Sunday, November 20, 2011

उसकी कविता

-रमेश तैलंग


उसे मैं हर रोज अपने साथ-साथ
कविता रचते हुए पाता हूं.

जब मैं सोच रहा होता हूं
कविता का विषय क्या हो ,
वह सोच रही होती है-
'आज घर में क्या पकेगा?'

जब मैं ढूंढ रहा होता हूं
कविता में जड़ने के लिए उपयुक्त शब्द
वह चुग रही होती है कनियों से भरी थाली में से
साबुत चावल का एक-एक दाना.

जब मैं काट रहा होता हूं
लिख-लिख कर
अनचाही पंक्तियाँ
वह फेंक रही होती है
उबले हुए आलुओं से उतारे हुए छिलके.

जब मैं दे रहा होता हूं घुमाव
कविता में जन्म लेती लय को,
वह घुमा रही होती है
चकले पर पड़ी आटे की लोई
रोटी की शक्ल देने के लिए.

जब मैं ले रहा होता हूं
राहत भरी सांस
कविता रचने के बाद
वह पोंछ रही होती है
साडी के पल्लू से
माथे पर झलक आया
बूँद-बूँद पसीना.

Friday, November 18, 2011

एन.बी.टी.पटना राष्ट्रीय संगोष्ठी: १४ नव.२०११ -आलेख : रमेश तैलंग

बच्चों की पुस्तक में बचपन

-रमेश तैलंग


बच्चे, बचपन और किताबें, इस एक त्रिकोणीय दुनिया के अंदर न जाने कितनी दुनियाएं और बसी हुई हैं. एक दुनिया वह है जहां बच्चे हैं, बचपन है पर किताबें नहीं हैं, एक दूसरी दुनिया हैं जहां बच्चे हैं लेकिन बचपन और किताबें नहीं हैं, और एक तीसरी दुनिया भी है जहां किताबें ही किताबें हैं, पर न वहां बच्चे हैं और न बचपन. अब इन तीनों दुनियाओं में जो आपसी रिश्ते पनपते हैं वे कम अनोखे नहीं हैं. पर इन रिश्तों के अलावा भी चंद महत्वपूर्ण बातें हैं जिन पर संक्षेप में गौर कर लें और फिर अपने मूल विषय पर आयें तो श्रेयस्कर होगा.
पहली बात तो यह कि किताबों या साहित्य की ज़रूरत मनुष्य को पड़ी ही क्यों? स्विस इंस्टिट्यूट ऑफ चिल्ड्रेन लिटरेचर से जुड़ी लेखिका डेनिस वॉन स्टोकर ने इब्बी की एक कार्यशाला में इसका उत्तर बहुत ही सटीक ढंग से दिया था. उनका मानना था कि साहित्य और साक्षरता का जन्म मनुष्य की उस नैसर्गिक प्रवृत्ति या आवश्यकता का परिणाम है जिससे प्रेरित हो कर वह अपने या दूसरों के बारें में कहानियाँ गढना या सुनाना चाहता है. कहानियां गढ़ने या सुनाने की इस प्रवृत्ति के पीछे मनुष्य का एक और भी मंतव्य छुपा था - अपने स्वयं के अस्तित्व के साथ-साथ इस संसार को भी अच्छी तरह से समझना जिसमे रह कर वह अपना जीवन जीता है.
कमोबेश रूप से देखा जाए तो बाल साहित्य सृजन के पीछे भी मनुष्य की यही मनोकामना प्रेरक रही है कि वह बच्चों को इस दुनिया में जीने, अग्रसर होने और आसन्न कठिनाइयों का सामना करने के योग्य बना सके. अब इसके लिए बाल साहित्यकार का बच्चों के जीवन और तेजी से बदलते उनके संसार से गहरा तादात्म्य होना बहुत ही ज़रूरी है.
जबसे भाषा और लिपि का आविष्कार हुआ, तबसे लेकर आज तक बालसाहित्यकार इस कर्म में कितने सफल हुए हैं इस पर अनेक राय हो सकतीं हैं पर इसके विस्तार में मैं यहां नहीं जाऊंगा. अपने मूल विषय को केंद्रित रखते हुए अब बच्चों की कुछ पुस्तकों ( यहां मैं अपने को हिंदी पुस्तकों तक ही सीमित रख रहा हूं) और कुछ स्फुट बाल रचनाओं में बचपन की जो अनोखी छवियां मुझे देखने को मिली हैं उन्हें मैं यहां आपके साथ बांटना चाहूंगा. ये छवियां कहीं-कहीं आपको गुदगुदाती हैं, तो कहीं रुलाती हैं तो कहीं-कहीं सोचने को भी मजबूर भी करतीं हैं. कथ्य या शिल्प में अगर उनमे कहीं झोल भी है तो वह क्षम्य है क्योंकि बाल साहित्य का सबसे पहला उद्द्येश्य तो बच्चों का मनोरंजन करना ही है बाकी सब बातें बाद की हैं.
बाल उपन्यास विधा में देखें तो स्वतंत्रता के बाद उभरे पहले बाल उपन्यासकार भूप नारायण दीक्षित के एक अदभुत बाल उपन्यास नानी के घर में टन्टू का स्मरण सबसे पाहे करना चाहूंगा जिसमें टन्टू जैसे बाल चरित्र के माध्यम से लेखक ने बाल सुलभ चंचलता, नटखटपन और बच्चे की हर दिन के नई शैतानियों का इतनी मनोरंजक ढंग से वर्णन किया है कि उपन्यास की पूरी कथा पाठक को शुरू से अंत तक बांधे रहती है.
वरिष्ठ कथाकार देवेन्द्र कुमार के दो बाल उपन्यास –पेड़ नहीं कट रहे हैं और एक छोटी बांसुरी का भी यहां उल्लेख करना चाहूंगा. पेड़ नहीं कट रहे हैं में जानू नाम के एक गरीब बेसहारा लड़के की कथा है जो चाय की एक गुमटी के किनारे लगे पेड़ पर बसते सहित अपने सारा माल-माता रखता है पर अब वहां सड़क बनने वाली है और पेड़ का कटना निश्चित है. जानू को पेड़ के कटने के साथ-साथ अपनी नन्ही दुनिया के उजड़ जाने की चिंता हैं और कहानी कई रोमांचक मोड़ लेते हुए एक सुखद अंत पर जा कर खत्म हो जाती है. इसी तरह देवेन्द्र का दूसरा बाल उपन्यास एक छोटी बांसुरी भी एक बालक के बचपन की मार्मिक कथा का बयान करता है. इस उपन्यास में अमर नाम के एक ऐसे बालक की कथा है जिसका फौजी पिता मोर्चे से लापता हो गया है और वह उनकी खोज में जगह-जगह भटकता बांसुरी बाबा, डॉक्टर रायजादा जैसे सहृदय चरित्रों से मिलता है और वापस अपनी माँ के पास पहुंच कर एक सुखी जीवन की शुरुआत करता है.
सड़क के बच्चों के बचपन की बात करें तो हरीश तिवारी के बाल उपन्यास ‘मैली मुंबई के छोकरा लोग’ को एक महत्वपूर्ण उपन्यास कहा जा सकता है जिसमे पुण्डी जैसे प्रमुख बाल चरित्र के अलावा और भी कई बाल चरित्र आए हैं. हालांकि इस उपन्यास का अंत बहुत ही नाटकीय ढंग से हुआ है फिर भी हाशिए पर पड़े बाल चरित्रों की दृष्टि से इस एक उल्लेखनीय उपन्यास माना जा सकता है.
प्रकाश मनु के खिलंदड़े बाल उपन्यास (जिन्हें आप किशोर उपन्यास भी कह सकते हैं) – एक था ठुनठुनिया, गोलू भागा घर से बच्चों के विविधवर्णी बचपन की मनोरंजक शैली में प्रस्तुति करते हैं. एक छोटी लड़की के शैशव की कुछ मनोरंजक छवियों को देखना हो तो प्रकाश मनु के ही एक और अनोखे उपन्यास चीनू का चिड़ियाघर में देखा जा सकता है. इधर हाल ही में मनु का एक और नया बाल उपन्यास ‘पुम्पु और पुनपुन प्रकशन विभाग नयी दिल्ली से आया है जिसमे भाई बहन के बचपन की शरारत भरी झांकियां दृष्टव्य हैं.
इनके अलावा शैशव और बचपन को ही उकेरते कुछ और अच्छे उपन्यासों में श्रीनिवास वत्स का ‘गुल्लू और एक सतरंगी’ तथा मोहम्मद अरशद खां का ‘अल्लू’, प्रमुख हैं.

बाल उपन्यासों के अलावा बाल कहानियों की भी ऐसी कई महत्वपूर्ण पुस्तकें हिंदी बाल साहित्य में आई हैं जिनमे बचपन की शरारतें, मुसीवतें, मार्मिक और विनोदपूर्ण घटनाएं भरी पड़ीं हुई हैं.
सबसे पहले आपका परिचय कराना चाहूंगा किस्सागोई के महागुरु अमृतलाल नागरजी की संपूर्ण बाल रचनाओं से जो उनके बेटे शरद नागर के संपादन में अभी पिछले दिनों लोकभारती प्रकशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हो कर आई हैं. इसमें नागर जी के ४ बाल उपन्यास, ४ पद्यकथाएं,, ३ नाटक, २५ बाल कहानियां, बाल महाभारत तथा कुछ महापुरुषों की जीवनियाँ हैं. कुल मिलाकर अमृतलाल नागर के बाल रचना संसार को समग्र रूप से दर्शाती यह एक अप्रतिम पुस्तक है. मैं यहां इस पुस्तक से नागरजी की कुछ बेहद मनोरंजक एवं आत्मकथात्मक बाल कहानियों का उल्लेख करना चाहूंगा जिनमें बचपन की शैतानियाँ और नटखटपन भरपूर विनोद के साथ अभिव्यक्त हुआ है. ये कहानियां है नटखट चाची, अमृतलाल नागर बैंक लिमिटेड, लिटिल रेड इजिप्शिया और बहादुर सोमू.
बचपन को यदि बच्चे की वय में ही सीमित न किया जाय और उनके आस-पास के सम्पूर्ण संसार को भी उसमे समाविष्ट कर लिया जाए तो हिंदी की बाल कहानियों का भंडार इतना समृद्ध है कि दांतों तले उंगली दबा लेनी पड़ती है. अलग-अलग जेनरों की कहानियां जिनमे फंतासी और यथार्थ दोनों का मणिकांचन योग है, का इतना बड़ा संसार है कि उनमे इक्के-दुक्के नाम लेलेना यहां उनके प्रति अन्याय करना ही होगा.
बचपन की विविधवर्णी छवियों को कहानियों के विस्तृत संसार की तरह और किसी विधा में देखना हो तो बाल कविताओं में देखना चाहिए. बाल कविताओं की पुस्तकों के नाम लेना तो यहां संभव नहीं पर कुछ स्फुट कविताओं का यहां उल्लेख करना अवश्य चाहूंगा: श्रीधर पाठक की ‘ बाबा आज देल छे आए, ऊं-ऊं चिज्जी क्यों न लाये, स्वर्ण सहोदर की ‘नटखट हम, हां नटखट हम/करने निकले खटपट हम, सुभद्रा कुमारी चौहान की ‘मैं बचपन को बुला रही थी, बोल रही बिटिया मेरी, दिविक रमेश की घर, माँ कितनी प्यारी, देवेन्द्र कुमार की ‘मीठी अम्मा’, कुंवर बेचैन की ‘कानाबाती कुर्र’ प्रकाश मनु की ‘पापा तंग करता है भैया,,रमेश तैलंग की ‘अले छुबह होगई, आदि ऐसी ही बाल कविताएं हैं जिनममें बच्चे का पूरा बचपन छलछलाता हुआ दिखता है.

