Thursday, November 10, 2011

इक्कीसवीं शताब्दी का बाल साहित्य -संवाद


pankaj chaturvedi


पिछले दिनों फेस बुक के इंडियन चिल्ड्रेन'स ग्रुप पर एन बी टी में सहायक संपादक, वरिष्ठ लेखक, पत्रकार पंकज चतुर्वेदी द्वारा हिंदी बाल साहित्य पर निम्न महत्वपूर्ण टिप्पणी की गई: जिसकी प्रतिक्रिया स्वरुप प्रखर लेखक/बाल कथाकार ओम प्रकाश कश्यप ने एक स्वतंत्र लेख लिखा. यहां चतुर्वेदीजी की टिप्पणी और कश्यप जी का लेख दोनों दिए जा रहे हैं. आशा है कि मेरे इस ब्लॉग के पाठकों को इन्हें पढ़ना रुचिकर लगेगा:

१. इक्कीसवी सदी में हिंदी बाल साहित्य

पंकज चतुर्वेदी

बाल मन और जिज्ञासा एक-दूसरे के पूरक षब्द ही हैं । वहीं जिज्ञासा का सीधा संबंध है कौतुहल से है । षिषुकाल में उम्र बढ़ने के साथ ही अपने परिवेष की हर गुत्थी को सुलझाने की जुगत लगाना बाल्यावस्था की मूल-प्रवृत्ति है । भौतिक सुखों व बाजारवाद की बेतहाषा दौड़ के बीच दूशित हो रहे सामाजिक परिवेष और बच्चों की नैसर्गिक जिज्ञासु प्रवृत्ति पर बस्ते के बोझ के कारण एक बोझिल सा माहैल पैदा हो गया है । ऐसे में बच्चों के चारों ओर बिखरे संसार की रोचक जानकारी सही तरीके से देना बच्चों के लिए राहत देने वाला कदम होता है। पुस्तकें इसका सहज, सर्वसुलभ और सटीक माध्यम रही हैं। जब हम 21वी सदी की बात करते हैं तो सामाजिक, अािर्थक, भौतिक सुखों में बदलाव की बात पलक झपकते ही पुरानी होती प्रतीत होती है। इतना तेज परिवर्तन कि कल्पना का घोड़ा भी उससे पराजित हो जाए! विकास के बदलते प्रतिमान, नैतिकता के बदलते आधार, ज्ञान के आागम मार्ग की तीव्रता--- और भी बहुत कुछ जिससे समाज का प्रत्ये वर्ग अछूता नहीं रहा। जाहिर है कि बच्चों पर इसका प्रभाव तो पड़ ही रहा है और उससे उनका जिज्ञसा का दायरा भी बढ़ रहा है।
एक बात और बताना चाहूंगा कि रंग, स्पर्ष, ध्वनि और शब्द - इन सभी के व्यक्तिगत अनुभव, जो बचपन की सबसे बड़ी पूंजी होते हैं, बालक के जीवन से दुर्लभ होते जा रहे हैं । एक जर्जर समाज व्यवस्था के बीच जीवन के लिए संघर्ष करती परंपराएं इन निहायत जरूरी अनुभवों को मुहैया कराने में सक्षम नहीं रह पा रहीं हैं । बालक बड़े अवश्य हो रहे हैं, लेकिन अनुभव जगत के नाम पर एक बड़े शून्य के बीच । पूरे देष के बच्चों से जरा चित्र बनाने को कहें. तीन-चौथाई बच्चे पहाड़, नदी, झोपड़ी और उगता सूरज उकेर देंगे। बकाया बच्चे टीवी पर दिखने वाले डिज्नी चैनल के कुछ चरित्रों के चित्र बना देंगे। यह बात साक्षी है कि स्पर्ष, ध्वनि, दृष्टि के बुनियादी अनुभवों की गरीबी, बच्चों की नैसर्गिक क्षमताओं को किस हद तक खोखला किए दे रही है । ऐसे में बच्चों को सुनाई गई एक कहानी ना केवल रिष्तों के प्रति उसे संवेदनषील बनाती है, बल्कि उसके कौतुहल और कल्पना के संसार को भी संपन्न बनाती है।
देष की आजादी की पहली क्रांति 1857 के समय पूरे देष षनी अफगानिस्तान से ले कर कन्याकुमारी तक की , साक्षरता दर महज एक फीसदी थी। जब हम आजाद हुए तब भी हमारी साक्षरता दर बेहद दयनीय ही थी। जब मुल्क 21वीं सदी के दरवाजे पर खड़ा था, तब हमारे यहां षिक्षा भी एक क्रांति के रूप में आई। भले ही अभी जरूरत के मुताबिक स्कूल कम हैं, मौजूदा सरकारी स्कूल भौतिक व अन्य सुविधाओं में बेहद कमजोर है।। लेकिन यह हम सभी स्वीकार करेंगे कि अब गांव या मजरे में स्कूल खुलना उतना ही बड़ा विकास का काम माना जाता है, जितना कि सड़क बनना या अन्य कोई काम । लेकिन इस ज्ञान की गंगा ने लोगों को पढना तो सीखा दिया लेकिन उसे गढ़ना नहीं सीखा पाया। बच्चेंा पर स्कूल में पढ़ाई का बोझ बढ़ता जा रहा है- ऐसी पढ़ाई का बोझा , जिनका बच्चों की जिंदगी , भाषा और संवेदना से कोई सरोकार नहीं है । ऐसी पढ़ाई समाज के क्षय को रोक नहीं सकती, उसे बढ़ावा ही दे सकती हैं । उन दिनों को याद करें जब तारों भरे आकाश के तले दादी-नानियां परियों की ऐसी कहानियां सुनाया करती थीं, जिनसे चरित्र और व्यक्तित्व के विकास की प्रेरणा मिलती थी । आज बच्चों को आकाष में उड़ते बादल या टिमटिमाते तारे देख कर ना तो कोई उत्सुकता जाग रही है ना ही कौतुहल। हकीकत में ये दोनों तत्व ही बच्चों को सपनों का साकार करने का जज्बा प्रदान करते हैं।

