Saturday, May 25, 2013

दो नई ग़ज़लें




-१-


कुरेद देता हूं तो एक पल भभकती हैं.
ये वो चिंगारियां हैं, बुझती हैं न जलती हैं.

मशाल बनने की हसरत न हुई पूरी तो
ये गीली लकड़ियां रह-रह के धुआं करती हैं.

जिन्हें इतिहास में जगह न मिली थोड़ी-सी,
वो  अब भूगोल बदलने की बात करती हैं.

गज़ब तो ये कि कंगूरों पे है बहस ज़ारी
जहां इमारतों  की नीवें ही दरकती हैं .
  
हजारों ज़ख्म रिस रहे हैं ज़िस्म पर अब भी
कहाँ हैं वो हथेलियां, जो मरहम रखती हैं?

-२-

इस तरह मिल कि ये दिल बाग-बाग हो जाए
ऐसा भी मिलना क्या कि फूस आग हो जाए.

हथेली मेरी अगर छू ले हथेली उसकी,
महक मैं फूल की तो वो पराग हो जाए.

अषाढ़ चढ़ने लगादेखदेहरी सावन की
मेघ के साथ अब मल्हार राग हो जाए.

किसी के आने का संकेत है येशायद सच
अभी मुंडेर पे बोला है कागहो जाए|

दिल की आवाज सिर्फ दिल को ही सुनाई दे
ऐसा कुछ कर अभी बेबस दिमाग हो जाए.



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