राजस्थान की अनेक घुमंतू जनजातियों में से एक जनजाति है - कालबेलिया, जो अपना सम्बन्ध नाथ संप्रदाय से जोडती है. पीढ़ियों से इस जनजाति के लोग साँपों को पकड़ने और उन्हें लोकरंजन के लिए प्रदर्शित करने का व्यवसाय करते आ रहे हैं. पर अब इस व्यवसाय में म्हणत ज्यादा और कमाई कम होने के कारन वे सांपों के खेल की अपेक्षा नाच-गानों पर ज्यादा निर्भर रहने लगे हैं.
इसमें संदेह नहीं की राजस्थान के अन्य लोक नृत्यों (भवई, घूमर, गैर, डांडिया) की तरह कालबेलिया नृत्य ने भी अपनी एक विशेष पहचान बनाई है. गत कुछ दशकों में गलियों-सड़कों की चौहद्दी पार कर पांचसितारा होटलों तक का सफ़र तय कर आई है.
कालबेलियों की नृत्यकला और इस सफ़र के पीछे प्रमुख भूमिका रही है पर्यटन और संस्कृति विभाग की. गुलाबो और मेवा, ये दो नाम ऐसे है हैं जो कालबेलिया नृत्य के लिए ही अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुके हैं. इन्ही में एक नाम और जुदा है पूरण नाथ संपेरा पार्टी का जो विदेश भ्रमण के साथ-साथ देश के हर प्रमुख उत्सव मापने दल सहित उपस्थित रहते हैं. पर इतने सब के बावजूद कालबेलियों के जीवन-स्तर में न तो अपेक्षित सुधार आया है और न ही उनके प्रति सजग मानवीय दृष्टिकोण अपनाया गया है. यदि इसे अतिशयोक्ति न समझा जाए तो कमोबेश रूप से कालबेलिये इस उपभोक्तावादी संस्कृति के शिकार हुए हैं जिसका शिकार अन्य कई लोक-कलाकार होते आये हैं. अपवादों को छोड़ दें तो इस जनजाति के ज़्यादातर परिवार आज भी कच्ची बस्तियों में गंदगी के बीच गुजर-बसर कर रहे हैं और जीवन-यापन की जटिल समस्याएं उन्हें एक जगह से दूसरी जगह भटकने के लिए विवश कर रही हैं.
शहर शहर घूम कर रोजी-रोटी कमाने वाले इन सपेरों के साथ कालबेलिया शब्द किस तरह जुड़ा इसके पीछे एक ही कारण दिखता है. सर्प को "काल" या "मृत्यु" भी कहा गया है और आश्चर्य नहीं की सर्प (काल) को पिटारी में बंदी बना कर रखने वाले ये सपेरे शायद इसीलिए "काल बेडिया" या "काल बलिया" कहलाने लगे हों. नाथ संप्रदाय के गुरु गोरखनाथ को अपना परमपुरुष माने वाला काल्बेलिये राजस्थान के लोक देवता गोगाजी एवं तेजाजी के प्रति भी सामान भक्ति-भाव रखते हैं और उनकी स्मृति में होने वाला हर मेले में उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं.
वस्त्रों में जहाँ कालबेलिया पुरुष जोगियों की तरह भगवे रंग के वस्त्र पहनते हैं और उसी रंग का साफा बांधते हैं, वहीँ उनकी स्त्रियाँ अवसरानुकूल काले, कत्थई एवं गहरे नीले रंग का घाघरा (बूँद), ब्लाउज, और ओढ़नी पहनती हैं. ब्लाउज में कांचली, कांचली के नीचे पहनी जाने वाली पेटी और पेटी के नीचे पहना जाने वाला पूट होता है. भड़कीले परिधानों के अलावा लाख, धातु आदि के आभूषण भी पहने जाते हैं जिनमे पारंपरिक राजस्थानी गहने पणडा, बाली, नसब, बालों, मुरका, हंसुली, कड़ो, मादलिया, झंचरी शामिल है. कालबेलियों द्वारा बजाया जाने वाला प्रमुख वाद्य "पूंगी" है जो बीन की तरह हे फूंक से बजती है. पूंगी से निकलती स्वर लहरियों पर जब कालबेलिया नर्तकियां काली नागिनों की तरह लहराती, बलखाती हु नाचती हैं तो दर्शक मंत्रमुग्ध हो कर रह जाते हैं. नाच की रफ़्तार जैसे-जैसे बढती जाती है वैसे-वैसे उसका आनंद चरमोत्कर्ष पर पहुँचने लगता है.
पूंगी, घिया अथवा तुम्बे की बनी होती है जिसका मुंह लगभग डेढ़ बालिश्त लंबा होता है. उसके नीचे के हिस्से में थोडा सा छेड़ कर दिया जाता है. फिर दो पतले बांस की दो पोरी अर्थात दो भून्गलियाँ ली जाती हैं. इन भून्गलियों में से एक के तीन छेड़ बना देते हैं
और एक के नौ कर देते हैं. फिर उन दोनों को एक दुसरे से मोम से चिपका देते हैं. नल बांस से लेकर दो पात बना लिए जाते हैं. वे दोनों पात उन भून्गलियों के मुंह में बिठा दिए जाते हैं. इनसे आवाज़ पैदा होती है. फिर उन दोनों जुडी हुई भून्ग्लियों को नल बांस सहित उस तुम्बी के छेड़ में मोम की सहायता से जमा दिया जाता है. यह भी नक् सांसी से बजती है. उसमे एक अचल स्वर "सा" के रूप में बजता रहता है. पूंगी पर कालबेलियों द्वारा बजाई जाने वाली पारंपरिक धुनों में "ईडोणी", पणिहारी और "लूर" प्रमुख है. इसके अलावा और भी कई लहरे बजाये जाते हैं. गीत-संगीत और नृत्य के इस संगम में फर्मैशी तौर पर कभी-कभी फ़िल्मी धुनें भी सम्मिलित कर ली जाती हैं.
