Friday, June 12, 2015

मेरी यादों का पहाड़: दो आंखर की वृहत कथा


दो आंखर की वृहत कथा



देवेन्द्र मेवाड़ी यानी देवेन दा ने जिस दिन मुझे अपनी किताब मेरी यादों का पहाड़ भेजी थी, उस पर उनके हस्ताक्षर के नीचे एक तारीख पड़ी है : 28-4-2013
      आभार के पश्चात इस किताब की शुरुआत होती है दो आंखर से। देवेन दा के शब्दों में कहूं तो ये दो आंखर ही उनकी यादों के पहाड़ की निर्मिति करते हैं। सूक्ष्म से विराट की ओर यह एक ऐसी सांस्कृतिक यात्रा है जिसे तय करने में मुझे दो साल लग गए। तो क्या यह सिर्फ़ मेरा आलस्य था? शायद नहीं। स्मृतियों के कोष में जितना अधिक जुड़ता है उससे कहीं अधिक छूटता भी जाता है..और स्मृति-विस्मृति के आवागमन की इस प्रक्रिया में कितना समय कब गुज़र जाता है, पता भी नहीं चलता।
आत्मवृत्त मैने पहले भी अनेक पढ़े हैं पर मेरी यादों का पहाड़ केवल आत्मकथा नहीं है इसमें कूर्मांचल का पूरा का पूरा लोक सांसें लेता है। किस्सागोई का अद्बुत अंदाज और दुदबोली का निस्संकोच अवांतर प्रयोग आपको आद्यंत बांधे रहता है और देवेन दा के बचपन, किशोरावस्था से गुज़रती इस स्मृति-यात्रा के अंतिम पड़ाव तक पहुंचते-पहुंचते आप पूरे नहीं तो आधे कुमांऊनी तो हो ही जाते हैं।
मेरी यादों का पहाड़”  में लेखक सिर्फ़ निमित्त है जो आपसे संवाद करता हुआ प्रतीत होता है अन्यंथा गौर से देखें तो यहां संपूर्ण प्रकृति ही आपसे संवाद करती है और श्रोता के रूप में आपसे हुंकारा भरने की अपेक्षा भी करती है...
तो बोलिये ना ---ओं!
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यह केवल संयोग है कि इस किताब के आने के पहले मैं देवेन दा के कुछ आत्मीय संस्मरणों को किस्तवार इंटरनेट पर पढ़ चुका था। उसके पहले मैं देवेन दा को नहीं जानता था, जानता था तो देवेन्द्र मेवाड़ी नाम के एक लेखक को जो सबसे पहले मुझे शास्त्री भवन -पी.आई.बी सभागार में भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार समारोह (2001) में मिले थे। तब वे पंजाब नेशनल बैंक-चंडीगढ में सेवारत थे और उनकी कृति – फ़सलों की कहानी पुरस्कृत हुई थी। तब उनसे एक हल्का-सा परिचयात्मक संवाद हुआ था। फ़िर उनकी कृति विज्ञान बारहमासा मिली तो उनके  बाल साहित्य तथा विज्ञान साहित्य से भी मैं परिचित हुआ। गलतफ़हमी यह रही कि वे नाम के आगे मेवाड़ी लगाते थे इसलिये मुझे लगा कि शायद वे मेवाड़ की भूमि से आते हैं। लेकिन मिलने के वाद पता चला कि उनका नाभिनाल संवन्ध तो कूर्मांचल से है। बहरहाल, जब मेरी यादों का पहाड़ से मेरा वास्ता पड़ा तो देवेन्द्र मेवाड़ी की जगह मेरी जबान पर देवेन दा ही ठहर गया और अब वे मेरे लिये देवेन दा ही हैं और वही रहेंगे। वैसे भी उम्र के लिहाज से वे मुझसे बड़े हैं।
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नैनीताल जिले का सुदूर पर्वतीय गांव – कालाआगर जहां देवेन दा की शिक्षा-दीक्षा का बीज पड़ा, के प्रति उनका इतना अधिक मोह है कि दिल्ली जैसे महानगर का आकर्षण भी उसके सामने फ़ीका पड़ जाता है। वे अपने गांव, वहां के लोग, और वहां के प्राकृतिक सौंदर्य का परिचय कराते हुए आपकी जिज्ञासा को लगातार जगाए रखते हैं और ऐसी-ऐसी जानकारियां देते चलते हैं जो आत्मिक और बौद्धिक दोनों रूपों में आपको समृद्ध करती हैं
मेरी यादों का पहाड़ पढ़ते हुए आप सिर्फ़ अपना ज्ञान ही नहीं बढाते, बल्कि साहित्य के उस रस का पान भी करते चलते हैं जो अब अन्यत्र विरल होता जा रहा है। कुमाऊंनी बोली की अपनी मिठास है और देवेन दा उसमें पूरे रचे-बसे हैं-
अब देखिए, मंडुवे की रोटी पर मुझे एक आन (पहेली) याद आ गया , सुनाऊं?
ग्योंक पिस्या लै मंडुवाक पल्थन
द्यखा ठुल्बाज्यु ठुलिजाक लछ्न
मतलब, गेंहू के आटे की धूनी (लोई) पर मंडुवा के आटे क पलथन, देखो ताऊजी ताई के लक्षण।
मशहूर शिकारी जिम कार्बेट और श्यूं (अदमअखोर) बाघ की आख-मिचौली, कका-काकी, जैंतुवा, जोधसिंह ददा, शेरदा, जैसे जीवंत चरित्रों से मेल-मुलाकात के बाद देवेन दा परताप दा ठ्यक की मिसाल देकर गांव में उपनाम किस कौशल और बुद्धिचातुर्य के साथ रख दिए जाते हैं, इसका मनोरंजक किस्सा सुनाते हैं –
उपनाम यों ही नहीं, बहुत दिमाग दौड़ाकर रखा जाता है। उसमें उस आदमी की विशेषता झलकनी चाहिए ताकि फ़ौरन पहचान में आ जाए। अब, जैसे कोई बहुत मोटा है तो उसे ठ्यक (छाछ फ़ाड़ने का लकदई का पीपे जैसआ वर्तन) छोटा कद और शरी गोल-मटोल है तो घंटी,  हथ पैरों मे बाल ही बाल हैं तो भालू, बंदरों की जैसे हरकतें कर्ता तो बानर, चमकती आंखेमं और गोल चेहरा है तो बाघ, मोटा पेट है तो ढोल उपनाम मिल सकता है।
अब, मैं भी अगर सदा गांव में ही रहता तो क्या पता आज मेरा भी नाम देब्ब लाम (लंबू) या देबुवा दाढ़ी या फ़िर कुछ और होता। यह नहीं कि आदमियों के ही उपनाम रख देते हैं, ध्वैड़, काकड़ या बाघ औरतें भी हो सकती हैं
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शैशव में शिक्षा की पहली सीढ़ी मां से शुरु होती है और पाठशाला जाने का संस्कार तब तक कैसे संपन्न हो सकता है जब तक  ईजा और बाज्यू का स्नेहिल आशीर्वाद न मिले – चल बेटा, आज से तू इस्कूल्या हो गया....इस्कूल पढेगा। सुती, धागुली का अब कोई काम नहीं। बस, पाटी-दवात और कापी-किताब से ही तेरा मतलब होगा
स्कूल भी कैसा? एक दम वनैला।
वन ही तो है फ़िर। वो भेशानी धार है ना, वहीं पंडिज्जी आते हैं, पढ़ाते-लिखाते हैं और शाम को सब लोग चले जाते हैं। खाली धार-ही धार है, कमरों वाला इस्कूल नहीं है यहां।...मेज, कुर्सी, श्यामपट, घंटी...कुछ नहीं है
फ़िर उस वन प्रांतर के खुले स्कूल मे  जाते समय श्यूं बाघ के कहीं दर्शन हो जाएं या सुदूर-पास उसकी घुर्राहट भरी दहाड़ सुनाई दे जाए तो आश्चर्य नहीं। देवेन दा का कहना है –
श्यूं-बाघों की डर-भर तो उन दिनों बनी ही रहती थी। कुछ वारदातें हो जातीं तो लोग कहते थे-शुवैं-शुवैं हो गई है। जितने श्यूं-बाघ, उतने उनके किस्से
सुनेंगे ना:
तो बोलिये...ओं!