२.



इक्कीसवीं शताब्दी का बाल सहित्य:ओम प्रकाश कश्यप जी के इस विचारोत्तेजक लेख को यहां पढ़ें :

पंकज चतुर्वेदी के आलेख से उभरते सवाल

कुछ दिनों से फेसबुक को लेकर निराशा पनपने लगी थी. लगा था कि मंच चाहे जो हो, साहित्यकार बंधु अपने साथ गुटबंदी लाना नहीं भूलते. उसके कारण सही दिशा में जाती हुई बहस एकाएक व्यक्तिगत हो जाती है. संवाद आत्मप्रचार का जरिया बन जाता अथवा बना दिया जाता है. यह निराशा उस समय भी पनपी थी, जब पंकज चतुर्वेदी ने दूरदर्शन पर बालसाहित्य को लेकर कार्यक्रम की पूर्वसूचना प्रकाशित की; और बाद में बिना यह जाने कि उस भेंट में पंकज जी ने बालसाहित्य को लेकर क्या कहा? बच्चों के साहित्य को लेकर उनका सोच और चिंताएं क्या हैं? अर्थात बिना किसी जिज्ञासा, बगैर किसी कौतूहल के उन्हें बधाइयां मिलने लगीं. कुछ सीमाओं तक यह बुरा भी नहीं है. परंतु सृजनधर्मी द्वारा सार्वजनिक मंच का उपयोग भी यथासंभव सृजनात्मक होना चाहिए, व्यक्तिगत संवाद के लिए नेट पर ही दूसरे माध्यम हैं—ऐसा मेरा मानना है. कार्यक्रम के बाद में भी पंकज जी ने अपनी चर्चा के दौरान क्या कहा, उसपर कोई विमर्श नहीं हुआ. संतोष की बात है कि विचारहीनता की इस स्थिति से उबारा भी पंकज चतुर्वेदी ने. उनसे पहले देवेश अपने पूर्वप्रकाशित लेख का लिंक देकर शुरुआत कर चुके थे. इसके लिए हमें इन दोनों का आभारी होना चाहिए. अपने असहमति के अधिकार के साथ मैं तो हूं.

पंकज जी की विद्वता और उनका लेखन-सामर्थ्य संदेह से परे है. इसके बावजूद मैं कहना चाहूंगा कि उनका आलेख बालसाहित्य के वर्तमान परिदृश्य को लेकर कोई निश्चित दृष्टि हमें नहीं देता. बालसाहित्य को लेकर उनकी अपेक्षाएं भी कुछ नई नहीं हैं. अपने आप में यह लेख उन्हीं अंतर्विरोधों का शिकार है, जो परंपरा और आधुनिकता के बहाने अधिकांश बुद्धिजीवियों को परेशान रखते हैं. वे लिखते हैं—

‘भौतिक सुखों व बाजारवाद(या बाजार?) की बेतहाशा दौड़ के बीच दूषित हो रहे सामाजिक परिवेश और बच्चों की नैसर्गिक प्रवृत्ति पर बस्ते के बोझ के कारण एक बोझिल सा माहौल पैदा हो गया है.’
बस्ते को बोझ मानने वाले अकेले पंकज जी नहीं हैं. हमारे अनेक बुद्धिजीवी इस मामले में उनका समर्थन करते हैं. 30 अक्टूबर के जनसत्ता रविवारीय में प्रदीप पंत अपने यात्रा संस्मरण ‘कुर्ग, काबेरी और का॓फी के इलाके में’ लिखते हैं—