पारंपरिक लोक गीतों में " पड़ोसन बड़ी चकोर ले गई ईडोणी", सागर पाणी डै नै जाऊं सा हो नज़र लग जाए, मारी सामली हवेली वालो लारे लग जाए,"हालूड़ो हीवे रे दर्जी दो दिन मोड़ो हीवे रे", म्हारी सवा पाव री ईडोणी, म्हारो सवा तार को सूत गमगी ईडोणी, ओ जी ओ मने पाणीडो पोमचियो रंग दे मोरी माय, लूवर रमबा म्हें जास्युं " आदि प्रचलित हैं. पूंगी के अलावा काल्बेलिये खंजरी भी बजाते हैं जो आम की बनी हुई होती है. इसकी चौड़ाई सामन्यता आठ-दस अंगुल की होती है. इसको भी चंग की तरह एक ही तरफ से मढ़ते हैं. घेरे की चौड़ाई चार अंगुल की होती है. इसको दाहिने हाथ से पकड़ते हैं और बाएं हाथ से बजाते हैं. बजने में यह अछि लगती है और दूर से ढोलक जैसी दिखती है.
साँपों के साथ दिन-रात का वास्ता होने के कारण कालबेलिये सांपों के बारे में अच्छी-खासी जानकारी रखते हैं और ज़रुरत पड़ने पर विशेषोपचार की विधियाँ भी जानते हैं पर लोकमानस में फैली सांपों से सम्बंधित कई भ्रांतियों के बारे में वे चुप रहना हीज्यादा उचित समझते हैं. एक तो वे खुद भी अंधविश्वासों की गिरफ्त से नहीं बच सकते हैं और दुसरे इन भ्रांतियों का निराकरण उनके व्यवसाय पर अनुकूल प्रभाव नहीं डालता . यूँ पूरण नाथ संपेरा इस बात से इनकार नहीं करते हैं की सांपों के बाहरी कान नहीं होते हैं और वे केवल ज़मीन में पैदा होने वाली ध्वनि तरंगों को ही ग्रहण करते हैं. सांपों का फेन उठाकर झूमना शायद किसी हिलती चीज को खतरे की निशानी मान कर अपने बचाव एवं जवाबी हमले के लिए तैयार रहने का परिचायक है न की उनके पूंगी के स्वर लहरियों पर नाचने का. फिर भी दर्शकों को इसके वैज्ञानिक विश्लेषण से क्या फर्क पड़ता है? असली बात तो उनका मनोरंजन हिया और यह मनोरंजन सांपों से ज्यादा उनकी स्त्रियाँ अपने नृत्य द्वारा कर रही हैं.
विदेश भ्रमण के दौरान गुलाबो एवं मेवा ने कालबेलिया नृत्य द्वारा थोडा-बहुत धन तो अवश्य कमाया पर उसके बाद भी गरीबी का साया उन पर से नहीं उठा है. विदेश के अनुभव भी उनके ज्यादा अछे नहीं रहे. अंग्रेजी माहोल में वे अपने को कटी-कटी सी महसूस करती रहीं. कहा तो यह भी जाता है की "अपना उत्सव" में गुलाबो को कडुवा अनुभव झेलना पड़ा. उसके अनुसार वहां दर्शक नाच कम देखते थे और भद्दी बातें ज्यादा करते थे. शायद यही कारण है की गुलाबो अपनी बेटी को नाचने का काम सिखान्ने में रूचि नहीं रखती. दर्शकों की भद्दी प्रतिक्रियाओं के अनुभव पूरण नाथ संपेरा एंड पार्टी की नर्तकियों को भी होते रहे हैं पर वे इसे अपने व्यवसाय का ही एक हिस्सा मान कर नज़रअंदाज करती रही हैं.
कालबेलिया कलाकारों की एक विडम्बना यह भी रही है की उनकी कला को बिचोलिओं और दलाल किस्म के व्यक्ति व्यापार के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं. और कमाई का अधिकाँश हिस्सा उनकी जेबों में जाता रहा है.पर्यटन विभाग द्वारा प्रायोजित कार्यक्रमों में यद्यपि उन्हें समय-समय पर शामिल करके प्रोत्साहित किया जाता है पर इन कार्यक्रमों में एक तो लम्बा अंतराल होता है, दुसरे पारिश्रमिक की राशि भी ज्यादा नहीं होते है. इसलिए कालबेलिया कलाकारों का वह सपना जब वे स्वयं को पूर्णकालिक लोक-कलाकार के रूप में स्थापित कर पायेंगे, इतनी जल्दी सच होता नहीं दिखता..
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