आज बस इतना ही.... 10 मई 2013
जुलुम की मारी
रधिया अब थाने जाने से डरती है.
एक कहानी है उसकी पर बतलाने से डरती है.
बाहर की दुनिया का जबसे दंश देह पर खा बैठी
हर पल अपने हीं अंदर के वीराने से डरती है.
गोकुल, मथुरा, जहां गई निश्शंक रही, जी न धडका,
पर अब देखो, अपने ही घर बरसाने से डरती है.
चढ़ जाती थी पेड़ों पर, खेतों में कूद लगाती थी,
उलझा पग झरबेरी में तो फल खाने से डरती है.
निर्भयता, निश्छलता जैसे शब्द सुने थे उसने भी
अर्थ खो गए जबसे उनके हर माने से डरती है
घाव खुले हों तो शायद लड़ने की ताकत आ जाए,
यही सोच कर अब ज़ख्मों के भर जाने से डरती है|
मरना ही होता
तो शायद कब की पहले मर जाती,
जगा हौसला थोड़ा-सा तो मर जाने से डरती है.
(चित्र सौजन्य: गूगल- bumbir.com)
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