Thursday, December 5, 2013

शाने तारीख : पंद्रहवीं शताब्दी के महान चरित्र-नायक की शौर्यगाथा


पुस्तक समीक्षा 


शाने तारीख
पंद्रहवीं शताब्दी के महान चरित्र-नायक की शौर्यगाथा


सुपरिचित लेखक डॉ.सुधाकर अदीब का ताजातरीन ऐतिहासिक उपन्यास शाने तारीख पंद्रहवीं शताब्दी के  एक ऐसे चरित्र नायक (शेरशाह सूरी) की शौर्य गाथा है जो अपने  आत्मबल, संघर्षशक्ति, और बुद्धि-कौशल के ज़रिये फर्श से उठकर अर्श तक पहुंचा और जिसने न केवल अपनी अद्भुत कूटनीतिक सूझ-बूझ से तत्कालीन स्थापित साम्राज्यों को धराशायी कर अपना स्वयं का साम्राज्य  स्थापित किया  बल्कि अपनी  रियाया के चैन-ओ-अमन के लिए एक-से-बढ़कर एक बढ़िया इंतजामात किये.  
शाने तारीख़ की पूरा कथा को लेखक ने जिस गहन शोध एवं सम्यक इतिहास दृष्टि के साथ रोचक शैली में प्रस्तुत किया है वह अपने आप में प्रशंसनीय है. ऐतिहासिक उपन्यास लिखना कितना जोखिम भरा होता है इसकी एक झलक  उपन्यास के पूर्व में दी गई लेखकीय भूमिका के इस अंश में देखी  जा सकती है इतिहास-लेखन से अधिक महत्वपूर्ण होती है इतिहास-दृष्टि. मध्यकालीन भारतीय इतिहास-लेखकों के साथ दिक्कत यह है कि वह हिंदू-मुस्लिम सभ्यताओं और संस्कृतियों की टकराहट और कालांतर में उनमें हुए परस्पर विनिमय के द्वंद्व में घिरकर विभिन्न प्रकार के मत-मतान्तर और वैचारिक पूर्वाग्रह रखते हैं. उसी आधार पर उनका इतिहास-लेखन भी हुआ है.- भूमिका पृष्ठ-.11)
       सर्वविदित है कि कोई भी ऐतिहासिक उपन्यास  अपने आप में इतिहास नहीं होता. शाने तारीख भी इतिहास नहीं हैं. पर वह  जिस महत्वपूर्ण दस्तावेज को अपनी प्रमुख आधारभूमि बनाता है वह जरूर इतिहास है यानी अकबर कालींन इतिहास लेखक अब्बास खां सर्वानी की किताब   तोह्फत-ए-अकबरशाही जिसे आगे जाकर  तारीख-ए-सलातीन अफगान के लेखक और  इतिहासकार अहमद यादगार ने तारीख-ए -शेरशाही का नाम दिया. (सन्दर्भ : वही भूमिका-प्र.10)
       पूरे उपन्यास में  फरीद उर्फ़ शेरखान उर्फ़ शेरशाह सूरी के विविध रूपों को  जिस तरह शाने तारीख में चित्रित किया गया  है वह लेखक की इतिहास दृष्टि और कलात्मक सृष्टि दोनों की मिली-जुली उपज है, और शायद इसीलिये वह पाठकों को सबसे अधिक आकर्षित भी  करता है. वह केवल सत्ता के लिए महत्वाकांक्षी किसी सामंती चरित्र नायक का ही रूप नहीं हैं बल्कि वह  एकाकीपन, गरीबी, अपमान, शोषण, संघर्ष, और विश्वासघात, की उस पीड़ा का भी  प्रतिरूप है जिससे हो कर आम जनता को आये दिन गुज़रना पड़ता  है.      
जौनपुर में अध्ययन समाप्त करने के बाद किशोर फरीद जब अपने  पिता  हसन खां द्वारा सहसराम और खवासपुर टांडा, दो जागीरें संभालने की जिम्मेदारी उसे सौंपे जाने की बात मौलाना वहीद को बताता है तो मौलाना के कहे गए ये चंद शब्द उसके आगे के सम्पूर्ण जीवन की दिशा को निर्धारित कर देते  हैं -
सचमुच तुम एक ऐसी दुनिया में अब जा रहे हो जो ऊपर से कुदरती तौर पर बेहद खूबसूरत है पर जिसके भीतर हद दर्जे की मक्कारी, तिकड़म, ऐयाशी और नाइंसाफी के अँधेरे भी पनाह मांगते हैं.  हो सके तो लगान वसूलते समय गाँव के सबसे गरीब इंसान का चेहरा जब तुम अपनी निगाहों के सामने रखोगे तभी तुम अपनी जागीर की बेहबूदी के साथ-साथ रियाया के साथ भी सच्चा इन्साफ कर सकोगे : पृष्ठ 52)..........
संभव है कि मौलाना के इन शब्दों के पीछे लेखक की अपनी दृष्टि भी रही हो  जो महात्मा गांधी के दर्शन के साथ आश्चर्यजनक रूप से मेल खाती है . स्मरण कीजिये गाँधीजी  का यह सुप्रसिद्ध कथन
मैं तुम्हे एक जंतर देता हूँ. जब भी तुम्हे संदेह हो या तुम्हारा अहम् तुम हावी होने लगे, तो यह जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शकल याद करो और अपने दिल से पूछो की जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा. क्या ऊससे उसे कुछ लाभ पहुचेगा? क्या उससे वह अपने ही जीवन और भाग्य पर कुछ काबो रख सकेगा? यानी क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज्य मिल सकेगा? यानी क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज्य मिल सकेगा जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त है?

