-रमेश तैलंग
छत पर चारपाई बिछाए ताऊजी धूप का आनंद ले रहे थे, तभी उनकी चार वर्षीय भतीजी छवि उनके पैंताने आ कर खड़ी हो गई और सिसक-सिसक कर रोने लगी।
ताऊजी ने छवि के सिर पर प्यार भरा हाथ फिरा कर पूछा-‘अरे ..अरे! मेरी बिटिया क्यों रोए जा रही है?
ऊं .... ऊं ....ऊं .. मेला लत्तू नहीं धूमता, ऊं .... ऊं ....ऊं।’ छवि ने सिसकते हुए जवाब दिया।
‘बस्स ..! जरा दिखाना तो, मैं भी देखूं क्यों नहीं घूमता मेरी छवि बिटिया का लट्टू।’ कहते हुए ताऊजी ने छवि के हाथों से लट्टू और रस्सी दोनों ले लिए फिर ठहाका मार कर हंस पड़े।
‘धत् तेरे की! ये लट्टू कैसे घूमेगा? इसमें तो कील ही नहीं है।
‘पल दोलू ता तो धूमता है। मैं दोलू ता लत्तू लूंदी ताऊजी।’
‘अरे, छोड़ गोलू का। मैं इसी में कील लगाए देता हूं फिर देखना कैसे घूमता है यही लट्टू सररर ...सररर ...।’
‘नई, ये दन्दा है। मैं दोलू ता लत्तू लूंदी ताऊजी।’
‘अच्छा ... अच्छा ले लेना गोलू का।’ ताऊजी ने छवि को जिद पकड़ते देखा तो गोलू को आवाज दी।
गेलू छत पर आया तो सामने छवि को देखते ही समझ गया कि उसके लट्टू को हथियाए जाने की योजना बन रही है। इसलिए उल्टे पैरों जीने की तरफ भागते हुए बोला - नहीं पापा, मैं नहीं दूंगा अपना लट्टू।’
‘अर, अरे, बात तो सुन ...।’ ताऊजी ने गोलू को रोकने की कोशिश की पर तब तक वह बाहर का गेट खोल कर सड़क पर निकल चुका था। ताऊजी अब फिर परेशानी में पड़ गए थे। एक बार उनके जी में आया कि बाहर जा कर एक थप्पड़ जमाएं गोलू को और छीन लाएं उसका लट्टू। फिर सोचा-‘एक को खुश करने के लिए दूसरे को दुखी करने से क्या फायदा।’
इसलिए उन्होंने दूसरी तरकीब निकाली। छवि का लट्टू उठा कर वह जीना उतर गए। साथ ही छवि को बोल गए कि वह छत पर ही बैठे तब तक वे गोलू का लट्टू लाते है।
नीचे जा कर उन्होंने कमरे की टांड़ से हथोड़ी और कीलों का डिब्बा उठाया और वहीं निचली सीढ़ी पर छवि के लट्टू में कील ठोकने लगे। कील ठुक गई तो उन्होंने जैसे ही गर्दन ऊपर उठाई तो देखा - सामने छवि खड़ी थी। ताऊजी को लगा, जैसे उनकी चोरी अनायास पकड़ ली गई हो, पर झांसा देने की कोशिश में वह छवि को वही लटृटू थमाते हुए बोले-‘ले बिटिया, मैं ले आया गोलू का लट्टू।’
छवि की आंखों में क्रोध और आंसू साथ-साथ भरे थे। उसने एक बार लट्टू को घुमा-फिरा कर देखा फिर झटके से नीचे की ओर यह कह कर फेंक दिया-‘ये दंदा है। ये नई हैं दोलू ता, मैं दोलू ता लत्तू लूंदी।’
ताऊजी अब हार गए थे। उन्होंने झुंझला कर छवि को दोनों हाथों से उठाया और आंगन में खड़ा करके छोड़ आए- ‘नहीं लेना है तो न ले, अब रोती रह अकेले, मैं तो चला ऊपर।’
ताऊजी के छत पर जाते ही छवि जीने पर बैठ गई और घुटनों में मुंह छिपा कर फिर रोने लगी।
कुछ देर बात गोलू खेल-खाल कर वापस घर में आया तो छवि की सूजी हुई आंखों को देख कर उसे दया आ गई। छवि के पास आ कर उसने पूछा-‘रो रही हो?’
छवि का कुछ जवाब न मिलने पर उसने फिर पूछा-‘लट्टू लेगी मेरा?’ इस बार छवि की गर्दन सकारात्मक रूप से ऊपर से नीचे की ओर हिली।
‘ले ...’ कहते हुए गोलू ने छवि को अपना लट्टू और रस्सी दोनों पकड़ा दिए।
लट्टू-रस्सी पाते ही छवि का चेहरा फिर खुशी से दमक उठा। वह भागती हुई छत पर चढ़ गई और ताऊजी की चारपाई के पास लट्टू घुमाती हुई बोली - ‘देथो ताऊजी, ये लत्तू तेथे धूमता है? धूमता है न? ताऊजी ने लेटे-लेटे करवट ली और लट्टू पर निगाह डालते हुए बोले-‘अरे हां बिटिया, ये तो सच में घूम रहा है।’
‘अच्छा हैं न?’
‘बहुत अच्छा। क्या ये गोलू का है।’ ताऊजी ने शरारत भरे स्वर में पूछा।
‘छवि के मुंह से ‘हां’ निकलते-निकलते रह गई। उसने लपक कर लट्टू जमीन पर से उठा लिया और फ्राॅक के अंदर छिपा कर बोली-‘नईं.... .... दोलू ता नईं है ... ये मेला लत्तू है।’
छवि अब ताऊजी के बिलकुल नजदीक आ कर उनसे करीब-करीब लिपट चुकी थी। फिर उसने आशंकित स्वर में ताऊजी से पूछा-‘इसे दोलू तो नहीं थुलाएदा, ताऊजी!’
‘नहीं बेटी ...इसे कोई नहीं छुड़ाएगा।’
छवि अब पूर्ण रूप से आश्वस्त हो कर ताऊजी के साथ लेट गई थी।
चित्र सौजन्य: गूगल सर्च
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