Tuesday, August 2, 2011

बाल-साहित्य पर रघुवीर सहाय की विचारोत्तेजक टिप्पणी

[हिंदी के अत्यधिक सम्मानित कवि, चिन्तक, कथाकार, नाटककार, और संपादक श्री रघुवीर सहाय का यह लेख मुझे श्री सुरेश शर्मा द्वारा सम्पादित "रघुवीर सहाय रचनावली-२" में देखने को मिला. बाल-साहित्य से जुड़े सभी सहृदय लेखकों, पाठकों एवं मनीषियों के अवलोकनार्थ इस लेख को (रचनावली के संपादक मंडल के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए ) मैं यहाँ साभार प्रस्तुत कर रहा हूँ.]




तुरता किताब और लंबी उम्र

बहुत दिन बाद बच्चों के साहित्य पर बहस का एक नया दौर शुरू हुआ है. इसमें एक तरह की सामाजिकता, प्रतिष्ठा और कुछ के लिए पैसे भी है. बच्चे भी हैं इसमें, पर ऐसे हैं मानो "बच्चा लोग बैठ जाओ" की मीठी डाँट पिलाकर पुरुषों की दवाई बेचनेवाले ने उन्हें बिठा दिया हो और वे उस मजमे का एक हिस्सा बनकर रह गए हैं जिसे कुछ दुखद और दिलचस्प बीमारियों के हकीम की आवाज में मजा आ रहा है. बहस करनेवालों में लेखक भी हैं जिनके परिचय में बताया जाता है कि कितनी किताबों के और कितने अनुवादों के रचयिता हैं एवं कितनी समितियों के सदस्य हैं. उनकी एक पुस्तक या पुस्तक छोडिये एक कहानी-कविता-नाटक का नाम देकर उनका परिचय नहीं कराया जाता कि आप ही उसके लेखक हैं. करने पर कोई कह उठेगा, "ओह, हां, हां, मैंने बच्चों से उसका नाम सुना था, मैंने भी पढ़ी."

यह कहकर मैंने शायद उन "कृतिकारों" के साथ कुछ अन्याय कर दिया है जिनकी किताबें धडाधड छप और बिक रही हैं. इन्हें तों बहुत बच्चे जानते हैं. जानते ही नहीं इनकी किताबें मांग-मांगकर, बाँट-बाँट, खरीद-खरीदकर पढते हैं.परन्तु ये किताबें उस तरह की नहीं हैं जिनको हम किताब मानते हैं. इनमे भाषा है पर केवल यह बताने के लिए तस्वीर में दिखाई देते आदमी ने जो कुछ कहा वह कम शब्दों में क्या है-इतने कम शब्दों में कि तस्वीर नंबर एक पर हम जल्दी से जल्दी ध्यान हटाकर तस्वीर नंबर दो पर ले जा सकें क्योंकि अभी ऐसी ही कई तस्वीरें देखनी हैं. किसी भी तस्वीर पर देर तक आँख गडा कर देखना नहीं है ताकि तस्वीर का अर्थ उजागर हो जाए. वैसे अर्थ जो तस्वीर में ही छिपा हो उसमे है ही नहीं. यह तस्वीर ही नहीं है-यानी उस तरह की तस्वीर जिसे हम चित्र प्रदर्शनी में देखने जाते हैं. यह वह तस्वीरें भी नहीं हैं जो हमें किसी माने में (जिसे अब समर्थ लोग (पुराना ज़माना" कहने लगे हैं_ किताबों में (हममें से जो पचास के ऊपर हैं उन्हें (अपनी किताबों में") छपी मिलती थी. वे तस्वीरें भी लिखी कहानी के ही साथ छपी होती थीं परन्तु बच्चे कहानी को पढते समय तस्वीर को देखते थे और तस्वीर उसी कहानी को फिर से कहती थी जिसे वे पढ़ चुके थे. उसकी अपनी-तस्वीर की-भाषा थी. बच्चे दोनों भाषाओं को जान जाते थे, शब्दों की भाषा को और चित्रों की भाषा को.