अन्य विधाओं में भी हिंदी बाल साहित्यकारों ने ऐसे अनेक प्रयोग किये हैं जिनमें बचपन की अप्रतिम छवियाँ दिखेंगी पर इस सीमित समय की वार्ता में उनका उल्लेख करना संभव नहीं.
बचपन उम्र का वह पड़ाव है जो एक बार छूट गया तो दुबारा देखने को नहीं मिलता. शायद इसी आशंका और डर को मैंने एक बाल कविता में व्यक्त किया था जिसे यहां उद्धृत कर के मैं अपनी बात खत्म करूँगा: उस बाल कविता का एक अंश इस प्रकार है:

मन करता है अपना बचपन
रख दूं ताले में

नटखटपन, ये शैतानी
ये हँसी खिलखालाती,
रूठा-रूठी, मान-मनौवल,
सपनों की थाती
मन करता है
यह सारा धन
रख दूं ताले में.

क्या जानूँ कल चोर चुराले
चुपके से आकर
आजाएं मेरी आखों में
आंसूं घबरा कर
फिर कैसे मुंह दिखलाऊँगा
भरे उजाले में.

मन करता है अपना बचपन रख दूं ताले में


(एन. बी. टी द्वारा १४ नवंबर २०११ को आयोजित पटना संगोष्ठी में पढ़ा गया आलेख.)

एन.बी.टी.पटना राष्ट्रीय संगोष्ठी: १४ नव.२०११ -आलेख : ओम प्रकाश कश्यप

(14 नवंबर, 2011, बालदिवस के अवसर पर नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा पटना के गांधी मैदान में लगे पुस्तकमेला में ’बच्चों की पुस्तकों में बचपन’ विषय पर आयोजित गोष्ठी में पढ़ा गया आलेख)

बच्चों की पुस्तकों में बचपन
-ओम प्रकाश कश्यप

[इस विषय के चयन के लिए पहले तो मैं ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ का आभार व्यक्त करना चाहूंगा. ‘बच्चों की पुस्तक में बचपन’ विषय जितना साहित्यिक है, उतना ही समाज-मनोवैज्ञानिक भी. प्रकटतः यह बच्चों के अधिकार से जुड़ा मुद्दा है. लेकिन असल में यह देश के भविष्य, सभ्यता और संस्कृति से जुड़ा समसामयिक विषय है. इसलिए जरूरी है कि इस विषय पर राष्ट्रव्यापी बहस हो, जिसमें साहित्यकारों के अलावा समाजविज्ञानी, सुधी मनोवेत्ता, शिक्षाशास्त्री और अभिभावकगण भी अपनी राय रखें—ओमप्रकाश कश्यप]
साहित्यकार और बचपन के रिश्ते को आ॓स्ट्रियाई कवि, नाटककार पीटर हेंडके के इन शब्दों से समझा जा सकता है—

‘जब कोई राष्ट्र अपने किस्सागोओं को भुला देता है, तो वह अपने बचपन को भी भूल जाता है.’1
बच्चों की पुस्तकों में बचपन की खोज शब्दों में मासूमियत की खोज है. यह उस क्षण की खोज है जब से बालक की स्वतंत्र अस्मिता को पहचानने का चलन शुरू हुआ. उस अवसर की खोज है जब यह माना जाने लगा कि बालक स्वतंत्र नागरिक है तथा बच्चों की सक्रिय मौजूदगी के अभाव में कोई रचना उनपर थोपी हुई रचना कही जानी चाहिए. बालकों की स्वतंत्र शिक्षा की आवश्यकता को तो बहुत पहले से महसूस किया जाने लगा था. स्मृतियों, ब्राह्मण ग्रंथों में इस पर विस्तार से चर्चा है. उपनिषद का तो मतलब ही गुरु के आगे बैठकर ज्ञानार्जन करना है. प्राचीन ग्रंथों में एकलव्य, नचिकेता, उपमन्यु, ध्रुव, अभिमन्यु, आरुणि उद्दालक आदि उदात्त बालचरित्रों का वर्णन हैं. उनमें दर्शन है, गुरुभक्ति है, त्याग है, समर्पण है. सूरदास की रचनाओं में कृष्ण की बाललीलाओं का मनोहारी वर्णन भी है. लेकिन सब बड़ों द्वारा बड़ों के बड़े उद्देश्य साधने के निमित्त किया गया साहित्यिक आयोजन है. बचपन का मुक्त उल्लास वहां अनुपस्थित है.

पूरब की भांति पश्चिम में भी बच्चों की शिक्षा की मांग बहुत पहले उठने लगी थी. पहल करने वाले थे प्लेटो और उसका शिष्य अरस्तु. लेकिन बचपन के मनोविज्ञान को समझने की वास्तविक शुरुआत हुई सतरहवीं शताब्दी में. इसका श्रेय अनुभववादी दार्शनिक जान ला॓क(1632—1704) तथा स्वतंत्रतावादी विचारक रूसो को जाता है. अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘एन ऐस्से आ॓न ह्युमैन अंडरस्टेंडिंग’ में ला॓क ने प्लेटो की उस धारणा को चुनौती दी, जिसमें उसने कहा था कि पढ़ना असल में दिमाग में पहले से ही विद्यमान ज्ञान-संपदा को तरोताजा करने की प्रक्रिया है. ला॓क के पूर्ववर्ती विचारक रेने देकार्त का भी यही मानना था. अपने पूर्ववत्ती विचारकों का खंडन करते हुए ला॓क ने बच्चों के मस्तिष्क को ‘कोरा कागज’ बताया. जिसपर मनचाही इबारत लिखी जा सकती है.2

ला॓क की मृत्यु के लगभग मात्र आठ वर्ष बाद जन्मे रूसो ने बचपन को लघु अभ्यारण्य की अवधि माना. अपनी पुस्तक ‘एमाइल’ में वह प्रश्न करता है—‘आखिर वह कौन-सी अवस्था है जिसकी सामान्य गतिविधियां करुणा और परोपकार से भी बढ़कर हैं?’ उत्तर वह स्वयं देता है—‘बचपन!’ अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वह लिखता है—

‘बचपन को प्यार करो. उसके साथ खेल खेलो. उसके सुखामोद में शामिल होकर उसकी मनोरम प्रकृति में डूब जाओ….बचपन के आनंदमय दिनों को छीनो मत, ये बहुत जल्दी गुजर जाने वाले हैं.’3
इसी पुस्तक में संत पियरे की बात को आगे बढ़ाता हुआ वह लिखता है—‘संत पियरे ने व्यक्ति को बड़ा बालक कहा है. हम चाहें तो बालक को छोटा व्यक्ति भी कह सकते हैं.’



बचपन को साहित्यिक विमर्श के केंद्र में लाने की वे घटनाएं अनायास नहीं थीं. उनके पीछे लंबा सिलसिला है. जिससे औद्योगिक विकास और मशीनीकरण की अनेकानेक कहानियां जुड़ी हैं. उनमें बचपन की कराह है, आंसू हैं, शोषण और संत्रास है. आधुनिक बालसाहित्य को समझने के लिए इस पृष्ठभूमि पर सरसरी नजर डालना जरूरी है. यूरोप में पंद्रहवीं शताब्दी में सुधारवादी आंदोलन चला तो धार्मिक सुधारों की मांग कर रहे विचारकों ने बालक को नैतिकता का प्रतिरूप मानते हुए उसकी शिक्षा पर जोर दिया. लेकिन यह शिक्षा उतनी स्वतंत्र नहीं थी जितनी अपेक्षित थी. अधिकांश सुधारवादी जा॓न का॓ल्विन के अनुयायी थे. धार्मिक सुधारों के समर्थक का॓ल्विन का मानना था कि दुनिया में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो मनुष्य के लिए अनुपयोगी अथवा उसके भोग के लिए निषिद्ध हो. अपने समय के हिसाब से आधुनिक होकर भी का॓ल्विनवादी कहीं न कहीं परंपरावादियों की ‘कर्म-आचार संहिता’ से प्रभावित थे. जिसका संदेश था—‘कठिन परिश्रम, बुराई के विरुद्ध युद्ध में हथियार की तरह डटे रहना.’4 मशीनीकरण की आड़ में तेजी से उभर रहे पूंजीपति वर्ग ने इस कथन को अपने लाभ के लिए प्रयुक्त किया. धर्माचार्यों तथा लालची उद्योगपतियों के प्रयास से तत्कालीन समाज में एक संस्कृति विकसित होने लगी जिसका विश्वास था कि बच्चों की आत्मा की शुद्धि तथा उन्हें पतन की राह पर बढ़ने से रोकने के लिए उनको काम में लगाए रखना आवश्यक है.5

यह एक खतरनाक अवधारणा थी. जिसके परिणामस्वरूप अबोध बच्चों को कोयला खदानों, कारखानों, खेतों और कपड़ा मिलों में जोत दिया गया. उनसे ऐसे काम लिए जाने लगे जिन्हें बड़े आदमी करने से बचते थे. आर्थर वालेस काल्हों(1885—1979) ने अपनी पुस्तक ‘ए सोशल हिस्ट्री आ॓फ अमेरिकन फेमिलीज’ में एक रोंगटे खड़े कर देने वाले तथ्य का खुलासा किया है. उसने लिखा है कि यूरोप से लेकर अमेरिका तक बालश्रम इतना आम था कि यूरोप से अपहृत बच्चों को कृषि-मजदूर तथा उद्योग मजदूर के रूप में अमेरिका ले जाकर बेच दिया जाता था.’6 ये हालात तब के हैं जब अमेरिका में दासप्रथा लागू थी. खतरनाक परिस्थितियों में बच्चों से अमानवीय परिस्थितियों में सोलह-सतरह घंटे प्रतिदिन बिना किसी विश्राम के काम लिया जाता था. बदले में उन्हें मामूली मजदूरी दी जाती थी. बीमार होने पर उनके इलाज का भी कोई इंतजाम न था. इस स्थिति ने उस समय के संवेदनशील विचारकों, समाज विज्ञानियों, लेखकों और साहित्यकारों को आहत किया था. जान ला॓क, रूसो, चार्ल्स डिकेंन्स, राबर्ट ओवेन, कार्ल माक्र्स आदि ने बच्चों को शोषण से उबारने के लिए अनथक लेखन किया. आंदोलन चलाए. महिला स्वातंत्रयवादियों के संघर्ष का लाभ भी बच्चों के पक्ष में खड़े लेखकों तथा विचारकों को मिला.



बच्चों के पक्ष लगातार उठ रही आवाजों का परिणाम यह हुआ उनके लिए स्वाथ्यकर परिस्थितियों तथा शिक्षा की मांग की जाने लगी. लेखकों तथा साहित्यकारों ने बच्चों को ध्यान में रखकर पुस्तकें लिखना आरंभ किया. सोलहवीं शताब्दी में जान अमोस कोमिनयस द्वारा बच्चों के लिए पहली चित्रत्मक पुस्तक ‘आरबियस पिक्चस्’ तैयार की गई, जो आज की भाषा में कहें तो लघु शब्दकोश थी. उस समय तक अंग्रेजी लोकगाथाओं के महानायक राबिनहुड के किस्से बच्चों और बड़ों में उसी प्रकार लोकप्रिय थे जैसे भारत में सुल्ताना डाकू की कहानियां कुछ दशक पहले तक घर-घर सुनी-कही जाती थीं. सतरहवीं शताब्दी में चार्ल्स पेरट ने परीकथाओं की एक पुस्तक तैयार की. जिसने बच्चों और बड़ों दोनों को आकर्षित किया.



