३० मार्च, सन २००६ का दिन.
कथाकार एवं उपन्यासकार विनायक के बाल/किशोर उपन्यासों पर केंद्रित एक साहित्यिक समारोह में मुझे हिस्सेदारी करने हेतु लखनऊ जाने का अवसर मिला. विनायक का आमंत्रण था और उनके ही निवास पर आतिथ्य की व्यवस्था थी. वहाँ डॉक्टर शुकदेव सिंह, डॉक्टर श्री प्रसाद, डॉ. शम्भुनाथ तिवारी, डॉक्टर सुरेन्द्र विक्रम, अखिलेश श्रीवास्तव चमन, संजीव जैसवाल “संजय” तथा ज़ाकिर अली रजनीश सभी से सुखद भेंट हो गई.
विनायक जी के बहाने मेरा एक कार्य और सिद्ध होना था.. बड़ी ही इच्छा थी कि राजस्थान प्राच्य विद्या संस्थान, जोधपुर, के पूर्व निदेशक डॉक्टर पद्मधर पाठक जो पंडित श्रीधर पाठक के पौत्र हैं और लखनऊ में ही अपनी पुत्रियों (सुश्री सोनी और राधा) के साथ निवास करते हैं, का सानिध्य भी ग्रहण कर लिया जाए, फिर अल्प काल के लिए ही क्यों न सही.
पद्मधर पाठक जी के परिवार से मेरे और मेरी पत्नी कमलेश के पारिवारिक, प्रगाढ़ एवं आत्मीय सम्बन्ध रहे हैं. जोधपुर छोड़कर जब से वे लखनऊ गए तब से उनसे मिलना नहीं हुआ था. शायद एक बार वे जोधपुर से हिंदुस्तान टाइम्स के दफ्तर में मुझसे अवश्य मिलने आये थे. तो सुअवसर निकाल कर मैं अपनी पत्नी कमलेश के साथ पाठक जी के अशोक नगर स्थित निवास पर पहुँच गया और दो दिन तक उनका सानिध्य लाभ ग्रहण किया. उस समय वे कुछ अस्वस्थ चल रहे थे पर ऊर्जा कि कोई कमी नहीं दिख रही थी उनमे.
यह एक विरल अवसर था जब उन्होंने अपने पितामह पंडित श्रीधर पाठक के बारे में बहुत सी अंतरंग बातें कीं और सस्नेह मुझे स्वयं द्वारा सम्पादित त्रिखंडीय श्रीधर पाठक ग्रंथावली भी भेंट की. इसके अलावा उन्होंने एक और दुर्लभ पुस्तक भेंट की “जय हिंद” जिसका मुखपृष्ठ निम्नवत है:
“जय हिंद
हमारा कौमी नारा व अन्य राष्ट्रगीत .
हिंदी के प्रथम राष्ट्रकवि श्रीधर पाठक रचित :
चयन : पद्मधर पाठक :
उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर
पंडित जवाहर लाल नेहरु की स्मृति में.”
पुस्तक का मुखपृष्ठ देखते ही मैं चौंका. पूछा- हिंदी के राष्ट्रकवि तो मैथिलीशरण गुप्त माने जाते हैं फिर ........ इस पर पाठक जी कुछ देर मौन रहे फिर बोले- इस पुस्तक में दो उद्धरण छपे हैं डॉक्टर हरिवंश राय बच्चन और मन्मथ नाथ गुप्त के. वे इस बारे में बहुत कुछ कहते हैं, उन्हें पढ़ लो. जय हिंद का कौमी नारा भी हिंदी को प्रथम बार देने वाले पंडित श्रीधर पाठक ही थे. उनकी जय हिंद रचना विक्रम संवत १९४२ यानी सन १८८५ में लिखी गई थी जब कान्ग्रेस कि स्थापना भी नहीं हुई थी.
संदर्भवश मैं इन दोनों उद्धरणों को साभार यहाँ दे रहा हूँ:
“ श्री हरिवंशराय बच्चन-
“पंडित श्रीधर पाठक के भारत-गीतों में देशभक्ति की धारा बहुत निर्मल होकर बही है. उनका “हिंद-वंदना” गीत बहुत प्रसिद्ध हुआ-
जय देश हिंद, देशेष, हिंद
जय सुखमा-सुख-निःशेष हिंद
यह कम सौभाग्य की बात नहीं है कि जिस “जय हिंद” को सुभाषचंद्र बोस ने आज़ादी कि पहली सेना में सलामी का शब्द माना था और जिससे हमारे देश में एक दिन बिजली की-सी लहर दौड गई थी और जो आज भी हमारी कौमी सलामी का शब्द है, वह “जय हिंद” पहली बार एक हिंदी कवि की लेखनी से निकला था. पाठक जी के गीतों में जहां हिंदुओं में देशभक्ति जगाने की पूर्ण क्षमता है, वहाँ उनके कुछ भी ऐसा संकुचित, संकीर्ण, पक्षपातपूर्ण नहीं, जिससे किसी मुसलमान को किसी तरह की चोट पहुंचे, हाँ थोड़ी उदारता की अपेक्षा उससे भी की जायेगी. पाठक जी से प्रेरणा लेकर बहुत से कवियों ने भारत वंदना के गीत गाये....(“बच्चन रचनावली-खंड-६, पृ.२०३, राजकमल प्रकाशन,१९८३)”
श्री मन्मथ नाथ गुप्त –
कांग्रेस के जन्म से पूर्व ही पाठक जी अपनी कविता में स्वाधीन भारत का स्वप्न देख और दिखा चुके थे. वस्तुस्थिति यह है कांग्रेस ने बहुत बाद में जाकर स्वाधीनता का नारा दिया. श्रीधर पाठक ने “हिंद-वंदना” में गाया था-
जय देश हिंद, देशेष हिंद
जय सुखमा-सुख-निशेष हिंद
जय जयति सदा स्वाधीन हिंद
जय जयति जयति प्राचीन हिंद.