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शाने तारीख की कथा बारह भागों में विभाजित है जिनमें आरम्भ के चार भाग फरीद से शेरखान बनने तक की संघर्ष-यात्रा से सम्बद्ध हैं तो उससे आगे के चार भाग बाबर और हुमांयू की शक्तिशाली मुग़ल सल्तनत से टकराने तथा अंतिम चार भाग शेरशाह सूरी के रूप में स्वयं की सत्ता के चढाव-उतार देखने के बाद उसके चिरनिद्रा में सो जाने तक की दास्तान हैं.
मूलतः देखा जाए तो सत्ता का स्वभाव निरंकुश होता है. शायद इसीलिये उसके कार्यान्वयन में अनेक तरह की नृशंसताएं, क्षुद्रताएं, धार्मिक उन्माद, और कुकृत्यों का समावेश दिखाई पड़ता  है पर अपवाद हर जगह होते हैं. शेरशाह सूरी  का सत्ताकाल शायद ऐसा ही अपवाद है.
लेखक का भी मानना है कि शेरशाह एक ऐसा न्यायप्रिय व्यक्ति एवं असाधारण प्रशासक था जिसने संघर्ष के प्रारंभिक दिनों में अन्याय को कभी भी सहन नहीं किया...
वह एक ऐसा शासक था जिसने भारतीय इतिहास के उस मध्ययुग में भी एक इकलौते रायसीन के विवादित उदाहरण को छोड़कर, धर्म अथवा मज़हब के नाम पर कभी कोई अन्याय नहीं किया. आम प्रजाजन के साथ तो  बिलकुल नहीं.- भूमिका पृष्ठ-12.
शेरशाह सूरी की एक शासक के रूप में यही उदारता उसे दूसरे शासकों से अलग करती है.
और अंत में वह बात जिसके लिए शेरशाह सूरी को इतिहास में सदा के लिए याद किया जाएगा   (आज के) बांगला देश-भारत-अफगानिस्तान की सीमाओं को छूती वह लम्बी सड़क जिसे आज सब  जी.टी.रोड के नाम से जानते हैं. और सिर्फ यह सड़क ही क्यों, उसने  अपने शासनकाल में अनेक माकूल जगहों पर  वृक्षारोपण,प्याऊ, सराय, और इवादतघरों के निर्माण भी किया. शायद उस काल की ये सबसे अहम् ज़रूरतें थीं. वर्ना आज जब भूमंडलीकरण के युग में पीने का पानी तक बोतलों में बिक रहा है, मुफ्त प्याउओं का न होना शायद ही  किसी को अखरता हो.
मैं समझता हूँ,  शेरशाह सूरी की संघर्षपूर्ण ज़िन्दगी के विविध पक्षों को उदघाटित करता लगभग 325 पृष्ठों में फैला  यह उपन्यास पाठकों को अपनी दिलचस्प कथा से  शुरू से लेकर आखिर तक बांधे रखेगा. एक अच्छे उपन्यास की सफलता की इससे बढ़कर और क्या निशानी हो सकती है.##