1744 में जान ला॓क के विचारों से प्रभावित एक समर्पित प्रकाशक जान न्यूबेरी आगे आया. उसने पाॅकेट बुक्स साइज में एक चित्रत्मक पुस्तक तैयार की. जिसको आधुनिक रचनात्मक बालसाहित्य की पहली पुस्तक माना जाता है. पुस्तक में अंग्रेजी वर्णमाला को आधार बनाकर छोटी-छोटी कविताएं थीं. अपनी पुस्तक को लोकप्रिय बनाने के लिए न्यूबेरी ने कुशल विपणन तकनीक अपनाई. ग्राहक यदि लड़का हो तो प्रत्येक पुस्तक के साथ एक गेंद और लड़की हो तो उसे एक पिनकुशन भेंट में दिया था. न्यूबेरी की पुस्तक को इंग्लेंड में व्यापक लोकप्रियता मिली. उससे बच्चों के मौलिक पुस्तकों की रचना का सिलसिला आरंभ हो गया. लेकिन बच्चों को केंद्र में बनाकर कालजयी मौलिक कृतियांे की रचना उनीसवीं शताब्दी में ही संभव हो सकी. बालसाहित्य के क्षेत्र में युग-परिवर्तनकारी योगदान रहा हेनरी एंडरसन(1805—1875) की. सही मायने में पुस्तकों के बचपन के करीब आने की वह पहली घटना थी. चार्ल्स डिकेंस से प्रभावित एंडरसन ने शताब्दियों से सुनी-सुनाई जा रही परीकथाओं को नए युग की भावना के अनुकूल लिखना आरंभ किया. उनकी कहानियां किस्सागोई तथा रोमांच से भरपूर थीं. बहुत जल्दी एंडरसन के कथाचरित्र घर-घर लोकप्रिय होने लगे. उसके तुरंत बाद लुईस कैरोल(1832—1898) ने ‘एलिस एडवेंचरर्स इन वंडरलेंड’(1865), लुईस स्टीवेंसन(1850—1894) की ‘ट्रेजर्स आइसलेंड’(1883), रुडयार्ड किपलिंग(1865—1936) की ‘दि जंगल बुक(1894) जैसी कालजयी कृतियां सामने आईं. जिसमें बचपन की मासूमियत थी, खिलंदड़ापना था. चुनौतियों से टकराने का जज्बा था और इन सबसे बढ़कर था, दुनिया के सभी जीवों, छोटे बड़ों के लिए प्यार तथा नैतिकतावादी दृष्टिकोण. यहां जिन साहित्यकारों के नाम का उल्लेख हमने किया गया उनकी ख्याति कथा साहित्य के क्षेत्र में है. कविता के क्षेत्र में भी इस दौर में एक से बढ़कर एक कविताएं लिखी गईं. उनीसवीं शताब्दी में जन्मी कवियत्री(1896—1966) डोर्थी एल्डिस की छोटी-सी कविता7 में एक बालक की स्वाभाविक आकांक्षा को इस प्रकार दर्शाया गया है, भावार्थ देखिए—

हर कोई कहता है—मैं अपनी मां की तरह दिखता हूं.
हर कोई कहता है—मेरे चेहरे पर बिया आंटी की झलक है.
हर कोई कहता है—मेरी नाक पिताजी की नाक जैसी है.
लेकिन मैं तो सिर्फ और सिर्फ अपने जैसा दिखना चाहता हूं

जिस विषय पर आज की चर्चा केंद्रित है, उसको वास्तविक सम्मान मिला बीसवीं शताब्दी में. फिलिप एरिस ने ‘सेन्च्युरिजी आ॓फ चाइल्डहुड’ लिखकर बालकों की शताब्दियों से हो रही उपेक्षा की ओर ध्यान आकर्षित किया. उन दिनों मारिया मांटेसरी द्वारा खोले गए स्कूलों की धूम मची हुई थी. पेशे से मनोवैज्ञानिक मारिया बच्चों के कुदरती हुनर को निखारकर उनकी प्रतिभा को तराशने में विश्वास रखती थी. मारिया को पहली सफलता उस समय मिली जब उसके मानसिक रूप से विकलांग कई विद्यार्थियों ने राज्य स्तरीय परीक्षा न केवल पास की, बल्कि औसत विद्यार्थियों से अधिक नंबर लाकर उस समय के शिक्षाविज्ञानियों को चकित कर दिया था. कुछ वर्ष पहले आई आमिर खान की चर्चित फिल्म ‘तारे जमीन पर’ के दर्शील सफारी का चरित्र का कांसेप्ट मारिया के छात्रों से लिया गया है. बहरहाल मारिया मांटेसरी की नई शिक्षा प्रणाली तथा ऐरिस की पुस्तक से अंग्रेजी समाज में एक बहस का आरंभ हुआ. जिसको दूसरे विश्वयुद्ध के बाद की परिस्थितियों से बल मिला. इस सब का सुखद परिणाम यह हुआ कि 1954 में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने हर साल 20 नवंबर को अंतरराष्ट्रीय बालदिवस मनाए जाने की घोषणा की. बालश्रम पर रोक लगाने, बच्चों की अनिवार्य शिक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय चार्टर में माकूल इंतजाम किए गए.

हिंदी की बात करें तो लगभग डेढ़ सौ वर्ष के हिंदी बालसाहित्य के इतिहास में बचपन का प्रवेश बहुत बाद की घटना है. आरंभिक साहित्यकारों में अधिकांश का मानना था कि बच्चों के लिए पाठ्येत्तर पुस्तकों की आवश्यकता सिर्फ उन्हें संस्कारित करने के लिए है. उनके मनोरंजन तो खेलकूद से हो ही जाता है. जो कमी रह जाती है उसको लोकसाहित्य पूरी कर देता है. बच्चों के संस्कारीकरण के लिए जो पुस्तकें तैयार की जाती थीं, उनका उद्देश्य एक ही होता था, येन-केन-प्रकारेण बड़ों की कार्बन कापी तैयार करने में मदद करना. अक्सर किसी महापुरुष का नाम या उसकी कहानी सुनाकर बच्चे को बताया जाता कि देखो, ‘देखो, तुम्हें इनके जैसा बनना है.’ कोई उनसे नहीं कहता था कि उन्हें अपने जैसा बनना है. जो वे चाहते हैं, वैसा बनना है.

हिंदी बालसाहित्य बचपन की दस्तक का श्रेय प्रेमचंद को दिया जाना चाहिए. उनकी कहानी ‘ईदगाह’ पहली माइलस्टोन कहानी है, जिसमें बालक अपनी पूरी पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारी के साथ उपस्थित है. उसका दायित्वबोध इतना सघन है कि उसके लिए वह कुछ देर के लिए अपने बचपन को भी बिसरा देता है. ‘ईदगाह’ के अलावा प्रेमचंद ने ‘गुल्ली-डंडा’, ‘नशा’, बड़े भाई साहब’ जैसी उत्कृष्ट कहानियां भी लिखीं. जिनके पात्र बचपन को छोड़कर किशोरावस्था की दहलीज पर बढ़ चुके हैं. उनके बाद की पीढ़ी के रचनाकारों में सुभद्रा कुमारी चैहान, स्वर्ण सहोदर, विद्याभूषण विभु, जहूरबख्श, मस्तराम कपूर, रामधारी सिंह दिनकर, रामनरेश त्रिपाठी, निरंकार देव सेवक आदि ने बचपन को केंद्र बनाकर खूबसूरत और मनोरम साहित्य की रचना की. सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ‘मेरा बचपन’ कविता बचपन को याद करती संभवतः सबसे ताजगी भरी कविता है. वहां एक मां बेटी की बालसुलभ क्रीड़ाओं को देखते हुए स्वयं अपने बचपन में चली जाती है—

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी
‘मां ओ’ कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी
कुछ मुंह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी
मैंने पूछा, ‘यह क्या लायी?’ बोल उठी वह ‘मां, काओ’
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा— ‘तुम्हीं खाओ’

बचपन को लेकर यह हिंदी कविता अपने आप में अनूठी, बेमिसाल है. यहां बच्ची अबोध है, इसलिए वह मां की स्वाभाविक मौजूदगी में है. लेकिन बच्चे तो बच्चे हैं, अवसर मिले तो नटखटपन से कैसे बाज आएं. बीसवीं शती आते-आते बच्चों में यह हौसला आ चुका था कि वे शान से कह सकें कि ‘हां’ हम नटखट हैं. स्वर्णसहोदर बचपन के इस उल्लास को कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं—

‘नटखट हम हां, नटखट हम
करने निकले खटपट हम
आए गए लड़के आ गए हम
बंदर देख लुभा गए हम
बंदर को बिचकाएं हम
बंदर दौड़ा भागे हम
नटखट हम हां नटखट हम
बच गए लड़के बच गए हम. (स्वर्णसहोदर, नटखट के गीत, पृष्ठ-1)
कविताओं के साथ-साथ कहानियों और उपन्यासों में भी बचपन का खुला बयान हिंदी साहित्यकारों ने किया है. हरिकृष्ण देवसरे, प्रकाश मनु, जहूर बख्श, जाकिर अली रजनीश, ऐसे अनेक हिंदी बालकथाकार हैं, जिनकी कहानियों में बचपन की हर भंगिमा की झलक देखी जा सकती है. कवियों में श्रीप्रसाद, डा॓. राष्ट्रबंधु, रमेश तैलंग ने बचपन को उतारने का अदभुत काम किया है. अपने ही शहर के कन्हैयालाल मत्त मुझे इस अवसर पर याद आते हैं. नन्हे बच्चों के लिए अद्भुत लोरियां उन्होंने लिखी हैं. गिजु भाई पटेल ने बचपन को संवारने के लिए वह कार्य किया, जो पश्चिम में मारिया मांटेसरी ने किया था.



जहां तक साहित्यिक कृतियों का सवाल है, वहां बचपन को पूरा सम्मान मिला है. लेकिन फिर भी कई क्षेत्र हैं जहां काम किया जाना बाकी है. जैसे गांव के बच्चों को लेकर काम करने की बहुत गुंजाइश है. शहरी जीवन में भी हाशिये के कुछ पात्र हैं जिनका बचपन उपेक्षित है. छोटे-छोटे ढाबों, कारखानों, रेलवे स्टेशनों पर काम करने वाले, कबाड़ बीनकर गुजारा करने वाले बच्चों को लेकर गंभीर काम किए जाने की आवश्यकता है. बालतस्करी, अशिक्षा, कुपोक्षण जैसी समस्याएं भी हैं, जिनके विरोध में वैचारिक आंदोलन कड़ा होना चाहिए, तभी हम राष्ट्र के बचपन को सम्मान दे सकते हैं. अंत में मैं ब्रिटिश नाटककार टाम स्टापर्ड की उक्ति को दोहराना चाहूंगा. उसने कहा था कि यदि आप अपने बचपन को साथ लेकर आगे बढ़ते हैं तो कभी बूढ़े नहीं हो सकते.8 इसे हम ऐसे भी कह सकते हैं कि जो राष्ट्र अपने बचपन का ख्याल रखता है, उसका वैभव कभी फीका नहीं पड़ता.

