(पंजाबी के यशस्वी एवं वरिष्ठ कवि, विद्वान्, आलोचक डॉक्टर हरभजन सिंह की सरस्वती सम्मान से अलंकृत काव्यकृति "रुख ते ऋषि" पर मेरे एक संक्षिप्त आलेख रविवासरीय हिंदुस्तान में काफी समय पहले प्रकाशित हुआ था. अपने इस ब्लॉग पर उसे पुनर्प्रकाशित कर मै डॉक्टर सिंह के प्रति अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा हूँ: )
अनेक शिखर पुरस्कारों से सम्मानित डॉक्टर हरभजन सिंह की कृतियों का पाठक वर्ग पंजाबी से कहीं अधिक इतर भाषाओँ मे उपस्थित है. डॉक्टर सिंह के व्यक्तित्व मे जहाँ परिपक्वता एवं विनम्रता दोनों का मणि-कांचन योग है, वहीँ उनके कृतित्व मे अक्खडपन और फक्कडपन, चिंतन और दर्शन के मिले-जुले तत्व देखे जा सकते हैं. समर्थ आलोचक एवं अनुवादक होने के बावजूद हरभजन सिंह अपने काव्य-कर्म के लिए ज्यादा ख्यात रहे हैं. उनका अनुभव संसार विस्तृत भी है और विविधतापूर्ण भी. जिंदगी के साथ उनकी कविता का रिश्ता मोह का, रौशनी का और असफलता का है. मुकम्मल असफलता के बाद भी वे पहले जैसे और रिश्ते जोड़ने से नहीं कतराते और अपनी गलतियों के नतीजे भोग कर फिर उसी तरह गलतियाँ करने के लिए तैयार रहते हैं. कविता उनके लिए आसमान से उतरी हुई दें नहीं, धरती से उगी सौगात है. उनके शब्दों मे - " पंजाबी कविता विशुद्ध दरवेशों की विरासत है] जिसका पैसे
से कोई सम्बन्ध नहीं.. एथे हाट न चलई न को वणज करे."
उम्र के तीन-चौथाई वसंतों के पार उनकी जीवन-यात्रा का फ्लेशबैक देखा जाये तो वहां दीखता है अल्पवय मे ही अन्नत हुआ एक बालक जो स्वाभाव से अंतर्मुखी एवं एकाकी है और कई मुश्किलों से जूझते हुए जो अपनी पढ़ाई ज़ारी रखता है. अध्ययन की सीढियां चढ़ने के साथ-साथ यही बालक युवा हो कर एक प्रौढ़ कवि के रूप स्थापित होता है. हरभजन सिंह का सम्पूर्ण जीवन तल्ख़ सच्चाइयों का एक वृहत संस्करण है, जिसमे कई कच्चे लेख हैं. इनमे से एक कच्चा लेख उनका सिख होना है. एक हिन्दुस्तानी होना है और एक पंजाबी होना है. वे नहीं मानते की सिख धर्म सवसे उत्तम है या कि पंजाबी सभी भाषाओं से श्रेष्ठ है. वे तो यह भी नहीं मानते कि " सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा ". अपने यतीम होने का ज्ज़िक्र भी वे यूँ करते हैं जैसे सीन पर तमगा टंगा हो.
उनके "न सराहने योग्य" अनुभवों मे सा एक टुकड़ा बचपन के उस अनुभव का है जिसमे एक मछली उनके हाथ से छिटक कर रास्ते मे गिर गई है. रात मे, पास लेती हुई बहन उन्हें कहानी नहीं सुनती, पूछती है - "तू मछली को राह मे अकेली क्यों फेंक आया? अगर कोई तुझे इस तरह फेंक आये, तो? बालक हरभजन रोने लगता है कि मछली को ढूंढ कर घर ले आया पर मछली नहीं मिलती. हरभजन सिंह के ही शब्दों मे यह उनकी जिंदगी का मॉडल है. शुरुआत का कच्चा लेख. "घर से दूर तड़पती मछली मेरे जिंदगी का ब्यौरा है, और लालटेन लेकर उसे ढूंढना मेरी कविता. अभी तक मैं मछली को ढूंढ नहीं सका, पर उसे ढूँढने का यातना भी नहीं छोड़ा. मेरे सामने मेरी ऐसे तस्वीर खडी है.
