ऐसी दी हैं। उन नामों की आगे जाकर कोई परम्परा नही बचती या मिलती ।
जैसे हम देखते हैं कि बतुता का जूता एक बहुत बड़ी रचना है। जो सर्वेश्वर ने आज से करीब 35 वर्ष पहले लिखी थी। लेकिन अगर आप उसके बाद गौर करें कि क्या इब्न बतुता जैसी और कोई रचना कोई लिख पाया। जिसमें एक एक जगह का, एक एक शब्द का इस तरह से स्थान निर्धारित किया गया हो कि उसके जरिये जगत भी बनता हो। कि थोड़ी हवा नाक में घुस गई, घुस गई थोड़ी कान में। एक बार सर्वेश्वर जी के साथ ही मैं था जब किसी ने कहा कि पहली पंक्ति में थोड़ी हवा नाक में घुस गई, और दूसरी पंक्ति में थोड़ी घुस गई कान में, में थोड़ी का इस्तेमाल अलग अलग जगह क्यों है ? ये सुनकर सर्वेश्वर जी बहुत आहत हुए। आशय यह था उनका कि ये जो दूसरी पंक्ति है इसमें घुस गई पहले इसिलिए है कि जिससे आपको यह लगे कि यह बची हुई हवा नहीं है। जो कि नाक में नहीं घुस पाई थी, इसलिए कान में घुस गई। उसमें भी उतना ही वेग था। कवि इस तरह से सोच सकता है।
हिन्दी साहित्य में अगर बाल उपन्यासों पर गौर करें तो 1958 में सत्य प्रकाशक विभाग नाम के ं एक उपन्यासकार ने पराग में एक उपन्यास लिखा। ‘‘एक घर पांच नीघर‘‘ अगर आप आज भी गौर से पढं़े तो आप महसूस करेंगे कि यह उपन्यास क्यों एक परम्परा नहीं बन सका। एक मील का पत्थर बन गया। लेकिन उसके बाद हम कोई कोशिश भी नहीं देखते कि हम उस उपन्यास से सीखें कि बच्चों का उपन्यास क्या होता है। या उसमें किस तरह की रचनाएं सम्भव हैं।
अभी हमारा बाल साहित्य का लेखक कभी इधर, कभी उधर झांकता है कभी उस जैसा लिखे, इस जैसा लिखे, इस तरह से सोचता रहता है। बाल साहित्य के क्षेत्र में भी यही स्थिति है। बल्कि इससे भी बद्तर स्थिति है इसलिए हमें उत्कृष्ट रचनाओं पर विचार करके सोचना होगा कि हम बाल साहित्य की क्षेत्र में एक परम्परा का विकास कैसे कर सकें। ये परम्परा का विकास जाहिर है कि हमारे बीच बाल साहित्य की समालोचना की परम्परा का भी आविर्भाव करेगा।
और इस विकास के चलते बाल साहित्य और शिक्षा के बीच के संबंध के खोए हुए, टुटे हुए अविकसित विमर्श का भी कुछ भला हो जाएगा।

Friday, February 3, 2012

उत्तराधुनिक शिक्षा की विडंबना





दीन-हीन सब बैठें अपने-अपने घर.
लखपतिया स्कूल बनाएंगे अफसर.

खेतीबारी बदल गई मजदूरी में
पूंजी सारी निकल गई मजबूरी में
हाज़िर होते-होते रोज हुजूरी में
बिकने को हैं घर के सभी टीन-टप्पर.

धन के हारे, पहले मन को मारेंगे
स्वार्थ में अंधे, परिजन को मारेंगे
बिगड़ गए बच्चे, गुरुजन को मारेंगे
पहुंचेंगे ऊपर एक-एक सीढ़ी चढ़ कर

नए चलन की दुनिया बहुत रुलाएगी
सच्चाई आँखों के आगे आएगी
सपन खोर है, सब सपने खा जाएगी
भरी आँख से सपन न ऐसे देखा कर.

-रमेश तैलंग

चित्र सौजन्य: गूगल/सतीश कुमार चौहान.ब्लागस्पाट.कोम