Thursday, November 10, 2011

इक्कीसवीं शताब्दी का बाल साहित्य -संवाद


pankaj chaturvedi


पिछले दिनों फेस बुक के इंडियन चिल्ड्रेन'स ग्रुप पर एन बी टी में सहायक संपादक, वरिष्ठ लेखक, पत्रकार पंकज चतुर्वेदी द्वारा हिंदी बाल साहित्य पर निम्न महत्वपूर्ण टिप्पणी की गई: जिसकी प्रतिक्रिया स्वरुप प्रखर लेखक/बाल कथाकार ओम प्रकाश कश्यप ने एक स्वतंत्र लेख लिखा. यहां चतुर्वेदीजी की टिप्पणी और कश्यप जी का लेख दोनों दिए जा रहे हैं. आशा है कि मेरे इस ब्लॉग के पाठकों को इन्हें पढ़ना रुचिकर लगेगा:

१. इक्कीसवी सदी में हिंदी बाल साहित्य

पंकज चतुर्वेदी

बाल मन और जिज्ञासा एक-दूसरे के पूरक षब्द ही हैं । वहीं जिज्ञासा का सीधा संबंध है कौतुहल से है । षिषुकाल में उम्र बढ़ने के साथ ही अपने परिवेष की हर गुत्थी को सुलझाने की जुगत लगाना बाल्यावस्था की मूल-प्रवृत्ति है । भौतिक सुखों व बाजारवाद की बेतहाषा दौड़ के बीच दूशित हो रहे सामाजिक परिवेष और बच्चों की नैसर्गिक जिज्ञासु प्रवृत्ति पर बस्ते के बोझ के कारण एक बोझिल सा माहैल पैदा हो गया है । ऐसे में बच्चों के चारों ओर बिखरे संसार की रोचक जानकारी सही तरीके से देना बच्चों के लिए राहत देने वाला कदम होता है। पुस्तकें इसका सहज, सर्वसुलभ और सटीक माध्यम रही हैं। जब हम 21वी सदी की बात करते हैं तो सामाजिक, अािर्थक, भौतिक सुखों में बदलाव की बात पलक झपकते ही पुरानी होती प्रतीत होती है। इतना तेज परिवर्तन कि कल्पना का घोड़ा भी उससे पराजित हो जाए! विकास के बदलते प्रतिमान, नैतिकता के बदलते आधार, ज्ञान के आागम मार्ग की तीव्रता--- और भी बहुत कुछ जिससे समाज का प्रत्ये वर्ग अछूता नहीं रहा। जाहिर है कि बच्चों पर इसका प्रभाव तो पड़ ही रहा है और उससे उनका जिज्ञसा का दायरा भी बढ़ रहा है।
एक बात और बताना चाहूंगा कि रंग, स्पर्ष, ध्वनि और शब्द - इन सभी के व्यक्तिगत अनुभव, जो बचपन की सबसे बड़ी पूंजी होते हैं, बालक के जीवन से दुर्लभ होते जा रहे हैं । एक जर्जर समाज व्यवस्था के बीच जीवन के लिए संघर्ष करती परंपराएं इन निहायत जरूरी अनुभवों को मुहैया कराने में सक्षम नहीं रह पा रहीं हैं । बालक बड़े अवश्य हो रहे हैं, लेकिन अनुभव जगत के नाम पर एक बड़े शून्य के बीच । पूरे देष के बच्चों से जरा चित्र बनाने को कहें. तीन-चौथाई बच्चे पहाड़, नदी, झोपड़ी और उगता सूरज उकेर देंगे। बकाया बच्चे टीवी पर दिखने वाले डिज्नी चैनल के कुछ चरित्रों के चित्र बना देंगे। यह बात साक्षी है कि स्पर्ष, ध्वनि, दृष्टि के बुनियादी अनुभवों की गरीबी, बच्चों की नैसर्गिक क्षमताओं को किस हद तक खोखला किए दे रही है । ऐसे में बच्चों को सुनाई गई एक कहानी ना केवल रिष्तों के प्रति उसे संवेदनषील बनाती है, बल्कि उसके कौतुहल और कल्पना के संसार को भी संपन्न बनाती है।
देष की आजादी की पहली क्रांति 1857 के समय पूरे देष षनी अफगानिस्तान से ले कर कन्याकुमारी तक की , साक्षरता दर महज एक फीसदी थी। जब हम आजाद हुए तब भी हमारी साक्षरता दर बेहद दयनीय ही थी। जब मुल्क 21वीं सदी के दरवाजे पर खड़ा था, तब हमारे यहां षिक्षा भी एक क्रांति के रूप में आई। भले ही अभी जरूरत के मुताबिक स्कूल कम हैं, मौजूदा सरकारी स्कूल भौतिक व अन्य सुविधाओं में बेहद कमजोर है।। लेकिन यह हम सभी स्वीकार करेंगे कि अब गांव या मजरे में स्कूल खुलना उतना ही बड़ा विकास का काम माना जाता है, जितना कि सड़क बनना या अन्य कोई काम । लेकिन इस ज्ञान की गंगा ने लोगों को पढना तो सीखा दिया लेकिन उसे गढ़ना नहीं सीखा पाया। बच्चेंा पर स्कूल में पढ़ाई का बोझ बढ़ता जा रहा है- ऐसी पढ़ाई का बोझा , जिनका बच्चों की जिंदगी , भाषा और संवेदना से कोई सरोकार नहीं है । ऐसी पढ़ाई समाज के क्षय को रोक नहीं सकती, उसे बढ़ावा ही दे सकती हैं । उन दिनों को याद करें जब तारों भरे आकाश के तले दादी-नानियां परियों की ऐसी कहानियां सुनाया करती थीं, जिनसे चरित्र और व्यक्तित्व के विकास की प्रेरणा मिलती थी । आज बच्चों को आकाष में उड़ते बादल या टिमटिमाते तारे देख कर ना तो कोई उत्सुकता जाग रही है ना ही कौतुहल। हकीकत में ये दोनों तत्व ही बच्चों को सपनों का साकार करने का जज्बा प्रदान करते हैं।

२.



इक्कीसवीं शताब्दी का बाल सहित्य:ओम प्रकाश कश्यप जी के इस विचारोत्तेजक लेख को यहां पढ़ें :

पंकज चतुर्वेदी के आलेख से उभरते सवाल

कुछ दिनों से फेसबुक को लेकर निराशा पनपने लगी थी. लगा था कि मंच चाहे जो हो, साहित्यकार बंधु अपने साथ गुटबंदी लाना नहीं भूलते. उसके कारण सही दिशा में जाती हुई बहस एकाएक व्यक्तिगत हो जाती है. संवाद आत्मप्रचार का जरिया बन जाता अथवा बना दिया जाता है. यह निराशा उस समय भी पनपी थी, जब पंकज चतुर्वेदी ने दूरदर्शन पर बालसाहित्य को लेकर कार्यक्रम की पूर्वसूचना प्रकाशित की; और बाद में बिना यह जाने कि उस भेंट में पंकज जी ने बालसाहित्य को लेकर क्या कहा? बच्चों के साहित्य को लेकर उनका सोच और चिंताएं क्या हैं? अर्थात बिना किसी जिज्ञासा, बगैर किसी कौतूहल के उन्हें बधाइयां मिलने लगीं. कुछ सीमाओं तक यह बुरा भी नहीं है. परंतु सृजनधर्मी द्वारा सार्वजनिक मंच का उपयोग भी यथासंभव सृजनात्मक होना चाहिए, व्यक्तिगत संवाद के लिए नेट पर ही दूसरे माध्यम हैं—ऐसा मेरा मानना है. कार्यक्रम के बाद में भी पंकज जी ने अपनी चर्चा के दौरान क्या कहा, उसपर कोई विमर्श नहीं हुआ. संतोष की बात है कि विचारहीनता की इस स्थिति से उबारा भी पंकज चतुर्वेदी ने. उनसे पहले देवेश अपने पूर्वप्रकाशित लेख का लिंक देकर शुरुआत कर चुके थे. इसके लिए हमें इन दोनों का आभारी होना चाहिए. अपने असहमति के अधिकार के साथ मैं तो हूं.

पंकज जी की विद्वता और उनका लेखन-सामर्थ्य संदेह से परे है. इसके बावजूद मैं कहना चाहूंगा कि उनका आलेख बालसाहित्य के वर्तमान परिदृश्य को लेकर कोई निश्चित दृष्टि हमें नहीं देता. बालसाहित्य को लेकर उनकी अपेक्षाएं भी कुछ नई नहीं हैं. अपने आप में यह लेख उन्हीं अंतर्विरोधों का शिकार है, जो परंपरा और आधुनिकता के बहाने अधिकांश बुद्धिजीवियों को परेशान रखते हैं. वे लिखते हैं—

‘भौतिक सुखों व बाजारवाद(या बाजार?) की बेतहाशा दौड़ के बीच दूषित हो रहे सामाजिक परिवेश और बच्चों की नैसर्गिक प्रवृत्ति पर बस्ते के बोझ के कारण एक बोझिल सा माहौल पैदा हो गया है.’
बस्ते को बोझ मानने वाले अकेले पंकज जी नहीं हैं. हमारे अनेक बुद्धिजीवी इस मामले में उनका समर्थन करते हैं. 30 अक्टूबर के जनसत्ता रविवारीय में प्रदीप पंत अपने यात्रा संस्मरण ‘कुर्ग, काबेरी और का॓फी के इलाके में’ लिखते हैं—

‘हमारे समय में बस्ते बगल में लटकाए जाते थे. तब वे हल्के होते थे. लेकिन अब?….आजादी के बाद जाने कितनी गोष्ठियों-संगोष्ठियों-सम्मेलनों में बच्चों पर बस्ते या पढ़ाई का बोझ कम करने के बारे में विशेषज्ञों ने बहसें-चर्चाएं कीं. जाने कितने आयोग बैठे, लेकिन यह समस्या आज भी वहीं की वहीं है.’
इतने ख्यातिनाम बुद्धिजीवियों के समर्थन के बावजूद बस्ते को बोझ कहना मुझे लिजलिजी और आत्मघाती संवेदना लगती है. मैं समझ नहीं पाता कि जिसमें पुस्तकें हों, लेखन-सामग्री हो, वह बस्ता ‘बोझ’ कैसे हो सकता है! ज्ञान-सामग्री को बोझ बताकर प्रकारांतर में क्या हम बच्चों को पुस्तकों से दूर भागने की प्रेरणा नहीं दे रहे हैं? मेरी शिकायत यहीं तक सीमित नहीं है. मेरा मानना है कि पुस्तकों के इस संक्षेपीकरण ने ज्ञान को सूचना में बदलने में खास भूमिका अदा की है. हम सब सुविधाभोगी होकर वास्तविक ज्ञान से कटे हैं. अब इसी प्रकार के तर्कों के आधार पर बच्चों को भी उससे वंचित रखना चाहते हैं. यह सब बाजार की इच्छानुसार उन्हीं बुद्धिजीवियों द्वारा किया गया है, जो बाजारवाद के आलोचक हैं और अपनी रचनाओं में उसको पानी पी-पीकर कोसते हैं, लेकिन बाजार को दोष देते-देते चाहे-अनचाहे उसी की शब्दावली उधार ले लेते हैं.

अभी ज्यादा अर्सा नहीं हुआ है. सत्तर के दशक में रोजगारमूलक शिक्षा का नारा चला था. बड़े-बड़े शिक्षाशास्त्री उसके समर्थन में जुटे थे. परिणाम यह हुआ कि व्यावहारिक शिक्षा दी जाने लगी. बालक की रुचि, क्षमता तथा सामाजिक जरूरतों को बिसराकर अभिभावकों में तकनीक और विज्ञानाधारित विषयों की पढ़ाई के प्रति रुझान बढ़ता गया. व्यवसाय और अर्थ प्रबंधन से जुड़ी ज्ञान की भौतिकवादी शाखाओं ने मानविकी की पढ़ाई को किनारे कर दिया. रोजगार सृजन के लिए तकनीक शिक्षा पर जोर दिया जाना अपने आप में बुरा नहीं था, परंतु रोजगारमूलक शिक्षा के शोर-शराबे के बीच दर्शन, समाज, भूमिति, इतिहास, नृतत्व, राजनीति, मानविकी तथा सामाजिकी के संश्लेषित प्रविधि पर आधारित विषयों को बचाने और बनाने वाली जितनी शाखाएं थीं, जो ज्ञान को एकीकृत करके देखतीं तथा उपलब्ध विचारधाराओं के बीच समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाती थीं, सब नेपथ्य में ढकेल दी गईं. समाजशास्त्र को समाजविज्ञान बनाकर आंकड़ों में उलझा दिया गया. इससे हमें योजनाएं बनाने में मदद तो मिली, परंतु हमारा मस्तिष्क ज्ञान के संश्लेषण की प्रक्रिया को भूलता गया. संश्लेषणात्मक ज्ञान जिसको अकादमिक भाषा में ‘शास्त्रीय ज्ञान’ भी कहा जाता है, की उपेक्षा हुई. उनके स्थान पर प्रबंधन और तकनीकी अध्ययन से जुड़े विषय जो बाजार की मांग थे, निरंतर छाते चले गए. बाजार और समाज दोनों विशेषज्ञों के हवाले हो गए. विखंडनवाद सोच पर हावी हुआ तो संशयवाद का उभार स्वाभाविक था.