हरभजन सिंह की जिंदगी के फ्लैशबैक में अँधेरे और उजाले दोनों हैं. "अँधेरा ही ऐसा, जिसमे मनुष्य चाह कर भी मुक्त नहीं हो पता. "अँधेरा चला भी जाये/उसकी दहशत रहती है." इसीलिए शिखर पर चढ़कर भी वे पीछे देखने सा घबराते हैं या कहिए कि कतराते हैं. जीवन का यह बहुत बड़ा सच है कि वहां पीछे का मोह भी है और आगे का आकर्षण भिया वे स्वयं से कहते हैं - " पीछे मत देख, जहाँ केवल कुदरत है/आगे देख जहाँ कुदरत भी है, कार भी है." पीछे उनका बचपन है जो उम्र के रास्ते पर कहीं छित कर दूर जा पड़ा है. अब उसे ढूंढना सहज नहीं. "पानी में घुली हुई / नमक की डली ढूंढ सकता हूँ/पर अपने में समाया हुआ बचपन नहीं मिलता." जहाँ वे आज खड़े हैं और जहाँ कल उनका बचपन खोया था, इन दो बिन्दुओं को किसी सड़क ने बाँट दिया है. "सड़क" का प्रतीक हरभजन सिंह की कविता मे एकार्थी नहीं अनेकार्थी है. राग, द्वेष, घृणा आदि मनोविकारों की न जाने कितनी सड़के हैं जिन्होंने बिछड़े दिलों की बस्ती को बाँट रखा है. "जहाँ-जहाँ सड़क है/परस्पर बिछड़े दिलों की बस्ती है/भरपूर कायम है अब कहीं-कहीं अनबंटे मैदान/बस्तियों से पहले वहां आएँगी सड़कें /बसने से पहले ही सबको बाँट देगीं.
आत्मान्वेषण के मामले में हरभजन सिंह जितने निर्मम हैं, उतने ही ईमानदार भी. उन्हें अपने बारे में कोई ग़लतफ़हमी नहीं. वे अपने सौंदर्य और असौंदर्य दोनों से वक्किफ हैं. स्वयं को स्वयं के सामने प्रस्तुत करते समय व्यक्ति पर कोई आवरण नहीं टिक सकता,इसलिए वे जब भी अपने ऊपर से छिलके उतार कर गूदे तक पहुँचने की कोशिश करे हैं तो इस बात का हमेशा ध्यान रखते हैं."अपने सम्मुख खड़ा होना स्ट्रिपटीज जैसा कर्म है. स्ट्रिपटीज, जिसका कोई एवज नहीं. दुसरे जिसका जिस्म सुन्दर है वह तो स्ट्रिपटीज करे, मेरे जैसे अष्टावक्र को इस इलाके में प्रवेश का क्या हक है पर अपने सम्मुख होने के लिए अपना स्ट्रिपटीज ज़रूरी है. स्ट्रिपटीज सिर्फ आवरण उतरने का नाम नहीं, उसके साथ-साथ शर्म भी उतारनी पड़ती है. दूसरों की मौजदगी का भय शर्म को इतनी सहजता से उतरने नहीं देता. " कपड़ों से ज्यादा/मुझ पर शर्म को बोझ था/कपडे तो उतर जाते हैं/शर्म नहीं उतरती.ईश्वर से साक्षात मैली चुनरिया के साथ नहीं होता. हर कोई दास कबीर नहीं, जो बरसों तक इस चुनरिया को जातं से ओढ़कर ज्यों का त्यों रख दे. हरभजन सिंह मनुष्य के नाते अपनी इस कमजोरी को भी जानते हैं इसीलिए वे विनीत हो कर कहते हैं - " नहीं, नहीं, यह नहीं हो
सकता/ऋषिदेव! मुझे उसी रूप में स्वीकारो/जैसे में हूँ/जैसे में हो सकता हूँ.
हरभजन सिंह की कृति "रुख ते ऋषि" पर गुरु नानक जी देव के "जपुजी" का गहरा प्रभाव है पर उनके जीवन के कच्चे लेखों में बहुत कुछ ऐसा है जो उनके मित्रों, प्रशंसकों और निंदकों को न भये. उनके बारे में कोई भी राय अंतिम नहीं हो सकती. वे निर्भाव और निर्भीक रूप से अपने स्वाभाव और कर्मों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हैं-"मैं दुनिया में रह कर भी दुनिया से अलग हूँ. अपनी मात्रभाषा को भी अजनबियों की तरह इस्तेमाल करता हूँ. यह सांस्कृतिक दुर्गुण है. बेशक मैं अपनी संस्कृति का गुनाहगार हूँ."