रनजीत सिंह का किस्सा - जो एक बार आमने-सामने मुकाबले मे श्यू की पूंछ काट्कर ले आए थे, नैथन गांव के शेर सिंह का किस्सा जो श्यूं से आंख-मिचौली खेलते दबे पांव बाघ के पीछे पहुंच गए। जब तक बाघ कुछ समझे, उन्होंने कस कर उसकी पूंछ पकड़ ली और एक झटके में चौतरे से बाहर छ्टका दिया, बल। पारभती से मुठ्भेड़ का किस्सा और फ़िर पिताजी के गोरू-वाछ में से सेतुवा बैल के वलिदान का मार्मिक किस्सा जिसकी गर्दन तोड़ कर ही माना था श्यूं बाघ। घने जंगलों में अकेले सेतुवा की  रक्षा भला कौन करता? द्यौ-द्याप्त (देवी-देवता)- भूत-प्रेत, जंतर-मंतर, झाड़-फ़ूंक.?. कभी-कभी इन में से कुछ काम नहीं आता
पर लोक विश्वासों का क्या? वे तो बने ही रहते हैं। उनकी जड़ें होती भी हैं बहुत ही गहरी। जब तक आस्था का निवास, तब तक देवी-देवता का प्रकाश, फ़िर चाहे वे देवी-देवता नदी, वृक्ष, मिट्टी, पत्थर किसी भी रूप में क्यों न हों। और उन्हीं के साथ पीढी-दर- पीढ़ी जीवंत रहती हैं उनकी स्तुतियां, लोक-गीत, लोक-संगीत।
.सुवा सरंगे, तीले धारो बौला/हाइ-हाइ नरंगे, तीले धारौ बौला/सुव सरंगे/, बांसुली का बाना/हाइ-हाइ नरंगे, बांसुली का बाना/
      फ़िर देवी-देवता ही क्यों, लोक विश्वासों में  तो भूत-प्रेतों का अस्तित्व भी है। बचपन में देवेन दा जब मां से पूछ्ते हैं –
हें ईजा? क्या सांची भूत होते हैं?
      नें ईजु, तू डरना मत। तेरे पिताजी तो डंगरिया हैं। इसलिए हमारे घर के आसपास भूत-बूत आ ही नहीं सकते।
      ये बता कि भूत होते हैं या नहीं?
      पता नैं। मैंने तो कभी नहीं देखे। बस, एक बार ऐसा हुआ कि......
जाने क्या था, कौन जाने? तू बिल्कुल मत डरना भूतों से! ठीक छ?
      होई कह्कर मैंने हां तो कर दी, लेकिन मन मे उन अदृश्य भूतों का भय बैठ गया तो बैठ ही गया
       