‘हमारे समय में बस्ते बगल में लटकाए जाते थे. तब वे हल्के होते थे. लेकिन अब?….आजादी के बाद जाने कितनी गोष्ठियों-संगोष्ठियों-सम्मेलनों में बच्चों पर बस्ते या पढ़ाई का बोझ कम करने के बारे में विशेषज्ञों ने बहसें-चर्चाएं कीं. जाने कितने आयोग बैठे, लेकिन यह समस्या आज भी वहीं की वहीं है.’
इतने ख्यातिनाम बुद्धिजीवियों के समर्थन के बावजूद बस्ते को बोझ कहना मुझे लिजलिजी और आत्मघाती संवेदना लगती है. मैं समझ नहीं पाता कि जिसमें पुस्तकें हों, लेखन-सामग्री हो, वह बस्ता ‘बोझ’ कैसे हो सकता है! ज्ञान-सामग्री को बोझ बताकर प्रकारांतर में क्या हम बच्चों को पुस्तकों से दूर भागने की प्रेरणा नहीं दे रहे हैं? मेरी शिकायत यहीं तक सीमित नहीं है. मेरा मानना है कि पुस्तकों के इस संक्षेपीकरण ने ज्ञान को सूचना में बदलने में खास भूमिका अदा की है. हम सब सुविधाभोगी होकर वास्तविक ज्ञान से कटे हैं. अब इसी प्रकार के तर्कों के आधार पर बच्चों को भी उससे वंचित रखना चाहते हैं. यह सब बाजार की इच्छानुसार उन्हीं बुद्धिजीवियों द्वारा किया गया है, जो बाजारवाद के आलोचक हैं और अपनी रचनाओं में उसको पानी पी-पीकर कोसते हैं, लेकिन बाजार को दोष देते-देते चाहे-अनचाहे उसी की शब्दावली उधार ले लेते हैं.

अभी ज्यादा अर्सा नहीं हुआ है. सत्तर के दशक में रोजगारमूलक शिक्षा का नारा चला था. बड़े-बड़े शिक्षाशास्त्री उसके समर्थन में जुटे थे. परिणाम यह हुआ कि व्यावहारिक शिक्षा दी जाने लगी. बालक की रुचि, क्षमता तथा सामाजिक जरूरतों को बिसराकर अभिभावकों में तकनीक और विज्ञानाधारित विषयों की पढ़ाई के प्रति रुझान बढ़ता गया. व्यवसाय और अर्थ प्रबंधन से जुड़ी ज्ञान की भौतिकवादी शाखाओं ने मानविकी की पढ़ाई को किनारे कर दिया. रोजगार सृजन के लिए तकनीक शिक्षा पर जोर दिया जाना अपने आप में बुरा नहीं था, परंतु रोजगारमूलक शिक्षा के शोर-शराबे के बीच दर्शन, समाज, भूमिति, इतिहास, नृतत्व, राजनीति, मानविकी तथा सामाजिकी के संश्लेषित प्रविधि पर आधारित विषयों को बचाने और बनाने वाली जितनी शाखाएं थीं, जो ज्ञान को एकीकृत करके देखतीं तथा उपलब्ध विचारधाराओं के बीच समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाती थीं, सब नेपथ्य में ढकेल दी गईं. समाजशास्त्र को समाजविज्ञान बनाकर आंकड़ों में उलझा दिया गया. इससे हमें योजनाएं बनाने में मदद तो मिली, परंतु हमारा मस्तिष्क ज्ञान के संश्लेषण की प्रक्रिया को भूलता गया. संश्लेषणात्मक ज्ञान जिसको अकादमिक भाषा में ‘शास्त्रीय ज्ञान’ भी कहा जाता है, की उपेक्षा हुई. उनके स्थान पर प्रबंधन और तकनीकी अध्ययन से जुड़े विषय जो बाजार की मांग थे, निरंतर छाते चले गए. बाजार और समाज दोनों विशेषज्ञों के हवाले हो गए. विखंडनवाद सोच पर हावी हुआ तो संशयवाद का उभार स्वाभाविक था.

ज्ञान के उथलेपन को छिपाने के लिए परीक्षाओं में लंबे-लंबे उत्तर वाले प्रश्न हटाकर वस्तुनिष्ठ प्रश्न सजा दिए गए. बहाना बनाया गया कि इससे नकल की दुष्प्रवृत्ति पर काबू पाया जा सकेगा. असल में यह ग्रामीण प्रतिभाओं को सत्ता-केंद्रों पर आने से रोकने की साजिश का परिणाम थीं, जो अपनी प्रतिभा के बल पर बिना किसी कोचिंग के भी शहरी प्रतिभाओं के लिए चुनौती बनी हुई थीं. वह अपने साथ बचत-संस्कृति और संयुक्त परिवार जैसी टिकाऊ परंपराएं भी साथ लाती थीं. उन्हें बाजार की चाल में एकाएक फंसाना आसान नहीं था.(आज स्थिति बदल चुकी है. नागरीय क्षेत्रों में अपने मंसूबे साधने के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियां अब गांवों की ओर भी रुख करने लगी हैं. वहां लोग आसानी से उनके मकड़जाल में फंसते जा रहे हैं. जमीनों के मुआवजे में मिली रकम को मोटरसाइकिल, कार आदि पर खर्च करना इसका उदाहरण है.). यह सब बाजार की पहल पर हुआ जो ज्ञान को सूचना में बदल देना चाहता था. हम उसमें फंसते चले गए. आज भी फंसे हैं. सत्तर-अस्सी के दशक मंे रोजगारमूलक शिक्षा के नारे के बीच पली-बढ़ी पीढ़ी आज बाजार की सबसे बड़ी नियंत्रक और समर्थक शक्ति है. हम भूल जाते हैं कि ज्ञान के संश्लेषण की योग्यता के बगैर समाज और व्यक्तिमन की जटिलताओं को समझ पाना असंभव है. उसके अभाव में मानवीय बोध का उथलापन बड़ी-बड़ी डिग्रियां हासिल करने के बावजूद बना रहता है. विशेषज्ञों के इस समाज में हम संस्कृति और परंपराओं के क्षय पर चिंता प्रकट करते हैं, बिना यह जाने कि ये दोनों संश्लेषणात्मक प्रत्यय हैं. अकेले ज्ञान की विश्लेषणात्मक प्रविधियों के सहारे इन्हें तथा इनपर छाये संकट को समझ पाना असंभव है. लार्ड मैकाले को दोष दिया जाता है कि उसने बोध को रटंत विद्या में बदलकर भारतीयों को क्लर्क बनाने में मदद की थी. आधुनिक शिक्षा-पद्धति के पीछे तो मैकाले का योगदान नहीं है. इस बार तो हमने खुद ही खुद को मशीनी शिक्षापद्धति के हवाले किया है. हम भूल गए कि मानवीय प्रबोधीकरण की प्रक्रिया को अपने हितों के अनुरूप बदलने के लिए बाजारवाद के समर्थक किसी भी सीमा तक जा सकते हैं. बस्ते को बोझ बताकर ज्ञान के सूचनाकरण में सहायक हम ही बने हैं.