- रमेश तैलंग : 09211688748
506 गौड़गंगा-1,वैशाली, सेक्टर-4,
गाज़ियाबाद 201012.
समीक्ष्य पुस्तक:
शाने तारीख
लेखक : सुधाकर अदीब
प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन पहली मंजिल, दरबारी बिल्डिंग,
महात्मा गाँधी मार्ग, इलाहाबाद 21100
संस्करण 2013

मूल्य : पेपरबैक: 300 रूपये 

Monday, December 2, 2013

मैं और मेरा रचना संसार : रमेश तैलंग : (लेखकमंच वेब साईट से साभार)

मैं और मेरा रचना संसार : रमेश तैलंग

रमेश तैलंग
वयस्क एवं बालोपयोगी साहित्य की अनेक विधाओं में रचनारत रहने  के बावजूद मैं मूलतः कवि ही हूँ, और बच्चों के लिए लिखना हमेशा से  मेरी सबसे बड़ी प्राथमिकता रही है, क्योंकि चैतन्य रूप से मैं यह मानता हूँ कि -
शुभ, सुंदर, जो कुछ भी प्रभु ने रचा हुआ है,
बच्चों की दुनिया में ही बस बचा हुआ है।
मध्यप्रदेश में एक छोटा-सा जिला है टीकमगढ़, जहाँ मेरा जन्म हुआ। दस्तावेजी तिथि दो जून 1946, पर माँ का कहना है कि वास्तविक  तिथि आषाढ़ शुक्ल दशमी विक्रम संवत 2004 तदनुसार 28 जून, 1947 है। ‘टीकम’ कृष्ण के अनेक नामों में से एक है और उन्हीं के नाम से बसाया गया टीकमगढ़, बुंदेलखंड अंचल का एक प्रमुख हिस्सा रहा है, जहां बुन्देली बोली एवं लोकसंस्कृति का विशिष्ट प्रभाव है। साहित्यिक संस्कारों की भी महत्वपूर्ण भूमि रहा है यह जनपद। भक्तिकालीन महाकवि केशवदास  की कर्मस्थली ओरछा भी यहीं स्थित है।
इसी जनपद का एक और रमणीय स्थान है– कुंडेश्‍वर; महादेव शिव और वाणासुर की पौराणिक कथाओं से जुडी़ पवित्र भूमि। अपने समय के प्रख्यात पत्रकार सर्वश्री बनारसीदास चतुर्वेदी, कृष्णलाल गुप्त, गाँधीवादी लेखक यशपाल जैन सभी का कुंडेश्‍वर से सघन आत्मीय सम्बन्ध रहा है। ‘मधुकर’ जैसी प्रख्यात पत्रिका प्रकाशित होती रही है यहाँ से, और लोकयात्री देवेन्द्र सत्यार्थी की यादगार कहानी ‘इकन्नी’ की तो वह  कथाभूमि ही है।
बहरहाल, इसी टीकमगढ़ में मेरी स्नातकीय स्तर तक शिक्षा-दीक्षा हुई और इसी टीकमगढ़ में मेरी बालकविता का पहला पुष्प भी खिला– 1965 के आस-पास बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका ‘पराग’ में मेरे ‘दो सांध्य गीत’ तथा ‘दो सुबह के गीत’ प्रकाशित हुए। डबल स्प्रेड पृष्ठों पर प्रख्यात छायाकार विद्यावृत की रंगीन पारदर्शियों के साथ। इनमें एक बालगीत की पृष्ठभूमि एक नन्ही-सी बच्ची की व्यस्त दिनचर्या का तोतली भाषा में चित्रण था-
‘अले, छुबह हो गई/आंगन बुहाल लूं/मम्मी के कमले की तीदें थमाल लूं/ कपले ये धूल भले/मैले हैं यहाँ पले/ताय भी बनाना है/पानी भी लाना है/पप्पू की छल्ट फटी/दो तांके दाल लूँ/कलना है दूध गलम /फिल लाऊं टोस्ट नलम/कल के ये पले हुए आलू उबाल लूँ/आ गया ‘पलाग’ नया/ताम छभी भूल गया/छम्पादक दादा के नये हालचाल लूँ/अले, छुबह हो गई।’