लोकविश्वासों की आधारभूमि तर्क कम आस्था ज्याद होती है जहां वैज्ञानिक सोच का होना ज़रूरी नहीं लेकिन न जाने क्यों, कभी-कभी मुझे लगता है कि सृष्टिकर्ता ने मनुष्य सहित जितने भी पंचतत्वीय प्राणी बनाए उनमें मिट्टी का अंश शायद ज्यादा डाला। तभी तो वे स्थूलकाय दिखते हैं। लेकिन यदि मिट्टी की जगह वायु का अंश ज्यादा हो जाए तो आश्चर्य नहीं कि स्थूल दिखने वाले जीव वायवीय हो कर भूत-प्रेत के रूप में घूमते नज़र आएं। क्योंकि सारा खेल कंबिनेशन और पर्म्युटेशन का ही तो है।   
बहरहाल, देवेन दा के पास द्यो-द्याप्त ( देवी-देवता),, त्यों-तार (तीज-त्योहार), ब्या-काज] खेति-पाति, गौरू-बाछ, धुर-जंगल,ध्वैड़-काकड़ आदि, यानी कृषि-कर्म से जुड़ी संपूर्ण लोक-संस्कृति की स्मृतियों का अशेष और अद्भुत खज़ाना है जिसे वे धीरे-धीरे खोलते हैं।
      मेरी यादों का पहाड़ में आंचलिक शब्दों की ध्वन्यात्मक्ता और संगीतात्मक्ता आद्यंत आपके कानों मे गूंजती है। दो आंखर बांचते हुए तो कभी गदेवेन दा के साथ कभी फ़णीश्वर नाथ रेणु याद आते हैं कभी शैलेश मटियानी, तो कभी गौर पंत शिवानी। तभी तो मैंने कहा कि यहां लेखक निमित्त मात्र है, असली संवाद तो प्रकृति का है जिसमे घुघुती बासेंछी...कुरु..रू, चौमासा, चीड़ वनों का संजाल, ताल-तलैया सभी वाचाल हैं।
आंखर-आंख्र पढते जाइये..डूबते-उतराइए
देवेन दा का तो कहना ही है –
आशा है आपने हमारी बोली-बानी की ध्वन्यात्मकता का आनंद लिया होगा। बादलों के गरजने की गड़-गड़..गिड़म, कहीं चिडियों की चहचहाहट, कहीं घंटियों की टुन-टुन, कहीं खांकरों (बड़े घुंघरू) की खन-खन, कही बड़ी घंटी की घ्हन-मन..घन-मन...कहते हैं जो प्रकृति के जितना ही नज़्दीक रहते हैं, पहाड़ों और वन-प्राम्तरों में, उनकी भाषा में उतनी ही अधिक ध्वन्यात्मकता आ जाती है। शायद इसीलिए हमारी बोली-बानी में भी तमाम आवाजें रस-बस गई हैं
यह पोथी लिखते समय मैं सोच रहा था, धैं आप इसे समझते हैं या नहीं? लेकिन आपकी ओं सुनकर मैं समझ गया, आप समझ रहे हैं। और हां, इस धैं से मेरा मतलब है देखें या देखें तो।
ओ!
यह हुई न बात} देखिए, मेरी बात सुनते-सुनते आप कहकर उंगुर यानी हुंकारी देना भी सीख गए
होई, देवेन दा! आपके दो आंखर बांचते-बांचते ओ! कहना तो कम-से-कम हम सीख ही गए।
( बाल वाटिका से साभार)
- रमेश तैलंग
 rtailang@gmail.com