सवाल यह भी मौजूं है कि ‘बस्ते का बोझ’ क्या सचमुच हमारी शिक्षा प्रणाली की लचरता की देन है अथवा आधुनिक शिक्षा-पद्धति से सामंजस्य न बिठा पाने की हमारी कमजोरी का नतीजा है? आधुनिक स्कूलों में पढ़ाई समय-सारणी के अनुसार होती है. बच्चे से अपेक्षा की जाती है कि तयशुदा समय-सारणी के अनुसार ही पुस्तकें और अभ्यास पुस्तिकाएं स्कूल में लाए. लेकिन प्रायः यह हो नहीं पाता. बच्चे प्रशिक्षण की कमी और यदाकदा आलस्य के कारण समय-सारणी के बाहर की पुस्तकें और अभ्यास पुस्तिकाएं अपने बस्ते में ठूंस लेते हैं. कभी-कभी डर यह भी काम करता है कि कहीं अध्यापक या अध्यापिका समय-सारणी से इतर विषय के बारे में कुछ पूछ न लें. माता-पिता बच्चे को वैसा प्रशिक्षण देने के बजाय बस्ते को ही बोझ बताने लगते हैं. इस बात से अनजान कि बालक यदि पाठ्यपुस्तकों को बोझ समझेगा तो बाकी पुस्तकों के प्रति सम्मान का भाव भी क्यों दिखाएगा. फिर चाहे वह संस्कृति का आधार कही जाने वाली धार्मिक पुस्तकें हो अथवा साहित्यिक. एक अभिभावक के रूप में हम चाहते हैं हमारा बालक प्रत्येक विषय में प्रवीण हो. इसके लिए हम उसकी ड्रेस पर ध्यान देते हैं. अच्छे और स्वास्थ्यकारी टिफिन की व्यवस्था करते हैं. लेकिन कुछ ही माता-पिता ऐसे होंगे जो पुस्तकों को समय-सारणी के अनुरूप सहेजने अथवा बच्चों को उसका प्रशिक्षण देने का काम करते तथा चाहते हों कि उनका बालक पाठ्येत्तर पुस्तकों के अध्ययन के लिए भी समय निकाले. अधिकांश तो अच्छे और महंगे स्कूल को अच्छी पढ़ाई का पर्याय मान चुके हैं. बहरहाल, बस्ते को समय-सारणी के अनुसार सुनियोजित करने का काम अभिभावकगण करें या न करें, बाजार इस समस्या के निपटान का हल अवश्य सोच चुका है. इसलिए स्कूलों में लेपटाप को लाया जा रहा है. प्रदीप पंत जैसे अनेक बुद्धिजीवी इसी में शिक्षा का कल्याण देखते हैं, उन्होंने लिखा भी है, ‘शायद भविष्य में लैपटाप इस समस्या को हल्का करे.’ संभवतः इस और ध्यान दिए बगैर कि बच्चों के पास लैपटाप हुआ तो इंटरनेट भी होगा. इंटरनेट के साथ विज्ञापन स्वाभाविक रूप में जुड़ जाएंगे. अब जरा इस स्थिति की कल्पना कीजिए कि बालक कक्षा में गणित की पढ़ाई कर रहा है और लैपटाप पर किसी कंपनी के ‘बर्गर’ का विज्ञापन या क्रिकेट मेंच आ रहा है.

