Wednesday, November 14, 2012

आज बस इतना ही .....14 नवंबर, 2012


एक किताब





एक किताब पड़ी थी अलमारी में कई महीने से .
मुद्दत बाद मिली तो रोई लिपट-लिपट कर सीने से.

कहा सुबकते हुए - ' निर्दयी अब आए हो मिलने को
जब गाढ़े संबंधों के आवरण हो गए  झीने से.

और जरा देखो, कैसे बेनूर हो गए ये अक्षर
कभी चमकते थे जो अंगूठी में जड़े नगीने से.

और याद है? जब आंखें भारी होते ही यहां-वहां
सो जाते तुम मुझे सिरहाने रखकर बडे करीने से

किस मुंह से अब अपना ये सर्वस्व सौंप दूं फिर तुमको
धूल धूसरित देह पड़ी है लथपथ आज पसीने से.


- रमेश तैलंग 



चित्र सौजन्य: गूगल 

Monday, November 12, 2012

आज बस इतना ही....'दीप-पर्व' आपको मंगलमय हो.





एक बेल रोशनी की जब से चढी है छत पर
छत ले रही बलैयां बाहों में उसे भर-भर.

कोई खुशी अचानक उतरी है आसमां से 
बच्चे के हाथ आए जैसे पतंग कट कर.

ढलते ही शाम सूनी देहरी के भाग जागे,
कोई अभी गया है नन्हा-सा दीप रख कर.

ओ चांद, मेरे वीरा, अब तो जरा बता दे,
मेले में खो गया तू हमसे कहां बिछड़ कर?

दरवाजा खोले चौपट है नाच रही बिटिया 
आएंगी लच्छमी घर, आएंगी लच्छमी घर.

-रमेश तैलंग 



चित्रा सौजन्य: गूगल 

Friday, November 9, 2012

आज बस इतना ही ..................




-1-

जहां उम्मीद थी ज्यादा वहां से खाली हाथ आए.
बबूलों से बुरे निकले तेरे गुलमोहर के साए.

मैं अपनी दास्ताँ तुझको सुनाता किस तरह बोलो,
कलेजा मुंह को आया और कभी आंसू निकल आए .

उदासी है कि पीछा छोडती ही है नहीं मेरा
कोई बैठा रहे कब तक दुआ में हाथ फैलाए?

सुबह से काम पर निकला है बेटा, और मां का मन
हिलोरें ले रहा है, लौट कर वो जल्दी घर आए.

किसी चेहरे को पढ़ना है अगर तो गौर से पढ़ना
कहीं ऐसा न हो सहरा भी दरिया-सा  नज़र आए.

हजारों लम्हे जी कर जिंदगी का ये मिला हासिल
तसल्ली से न जी पाए, तसल्ली से न मर पाए.

-2-

मेरे जज्बात में जब भी कभी थोड़ा उबाल आया
कभी बच्चों की चिंता तो कभी घर का खयाल आया

पुरानी बंदिशें थीं या पुरानी रंजिशें थी वो 
मेरी पूंजी का हिस्सा थीं, करीने से संभाल आया .

इसे हालात से समझौता करना, चाहो तो कह लो,
जगी मरने की ख्वाहिश तो उसे भी कल पे टाल आया.

मैं ऐसा हूं तो क्यों ऐसा ही हूं, हर पल मेरे आगे.
पलट कर बारहा वो ही पुराना-सा सवाल आया.

किसी को चाहा तो अच्छा-बुरा कुछ भी नहीं देखा,
बड़ी मुश्किल से अपनी जिंदगी में ये कमाल आया

-3-

पिछले दिनों जो घट गया, वो घट गया, अब भूल जा. 
वो वक्त जैसा भी था आखिर कट गया, अब भूल जा. 

वो आँधियों का दौर था, पत्ता भी तब सिरमौर था.
सीने पे रख कर पांव, बादल छंट गया, अब भूल जा.

समता का कब वो  युद्ध था, हर शख्स तेरे विरुद्ध था,
खाकर थपेड़े हाथ से जो तट गया, अब भूल जा.

सच से बड़ा हर झूठ था, लड़ता भी तो तू टूटता,
अच्छा हुआ जो रास्ते से हट गया, अब भूल जा.

इस हार का भी रंग है, जीवन का ये भी अंग है,
ये सच है कि  थोड़ा-बहुत जीवट गया, अब भूल जा 

-4-

बर्तन पुराने होते-होते जंग खा गए. 
कांसे के,लोहा-पीतल के दिन भुला गए. 

कमरे में, रसोई में, जब जगह नहीं मिली
बोरे में बंद होकर छत में समा गए. 

बरसों पुरानी बजने की आदत नहीं गई 
बच्चों को तंग आना था सो तंग आ गए.

आखिर तो वही होना था, एक दिन कबाड़ में,
वे गुमशुदा हुए तो कहानी बना गए.

आंखों के सामने ही बहुत कुछ बदल गया 
अफसोस करते बूढ़े सब मर-मरा गए.