इसकी तुलना में आज बच्चों के पढ़ने के लिए तस्वीरों और कहानियों का जो मिला-जुला रूप मिलता है वह बहुत खोखला है. उसमे कहानी तस्वीर की मदद नहीं करती और तस्वीर कहानी की मदद नहीं करती. दोनों अपने-अपने को किसी तीसरी सत्ता की सेवा में लगा देते हैं.यह तीसरी सत्ता और कुछ नहीं एक दबाव का नाम है. दबाव यह है कि जल्दी पढ़ो, पढकर आगे का छपा पढ़ो, और जब यह सब पढ़ना पूरा हो जाए तों दिमाग खाली रहे-ऐसे ही एक और अनुभव के लिखे खाली. पढ़ने और समझने की बीच में से ये किताबें कल्पना को धकेलकर हटा देती है क्योंकि कल्पना ही वह चीज है जो पढ़नेवाले के पास कुछ छोड़ जाती है. वह कुछ छोड़ा हुआ जो है, किताब पढ़ना खत्म हो जाने के बाद किताब का समझना जारी रखता है और बहुत से अर्थ और अनुभव पढ़ने वाले के मन और मस्तिष्क में पैदा करता रहता है जो हो सकता है किताब की भाषा में ही छिपे रहे हों या उसकी तस्वीरों ने दिए हों या पढ़नेवाला उन्हें किताब के बाहर की दुनिया में से कहीं, अपने निजी अनुभवों से, ले आया हो और किताब के साथ उनके मिलन हो गया हो. यह चिंतन किताब पढ़ने के बाद एक बार तुरंत हो जाता है और फिर समय-समय पर कभी-कभी बहुत देर बाद दुबारा और बार-बार होता रहता है. यही तों किताब की ज़िन्दगी और उसकी आयु होती है - आप कह सकते हैं उसकी बैटरी होती है जो बार-बार चार्ज हुआ करती है और हमें करेंट दिया करती है.

बच्चे की ज़िन्दगी एक लंबी ज़िन्दगी है. उसमे एक किताब आकर चली नहीं जानी चाहिए. बच्चे को बड़ा होना है. अगर उसे किताब में कल्पना की बैटरी नहीं मिली जो बार-बार चार्ज हो जाती हो तों बड़े होकर भी वह बड़ा नहीं होगा, एक बच्चा ही रहेगा. हां, उस बचपने में उसने जो कल्पनाहीन भाषा पढ़ी थी वही उसकी संपत्ति होगी, उसमे वह बार-बार वृद्धि नहीं कर पा रहा होगा. वह जीवन भर दूसरों की वेदना को और खुशी को बस उतना ही जान पाएगा, जितना जाने से वह उसमे भागीदार होने की जिम्मेदारी से बचा रहता है.

इस समय ऐसी तस्वीरें और ऐसी भाषा के मेल से तैयार किताबें बच्चों के हाथों में पहुँच चुकी हैं. वे अपने ऊपर सोचने का कोई बोझ डाले बिना इनको पढते चले जा रहे हैं. इस हल्के होने में बच्चों का नुकसान है. उनको ऐसे-ऐसे मजों से हाथ धोना पड़ रहा है जो सिर्फ एक कल्पना जगानेवाली और अपने से बाहर ले जानेवाली किताब से मिल सकते हैं. उसकी जगह "तुरता किताबें" पढकर वे अपने भीतर लौट जा रहें हैं जहां बाहर की दुनिया की पीडाओं से मुक्ति नहीं-केवल घुटन, आत्मदया और पराजय है. परन्तु बच्चे को बड़ा होना ही है और दुनिया को झेलना ही है इसलिए वह इसी घुटन को घृणा, हिंसा (और प्रतिहिंसा) और दमन बना लेता है-जीवन भर बनाता ही रहता है.

बच्चों के साहित्य में क्या होना चाहिए इस पर आजकल जगह-जगह विचार विमर्श चल रहे हैं. अगर कहीं इन "तुरत किताबों" के लेखक-प्रकाशक उनमे मौजूद होंगे तों शायद सफ़ाई देंगे कि कितने कम वक्त में हमारी किताब बच्चों को कितना अधिक बता देती है. इसे पढकर वह और किताबें भी पढ़ने का समय पा सकेगा. मुझे केवल इतना कहना है देखिये, बच्चे के पास समय की कमी नहीं है. आपके पास होगी. उसके पास अपनी ज़िन्दगी भर लंबा समय पड़ा है. और ऊपर से वह उसे जब चाहता तब खींच-खींचकर बढाता रहता है. आप अपनी किताब लाइए, देखें कि वह उसकी ज़िन्दगी में अंट जाती है या नहीं? बच्चा तों लंबी उम्र पाएगा जो कहीं लिखकर अभी नहीं बताई जा सकती. आपकी किताब की उम्र क्या है? वह तों उसी में लिखी हुई होगी?

( श्री सुरेश शर्मा द्वारा सम्पादित :रघुवीर सहाय रचनावली-२ से साभार )

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