ज्ञान के उथलेपन को छिपाने के लिए परीक्षाओं में लंबे-लंबे उत्तर वाले प्रश्न हटाकर वस्तुनिष्ठ प्रश्न सजा दिए गए. बहाना बनाया गया कि इससे नकल की दुष्प्रवृत्ति पर काबू पाया जा सकेगा. असल में यह ग्रामीण प्रतिभाओं को सत्ता-केंद्रों पर आने से रोकने की साजिश का परिणाम थीं, जो अपनी प्रतिभा के बल पर बिना किसी कोचिंग के भी शहरी प्रतिभाओं के लिए चुनौती बनी हुई थीं. वह अपने साथ बचत-संस्कृति और संयुक्त परिवार जैसी टिकाऊ परंपराएं भी साथ लाती थीं. उन्हें बाजार की चाल में एकाएक फंसाना आसान नहीं था.(आज स्थिति बदल चुकी है. नागरीय क्षेत्रों में अपने मंसूबे साधने के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियां अब गांवों की ओर भी रुख करने लगी हैं. वहां लोग आसानी से उनके मकड़जाल में फंसते जा रहे हैं. जमीनों के मुआवजे में मिली रकम को मोटरसाइकिल, कार आदि पर खर्च करना इसका उदाहरण है.). यह सब बाजार की पहल पर हुआ जो ज्ञान को सूचना में बदल देना चाहता था. हम उसमें फंसते चले गए. आज भी फंसे हैं. सत्तर-अस्सी के दशक मंे रोजगारमूलक शिक्षा के नारे के बीच पली-बढ़ी पीढ़ी आज बाजार की सबसे बड़ी नियंत्रक और समर्थक शक्ति है. हम भूल जाते हैं कि ज्ञान के संश्लेषण की योग्यता के बगैर समाज और व्यक्तिमन की जटिलताओं को समझ पाना असंभव है. उसके अभाव में मानवीय बोध का उथलापन बड़ी-बड़ी डिग्रियां हासिल करने के बावजूद बना रहता है. विशेषज्ञों के इस समाज में हम संस्कृति और परंपराओं के क्षय पर चिंता प्रकट करते हैं, बिना यह जाने कि ये दोनों संश्लेषणात्मक प्रत्यय हैं. अकेले ज्ञान की विश्लेषणात्मक प्रविधियों के सहारे इन्हें तथा इनपर छाये संकट को समझ पाना असंभव है. लार्ड मैकाले को दोष दिया जाता है कि उसने बोध को रटंत विद्या में बदलकर भारतीयों को क्लर्क बनाने में मदद की थी. आधुनिक शिक्षा-पद्धति के पीछे तो मैकाले का योगदान नहीं है. इस बार तो हमने खुद ही खुद को मशीनी शिक्षापद्धति के हवाले किया है. हम भूल गए कि मानवीय प्रबोधीकरण की प्रक्रिया को अपने हितों के अनुरूप बदलने के लिए बाजारवाद के समर्थक किसी भी सीमा तक जा सकते हैं. बस्ते को बोझ बताकर ज्ञान के सूचनाकरण में सहायक हम ही बने हैं.

सवाल यह भी मौजूं है कि ‘बस्ते का बोझ’ क्या सचमुच हमारी शिक्षा प्रणाली की लचरता की देन है अथवा आधुनिक शिक्षा-पद्धति से सामंजस्य न बिठा पाने की हमारी कमजोरी का नतीजा है? आधुनिक स्कूलों में पढ़ाई समय-सारणी के अनुसार होती है. बच्चे से अपेक्षा की जाती है कि तयशुदा समय-सारणी के अनुसार ही पुस्तकें और अभ्यास पुस्तिकाएं स्कूल में लाए. लेकिन प्रायः यह हो नहीं पाता. बच्चे प्रशिक्षण की कमी और यदाकदा आलस्य के कारण समय-सारणी के बाहर की पुस्तकें और अभ्यास पुस्तिकाएं अपने बस्ते में ठूंस लेते हैं. कभी-कभी डर यह भी काम करता है कि कहीं अध्यापक या अध्यापिका समय-सारणी से इतर विषय के बारे में कुछ पूछ न लें. माता-पिता बच्चे को वैसा प्रशिक्षण देने के बजाय बस्ते को ही बोझ बताने लगते हैं. इस बात से अनजान कि बालक यदि पाठ्यपुस्तकों को बोझ समझेगा तो बाकी पुस्तकों के प्रति सम्मान का भाव भी क्यों दिखाएगा. फिर चाहे वह संस्कृति का आधार कही जाने वाली धार्मिक पुस्तकें हो अथवा साहित्यिक. एक अभिभावक के रूप में हम चाहते हैं हमारा बालक प्रत्येक विषय में प्रवीण हो. इसके लिए हम उसकी ड्रेस पर ध्यान देते हैं. अच्छे और स्वास्थ्यकारी टिफिन की व्यवस्था करते हैं. लेकिन कुछ ही माता-पिता ऐसे होंगे जो पुस्तकों को समय-सारणी के अनुरूप सहेजने अथवा बच्चों को उसका प्रशिक्षण देने का काम करते तथा चाहते हों कि उनका बालक पाठ्येत्तर पुस्तकों के अध्ययन के लिए भी समय निकाले. अधिकांश तो अच्छे और महंगे स्कूल को अच्छी पढ़ाई का पर्याय मान चुके हैं. बहरहाल, बस्ते को समय-सारणी के अनुसार सुनियोजित करने का काम अभिभावकगण करें या न करें, बाजार इस समस्या के निपटान का हल अवश्य सोच चुका है. इसलिए स्कूलों में लेपटाप को लाया जा रहा है. प्रदीप पंत जैसे अनेक बुद्धिजीवी इसी में शिक्षा का कल्याण देखते हैं, उन्होंने लिखा भी है, ‘शायद भविष्य में लैपटाप इस समस्या को हल्का करे.’ संभवतः इस और ध्यान दिए बगैर कि बच्चों के पास लैपटाप हुआ तो इंटरनेट भी होगा. इंटरनेट के साथ विज्ञापन स्वाभाविक रूप में जुड़ जाएंगे. अब जरा इस स्थिति की कल्पना कीजिए कि बालक कक्षा में गणित की पढ़ाई कर रहा है और लैपटाप पर किसी कंपनी के ‘बर्गर’ का विज्ञापन या क्रिकेट मेंच आ रहा है.

बस्ते के बोझ से परेशान हमारी पीढ़ी अपनी पढ़ाई के संघर्षमय दिनों को भूल जाती है, जब पाठशाला जाने के लिए पैदल ही मीलों का सफर तय करना पड़ता था. याद भी करती है तो इस तरह कि शिक्षा के लिए किया उसका सारा संघर्ष अतीतमोह का शिकार नजर आने लगता है. जनसत्ता के इसी अंक में बीते दिनों को याद करते हुए राघवेंद्र लिखते हैं—

’नौवीं क्लास तक तो पिताजी की साइकिल के आगे लगे डंडे पर बैठकर स्कूल जाते रहे….’
है न अजीब बात! एक ओर तो हम अतीतमोह से ग्रस्त हो विकास के प्रति विरोध दर्ज कराते हंै. दूसरी ओर आधुनिकतम सुविधाएं भी हमको चाहिए. यही नहीं सुविधार्जन की दौड़ में पिछड़ गए व्यक्ति को आसानी से उसका सामाजिक-बौद्धिक पिछड़ापन मान लिया जाता है. इस ऊहापोह में हम उस संघर्ष को पूरी तरह बिसरा देते हैं, जिसके बूते हमने सफलता प्राप्त की है. खासकर बच्चों को तो उस कष्ट से दूर ही रखना चाहते हैं, जो हमने स्वयं झेले थे. यह बुरी बात भी नहीं है. परिवार और परंपरा के बीच जीने वाले हम भारतीयों की यह स्वाभाविक दुर्बलता है तो ताकत भी है. लेकिन सुविधाओं की चाहत में हम भूल जाते हैं कि बाजार जो हमारे लिए अन्यान्य सुविधाएं प्रदान कर रहा है, अपने लाभ के लिए वह शिक्षा को भी प्रा॓डक्ट के रूप में उपलब्ध कराएगा. फिर उसकी कीमत भी हमसे वसूलेगा. वैसे राघवेंद्र जी उन लाखों बच्चों से बेहतर स्थिति में थे जिन्हें स्कूल जाने के लिए साइकिल उपलब्ध थी. वरना हमारी पीढ़ी के जेहन में ऐसी हजारों हकीकतें हैं, जब स्कूल नंगे पांव जाना पड़ता था. भोजन के नाम पर सूखी रोटियां मिलती थीं. घर आने पर पढ़ाई के अलावा दूसरे कामों में भी हाथ बंटाना पड़ता था. उस समय कोई नहीं कहता था कि शिक्षा के लिए इतनी मशक्कत ओटनी पड़ती है. आज बालक को साफ-सुथरी ड्रेस मिलती है. सुबह का नाश्ता, आने-जाने के लिए बस. पहले शिक्षार्थी के लिए रास्ते और बाधाएं चिंता का कारण नहीं थे, इसलिए शिक्षा तपस्या थी. आज वह कैरियर की सीढ़ी है. सुख-सुविधाओं की होड़ में हम भूल जाते हैं कि सुविधा लोलुपता ने ही अमेरिकी बच्चों को शिक्षा से दूर किया है. इसलिए राष्ट्रपति ओबामा को शर्म भूलकर बच्चों से पढ़ने की अपील करने को बाध्य होना पड़ा है. ज्ञानार्जन के प्रति हमारी भी यही उदासीनता रही तो वह दिन दूर नहीं जब अपने बच्चों से हमें भी यही अपील दोहरानी पड़े. सूचना तकनीक ने हमारे लिखने की आदत पर प्रहार किया है. पहले चौथी-पांचवीं पास व्यक्ति अपने विचारों को पत्रादि के माध्यम से अभिव्यक्त कर लेता था, पचासियों गांव, वहां के निवासियों, सगे-संबंधियों के नाम और पते याद रखता था. आज दस-बीस फोन नंबर याद रख पाना भी आसान नहीं. स्मृति आज मोबाइल में कैद हो चुकी है, पत्रादि एसएमएस में. ज्ञान का सूचनाकरण और सूचनाओं का लैपटापीकरण भविष्य में क्या गुल खिलाएगा, कल्पना कर लीजिए.