बस्ते के बोझ से परेशान हमारी पीढ़ी अपनी पढ़ाई के संघर्षमय दिनों को भूल जाती है, जब पाठशाला जाने के लिए पैदल ही मीलों का सफर तय करना पड़ता था. याद भी करती है तो इस तरह कि शिक्षा के लिए किया उसका सारा संघर्ष अतीतमोह का शिकार नजर आने लगता है. जनसत्ता के इसी अंक में बीते दिनों को याद करते हुए राघवेंद्र लिखते हैं—

’नौवीं क्लास तक तो पिताजी की साइकिल के आगे लगे डंडे पर बैठकर स्कूल जाते रहे….’
है न अजीब बात! एक ओर तो हम अतीतमोह से ग्रस्त हो विकास के प्रति विरोध दर्ज कराते हंै. दूसरी ओर आधुनिकतम सुविधाएं भी हमको चाहिए. यही नहीं सुविधार्जन की दौड़ में पिछड़ गए व्यक्ति को आसानी से उसका सामाजिक-बौद्धिक पिछड़ापन मान लिया जाता है. इस ऊहापोह में हम उस संघर्ष को पूरी तरह बिसरा देते हैं, जिसके बूते हमने सफलता प्राप्त की है. खासकर बच्चों को तो उस कष्ट से दूर ही रखना चाहते हैं, जो हमने स्वयं झेले थे. यह बुरी बात भी नहीं है. परिवार और परंपरा के बीच जीने वाले हम भारतीयों की यह स्वाभाविक दुर्बलता है तो ताकत भी है. लेकिन सुविधाओं की चाहत में हम भूल जाते हैं कि बाजार जो हमारे लिए अन्यान्य सुविधाएं प्रदान कर रहा है, अपने लाभ के लिए वह शिक्षा को भी प्रा॓डक्ट के रूप में उपलब्ध कराएगा. फिर उसकी कीमत भी हमसे वसूलेगा. वैसे राघवेंद्र जी उन लाखों बच्चों से बेहतर स्थिति में थे जिन्हें स्कूल जाने के लिए साइकिल उपलब्ध थी. वरना हमारी पीढ़ी के जेहन में ऐसी हजारों हकीकतें हैं, जब स्कूल नंगे पांव जाना पड़ता था. भोजन के नाम पर सूखी रोटियां मिलती थीं. घर आने पर पढ़ाई के अलावा दूसरे कामों में भी हाथ बंटाना पड़ता था. उस समय कोई नहीं कहता था कि शिक्षा के लिए इतनी मशक्कत ओटनी पड़ती है. आज बालक को साफ-सुथरी ड्रेस मिलती है. सुबह का नाश्ता, आने-जाने के लिए बस. पहले शिक्षार्थी के लिए रास्ते और बाधाएं चिंता का कारण नहीं थे, इसलिए शिक्षा तपस्या थी. आज वह कैरियर की सीढ़ी है. सुख-सुविधाओं की होड़ में हम भूल जाते हैं कि सुविधा लोलुपता ने ही अमेरिकी बच्चों को शिक्षा से दूर किया है. इसलिए राष्ट्रपति ओबामा को शर्म भूलकर बच्चों से पढ़ने की अपील करने को बाध्य होना पड़ा है. ज्ञानार्जन के प्रति हमारी भी यही उदासीनता रही तो वह दिन दूर नहीं जब अपने बच्चों से हमें भी यही अपील दोहरानी पड़े. सूचना तकनीक ने हमारे लिखने की आदत पर प्रहार किया है. पहले चौथी-पांचवीं पास व्यक्ति अपने विचारों को पत्रादि के माध्यम से अभिव्यक्त कर लेता था, पचासियों गांव, वहां के निवासियों, सगे-संबंधियों के नाम और पते याद रखता था. आज दस-बीस फोन नंबर याद रख पाना भी आसान नहीं. स्मृति आज मोबाइल में कैद हो चुकी है, पत्रादि एसएमएस में. ज्ञान का सूचनाकरण और सूचनाओं का लैपटापीकरण भविष्य में क्या गुल खिलाएगा, कल्पना कर लीजिए.

