Saturday, May 25, 2013

दो नई ग़ज़लें




-१-


कुरेद देता हूं तो एक पल भभकती हैं.
ये वो चिंगारियां हैं, बुझती हैं न जलती हैं.

मशाल बनने की हसरत न हुई पूरी तो
ये गीली लकड़ियां रह-रह के धुआं करती हैं.

जिन्हें इतिहास में जगह न मिली थोड़ी-सी,
वो  अब भूगोल बदलने की बात करती हैं.

गज़ब तो ये कि कंगूरों पे है बहस ज़ारी
जहां इमारतों  की नीवें ही दरकती हैं .
  
हजारों ज़ख्म रिस रहे हैं ज़िस्म पर अब भी
कहाँ हैं वो हथेलियां, जो मरहम रखती हैं?

-२-

इस तरह मिल कि ये दिल बाग-बाग हो जाए
ऐसा भी मिलना क्या कि फूस आग हो जाए.

हथेली मेरी अगर छू ले हथेली उसकी,
महक मैं फूल की तो वो पराग हो जाए.

अषाढ़ चढ़ने लगादेखदेहरी सावन की
मेघ के साथ अब मल्हार राग हो जाए.

किसी के आने का संकेत है येशायद सच
अभी मुंडेर पे बोला है कागहो जाए|

दिल की आवाज सिर्फ दिल को ही सुनाई दे
ऐसा कुछ कर अभी बेबस दिमाग हो जाए.



Sunday, May 12, 2013

किसी बहाने सही




किसी बहाने  सही, याद मेरी आया करे. 
खुदा कभी भी उसे मुझसे न पराया करे.

ये रिश्ते भी बड़ी  नायाब चीज़  होते हैं 
दुआ करो कि इन्हें यूं न कोई ज़ाया करे.

शज़र लगाऊं जहां भी कहीं मोहब्बत का 
मैं चाहता हूं वो हर एक सर पे छाया करे.

भरा हो आंखों में सैलाब जब दुखों का तो 
ये ज़रूरी है कोई आ मुझे  रुलाया करे.

मैं हूं इंसान, हैं मुझमें भी हजारों कमियां
मेरी इस बात पे कोई तो यकीं लाया करे.

- रमेश तैलंग 


(चित्र सौजन्य: गूगल -हेमंत शेष)

कभी अब्र बन के ...

आज बस इतना ही........12 मई, 2013

(foto credit : google)


कभी अब्र बन के बरस गए, कभी धूप बन के बिखर गए.
वो अजीब किस्म के लोग थे जो मिले तो दिल में उतर गए.

उन्हें फुर्सतों की कमी न थी, उन्हें चाह कोई बड़ी न थी,
रखा हाथ सर पे तो यूं लगा जैसे बोझ सारे उतर गए.

वो फ़कीर हो के अमीर थे, वो ग़मों में सबके शरीक थे,
वहीं चार  महफ़िलें जोड़ लीं,जहां चार पल को ठहर गए.

भले कितनी थी दुश्वारियां,नहीं तोड़ीं  यारों से यारियां,
वहीं बन गए नए रास्ते, वो जिधर-जिधर से गुजर गए.

वो नज़र से दूर जो जा बसे, तो हमारी यादों में आ बसे,
वो अभी थे आंखों के सामने, वो अभी-अभी लो, किधर गए?

- रमेश तैलंग 



Thursday, May 9, 2013

जुलुम की मारी रधिया



आज बस इतना  ही.... 10 मई 2013

जुलुम  की मारी रधिया अब थाने जाने से डरती है.
एक कहानी है उसकी पर बतलाने से डरती है.

बाहर की दुनिया का जबसे दंश देह पर खा बैठी
हर पल अपने हीं अंदर के वीराने से डरती है.

गोकुल, मथुरा, जहां गई निश्शंक रही, जी न धडका,
पर अब देखो, अपने ही घर बरसाने से डरती है.

चढ़ जाती थी पेड़ों पर, खेतों में कूद लगाती थी,
उलझा पग झरबेरी में तो फल खाने से डरती है.

निर्भयता, निश्छलता जैसे शब्द सुने थे उसने भी
अर्थ खो गए जबसे उनके हर माने से डरती है

घाव खुले हों तो शायद लड़ने की ताकत आ जाए,
यही सोच कर अब ज़ख्मों के भर जाने से डरती है|

मरना  ही होता तो शायद कब की पहले मर जाती,
जगा हौसला थोड़ा-सा तो मर जाने से डरती है.