पंकज जी का एक और वाक्य मुझे जल्दबाजी में निकाले गए निष्कर्ष का शिकार नजर आता है—

‘रंग-स्पर्श, ध्वनि और शब्द, इन सभी के व्यक्तिगत अनुभव जो बचपन की सबसे बड़ी पूंजी होते हैं, बालक के जीवन से दुर्लभ होते जा रहे हैं. एक जर्जर समाज व्यवस्था के बीच जीवन के लिए संघर्ष करती परंपराएं इन निहायत जरूरी अनुभवों को मुहैया कराने में सक्षम नहीं रह पा रही हैं.’
यह बात समझ से परे है कि पंकज जी ने ये शब्द किस अनमन्यस्कता के बीच लिखे हैं. संभव है इन शब्दों का अर्थ अभिधा में न होकर लक्षणात्मक हो. परंतु किसी भी प्रकार ये यथार्थ के करीब नजर नहीं आते. व्यावहारिक दृष्टि से तो आज के बालक की दुनिया पहले से अधिक रंगीन है. प्राकृतिक रंगों की कमी को पाटने के लिए इंटरनेट और टेलीविजन की रंगारंग दुनिया उसके सामने है. ध्वनि का स्तर प्रदूषण तक बढ़ चुका है. स्पर्श यदि इसको आत्मीय संबंधों तक माना जाए तो एकल परिवारों की संख्या बढ़ने से वह अवश्य सीमित हुआ है. जहां तक शब्दों की बात है तो वह भी बस्ते के बोझ के साथ बढ़ा ही है. भले ही कंप्यूटर के माध्यम से हो, शब्दों के बिना आधुनिक शिक्षापद्धति भी लंगड़ी है. हां संवेदनात्मक अनुभूतियों में कमी अवश्य आई है. लेकिन ज्ञान को जब सूचनाओं के रूप में देखा जाएगा, शिक्षा जब ‘उत्पाद’ के रूप में बाजार में उपलब्ध होगी, बच्चे जब माता-पिता और परिजनों के बजाय आया की गोद में बचपन बिताएंगे, तो ये संकट आएंगे ही. इसके बावजूद मुझे नहीं लगता कि भारतीय समाज पर विचारहीनता के फैलाव अलावा कोई और संकट है. समाज-व्यवस्था को जर्जर बताना तो घोर पूर्वग्रहग्रस्तता है. भारतीय समाज इन दिनों संक्रांतिकाल से गुजर रहा है. शताब्दियों से दबे-कुचले, उपेक्षित, उत्पीड़ित जन लोकतांत्रिक परिवेश का लाभ उठाकर अपने अधिकार के लिए प्रयत्नरत हैं. इससे राजनीति में स्वाभाविक अस्थिरता और उथल-पुथल है. पूरा समाज आड़ोलन में है. अन्ना हजारे के आंदोलन जागरूक होते समाज की परिणति है. वरना भ्रष्टाचार तो समाज में शताब्दियों से रहा है. लोगों का क्षुब्ध होकर भावावेश में सड़कों पर उतर आना, हमारी लोकतांत्रिक प्रबुद्धता की ओर संकेत करता है. यथास्थितिवादियों को यही नागवार गुजर रहा है. अवश्यंभावी परिवर्तन को सहर्ष स्वीकारने के बजाय शताब्दियों से शीर्ष पर विराजमान रहे लोग प्रतिक्रियावादी आचरण कर रहे हैं. अपनी चिंताओं को वे परंपरा और सांस्कृतिक अपसंस्करण की शिकायत के रूप में सामने ला रहे हैं. एक बड़ी चुनौती परिवर्तनवादियों के सामने भी है. जिस लोकतांत्रिक प्रणाली के सहारे वे परिवर्तन की आस लगाए हुए हैं, वह स्वयं सवालों के घेरे में है. उसमें वे सभी विकृतियां प्रवेश कर चुकी हैं जिसके आधार पर हजारों वर्ष पहले प्लेटो ने उसकी आलोचना की थी. अस्मिताओं के संघर्ष को राजनीति और बाजार अपनी-अपनी तरह से भुनाने में लगे हैं. बाजार तरह-तरह के लुभावने अपररूपों के साथ सामने आ रहा है. दीपावली, दशहरा जैसे पर्व तो पहले ही बाजार के कब्जे में थे, अब करवाचौथ, तीज जैसे दांपत्य जीवन से जुड़े पर्वों, परंपराओं पर भी बाजार का अधिपत्य है. राजनीति का उथलापन सत्ता में बने रहने के लिए नए-नए कर्मकांड रच रहा है. इसका हालिया उदाहरण ए. के. रामानुजम् के अतिमहत्त्वपूर्ण लेख को दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से हटाया जाना है. कभी जातक कथाओं, पऊम चरिय, रामायण के अलावा श्रुति और लोककाव्य में सैंकड़ों प्रकार से सुनी-सुनाई जाने वाली रामकथा को किसी एक ढांचे में कैद कर देने का अभिप्राय है कि राजनीति के लिए कबीर के राम किसी काम के नहीं है. आगे जो भी राम चलेंगे वे तुलसी के वीरभेषधारी राम ही होंगे. कट्टरपंथी भूल जाते हैं कि भारत की जमीन पर निरंकुशता के बीज पनप ही नहीं सकते. कुछ समय जनता को भले ही बरगला लें, कालांतर में उनकी पराजय सुनिश्चित है. ज्ञान के सूचनात्मक हो जाने से समन्वय की प्रवृत्ति कमजोर पड़ी है. इससे हर क्षेत्र में असहिष्णुता का वातावरण है. इसलिए आवश्यकता समाज के विवेकीकरण की है; न कि विचारहीनता के जंगल में अरण्यरोदन की.

‘हिंदी के लेखकों को अपनी नाम-लिप्सा से दूर होकर आज के समय के मुताबिक नए विषयों पर पुस्तकें तैयार करनी चाहिए….कवियों को पहले यह सोचना चाहिए कि वे कविता लिख क्यों रहे हैं. वही पुराने बिंब, पुराने मिथक, चिड़िया, खाने की चीजें….देखें कि क्या उनकी किताब कोई उठाकर खुद पढ़ रहा है….’
बात समझ में आने वाली है. साहित्य का नए क्षेत्रों में पदार्पण होना ही चाहिए. हाशिये के पात्रों, चरित्रों, समाजों, विषयों और विधाओं को लेकर लेखन होना चाहिए. लेखक समय के संदर्भ में सर्वकल्याण के ध्येय से कलम उठाएगा तो लोग इतने कृतघ्न भी नहीं हैं कि अपने शुभचिंतक को बिसरा दें. हां, नाम-लिप्सा के वशीभूत गढ़ेगा तो उसका नाम-काम दोनों समय की लहरों पर बिला जाएंगे. लेकिन अभिव्यक्ति के लिए लेखक कौन से पात्रों का सहारा ले, यह उसका अपना चयन है. अधिकार है उसका. हालांकि लेखक होने के नाते उसकी मुश्किलें कम नहीं हैं. यदि वह पुराने को त्यागकर सर्वथा नए को अपनाए तो उसे बाजारवादी कहकर धिक्कारा जाएगा. यदि नए की ओर से मुंह फेरकर बैठा रहा तो परंपरावादी. सवाल है कि क्या कोई बालकविता मात्र चिड़िया, कबूतर अथवा खाने-पीने की चीजों पर केंद्रित होने के कारण हेय जाती है? साहित्य क्या केवल पात्रों और घटनाओं का सिलसिला है? बालसाहित्य से गांव पहले ही हाशिये पर हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि गांव के प्रतीकों को भी मिटाने की साजिश रची जा रही हो? आज भी किसी छोटे बच्चों को चित्र बनाने को दिए जाएं तो उनके बनाए आधे से अधिक झोपड़ी, कुआं, उगते हुए सूरज के होंगे. इसलिए कि उसको पढ़ाया जाता है कि भारत गांवों में बसता है. गांव हम बड़ों की स्मृति का भी हिस्सा है. वह रहा तो गाय, गोबर, चिड़िया, मिथक आदि रचना में आएंगे ही. साहित्य के लिए इन्हें वज्र्य कहकर क्या आप हमारी स्मृति को प्रदूषित कर देना चाहते हैं! हुजूर, चिड़िया पर लिखी कविता की आवश्यकता गांव के बच्चों को नहीं है. वे अपना बचपन पशु-पक्षियों के बीच जीते हैं. उनके लिए कविता लिखी भी नहीं जाती. कोई लिखे तो उन तक पहुंच नहीं पाएगी. पर शहरी बच्चों से पूछ लीजिए, उनमें से कितनों से चिड़िया को ‘लाइव’ देखा है? पर्यावरण की मार चिड़िया, कबूतर, कौआ, बाज जैसे मासूम पक्षियों पर पड़ी है. आप उसको कविता से भी गायब कर देना चाहते हैं! ध्यान रहे कविता में चिड़िया का होना संवेदना की मौजूदगी का प्रतीक है. यदि संवेदना ही न रही तो कविता क्या खाक बचेगी! चिड़िया और खाने-पीने की चीजों के स्थान पर आप जो लाना चाहते हैं, वह आप जानें, परंतु मित्र साहित्यत्व विधाओं और विषयों तक सीमित नहीं होता. साहित्यत्व वह प्रभाव है जिसके लिए कोई रचनाधर्मी अपनी कलम उठाता है. पाठक द्वारा रचना का पाठ पूरा कर लेने के बाद भी यह उसके मन-मस्तिष्क में बना रहता है. साहित्यकार का काम बालक को शिक्षित करना नहीं होता. न ही प्रश्नोत्तर साहित्य का धर्म है. उसके लिए अन्यान्य विषय और विशेषज्ञ हैं. साहित्यकार का कर्तव्य अपनी रचना के माध्यम से पाठक के मन में प्रश्नाकुलता पैदा करने से हो जाता है.

साहित्यिक लेखन के पीछे नाम लिप्सा भले उत्प्रेरक शक्ति के रूप में काम करती हो. उसकी मूल प्रेरणा, सृजनात्मकता का आधार उसकी नैतिक संप्रेरणाएं तथा मानवमात्र के प्रति कल्याण की भावनाएं होती हैं. कल्याण-भाव के साथ साहित्यकार उसी को शब्द देता है. आंतरिक नैतिकता और कल्याण-भाव के साथ कलम उठाने वाले साहित्यकार को इस बात के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता कि वह क्या लिखे….क्या न लिखे. अपनी सदेच्छाओं को वह चाहे जिस रूप में अभिव्यक्त करे, उसका खुलेमन से स्वागत होना चाहिए. समीक्षक का अधिकार केवल इतना है कि वह रचना के प्रस्तुतीकरण तथा मौलिकता पर बात करे. यदि साहित्यकार के पास मौलिक दृष्टि है तो वह चिड़िया तो क्या मामूली तिनके पर भी अविस्मरणीय रचना दे सकता है. और लोगों ने लिखी भी हैं. यह क्षेत्र समीक्षकों की जवांमर्दी दिखाने का हरगिज नहीं है.

पंकजजी सर्वथा गलत भी नहीं हैं. हिंदी बालसाहित्य के आगे ढेर सारी चुनौतियां हैं. लेकिन वह सब गैरपरंपरागत किस्म की हैं. कला, कला के लिए….साहित्य, साहित्य की बहस पुरानी पड़ चुकी हैं. पर इसके चलते हिंदी बालसाहित्यकार अपने आरंभ से ही अतीतमोह का शिकार बना है. बालसाहित्यकार सामान्यतः यही सोचकर कलम उठाता है कि बच्चे को कुछ पढ़वाना है. वह भूल जाता है कि साहित्य का काम पाठक के निर्णय-सामथ्र्य में वृद्धि करना है. इधर तकनीक और बाजार जितनी तरक्की कर रहे हैं, पूंजी के दम पर बालक के चारों ओर उपकरणों को जो जाल बुना जा रहा है, उसमें आवश्यक है कि बालक को विज्ञान और तकनीक संबंधी आधुनिकतम शोधों की जानकारी हो. परंतु इसके साथ उसमें यह विवेक जाग्रत करना भी अनिवार्य है कि कौन-सी तकनीक तात्कालिक रूप से उपयोगी है और किसको उसे भविष्य के लिए छोड़ देना चाहिए. एक अन्य चुनौती लोकतंत्र की खूबियों-खामियों से बालक को परचाने की भी है. नई पीढ़ी लोकतांत्रिक परिवेश में सांस ले रही है. लेकिन घरेलू संस्कारों से लेकर संस्कृति और समाज का ढांचा आज भी सामंती बना हुआ है. इस माहौल को तभी सुधारा जा सकता है कि जब पूरा समाज लोकतंत्र की खूबियों-खामियों के प्रति सचेत हो. विचारहीनता का संकट बालसाहित्य को भी प्रभावित कर रहा है. ऊपर से समीक्षकों के अपने अंतर्विरोध हैं. वे मानसिक रूप से परंपरा और संस्कृति के दबाव में होते हैं, जबकि उनकी जीवनचर्या बाजार तय करता है. ऐसे में समीक्षा रस्मअदायी बनकर रह जाती है. हिंदी बालसाहित्य के अलावा शायद ही कोई और क्षेत्र हो जहां समीक्षा की कोई कसौटी बनाए बिना ही इतिहास लिखे जा रहे हों.

