Thursday, September 15, 2011
प्रदीप सौरभ के" देश भीतर देश" उपन्यास का एक अंश
हिंदी पत्रकारिता जगत में प्रदीप सौरभ ने समसामयिक एवं सचेतन दृष्टि से संपन्न अपने निर्भीक/विचारोत्तेजक लेखों/रिपोर्ताजों से जितनी ख्याति अर्जित की है उससे कहीं अधिक ख्याति उन्होंने अपने वेहद चर्चित मात्र दो उपन्यासों -मुन्नी मोबाइल तथा तीसरी ताली के द्वारा अर्जित की है. यहां प्रस्तुत है वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से शीघ्र प्रकाश्य उनके नए उपन्यास "देश भीतर देश" का एक रोचक अंश...
देश भीतर देश
-प्रदीप सौरभ
...विनय दिन पर दिन चिडचिडा होता जा रहा था। उसे नहीं समझ आ रहा था कि उसका नर्म स्वभाव कैसे चिडचिडेपन में बदल रहा है। चिडचिडापन उसके काम पर असर डाल रहा था। एक आध बार कंपनी के एमडी ने उसे काम को लेकर टोका भी था। काम को लेकर पहले उसकी कोई शिकायत नहीं थी। वह अब भुलक्कड भी हो रहा था। वह चीजों को भूल जाता था। कई बार वह पैंट की चैन बंद करना और टाई की नाड कसना भी भूल जाता था। उम्र के साथ देश भीरत देश का दौरा और मिल्की की याद उसे अब कुछ ज्यादा ही सताने लगी थी। ऐसे में उसने फैसला किया कि थोडे दिन के लिए वह अपने माता-पिता को दिल्ली बुला लेता है। खाना-पीने की रोज- रोज की हाय-हाय खत्म हो जायेगी। मां के हाथ का खाना मिलेगा तो गिर रहा स्वास्थ्य भी ठीक हो जायेगा। अकेलापन भी कम हो जायेगा। यही सोच कर उसने प्रयागराज एक्सप्रेस के दो टिकट उसने अपने पिता को कूरियर से भिजवा दिये।
रातभर फेसबुक में घुसे होने के चलते विनय सुबह आठ बजे के बाद ही उठता था। कई बार उसे और देर हो जाती थी। ऐसे में वह तैयार हो कर बिना ब्रेकफास्ट किए हुए ही आफिस चला जाता था। सुबह टाइम पर न उठ पाने के डर से उसने उस दिन सोचा कि आज रात को वह नहीं सोयेगा और माता-पिता को स्टेशन से लाने के बाद सोयेगा। वैसे भी उस दिन रविवार था। छुट्टी का दिन। रात को अपनी प्रिय दलिया खाने के बाद पहले तो वह आफिस की कुछ मेल लिखने में लगा रहा। बाद में उसने अपनी आदत के अनुसार फेसबुक पर लागआन कर लिया। उसकी फ्रेंडस लिस्ट इतनी बडी थी कि जब भी वह लागआन करता, ढेर सारे अनचाहे चैट बाक्स उसके स्क्रीन पर उभर आते। किसी में हैलो होता, किसी में हाय तो किसी में आप कैसे हैं जैसे औरचारिक सवाल। पहले तो विनय शिष्टाचारवश सबके बाक्स में जा कर लिख देता था 'बिजी'। इसके बाद एक एक करके गैर जरूरी चैट बाक्स बंद हो जाते थे। इसके बाद भी कुछ बिजी के सवाल पर भी सवाल कर देते थे कि लगता है आजकल आप नाराज हैं जो ठीक से बात नहीं करते हैं। इस तरह के सवालों का वह फिर जवाब नहीं देता था।
इन तमाम चैट बाक्सों के बीच में उसे अहमदाबाद में रहने वाली मिष्ठी बनर्जी का चैट बाक्स भी दिखा। उसमें गुजराती में लिखा था-'केम छो।'