यहाँ और एक पहलू पर ध्यान दिलाना उचित होगा. नेताजी सुभाष द्वारा दिया हुआ नारा “जय हिंद” की जड़ें बहुत गहरी थीं, श्रीधर पाठक तक में भी थीं, इसी कारण वह एकाएक इतना जनप्रिय हुआ. श्रीधर पाठक हिंदी के प्रथम और प्रमुख राष्ट्र कवि थे. उनके बाद आये मैथिलीशरण और दिनकर.”
(द्विवेदीजी के पत्र-पाठकजी के नाम पृ. १८५, गिरिधर प्रकाशन, जोधपुर, १९८२)
मेरी व्यक्तिगत धारणा है कि इन दो उद्धरणों से स्थिति काफी कुछ स्पष्ट हो जाती है.
श्रीधर पाठक जी की “हिंद वंदना” ९० पंक्तियों का कौमी तराना है.
श्री पद्मधर पाठक जी के कथंनानुसार –“एक उल्लेखनीय संयोग और बनता है. इस कौमी नारे की रचना उसी प्रयाग (इलाहाबाद अथवा पंडित मोतीलाल नेहरु के कथनानुसार फकीराबाद) में हुई थी, जहाँ आगरा छोड़ पाठकजी व मोतीलालजी दोनों चले आये थे और धीरे-धीरे प्रयाग राजनीतिक हलचल का केंद्र बनता गया.”
श्रीधर पाठकजी की “हिंद वंदना” को पाठक यदि चाहेंगे तो अगली बार पूरी रचना को उद्धृत करने का प्रयास करूँगा.
संभव हुआ तो उनके बारे में कुछ और भी चर्चा करने का विनम्र प्रयास करूँगा. तब तक के लिए अल्प विराम....
श्रीधर पाठक जी की इस चर्चा को पढकर अच्छा लगा।
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मौलवी और पंडित घुमाते रहे...
सीधे सच्चे लोग सदा दिल में उतर जाते हैं।
धन्यवाद ज़ाकिर भाई. यादराम रसेंद्र और अनंत कुशवाहा पर आपने कोइ अच्छा काम किया है. कृपया विवरण देने की कृपा करें. ब्लॉग के बहाने और कुछ हुआ हो या नहीं पर आपसे संवाद तो बना. यही खुशी है.
ReplyDeleteप्रिय तैलंग,
ReplyDeleteबहुत अच्छा संस्मरण और बहुत सी नई जानकारियाँ पं. श्रीधर पाठक के बारे में। पढ़कर बहुत अच्छा लगा।
प्यारे भाई, तुम्हारे भीतर अपने से बाहर आकर दूसरों के मन में झाँकने और उन पर कुछ करने की इच्छा है, यह बड़ा ही शुभ काम है और मैं जानता हूँ, तुम इसे जरूर कर सकते हो। तुम्हारी आँखों में जागते सपने मैं देख सकता हूँ और कामना करता हूँ कि वे पूरे हों। जहाँ दूसरे लोग अपने से बाहर आकर किसी को देखने-पढ़ने को ही राजी नहीं हैं, वहाँ ऐसी तड़प बड़ी विरल है।
पर भाई, नानी की चिट्ठी में रंगों की ऐसी चकाचौंध क्यों। वहाँ तो किसी सादा से घर के लिपे हुए आँगन की सी सादगी और शांति होनी चाहिए। मेरा खयाल है, थोड़ा इस पर विचार करोगे।
सस्नेह, प्र.म.
आत्मीय मनुजी,
ReplyDeleteआपका हर शब्द हर वाक्य मेरे लिए विचारणीय और स्पृहणीय है. कभी कभी बुढ़ियाई आँखें भी चकाचौंध में फंस जाती हैं. ध्यान रखूंगा कि नानी अल्ट्रा मोडर्न न बने पर सामयिक सन्दर्भ से अछूती भी न रहे. सादर र.तै.