इस लेख की एक और अजीब स्थापना की ओर ध्यानाकर्षित कराना चाहूंगा-

‘जब तक लेखक महंगा नहीं होगा, तब तक न तो उसका सम्मान बढ़ेगा, न ही पुस्तकों का.’
गोया लेखन न हुआ, ब्रांड हो गया. जिसका ऊंचा दाम, उसका ऊंचा नाम. लेखक लगता है साहित्य के रीतिकाल को वापस लाना चाहते हैं. अगर महंगा होना ही कसौटी है तब तो कबीर, नानक, रविदास की परंपरा को उनकी नजर से खारिज हुई समझो. पंकजजी को जे. के. रोलिंग नामक लेखिका की याद अवश्य होगी. वे दुनिया के सबसे महंगे लेखकों में हैं. संभवतः सबसे अधिक कमाई की है उन्होंने. परंतु जिस ‘हैरी पा॓टर’ पुस्तक शृंखला से उन्होंने नाम और नामा कमाया है, जिसकी करोड़ों प्रतियां अंग्रेजी और विभिन्न भाषाओं में अनुवाद के बाद खप चुकी है, उसको स्वयं अंग्रेजी साहित्य जगत साहित्यिक कृति नहीं मानता. अंग्रेजी बालसाहित्यकारों में प्रतिष्ठा ‘हिज डार्क मैटीरियल’ पुस्तक त्रयी के रचनाकार फिलिप पुलमेन की है. पुलमेन ने परीकथाओं को नए अंदाज में लिखा है.

पंकजजी का यह कहना, ‘परिवर्तन इतना तेज है कि ‘कल्पना का घोड़ा भी उससे पराजित हो जाए.’—एकदम उचित है. उनकी इस बात से असहमति का भी कोई कारण नहीं है कि बच्चों के लिए नए विषय साहित्य में सम्मिलित करने चाहिए. नए विषयों को लेकर रचनाएं आनी चाहिएं. लेकिन मैं कहता हूं कि साहित्य क्या केवल पात्रों तक सीमित होता है. राजा-रानी को केंद्र बनाकर क्या लोकतंत्र को महत्त्व देती, सामंतवाद को धिक्कारती हुई कहानी नहीं लिखी जा सकती? इस लेख पर कहीं न कहीं पंकजजी की पत्रकारीय त्वरा का प्रभाव है. मेरा दृढ़ विश्वास है कि साहित्यत्व पात्रों या घटनाओं में नहीं, उस प्रभाव में छिपा होता है, जिसको पाठक रचना पढ़ते समय तथा उसके बाद अपने मानस पर महसूस करता है. या जिसके आवेग में कोई रचनाकार कलम उठाता है. विज्ञान के यंत्र, उपकरण, लैव को लेकर लिखी गई कोई भी कहानी विज्ञानकथा नहीं बन जाती. वैसे ही राजा-रानी की मौजूदगी से उसका सामंतवादी होना आवश्यक नहीं है. मेरा विनम्र निवेदन है कि पंकजजी अपने लिखे पर पुनः विचार करें, ताकि बालसाहित्य को एक दिशा मिल सके. वे बहुपठित-बहुश्रुत लेखक हैं, जो भी लिखेंगे उसकी धमक दूर तक जाएगी. ऐसे में सावधानी आवश्यक है.

ओमप्रकाश कश्यप

Wednesday, November 9, 2011

लट्टू

-रमेश तैलंग

छत पर चारपाई बिछाए ताऊजी धूप का आनंद ले रहे थे, तभी उनकी चार वर्षीय भतीजी छवि उनके पैंताने आ कर खड़ी हो गई और सिसक-सिसक कर रोने लगी।



ताऊजी ने छवि के सिर पर प्यार भरा हाथ फिरा कर पूछा-‘अरे ..अरे! मेरी बिटिया क्यों रोए जा रही है?
ऊं .... ऊं ....ऊं .. मेला लत्तू नहीं धूमता, ऊं .... ऊं ....ऊं।’ छवि ने सिसकते हुए जवाब दिया।
‘बस्स ..! जरा दिखाना तो, मैं भी देखूं क्यों नहीं घूमता मेरी छवि बिटिया का लट्टू।’ कहते हुए ताऊजी ने छवि के हाथों से लट्टू और रस्सी दोनों ले लिए फिर ठहाका मार कर हंस पड़े।
‘धत् तेरे की! ये लट्टू कैसे घूमेगा? इसमें तो कील ही नहीं है।
‘पल दोलू ता तो धूमता है। मैं दोलू ता लत्तू लूंदी ताऊजी।’
‘अरे, छोड़ गोलू का। मैं इसी में कील लगाए देता हूं फिर देखना कैसे घूमता है यही लट्टू सररर ...सररर ...।’
‘नई, ये दन्दा है। मैं दोलू ता लत्तू लूंदी ताऊजी।’
‘अच्छा ... अच्छा ले लेना गोलू का।’ ताऊजी ने छवि को जिद पकड़ते देखा तो गोलू को आवाज दी।
गेलू छत पर आया तो सामने छवि को देखते ही समझ गया कि उसके लट्टू को हथियाए जाने की योजना बन रही है। इसलिए उल्टे पैरों जीने की तरफ भागते हुए बोला - नहीं पापा, मैं नहीं दूंगा अपना लट्टू।’
‘अर, अरे, बात तो सुन ...।’ ताऊजी ने गोलू को रोकने की कोशिश की पर तब तक वह बाहर का गेट खोल कर सड़क पर निकल चुका था। ताऊजी अब फिर परेशानी में पड़ गए थे। एक बार उनके जी में आया कि बाहर जा कर एक थप्पड़ जमाएं गोलू को और छीन लाएं उसका लट्टू। फिर सोचा-‘एक को खुश करने के लिए दूसरे को दुखी करने से क्या फायदा।’
इसलिए उन्होंने दूसरी तरकीब निकाली। छवि का लट्टू उठा कर वह जीना उतर गए। साथ ही छवि को बोल गए कि वह छत पर ही बैठे तब तक वे गोलू का लट्टू लाते है।



नीचे जा कर उन्होंने कमरे की टांड़ से हथोड़ी और कीलों का डिब्बा उठाया और वहीं निचली सीढ़ी पर छवि के लट्टू में कील ठोकने लगे। कील ठुक गई तो उन्होंने जैसे ही गर्दन ऊपर उठाई तो देखा - सामने छवि खड़ी थी। ताऊजी को लगा, जैसे उनकी चोरी अनायास पकड़ ली गई हो, पर झांसा देने की कोशिश में वह छवि को वही लटृटू थमाते हुए बोले-‘ले बिटिया, मैं ले आया गोलू का लट्टू।’
छवि की आंखों में क्रोध और आंसू साथ-साथ भरे थे। उसने एक बार लट्टू को घुमा-फिरा कर देखा फिर झटके से नीचे की ओर यह कह कर फेंक दिया-‘ये दंदा है। ये नई हैं दोलू ता, मैं दोलू ता लत्तू लूंदी।’
ताऊजी अब हार गए थे। उन्होंने झुंझला कर छवि को दोनों हाथों से उठाया और आंगन में खड़ा करके छोड़ आए- ‘नहीं लेना है तो न ले, अब रोती रह अकेले, मैं तो चला ऊपर।’
ताऊजी के छत पर जाते ही छवि जीने पर बैठ गई और घुटनों में मुंह छिपा कर फिर रोने लगी।
कुछ देर बात गोलू खेल-खाल कर वापस घर में आया तो छवि की सूजी हुई आंखों को देख कर उसे दया आ गई। छवि के पास आ कर उसने पूछा-‘रो रही हो?’
छवि का कुछ जवाब न मिलने पर उसने फिर पूछा-‘लट्टू लेगी मेरा?’ इस बार छवि की गर्दन सकारात्मक रूप से ऊपर से नीचे की ओर हिली।
‘ले ...’ कहते हुए गोलू ने छवि को अपना लट्टू और रस्सी दोनों पकड़ा दिए।
लट्टू-रस्सी पाते ही छवि का चेहरा फिर खुशी से दमक उठा। वह भागती हुई छत पर चढ़ गई और ताऊजी की चारपाई के पास लट्टू घुमाती हुई बोली - ‘देथो ताऊजी, ये लत्तू तेथे धूमता है? धूमता है न? ताऊजी ने लेटे-लेटे करवट ली और लट्टू पर निगाह डालते हुए बोले-‘अरे हां बिटिया, ये तो सच में घूम रहा है।’
‘अच्छा हैं न?’
‘बहुत अच्छा। क्या ये गोलू का है।’ ताऊजी ने शरारत भरे स्वर में पूछा।
‘छवि के मुंह से ‘हां’ निकलते-निकलते रह गई। उसने लपक कर लट्टू जमीन पर से उठा लिया और फ्राॅक के अंदर छिपा कर बोली-‘नईं.... .... दोलू ता नईं है ... ये मेला लत्तू है।’
छवि अब ताऊजी के बिलकुल नजदीक आ कर उनसे करीब-करीब लिपट चुकी थी। फिर उसने आशंकित स्वर में ताऊजी से पूछा-‘इसे दोलू तो नहीं थुलाएदा, ताऊजी!’
‘नहीं बेटी ...इसे कोई नहीं छुड़ाएगा।’
छवि अब पूर्ण रूप से आश्वस्त हो कर ताऊजी के साथ लेट गई थी।


चित्र सौजन्य: गूगल सर्च

तितली उड़ी

-रमेश तैलंग


चंकी! बारह साल का लड़का। बिलकुल तुम्हारी तरह, थोड़ा नटखट और शैतान।
हर रोज सुबह होते ही वह कंपनी बाग की ओर निकल जाता। चंकी के मम्मी-पापा सोचते, अच्छा लड़का है। सबेरे से उठता है, घूमने जाता है। साथ में किताबें भी ले जाता है। सुबह की ताजी हवा में तन-मन दोनों स्वस्थ रहते हैं। स्मरण शक्ति भी ठीक काम करती है। फिर चंकी है भी पढ़ाई-लिखाई में तेज। पर यहां उसकी पढ़ाई-लिखाई की बात थोड़े ही हो रही है। यहां तो बात हो रही है उसके पागलपन तक आए शौक की। शौक भी कैसा? तितलियां पकड़ने का।
चंकी को रंग-बिरंगी तितलियां ज्यादा ही लुभातीं। वह उन्हें पकड़ने के लिए उनके पीछे-पीछे भागता। पर तितलियां क्या ऐसे हाथ आती हैं भला? चंकी उन्हें पकड़ने के लिए जैसे ही हाथ बढ़ाता, वे फुर्र से उड़ जातीं इधर से उधर। हां, कभी-2 इक्की-दुक्की तितली हाथ आ भी जाती चंकी के। फिर जानते हो, चंकी क्या करता उसका? झट से अपनी किताब के पन्नों के बीच में दबा देता। च्च। च्च। च्च! बेचारी तितली। पन्नों के बीच में दबते ही प्राण-पखेरु उड़ जाते उसके।
तुम पूछोगे, चंकी को दुख नहीं होता तितली के मरने का? बिलकुल नहीं। उसे तो खुशी होती कि उसकी किताब के पन्नों के बीच एक नहीं, दो नहीं, पूरी पच्चीस तितलियां बंद हैं। मर गई तो क्या हुआ? उसका जब मन करता है, उनके रंग-बिरंगे पंख तो छू कर देख लेता है वह।