विनय ने भी गुजराती में जवाब दे दिया-'मजा मा।'
यह थोडी अजीब लगने वाली बात हो सकती है कि एक बंगाली लडकी गुजराती लिख रही है। असल में मिष्ठी के पिता गुजरात में आईआईएम में प्रोफेसर हो कर अहमदाबाद आए थे। लंबे समय तक आईआईएम में रहने के कारण्ा मिष्ठी का जन्म अहमदाबाद में हुआ और पढाई- लिखाई भी। बचपन से गुजरात में रहने के कारण उसे गुजराती आ गई थी। अच्छी गुजराती। वैसे वह बांग्ला भी धारा प्रवाह बोलती थी। वैसे तो अहदाबाद में बंगाली परिवार बहुत कम हैं। लेकिन जितने भी हैं उनमें एक खास तरह की नेटवर्किंग हैं। दुर्गा पूजा और अन्य बंगाली त्यौहारों में वे सामूहिक रूप से मिलते-जुलते रहते हैं। अहमदाबाद में एक पूजा पंडाल बंगाली समुदाय का भी होता है। उसमें बांग्ला नाटक, बाउल संगीत के साथ रबीन्द्र संगीत के भी कार्यक्रम होते हैं। दुर्गा प्रतिमा बनाने वाले और ढोल बजाने वालों को विशेष रूप से कोलकत्ते से बुलाया जाता है। वैसे अहमदाबाद के बंगाली परिवार अपने बच्चों की शादी ब्याह के लिए कोलकत्ते का ही रास्ता पकडते हैं। गुजरातियों से शादी-ब्याह के बहुत कम उदाहरण मिलते हैं अहमदाबाद में।
मिष्ठी का परिवार अहमदाबाद के पाश सेटेलाइट इलाके में रहता है। उसके पिता ने रिटायरमेंट से पहले ही सेटेलाइट में एक बडा फलैट ले लिया था। कमोबेश गुजरात को तरक्कीपसंद और शांत राज्य मानने के चलते ही उन्होंने अहमदाबाद में बाकी का जीवन बिताने का फेसला किया था। लेकिन गुजरात दंगों के दौरान अल्पसंख्यकको पर किये गए जुल्म से वह दुखी हो उठे थे। वह इस बात से कुछ ज्यादा दुखी थे कि इन दंगों में गुजरात सरकार पर्दे के पीछे से शामिल थी। दंगों के बाद से वह लगातार अहमदाबाद छोड कर कोलकत्ते में बसने की सोचने लगे थे। लेकिन इसी बीच उनकी एकलौती बेटी मिष्ठी की एक बडी फार्मा कंपनी में अच्छे पैकेज में नौकरी लग गई थी। मिष्ठी का करियर न खराब हो इसलिए उन्होंने कोलकत्ते में बसने के अपने फैसले को फिलहाल स्थगित कर रखा था। लेकिन यह तय कर लिया था कि जैसे ही मिष्ठी की शादी वह कर देंगे तो अपना बोरिया बिस्तर अहमदाबाद से लपेट लेंगे। वैसे मिष्ठी की उम्र तीस पार थी, लेकिन वह शादी के लिए तैयार नहीं थी। उसका कहना था कि अभी उसे यूएसए में और पढाई करनी है। उसके बाद ही वह शादी-ब्याह के बारे में सोचेगी।
'केम छो' और 'मजा मा' के बाद मिष्ठी और विनय के बीच बातचीत शुरू हो गई। विनय ने अपने चैट बाक्स में लिखा-'गुजरात के लोग भी क्या दिल्ली को अपने देश की राजधानी नहीं मानते है? वहां भी देश के भीतर एक देश है क्या?'
'मैं समझी नहीं।'-मिष्ठी ने सवाल के प्रति अनभिज्ञता जताते हुए लिखा।
'असम के लोग दिल्ली को अपने देश की राजधानी नहीं मानते हैं। वे ब्रम्हपुत्र के पार की दुनिया को विदेश कहते हैं और वहां के लोगों को विदेशी मानू।'
'आखिर ये सवाल क्यों?'
