Thursday, November 23, 2017

द्विपदी.........




वही चुनावी पैंतरे, वही पुराने झूठ
छाया,फल की आस क्या, उनसे जो हैं ठूंठ
जो दुख मारें और के, वे ही हैं अरिहंत
जो अपना स्वारथ भरें वे काहे के संत
अधर लपेटे चाशनी, ह्रदय धरें दुर्भाव
भरें न पूरी जिन्दगी कटु बैनन के धाव
ज्ञान अहम् का जनक है, विनय ज्ञान का रत्न
जानें जो मानें नहीं सबसे बड़े कृतघ्न
कुए, बावड़ी, ताल सब जितने थे जलस्रोत
मरे शरम से देखकर, बोतल पानी ढोत
विद्या के मंदिर बने जबसे धन की खान
कलपुर्जों में ढल गये सब जीवित इंसान
हुआ दस गुना मूल से बढ़ते-बढ़ते सूद
देते-देते हो गया खुद का खत्म वजूद
संघर्षों का आदि है, मगर नहीं है अंत
एक अकेला आदमी, चिंता घणी अनंत

- रमेश तैलंग 

Monday, November 20, 2017

मुंबई पर पहली कविता


दो वर्ष हो गए मुंबई में
अपरिचितों की तरह रहते हुए
सेन्ट्रल पार्क की चहलकदमी भी
कुछ ख़ास काम नहींआई

तभी एक दिन मुझे लगा-
शहर कोई भी हो
वह तब तक आपको नहीं अपनाता
जबतक आप स्वयं उसे नहीं अपनाते.

एक बार खुले मन से
कोशिश करके  तो देखें
फिर ऐसा हो ही नहीं सकता
कि कुछ मुस्कराहटें
आपकी झोली में न आ गिरें


मुंबई इतनी भी बेमुरब्बत नहीं
कि आप अपना हाथ मिलाने को आगे बढाएं
और वह तपाक  से
अपना हाथ पीछे खींच ले

- रमेश तैलंग