हरभजन सिंह की एक कविता है-"तेरे दरबार में" जिसमे उनकी रूधि विरोधी, यथार्थजीवी और प्रगतिशील जीवन दृष्टि का परिचय मिलता है. कृष्ण चन्द्र लाल के शब्दों में "हरभजन सिंह प्रभु के ऐश्वर्या से चमत्कृत नहीं होते, बल्कि विरोध की नै चेतना से लैस होते हैं. उन्हें देवलोक सुहाता नहीं, उनमे वितृष्णा और घृणा पैदा करता है -"तेरे इन्द्र और तेरे देव अनेक/उम्र भर जिन्होंने कभिसाहे नहीं/सीने में शूल, देह में सेंक-तेरी परियां सदा जवान/अंगों के सांचे में जैसे ढला हो संगीत/मैं इतनी ऐश करूँ? यह मेरी
जुर्रत नहीं/यह मेरी हिम्मत नहीं/और फिर मुझे कब फुर्सत देता है तेरा ज़हान/तेरे दरबार में आया हूँ भगवान्/करके मदिरा स्नान."हरभजन सिंह की कविता यह तेवर "रुख ते ऋषि" नाम की लम्बी कविता से नदारद है. दरअसल "रुख ते ऋषि" की विचार भूमि दूसरी ही है. वहां उलझ हुए प्रतीक हैं और रहस्य की भूल-भुलैया. शब्दों में गुथी हुई कविता और कविता में गुथे हुए शब्द दोनों बीज रूप में हैं जिनके अर्थ धीरे धीरे अनेक रूप में खुलते हैं.
"रुख ते ऋषि" के कवितांशों को पढ़कर ज़रूरी नहीं कि आप भी वाही अर्थ गृहण करें जो दूसरा गृहण कर रहा है. यह एक "एबस्त्रक्ट" चित्र की तरह है जिसे देखते हुए दर्शक अपनी-अपनी समझ के अनुसार अपनी भावनाओं को चित्र में प्रतिरूपित करता है. कभी-कभी मुझे लगा है जैसे "रुख ते ऋषि" कविता अपने सम्पूर्ण रूप में अपनी जड़ों को तलाशने की ही कोशिश है. कितने ही प्रश्न हैं जिनके उत्तर विश्व के मनीषी तलाशते रहे हैं पर प्रश्न हैं की अभी भी अनुत्तरित हैं.फिर भी यह तो निश्चित ही है की हमारी जड़ें हमारे भूमंडल में ही हैं. इन जड़ों से दूर जाना या विलग होना हमारे वश में नहीं और न ही हमारी हित में. "अपने भूमंडल से टूट कर/जधीन बिरछ सदा सूख जाते हैं / समय या स्थान से दूर ता जाते किसी ने नहीं देखे/ " हरभजन सिंह का
यह कवितांश उनकी पारम्परिकता से विलग नहीं होने देता. वे ईश्वर को महँ सत्ता एवं परमपिता के रूप में मानते हैं और उसे अलग-अलग ढंग से संबोधित करते हैं पर उनका ईश्वर, उनका रब वह नहीं, जो तथाकथित धर्मांध लोगों का रब है. उनकी दृष्टि में "लोगों के पास रब था, बाड़ों और दीवारों वाला, वने वनाये पथ और गलियारे/हमारे पास रब था/जो आप घर से बाहर
था/बाहर वाली दुनिया के बाहर/मेरी मैया और मैं/दोनों ही गम हो गए, भटक गए/माँ ने कहा : बेटा इस रब का क्या करें/जो हमारा हिमायती नहीं रहा/
हरभजन सिंह के इस कवितांश में कटु यथार्थ भी है और गंभीर व्यंग्य भी. अपने समय की विद्रूपताओं और सच्चाइयों को उजागर करना हरभजन सिंह की कविता की शक्ति है. इसी शक्ति के कारन वे अपनी पीढ़ी के अग्रणी कवी और चिन्तक माने जाते हैं. मनुष्य और मानवता की चीनता उनके समस्त लेखन में मौजूद है. उनके काव्य एक छतनार बिरछ की तरह है, जिससे एक भीनी-भीनी सुगंध जहर रही है, हमारे मन और आत्मा को सराबोर करती हुई. झर-झर-झर.
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