'ये सवाल इसलिए कि गुजरात में भी तो मुसलमानों को विदेशी की तरह समझा जाता है। उन्हें मारा जाता है। असम में भी चिकेन नेक के पार के लोगों के साथ ऐसा ही होता है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी बात-बात पर 'मेरे गुजरात' शब्द का प्रयोग करते हैं, जैसे वह उनकी निजी जागीर हो।'
'असम के बारे में तो मैं नहीं कुछ कह सकती। अलबत्ता गुजरात में इसके पीछे भगवा राजनीति है। और मोदी इसी भगवा राजनीति का एक खूंखार चेहरा है। सत्ता के लिए वह कुछ भी कर सकते हैं।'
'आप मोदी को खूंखार कह रही हैं। वे तो गुजरात के विकास पुरूष हैं।'
'सत्ता में काबिज होने के बाद का ये बदला हुआ उनका मुखौटा है। दंगों में जिस तरह से उन्होंने दंगाईयों की मदद की थी, वह कोई विकास पुरूष नहीं करता है। वैसे भी गुजरात आजादी के बाद से ही तरक्की पसंद राज्य रहा है। यहां के लोग इंटरपेनियोर होते हैं। शुरू से ही गुजरात की जीडीपी देश के अन्य राज्यों से ज्यादा रही है।'
'तो मोदी का विकास एक नाटक है या कुछ और।'
'विकास ऐसा है कि बेरोजगारों की लंबी फौज है यहां। सौराष्ट्र के बहुत सारे हिस्से में लोग पीने के पानी के लिए तरसते हैं। महिलाओं के स्वास्थ्य के आंकडें भी चौंकाने वाले हैं। शिशु मृत्यु दर भी अन्य राज्यों की तुलना में यहां कम नहीं है। शिक्षा का स्वास्थ्य भी बहुत अच्छा नहीं है।'
'तो गुजरात के लोग देश के अंदर देश नहीं देखते हैं।'
'मुझे तो ऐसा नहीं लगता है। गुजराती मुसलमानों को छोडकर सब कुछ पसंद करते हैं। दिल्ली भी और कन्याकुमारी भी। वैसे बहुत से गुजराती ऐसे भी हैं, जो दंगा फसाद को अच्छा नहीं मानते हैं, जिनकी आवाज नक्कारखाने में तूती जैसी है।'
'फिर भी एक सवाल यह है कि गांधी के गुजरात में इतनी बडी हिंसा कैसे हुई।'
'ये तो गांधी ही जाने या फिर मोदी। वैसे तुम्हारे इस सवाल में दम है कि गुजरात में भी क्या देश की भीतर देश है। साबरमती नदी के गांधी आश्रम वाला हिस्सा मुझे दंगों के समय एक अलग देश की तरह लगता है और उसके पार वाला दूसरे देश की तरह। हमारी तरफ दंगों में माल से लेकर थियेटर सब चलते हैं। सामान्य जिंदगी होती है। उस पार मातम और सन्नाटा पसरा होता है। तब लगता है कि अहमदाबाद दो देश में विभाजित है।'
'इतना बुरा माहौल होता है दंगों के दौरान वहां?'
'जी हां। उन दिनों वहां के बच्चे दूध के लिए भी तरस जाते हैं। साबरमती के पार धुआ-ही- धुंआ दिखता है। लोग अपने दडबों में बंद रहते हैं।'
'हमारी बातें बहुत गंभीर होती जा रही हैं। फिर कभी इस बात पर बात करेंगे। और सुनाइये आपके यूएएस जाने की योजना का क्या चल रहा है?'
'तैयारी चल रही है। वीजा के लिए एप्लाई कर दिया है। अगले महीने तक हो जाने की उम्मीद है।'
'अमेरिकी वीजा की बात आपने की है तो याद आया कि आपके राज्य के मुख्यमंत्री को वहां का वीजा क्यों नहीं मिला।'
'इसलिए नहीं मिला कि अमेरिकी सरकार गुजरात के दंगों में उनका हाथ मानती है। उसका मानना है कि वहां आ कर वह विषैली बातें कर अमेरिका का भी माहौल खराब करेंगे।'
'तो अमेरिका में क्या पढने की योजना है।'
'कंप्यूटर में एडवांस कोर्स करना है।'
'आपने तो एमएससी फार्मा से किया है। फिर कंप्यूटर की पढाई क्यों?'
'फार्मा फील्ड में एडवासं कंप्यूटर की स्टडी बहुत महत्वपूर्ण है। इस कोर्स को करने के बाद किसी भी फार्मा कंपनी में मुझे बहुत बडे पद में काम मिल जायेगा।'
'तो पढाई के बाद अमेरिका में ही बस जाने का इरादा है या फिर देश में लौटने का?'