पंकज जी का एक और वाक्य मुझे जल्दबाजी में निकाले गए निष्कर्ष का शिकार नजर आता है—

‘रंग-स्पर्श, ध्वनि और शब्द, इन सभी के व्यक्तिगत अनुभव जो बचपन की सबसे बड़ी पूंजी होते हैं, बालक के जीवन से दुर्लभ होते जा रहे हैं. एक जर्जर समाज व्यवस्था के बीच जीवन के लिए संघर्ष करती परंपराएं इन निहायत जरूरी अनुभवों को मुहैया कराने में सक्षम नहीं रह पा रही हैं.’
यह बात समझ से परे है कि पंकज जी ने ये शब्द किस अनमन्यस्कता के बीच लिखे हैं. संभव है इन शब्दों का अर्थ अभिधा में न होकर लक्षणात्मक हो. परंतु किसी भी प्रकार ये यथार्थ के करीब नजर नहीं आते. व्यावहारिक दृष्टि से तो आज के बालक की दुनिया पहले से अधिक रंगीन है. प्राकृतिक रंगों की कमी को पाटने के लिए इंटरनेट और टेलीविजन की रंगारंग दुनिया उसके सामने है. ध्वनि का स्तर प्रदूषण तक बढ़ चुका है. स्पर्श यदि इसको आत्मीय संबंधों तक माना जाए तो एकल परिवारों की संख्या बढ़ने से वह अवश्य सीमित हुआ है. जहां तक शब्दों की बात है तो वह भी बस्ते के बोझ के साथ बढ़ा ही है. भले ही कंप्यूटर के माध्यम से हो, शब्दों के बिना आधुनिक शिक्षापद्धति भी लंगड़ी है. हां संवेदनात्मक अनुभूतियों में कमी अवश्य आई है. लेकिन ज्ञान को जब सूचनाओं के रूप में देखा जाएगा, शिक्षा जब ‘उत्पाद’ के रूप में बाजार में उपलब्ध होगी, बच्चे जब माता-पिता और परिजनों के बजाय आया की गोद में बचपन बिताएंगे, तो ये संकट आएंगे ही. इसके बावजूद मुझे नहीं लगता कि भारतीय समाज पर विचारहीनता के फैलाव अलावा कोई और संकट है. समाज-व्यवस्था को जर्जर बताना तो घोर पूर्वग्रहग्रस्तता है. भारतीय समाज इन दिनों संक्रांतिकाल से गुजर रहा है. शताब्दियों से दबे-कुचले, उपेक्षित, उत्पीड़ित जन लोकतांत्रिक परिवेश का लाभ उठाकर अपने अधिकार के लिए प्रयत्नरत हैं. इससे राजनीति में स्वाभाविक अस्थिरता और उथल-पुथल है. पूरा समाज आड़ोलन में है. अन्ना हजारे के आंदोलन जागरूक होते समाज की परिणति है. वरना भ्रष्टाचार तो समाज में शताब्दियों से रहा है. लोगों का क्षुब्ध होकर भावावेश में सड़कों पर उतर आना, हमारी लोकतांत्रिक प्रबुद्धता की ओर संकेत करता है. यथास्थितिवादियों को यही नागवार गुजर रहा है. अवश्यंभावी परिवर्तन को सहर्ष स्वीकारने के बजाय शताब्दियों से शीर्ष पर विराजमान रहे लोग प्रतिक्रियावादी आचरण कर रहे हैं. अपनी चिंताओं को वे परंपरा और सांस्कृतिक अपसंस्करण की शिकायत के रूप में सामने ला रहे हैं. एक बड़ी चुनौती परिवर्तनवादियों के सामने भी है. जिस लोकतांत्रिक प्रणाली के सहारे वे परिवर्तन की आस लगाए हुए हैं, वह स्वयं सवालों के घेरे में है. उसमें वे सभी विकृतियां प्रवेश कर चुकी हैं जिसके आधार पर हजारों वर्ष पहले प्लेटो ने उसकी आलोचना की थी. अस्मिताओं के संघर्ष को राजनीति और बाजार अपनी-अपनी तरह से भुनाने में लगे हैं. बाजार तरह-तरह के लुभावने अपररूपों के साथ सामने आ रहा है. दीपावली, दशहरा जैसे पर्व तो पहले ही बाजार के कब्जे में थे, अब करवाचौथ, तीज जैसे दांपत्य जीवन से जुड़े पर्वों, परंपराओं पर भी बाजार का अधिपत्य है. राजनीति का उथलापन सत्ता में बने रहने के लिए नए-नए कर्मकांड रच रहा है. इसका हालिया उदाहरण ए. के. रामानुजम् के अतिमहत्त्वपूर्ण लेख को दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से हटाया जाना है. कभी जातक कथाओं, पऊम चरिय, रामायण के अलावा श्रुति और लोककाव्य में सैंकड़ों प्रकार से सुनी-सुनाई जाने वाली रामकथा को किसी एक ढांचे में कैद कर देने का अभिप्राय है कि राजनीति के लिए कबीर के राम किसी काम के नहीं है. आगे जो भी राम चलेंगे वे तुलसी के वीरभेषधारी राम ही होंगे. कट्टरपंथी भूल जाते हैं कि भारत की जमीन पर निरंकुशता के बीज पनप ही नहीं सकते. कुछ समय जनता को भले ही बरगला लें, कालांतर में उनकी पराजय सुनिश्चित है. ज्ञान के सूचनात्मक हो जाने से समन्वय की प्रवृत्ति कमजोर पड़ी है. इससे हर क्षेत्र में असहिष्णुता का वातावरण है. इसलिए आवश्यकता समाज के विवेकीकरण की है; न कि विचारहीनता के जंगल में अरण्यरोदन की.