(चित्र सौजन्य: गूगल- bumbir.com)


Tuesday, May 7, 2013

अमेरिकन बच्चों में बढ़ती बन्दूक संस्कृति के दुष्परिणाम








(photo credit - google-addictinginfo.com)

हाल में, केंटकी -अमेरिका में एक पांच साल के लड़के द्वारा अपने दो वर्षीय बहन को धोखे से गोली मार देने की घटना ने इस चर्चा को पुनः गर्म कर दिया है कि क्या बच्चों की  ऐसे घातक हथियारों तक पहुंच होनी चाहिए. सभी जानते हैं कि अमेरिका में बच्चों के बीच "गन कल्चर" एक महामारी का रूप ले चुका है. मेनस्ट्रीम स्टोर्स और वेबसाइट्स पर ऑनलाइन खरीद के जरिए बंदूकें बच्चों को आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं या फिर कभी-कभी उन्हें उपहार स्वरुप भी दे दी जाती हैं, जिसके दुष्परिणाम अब आए दिन सामने आने लगे हैं

केंटकी  में हुआ यह हादसा केवल एक हादसा नहीं है अपितु वहां के सभ्य समाज के लिए दिल  दहलाने वाला सबक है जो उन्हें सोचने के लिए मजबूर कर रहा है कि इस तरह के हादसों से बचने के लिए क्या कदम उठायें जाएं. आपको याद होगा कि इस हादसे के पूर्व भी ऐसा ही एक हादसा कान्सास सिटी मिसूरी में हुआ था जिसमे एक १२ वर्षीय बच्चे की बन्दूक के गोली से उसके  १४ वर्षीय भाई की जान चली गई थी.

बन्दूकी संस्कृति अमेरिकन समाज में किस तरह पसर चुकी है उसका एक जघन्य उदाहरण पिछले दिसंबर में  कनेक्टिकट में हुई वह शर्मनाक घटना भी है जिसमें  एक बन्दूकधरी ने कुछ वयस्कों सहित २० बच्चों की निर्मम हत्या कर दी थी.

दुःख की बात ये है कि जहां सभ्य  समाज के अधिकांश लोग इस विकराल समस्या पर लगाम लगाने का पुरजोर समर्थन कर रहे हैं वहीं एक वर्ग ऐसा भी है जो इस "बन्दूक संस्कृति" को परोक्ष/अपरोक्ष ढंग से पोषित करने में लगा हुआ है. संतोष की  बात ये है कि अमेरिकन राष्ट्रपति ओबामा ने "बन्दूक सुरक्षा तकनीक" में बदलाव  लाने की ओर इंगित किया है जिसके अंतर्गत ऐसी "स्मार्ट बन्दूकें" उपलब्ध करें जाएं  जो यदि गलत हाथ मे पड़ जाएं तो फायर न कर सकें.

पिछले दिनों किये गए कुछ सर्वेक्षणों से पता चला  है कि अन्य विकसित देशों की तुलना में अमेरिका में बन्दूक के जरिए होने वाले ऐसे हादसों की संख्या न केवल कई गुनी है बल्कि वहां ५ से १४ वर्ष के बच्चे 'फॅमिली गन ' का इतेमाल करके आत्महत्या भी अधिक करते हैं. "thegrio.com" वेबसाईट पर प्रकाशित एक लेख के हवाले से -हार्वर्ड स्कूल ओफ पब्लिक हेल्थ के डेविड हेमेंवे का कहना है कि "अमरीका की राजनीति में बन्दूक क़ानून  का मसला सबसे अधिक पेचीदा है और किसी भी उच्च आय वाले देशों की तुलना में अमेरिका में बन्दूक से होने वाले हादकों की समस्या सबसे ज्यादा जटिल है."

कई लोगों का मानना है कि  अमरीका में जो वर्तमान बन्दूक-क़ानून (गन लाज) हैं वे वहां के नागरिकों की मिलिटरी हथियारों तक पहुंच बनाने में  लचीले हैं और उन्हें  कठोर बनाए जाने की आवश्यकता है. यदि क़ानून कड़े हों तो ऐसे हादसों को काफी हद तक रोका जा सकता है.##

Saturday, May 4, 2013

आज बस इतना ही ................... 4 मई, 2013





मासूमों की इक बस्ती गिद्धों की नज़र में है.
अब भूख सिर्फ भूख ही इस ओर खबर में है.

सरकारी आंकड़ों में कल कैफ़ियत मिलेगी
फ़िलहाल मरने वालों की पांत सफ़र में है.

कुछ जिंदगी से हारे, कुछ युद्ध के हैं मारे,
ये बदनसीब दुनिया जब देखो, गटर में हैं.

अफ़सोस क्या जताएं, हैं दुःख भरी कथाएं
तदबीर नहीं कोई, तकदीर  अधर में है.

सारी ज़मीन पर अब हथियार ही काबिज हैं,
इंसानियत का क्या है, वो डर में थी, डर में हैं.

-  रमेश तैलंग 


(photo credit: google+pedaltofeed.com)







Thursday, May 2, 2013

सरबजीत के जाने के बाद

आज बस इतना ही.............3 मई , 2013



(चित्र सौजन्य: गूगल+इंडियन एक्सप्रेस)


दुनिया ही उजड जाए फिर रोना क्या हँसना क्या 
रहने दे जैसे हैं अब, इन ज़ख्मों को भरना क्या

जब जल रही थी बस्ती, साया नज़र न आया,
जब राख हो गया सब, बादल का बरसना क्या

आंखें हमारी रीतीं, सारी बहारें बीती
अच्छा हो या बुरा अब मौसम का गुजरना क्या.

बस में था जब तुम्हारे, लड़ने से पहले हारे, 
जय हो गई पराजय, अब और समझना क्या,

अपने ही हाल पर बस , तू छोड़ दे हमें अब 
अब डूब के मरना क्या, अब पार उतरना क्या 



- रमेश तैलंग