'वहां क्यों बसूंगी। मैं इंडिया लौट कर आऊंगी। मैं अपने माता-पिता की अकेली संतान हूं। ऐसे में लडके का फर्ज भी तो मुझे निभाना होगा न।'
'ये अच्छी बात है कि आप अपने माता-पिता के बारे में इतना पाजिटिव सोचती हैं। वैसे तो आजकल लडकों के लिए माता-पिता भार की तरह हो गए हैं। शेटल हो जाने के बाद लडके अपने माता-पिता को ऐसे निकलाते हैं, जैसे दूध से मक्खी निकाली जाती है।'
'ऐसा भी नहीं है कि हर लडका ऐसा करता है। महानगरों में जरूर इस तरह का चलन बढा है। लेकिन गांवों और छोटे शहरों में माता-पिता का अभी भी वैसा ही सम्मान है, जैसा कि श्रवण कुमार के जमाने में था।'
चैट बाक्स में यह लिखने के बाद मिष्ठी ने यह भी लिखा-'काफी रात हो गई है। कल मुझे एक प्रजेंटेशन देना है आफिस में। फिलहाल आज इतना ही। गुड नाइट।'
विनय ने भी अपने चैट बाक्स में उसे गुड नाइट लिख कर विदा ले ली। सुबह होने में अभी वक्त था। विनय अभी अपने को मिष्ठी के साथ जोडे रहना चाहता था। लेकिन वह चली गई। वह गूगल इमेज खोल कर असम की तस्वीरें देखने लगा। सर्च स्पेस में मिल्की डेका नाम टाइप किया। सर्च रिजल्ट में मिल्की बरुआ दिखी। मिल्की बरूआ उल्फा के कमांडर इन चीफ परेश बरुआ की मां हैं। परेश बरुआ नामी आदमी हैं, तो उनकी मां भी नामी हो गई और सर्च रिजल्ट में उनकी तस्वीर आ गई। मिल्की डेका कोई नामी शख्सियत तो थी नहीं कि उसकी तस्वीर सर्च रिजल्ट में निकले। इसके बाद वह गूगल अर्थ में जा कर उसने पुबसरणिया पहाड को फोकस किया। इमेज को बडी कर वह अपने घर को देखने लगा। इसके बाद वह मिल्की के घर की इमेज को बडा कर देखने लगा। उसे उसका घर तो दिखा लेकिन वो खिडकी नहीं दिखी, जिससे वह मिल्की को अपने घर से देखता था। उसने फिर उस सडक पर फोकस किया, जिसमें मिल्की के साथ वह रोज आफिस जाता था। इसके बाद कामख्या मंदिर के आसपास का जंगल, पैराडाइज रेस्तरां, डिब्रूगढ के चाय बगान, काजीरंगा पार्क, शिलांग पीक आदि पर पर क्रशर ले जाकर मिल्की के साथ बिताये अपने दिनों को याद करता रहा।
असम की गूगल अर्थ में सैर करते-करते सुबह के पांच बज गये थे। विनय की आंखों में नींद भर आई थी। वह सोना चाहता था लेकिन माता-पिता को लेने स्टेशन जाना था। इसलिये वह उठ गया और फ्रेश होने के लिए बाथरूम में चला गया। फ्रेश होने के बाद उसने घर से बाहर निकल कर टहलने का फैसला किया और वह सोसायटी के पार्क में चक्कर लगाने लगा। सुबह के छ: बजने पर उसने अपनी कार निकाली और स्टेशन की ओर चल पडा।
उसके माता-पिता घर आ गए थे, लेकिन विनय के देश भीतर देश देखने की बीमारी जस की तस बनी हुई थी।.........
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प्रदीप जी के लेख जनसंदेश टाइम्स में अक्सर पढने को मिलते हैं। अच्छा लगा उनके उपन्यास के बारे में जानना। कोशिश रहेगी कि उसे पढा भी जाए।
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कब तक ढ़ोना है मम्मी, यह बस्ते का भार?
आओ लल्लू, आओ पलल्लू, सुनलो नई कहानी।
तैलंग जी, पिछले दिनों हमराही पर प्रकाशित आपकी कविता बहुत पसंद की गयी है। समय मिले तो देखिएगा।
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आप चलेंगे इस महाकुंभ में...
...क्या कहती है तबाही?