तोतली भाषा में बाल कविता लिखने का मेरा यह कोई अनन्य प्रयास नहीं था। आपको स्मरण होगी कि पंडित श्रीधर पाठक की यह क्लासिक बालकविता- ‘बाबा आज देल छे आये..ऊं..ऊं चिज्जी क्यूं न लाये..।’ मेरी बालकविता ‘अले, छुबह हो गई’ इसी परंपरा का हिस्सा मानी जा सकती है। पर मैं चाहूँ भी तो अब ऐसी बालकविता नहीं लिख सकता। ऐसा कभी-कभी ही होता है, जब आपकी कलम से अनायास ही कोई ऐसी रचना निकल जाती है, जो हिंदी बाल-साहित्य के प्रखर आलोचक डॉ. प्रकाश मनु के शब्दों में कहूँ, तो आपकी ‘सिग्नेचर ट्यून’ बन जाती है।
सन 1973 से लेकर सन 2001 यानी 28 वर्षों तक मैं हिंदुस्तान टाइम्स प्रकाशन समूह, नई दिल्ली में गैर-पत्रकार पदों पर कार्यरत रहा, जिस दौरान मैं स्नातकोत्तर पढ़ाई करने के साथ-साथ रचनारत भी रहा। यह मेरा सौभाग्य है कि कम मात्रा में लिखकर भी मेरी रचनाओं को देश की सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में जगह मिलती रही, और उनसे मुझे एक बालसाहित्यकार के रूप में पहचान मिली। अब तक मेरे 8 बाल कविता संग्रह आ चुके हैं, जिनमें से कुछ पुरस्कृत हुए हैं। इन्हीं में से एक ‘मेरे प्रिय बाल गीत’ है, जिसे इस वर्ष साहित्य अकादमी द्वारा हिंदी बालसाहित्य पुरस्कार के लिए चुना  गया है।
भारत की सर्वोच्च गरिमामयी साहित्यिक संस्था केंद्रीय साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत होना किसी भी रचनाकार के लिए हर्ष एवं गौरव का विषय होता है, और बिना किसी ‘मॉडेस्टी’ के कहूँ तो मुझे, मेरे परिजनों तथा प्रियजनों को भी इस उपलब्धि पर बहुत अधिक हर्ष हुआ है। हालांकि मुझे दिल्ली हिंदी अकादेमी तथा भारतेंदु हरिश्चंद्र बाल साहित्य पुरस्कार सहित और भी अनेक पुरस्कार मिले हैं, पर यह अकेला ऐसा गरिमामय पुरस्कार है जो मेरी कृति पर अयाचित एवं अकस्मात् प्राप्त हुआ है।
पर पुरस्कार आपको सिर्फ हर्ष में ही सहभागी नहीं बनाते, वे हर्ष के साथ-साथ आपको एक महत जिम्मेदारी भी सौंपते हैं और वह जिम्मेदारी है– अपने सृजनात्मक अवदान में छोटी लकीर से बड़ी लकीर खींचने की जिम्मेदारी। मात्र पुरस्कृत होने से कोई कृति बड़ी या सर्वस्वीकृत नहीं हो जाती। सर्वस्वीकृत तो वह अपने पाठकों के बल पर ही होती है। पाठकों के अलावा थोड़ी-बहुत स्वीकृति या पहचान उसे समीक्षकों द्वारा भी मिल जाती है, बशर्ते कि उस कृति की समीक्षा करने वाले समीक्षक सही अर्थों में सम+ईक्षा से संपन्न हो।
विगत चालीस वर्षों के अपने साहित्यिक सफ़र पर नज़र डालूँ तो मुझे लगता है कि मैं सिर्फ कछुए की गति से ही आगे बढ़ा हूँ और मेरा साहित्यिक अवदान शून्य के बराबर है। लेकिन जिस तरह आत्ममुग्धता और आत्मदंभ आपको पथभृष्ट करते हैं, उसी तरह आत्महीनता भी आपको अवसाद से भर देती है। इसलिए मैं कोशिश करता हूँ कि इन दोनों अतियों से बच सकूं।