तितलियों वाली किताब चंकी को सबसे छुपा कर रखनी पड़ती घर में। यहां तक कि गुड्डी को भी उसकी खबर नहीं होती। उस दिन की बात चंकी भूला थोड़े ही था जब एक बार वह गुड्डी को भी ले गया था कंपनी बाग में। गुड्डी को चंकी का तितलियां पकड़ना और उन्हें किताब में कैद कर लेना बिलकुल अच्छा नहीं लगा था। उल्टा उसने तो चंकी को टोका था- ‘छिः ! छिः! भैया, ऐसे जीव हत्या करने से तो पाप लगेगा तुम्हें।’ चंकी ने गुड्डी को झड़प कर चुप कर दिया था- ‘अच्छा, अच्छा रहने दे अपना भाषण। कल से मत आना तू मेरे साथ।’
उस दिन के बाद से चंकी अकेला ही कंपनी बाग आता। लेकिन गुड्डी की ओर से उसे खटका बना ही रहता। कहीं तितलियां पकड़ने की बात उसने मम्मी-पापा का बता दी तो? पटाने के चक्कर में चंकी कभी-कभी टाॅफियां, बिस्कुट भी देता रहता गुड्डी को। इधर गुड्डी भी चंकी को धमकी देने के अंदाज में बोल देती- ‘क्या भैया, हर बात ये सस्ती टाॅफियां पकड़ा देते हो। आज तो केडबरीज मिल्क चाॅकलेट ही दिलानी पड़ेगी।’ गुड्डी की यह फरमाइश चंकी को भारी पड़ जाती। अपने जेबखर्च में कटौती करके उसे गुड्डी का मंुह बंद रखना पड़ता।
पर वो कहावत है न कि चोरी और झूठ छुपाए नहीं छुपते। बस, यही हुआ चंकी के साथ। एक दिन चंकी की देहरादून वाली बुआ छुट्टियों में आ पहुंची घर। पब्लिक स्कूल में पढ़ाती थीं वे, इसलिए सभी उन्हें टीचर बुआ कह कर पुकारते थे। वे एक दिन बैठक में झाड़-पोंछ कर रही थी, तभी सोफा-कवर के नीचे रखी कोई सख्त चीज महसूस हुई उन्हें। यह वही किताब थी जिसमें चंकी ने मरी हुई तितलियां कैद कर रखी थीं। टीचर बुआ को जब गुड्डी से सारा किस्सा मालूम हुआ तो शाम को उन्होंने चंकी को बुला कर पूछा-‘‘चंकी, तुम्हें तितलियां बहुत पसंद हैं?’
‘बहुत, टीचर बुआ!’ चंकी ने उत्तर दिया।
‘मुझे भी बहुत पसंद हैं।’
‘सच, टीचर बुआ?’
‘और नही ंतो क्या मैं झूठ बोल रही हूं? अच्छा सुनो चंकी, कल सुबह मैं, तूम, गुड्डी तीनों कंपनी बाग चलेंगे।’
‘प्रोमिज, टीचर बुआ? चंकी खुशी से उछल पड़ा सुन कर।’
प्रोमिज।’
अगले दिन टीचर बुआ, चंकी और गुड्डी तीनों सुबह-सुबह कंपनी बाग पहुंच गए। जैसी कि चंकी की आदत थी, तितली को देखते ही चंकी ने उसे पकड़ने की कोशिश की पर उससे पहले ही टीचर बुआ ने चंकी का हाथ पकड़ लिया और बोलीं-‘ठहरो, चंकी, आज हम तितलियों को हाथ से नहीं पकड़ेंगे बल्कि उन्हें बिना पकड़े ही कैद करेंगे।’
‘वा कैसे टीचर बुआ? चंकी खीझने लगा था टीचर बुआ पर।
‘ऐसे’! टीचर बुआ अब तक पर्स के अंदर से डिजिटल कैमरा निकाल चुकी थी और तितली पर निशाना साध कर उन्होंने ‘शटर’ दबा दिया था। इसके बाद चंकी और गुड्डी ने भी उड़ती तितलियों के कई चित्र खींचे थे। चंकी यह सोच कर खुश था कि उसके पास तितलियों क ेअब बहुत से खूबसूरत चित्र होंगे।
छुट्टियां खत्म होने पर जाते-जाते टीचर बुआ अपना कैमरा चंकी को दे गई थीं और अंग्रेजी में समझा गई थीं-‘शूट एवरी थिंग माय चाइल्ड, बट विद कैमरा, नाॅट वाय गन।’
चंकी ने टीचर बुआ की बात गांठ बांध कर रख ली थी।



चित्र सौजन्य: गूगल सर्च

किस्सा बनो बुआ का

किस्सा बनो बुआ का
-रमेश तैलंग




बनो बुआ की गप्प मंडली और खिलखिलाती हंसी दोनो ही सारे मोहल्ले में मशहूर थीं। उनके मोती जैसे दांत जब चमकते ता बिजली सी कौंध जाती आंखों के आगे। पर हाय री किस्मत! एक दिन उनका पैर सीढ़ी से क्या फिसला, चारों खाने चित्त हो कर पड़ गईं बनो बुआ। दायीं टांग और कमर में तो चोट आयी ही, आगे के चार दांत टूट कर गिर गए सो अलग।
अब असली दांत टूट गए तो या तो नकली दांत लगवाती बनो बुआ या फिर इस तीस साल की उम्र में छोटे-बड़ों से ‘बोंगी बुआ’, ‘बोंगी बुआ’ कहलवाती खुद को।
सोच में डूबी बनो बुआ कुछ फैसला नहीं कर पा रही थीं कि सलमा चाची ने उनके दिल के घावों को और हरा कर दिया। बोलीं- ‘ हाय बनो! तुम्हारी तो चांद सी सूरत ही बिगड़ गई। सुना है अब नकली दांत लगबाओगी तुम! मेरी मानो तो ये मसाले के दांत मती लगवाना, पता नहीं मरे क्या गंद-संद मिलावे हैं मसाले में। वो क्या कहें, आजकल तो सोने के दांत भी बन जावे हैं, वही लगवाना। दमक उठेगा ये मुखड़ा।’
सलमा चाची की बात बनो बुआ के कलेजे में सीधी उतर गई। उन्होंने निश्चय कर लिया कि लगवाऊंगी तो सोने के दांत ही लगवाऊंगी। बस, घर में जो थोड़ा-बहुत सोना था लगा दिया ठिकाने और बनवा लिये सोने के दांत।
कुछ दिन ही बीते थे कि सलमा चाची ने फिर एक उल्टा पांसा फेंक दिया। बोलीं-‘अरी बनो! ये क्या सुबह-शाम खीं ..खीं ..कर हंसती रहे है। सोने के दांत हैं, सबकी नजर में आते हैं। किसी दिन किसी चोर उचक्के की नीयत बिगड़ गई देख कर तो सीधा टेंटुआ दबा देगा। मैं कहूं हूं जरा मुंह बंद रखा कर अपना।’
सलमा चाची की बात सुन कर बनो बुआ के बदन में काटो तो खून नहीं। ये तो और मुसीबत मोल ले ली सोने के दांत लगवा कर। अब मोहल्ले की औरतें, बच्चे हंसी-ठठ्ठा करेंगे तो बनो बुआ क्या मुंह पर ताला लगा कर बैठेगी? हंसी के मौके पर हंसी तो आयेगी ही, हंसी आयेगी तो मुंह खुलेगा ही और मुंह खुलेगा तो सोने के दांत भी चमकेंगे चम-चम। पर किसी की नीयत सच में खराब हो गई तो? किसी ने सचमुच लालच में आकर गला दबा दिया तो। इन सवालों ने बनो बुआ की हंसी-खुशी सब छीन ली।
बनो बुआ को गुस्सा आता सलमा चाची पर। आखिर उन्ही के कहने पर तो लगवाये थे सोने के दांत। अब वो ही बातों-बातों में जान-माल का खतरा जता गईं।
पशोपेश में फंसी बनो बुआ एक दिन आईने के सामने बैठी थीं कि खुद को देख कर हैरान रह गईं। चेहरे पर आधा बुढ़ापा झलक आया था कुछ ही दिनों में। जब हंसी ही चली गई रूठ कर तो बनो बुआ की जवानी किसके बल पर ठहरती?
बस........बैठे-बैठे ही बनो बुआ को न जाने क्या सूझा कि उन्होंने एक झटके से अपने मुंह में फंसे सोने के दांत निकाल लिए और कमरे में पड़ी पेटियों के पीछे फेंक कर खुद से ही बोली- ‘ ले बनो! खत्म हुआ ये बबाल। अब खूब हंसा कर।
खिल-खिल...खिल।
बनो बुआ की गप्प मंडली, जिसमें अब सलमा चाची को छोड़ कर मोहल्ले की लगभग सभी औरतें और बच्चे हाते, फिर पहले की तरह जुड़ने लगीं। खूब चुहलबाजियां होतीें, मजाब होते और बनो बुआ जी खोल कर हंसतीं। बनो बुआ का बोंगा मुंह देख कर बच्चे भी खुश होते और बार-बार कहते- ‘बनो बुआ! और हंसो! बेंगी बुआ, और हंसो!’ बच्चों के साथ बनो बुआ हंसती ही चली जाती, खिल...खिल...खिल...खिल!


चित्र सौजन्य: गूगल सर्च

Monday, November 7, 2011

मेरी चार ग़ज़लें

(व्यंग्य-यात्रा-नवंबर २०११ अंक से साभार )

१.
साठ-सत्तर फीसदी दर पर खरीदी जाएंगी
और फिर ताबूतों में सब बंद कर दी जाएंगी.

वाह री किस्मत, किताबें हिंदी में साहित्य की
अब दहाई में बड़ी मुश्किल से बेचीं जाएंगी.

ज़िन्दगी अपनी खपा कर चल दिए लिख-लिख के जो,
खावाहिशें उनकी सुना है बस अधूरी जाएंगी.

चार, छह तमगे, समोसे, चाय और कुछ तालियाँ
लेखकों के साथ अब ये चंद चीजें जाएंगी.

सोचता हूं, क्या करेगा आदमी बाज़ार में
जब सभी संवेदनाएं जब्त कर ली जाएंगी.

२.

वह कहता था, वह शब्दों की खेती करता है.
और ज़िन्दगी जीते-जीते, पल-पल मरता है.

खुद्दारी पहचान बनी जब से उसकी, तब से
हर आईना उससे नज़र मिलाते डरता है.

अस्पताल में एक दिन शैया पर वह पड़ा हुआ
लगा पूछने -'खोटा सिक्का कब तक चलता है?

उसको अक्सर ही दौरे आते ठे अजब-अजब,
जिन्हें ज़माना बहुत बड़ा पागलपन कहता है.

बुरे वक्त में एक कलम की पूँजी थी उसकी,
पास अदीबों के इससे ज्यादा क्या रहता है?

३.

सच कहा साहित्य से रोटी नहीं चलती.
क्या करूँ, मन पर ज़बरदस्ती नहीं चलती.

ज़िन्दगी में दुःख लिखे हैं तो चलो ये ही सही,
ज़िन्दगी में हर समय मस्ती नहीं चलती.

वो नदी हो या समंदर पर सुना हमने यही
हौसलें टूटे हों तो कश्ती नहीं चलती.

शौक से पाला है जिसने भी जुनूँ फनकारी का
उसके पेशे में कभी ज़ल्दी नहीं चलती.

जिसको जो देना था उसने वो खुशी से दे दिया
उसके आगे आपकी मर्ज़ी नहीं चलती.

४.

वो जहां होगा मचायेगा वहां पर शोर ही.
रोशनी को खींच कर लाएगा कोई और ही.

देख लो इतिहास का पन्ना कोई भी खोल कर
इंकलाबी पहला होगा बस कोई कमज़ोर ही.

रहनुमाई में रखा है मुझको जब से आपने
जानलेवा लग रहा है अपने मुंह का कौर ही.

वो तरक्की क्या संवारेगी हमारी ज़िन्दगी
जो हमें लगती रही ताउम्र आदमखोर ही.

-रमेश तैलंग
09211688748









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