‘हिंदी के लेखकों को अपनी नाम-लिप्सा से दूर होकर आज के समय के मुताबिक नए विषयों पर पुस्तकें तैयार करनी चाहिए….कवियों को पहले यह सोचना चाहिए कि वे कविता लिख क्यों रहे हैं. वही पुराने बिंब, पुराने मिथक, चिड़िया, खाने की चीजें….देखें कि क्या उनकी किताब कोई उठाकर खुद पढ़ रहा है….’
बात समझ में आने वाली है. साहित्य का नए क्षेत्रों में पदार्पण होना ही चाहिए. हाशिये के पात्रों, चरित्रों, समाजों, विषयों और विधाओं को लेकर लेखन होना चाहिए. लेखक समय के संदर्भ में सर्वकल्याण के ध्येय से कलम उठाएगा तो लोग इतने कृतघ्न भी नहीं हैं कि अपने शुभचिंतक को बिसरा दें. हां, नाम-लिप्सा के वशीभूत गढ़ेगा तो उसका नाम-काम दोनों समय की लहरों पर बिला जाएंगे. लेकिन अभिव्यक्ति के लिए लेखक कौन से पात्रों का सहारा ले, यह उसका अपना चयन है. अधिकार है उसका. हालांकि लेखक होने के नाते उसकी मुश्किलें कम नहीं हैं. यदि वह पुराने को त्यागकर सर्वथा नए को अपनाए तो उसे बाजारवादी कहकर धिक्कारा जाएगा. यदि नए की ओर से मुंह फेरकर बैठा रहा तो परंपरावादी. सवाल है कि क्या कोई बालकविता मात्र चिड़िया, कबूतर अथवा खाने-पीने की चीजों पर केंद्रित होने के कारण हेय जाती है? साहित्य क्या केवल पात्रों और घटनाओं का सिलसिला है? बालसाहित्य से गांव पहले ही हाशिये पर हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि गांव के प्रतीकों को भी मिटाने की साजिश रची जा रही हो? आज भी किसी छोटे बच्चों को चित्र बनाने को दिए जाएं तो उनके बनाए आधे से अधिक झोपड़ी, कुआं, उगते हुए सूरज के होंगे. इसलिए कि उसको पढ़ाया जाता है कि भारत गांवों में बसता है. गांव हम बड़ों की स्मृति का भी हिस्सा है. वह रहा तो गाय, गोबर, चिड़िया, मिथक आदि रचना में आएंगे ही. साहित्य के लिए इन्हें वज्र्य कहकर क्या आप हमारी स्मृति को प्रदूषित कर देना चाहते हैं! हुजूर, चिड़िया पर लिखी कविता की आवश्यकता गांव के बच्चों को नहीं है. वे अपना बचपन पशु-पक्षियों के बीच जीते हैं. उनके लिए कविता लिखी भी नहीं जाती. कोई लिखे तो उन तक पहुंच नहीं पाएगी. पर शहरी बच्चों से पूछ लीजिए, उनमें से कितनों से चिड़िया को ‘लाइव’ देखा है? पर्यावरण की मार चिड़िया, कबूतर, कौआ, बाज जैसे मासूम पक्षियों पर पड़ी है. आप उसको कविता से भी गायब कर देना चाहते हैं! ध्यान रहे कविता में चिड़िया का होना संवेदना की मौजूदगी का प्रतीक है. यदि संवेदना ही न रही तो कविता क्या खाक बचेगी! चिड़िया और खाने-पीने की चीजों के स्थान पर आप जो लाना चाहते हैं, वह आप जानें, परंतु मित्र साहित्यत्व विधाओं और विषयों तक सीमित नहीं होता. साहित्यत्व वह प्रभाव है जिसके लिए कोई रचनाधर्मी अपनी कलम उठाता है. पाठक द्वारा रचना का पाठ पूरा कर लेने के बाद भी यह उसके मन-मस्तिष्क में बना रहता है. साहित्यकार का काम बालक को शिक्षित करना नहीं होता. न ही प्रश्नोत्तर साहित्य का धर्म है. उसके लिए अन्यान्य विषय और विशेषज्ञ हैं. साहित्यकार का कर्तव्य अपनी रचना के माध्यम से पाठक के मन में प्रश्नाकुलता पैदा करने से हो जाता है.

साहित्यिक लेखन के पीछे नाम लिप्सा भले उत्प्रेरक शक्ति के रूप में काम करती हो. उसकी मूल प्रेरणा, सृजनात्मकता का आधार उसकी नैतिक संप्रेरणाएं तथा मानवमात्र के प्रति कल्याण की भावनाएं होती हैं. कल्याण-भाव के साथ साहित्यकार उसी को शब्द देता है. आंतरिक नैतिकता और कल्याण-भाव के साथ कलम उठाने वाले साहित्यकार को इस बात के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता कि वह क्या लिखे….क्या न लिखे. अपनी सदेच्छाओं को वह चाहे जिस रूप में अभिव्यक्त करे, उसका खुलेमन से स्वागत होना चाहिए. समीक्षक का अधिकार केवल इतना है कि वह रचना के प्रस्तुतीकरण तथा मौलिकता पर बात करे. यदि साहित्यकार के पास मौलिक दृष्टि है तो वह चिड़िया तो क्या मामूली तिनके पर भी अविस्मरणीय रचना दे सकता है. और लोगों ने लिखी भी हैं. यह क्षेत्र समीक्षकों की जवांमर्दी दिखाने का हरगिज नहीं है.