बालकविता में विषय, शिल्प और बिम्बों के स्तर पर मैंने कुछ प्रयोग करने का खतरा निरंतर मोल लिया है। हो सकता है कि बालकविता में बिम्बों की बात करना आपको अटपटा-सा लगे, क्योंकि अनेक सुधीजनों की दृष्टि में वह वयस्कों की कविता में ही शोभा देते हैं। पर क्षमा करें, थोड़ी-बहुत अराजकता मेरे स्वभाव में रही है, कम-से-कम बालकविता की रचना के क्षेत्र में। इसीलिये न तो मैंने अपनी बालकविताओं को वय के हिसाब से विभाजित करने का प्रयास किया है, और न ही उन्हें किसी विशेष साँचे में ढालने की कोशिश की है। कहीं वे शिशुओं के लिए उपयुक्त हैं तो कहीं किशोरों के लिए। विविधता की दृष्टि से मेरी बालकविताओं में आपको ‘एक चपाती’, ‘निक्का पैसा’, ‘सोनमछरिया’ जैसे कथागीत भी देखने को मिलेंगे, तो दूसरी और ‘टिन्नी जी’, ‘ढपलू जी’, या ‘छुटकू मटक गए’, जैसे नटखट गीत भी मिल जाएँगे। बच्चों के कार्यकलाप, उनकी शिकायतें, उनकी आकांक्षाएं अपनी बाल कविताओं में अभिव्यक्त करना मुझे सबसे ज्यादा प्रिय रहा है। माँ के मुंह से लोरी तो सभी सुनते हैं, पर बच्चे के मुंह से लोरी का सुनना आपको अजीब लग सकता है पर मैंने एक ऐसा प्रयास  किया है- ‘रात हो गई, तू भी सो जा/मेरे साथ किताब मेरी..बिछा दिया है बिस्तर तेरा, बस्ते के अन्दर देखो/लगा दिया है कलर बॉक्स का तकिया भी सुंदर देखो/मुंहफुल्ली, अब तो खुश हो जा, मेरे साथ किताब मेरी!’
मैं ढाबे का छोटू हूं’ या ‘पापा की तनख्वाह में घर भर के सपने’ जैसी बाल कविताओं में मैंने बाल-श्रम और अभिभावकों की आर्थिक मुश्किलों को विषय बनाया है। कहीं-कहीं पर्यावरण या प्रदूषण की चुनौतियों की बात भी आ गई है। कुल मिलाकर देखा जाय तो मैं बच्चों के संसार का जितना बड़ा वितान है, उसे समेटने की भरपूर कोशिश करता हूं और अब यह बाल-पाठकों तथा सुधी समीक्षकों के ऊपर निर्भर करता है कि उन्हें मेरी कोशिशों में कितनी सफलता नज़र आती है।
अच्छी बाल कविता क्या है, ऐसे सवाल जब बच्चे मुझसे पूछते हैं, तो मेरे पास सच पूछो तो कोई जवाब देते नहीं बनता। यह तो गूंगे का गुड है…स्वाद चखे जो बस वो ही जाने..पर सहजता की दृष्टि से मैंने उनके लिए कुछ पंक्तियां लिखीं– ‘आओ हम भी प्यारी-प्यारी कविता एक बनाएं/जोड़ें तुक, शब्दों की माला सुंदर एक सजाएं/नहीं चाहिए भारी-भरकम, नहीं चाहिए मोटी/हम छोटे-छोटे बच्चों की कविता भी हो छोटी/जिसे सीखना पड़े किसी से, क्या वह भी कविता है/जिसे स्वयं आ जाए गाना/वह अच्छी कविता है।’
विश्व के अनेक हिस्सों में युद्ध की विभीषिका तथा अनेक प्रकार से हो रहे  बालशोषण के चक्रव्यूह में फंसे बच्चों की पीडाएं मुझे अकसर विचलित करती हैं पर एक अदीब, एक लेखक, एक कवि अलख जगाने के अलावा कर भी क्या सकता है। बच्चों के मन की बात मैं अपने शब्दों में इस प्रकार ही कह सकता हूँ– ‘न तो बन्दूक की, न ही बारूद की, कल की दुनिया हमको चाहिए नए रंगरूप की/जिसमें न पाठ पढ़ाया जाए नफरत का/जिसमें न राज चलाया जाए दहशत का/जिसमें सच्चाई की जीत हो, और हार झूठ की।’
(साहित्‍य अकादमी बाल साहित्‍य पुरस्‍कार 2013 समारोह में दिए गए वक्‍तव्‍य का संपादित अंश )