पंकजजी सर्वथा गलत भी नहीं हैं. हिंदी बालसाहित्य के आगे ढेर सारी चुनौतियां हैं. लेकिन वह सब गैरपरंपरागत किस्म की हैं. कला, कला के लिए….साहित्य, साहित्य की बहस पुरानी पड़ चुकी हैं. पर इसके चलते हिंदी बालसाहित्यकार अपने आरंभ से ही अतीतमोह का शिकार बना है. बालसाहित्यकार सामान्यतः यही सोचकर कलम उठाता है कि बच्चे को कुछ पढ़वाना है. वह भूल जाता है कि साहित्य का काम पाठक के निर्णय-सामथ्र्य में वृद्धि करना है. इधर तकनीक और बाजार जितनी तरक्की कर रहे हैं, पूंजी के दम पर बालक के चारों ओर उपकरणों को जो जाल बुना जा रहा है, उसमें आवश्यक है कि बालक को विज्ञान और तकनीक संबंधी आधुनिकतम शोधों की जानकारी हो. परंतु इसके साथ उसमें यह विवेक जाग्रत करना भी अनिवार्य है कि कौन-सी तकनीक तात्कालिक रूप से उपयोगी है और किसको उसे भविष्य के लिए छोड़ देना चाहिए. एक अन्य चुनौती लोकतंत्र की खूबियों-खामियों से बालक को परचाने की भी है. नई पीढ़ी लोकतांत्रिक परिवेश में सांस ले रही है. लेकिन घरेलू संस्कारों से लेकर संस्कृति और समाज का ढांचा आज भी सामंती बना हुआ है. इस माहौल को तभी सुधारा जा सकता है कि जब पूरा समाज लोकतंत्र की खूबियों-खामियों के प्रति सचेत हो. विचारहीनता का संकट बालसाहित्य को भी प्रभावित कर रहा है. ऊपर से समीक्षकों के अपने अंतर्विरोध हैं. वे मानसिक रूप से परंपरा और संस्कृति के दबाव में होते हैं, जबकि उनकी जीवनचर्या बाजार तय करता है. ऐसे में समीक्षा रस्मअदायी बनकर रह जाती है. हिंदी बालसाहित्य के अलावा शायद ही कोई और क्षेत्र हो जहां समीक्षा की कोई कसौटी बनाए बिना ही इतिहास लिखे जा रहे हों.

इस लेख की एक और अजीब स्थापना की ओर ध्यानाकर्षित कराना चाहूंगा-

‘जब तक लेखक महंगा नहीं होगा, तब तक न तो उसका सम्मान बढ़ेगा, न ही पुस्तकों का.’
गोया लेखन न हुआ, ब्रांड हो गया. जिसका ऊंचा दाम, उसका ऊंचा नाम. लेखक लगता है साहित्य के रीतिकाल को वापस लाना चाहते हैं. अगर महंगा होना ही कसौटी है तब तो कबीर, नानक, रविदास की परंपरा को उनकी नजर से खारिज हुई समझो. पंकजजी को जे. के. रोलिंग नामक लेखिका की याद अवश्य होगी. वे दुनिया के सबसे महंगे लेखकों में हैं. संभवतः सबसे अधिक कमाई की है उन्होंने. परंतु जिस ‘हैरी पा॓टर’ पुस्तक शृंखला से उन्होंने नाम और नामा कमाया है, जिसकी करोड़ों प्रतियां अंग्रेजी और विभिन्न भाषाओं में अनुवाद के बाद खप चुकी है, उसको स्वयं अंग्रेजी साहित्य जगत साहित्यिक कृति नहीं मानता. अंग्रेजी बालसाहित्यकारों में प्रतिष्ठा ‘हिज डार्क मैटीरियल’ पुस्तक त्रयी के रचनाकार फिलिप पुलमेन की है. पुलमेन ने परीकथाओं को नए अंदाज में लिखा है.

पंकजजी का यह कहना, ‘परिवर्तन इतना तेज है कि ‘कल्पना का घोड़ा भी उससे पराजित हो जाए.’—एकदम उचित है. उनकी इस बात से असहमति का भी कोई कारण नहीं है कि बच्चों के लिए नए विषय साहित्य में सम्मिलित करने चाहिए. नए विषयों को लेकर रचनाएं आनी चाहिएं. लेकिन मैं कहता हूं कि साहित्य क्या केवल पात्रों तक सीमित होता है. राजा-रानी को केंद्र बनाकर क्या लोकतंत्र को महत्त्व देती, सामंतवाद को धिक्कारती हुई कहानी नहीं लिखी जा सकती? इस लेख पर कहीं न कहीं पंकजजी की पत्रकारीय त्वरा का प्रभाव है. मेरा दृढ़ विश्वास है कि साहित्यत्व पात्रों या घटनाओं में नहीं, उस प्रभाव में छिपा होता है, जिसको पाठक रचना पढ़ते समय तथा उसके बाद अपने मानस पर महसूस करता है. या जिसके आवेग में कोई रचनाकार कलम उठाता है. विज्ञान के यंत्र, उपकरण, लैव को लेकर लिखी गई कोई भी कहानी विज्ञानकथा नहीं बन जाती. वैसे ही राजा-रानी की मौजूदगी से उसका सामंतवादी होना आवश्यक नहीं है. मेरा विनम्र निवेदन है कि पंकजजी अपने लिखे पर पुनः विचार करें, ताकि बालसाहित्य को एक दिशा मिल सके. वे बहुपठित-बहुश्रुत लेखक हैं, जो भी लिखेंगे उसकी धमक दूर तक जाएगी. ऐसे में सावधानी आवश्यक है.

ओमप्रकाश कश्यप

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