Wednesday, November 9, 2011

तितली उड़ी

-रमेश तैलंग


चंकी! बारह साल का लड़का। बिलकुल तुम्हारी तरह, थोड़ा नटखट और शैतान।
हर रोज सुबह होते ही वह कंपनी बाग की ओर निकल जाता। चंकी के मम्मी-पापा सोचते, अच्छा लड़का है। सबेरे से उठता है, घूमने जाता है। साथ में किताबें भी ले जाता है। सुबह की ताजी हवा में तन-मन दोनों स्वस्थ रहते हैं। स्मरण शक्ति भी ठीक काम करती है। फिर चंकी है भी पढ़ाई-लिखाई में तेज। पर यहां उसकी पढ़ाई-लिखाई की बात थोड़े ही हो रही है। यहां तो बात हो रही है उसके पागलपन तक आए शौक की। शौक भी कैसा? तितलियां पकड़ने का।
चंकी को रंग-बिरंगी तितलियां ज्यादा ही लुभातीं। वह उन्हें पकड़ने के लिए उनके पीछे-पीछे भागता। पर तितलियां क्या ऐसे हाथ आती हैं भला? चंकी उन्हें पकड़ने के लिए जैसे ही हाथ बढ़ाता, वे फुर्र से उड़ जातीं इधर से उधर। हां, कभी-2 इक्की-दुक्की तितली हाथ आ भी जाती चंकी के। फिर जानते हो, चंकी क्या करता उसका? झट से अपनी किताब के पन्नों के बीच में दबा देता। च्च। च्च। च्च! बेचारी तितली। पन्नों के बीच में दबते ही प्राण-पखेरु उड़ जाते उसके।
तुम पूछोगे, चंकी को दुख नहीं होता तितली के मरने का? बिलकुल नहीं। उसे तो खुशी होती कि उसकी किताब के पन्नों के बीच एक नहीं, दो नहीं, पूरी पच्चीस तितलियां बंद हैं। मर गई तो क्या हुआ? उसका जब मन करता है, उनके रंग-बिरंगे पंख तो छू कर देख लेता है वह।

तितलियों वाली किताब चंकी को सबसे छुपा कर रखनी पड़ती घर में। यहां तक कि गुड्डी को भी उसकी खबर नहीं होती। उस दिन की बात चंकी भूला थोड़े ही था जब एक बार वह गुड्डी को भी ले गया था कंपनी बाग में। गुड्डी को चंकी का तितलियां पकड़ना और उन्हें किताब में कैद कर लेना बिलकुल अच्छा नहीं लगा था। उल्टा उसने तो चंकी को टोका था- ‘छिः ! छिः! भैया, ऐसे जीव हत्या करने से तो पाप लगेगा तुम्हें।’ चंकी ने गुड्डी को झड़प कर चुप कर दिया था- ‘अच्छा, अच्छा रहने दे अपना भाषण। कल से मत आना तू मेरे साथ।’
उस दिन के बाद से चंकी अकेला ही कंपनी बाग आता। लेकिन गुड्डी की ओर से उसे खटका बना ही रहता। कहीं तितलियां पकड़ने की बात उसने मम्मी-पापा का बता दी तो? पटाने के चक्कर में चंकी कभी-कभी टाॅफियां, बिस्कुट भी देता रहता गुड्डी को। इधर गुड्डी भी चंकी को धमकी देने के अंदाज में बोल देती- ‘क्या भैया, हर बात ये सस्ती टाॅफियां पकड़ा देते हो। आज तो केडबरीज मिल्क चाॅकलेट ही दिलानी पड़ेगी।’ गुड्डी की यह फरमाइश चंकी को भारी पड़ जाती। अपने जेबखर्च में कटौती करके उसे गुड्डी का मंुह बंद रखना पड़ता।
पर वो कहावत है न कि चोरी और झूठ छुपाए नहीं छुपते। बस, यही हुआ चंकी के साथ। एक दिन चंकी की देहरादून वाली बुआ छुट्टियों में आ पहुंची घर। पब्लिक स्कूल में पढ़ाती थीं वे, इसलिए सभी उन्हें टीचर बुआ कह कर पुकारते थे। वे एक दिन बैठक में झाड़-पोंछ कर रही थी, तभी सोफा-कवर के नीचे रखी कोई सख्त चीज महसूस हुई उन्हें। यह वही किताब थी जिसमें चंकी ने मरी हुई तितलियां कैद कर रखी थीं। टीचर बुआ को जब गुड्डी से सारा किस्सा मालूम हुआ तो शाम को उन्होंने चंकी को बुला कर पूछा-‘‘चंकी, तुम्हें तितलियां बहुत पसंद हैं?’
‘बहुत, टीचर बुआ!’ चंकी ने उत्तर दिया।
‘मुझे भी बहुत पसंद हैं।’
‘सच, टीचर बुआ?’
‘और नही ंतो क्या मैं झूठ बोल रही हूं? अच्छा सुनो चंकी, कल सुबह मैं, तूम, गुड्डी तीनों कंपनी बाग चलेंगे।’
‘प्रोमिज, टीचर बुआ? चंकी खुशी से उछल पड़ा सुन कर।’
प्रोमिज।’
अगले दिन टीचर बुआ, चंकी और गुड्डी तीनों सुबह-सुबह कंपनी बाग पहुंच गए। जैसी कि चंकी की आदत थी, तितली को देखते ही चंकी ने उसे पकड़ने की कोशिश की पर उससे पहले ही टीचर बुआ ने चंकी का हाथ पकड़ लिया और बोलीं-‘ठहरो, चंकी, आज हम तितलियों को हाथ से नहीं पकड़ेंगे बल्कि उन्हें बिना पकड़े ही कैद करेंगे।’
‘वा कैसे टीचर बुआ? चंकी खीझने लगा था टीचर बुआ पर।
‘ऐसे’! टीचर बुआ अब तक पर्स के अंदर से डिजिटल कैमरा निकाल चुकी थी और तितली पर निशाना साध कर उन्होंने ‘शटर’ दबा दिया था। इसके बाद चंकी और गुड्डी ने भी उड़ती तितलियों के कई चित्र खींचे थे। चंकी यह सोच कर खुश था कि उसके पास तितलियों क ेअब बहुत से खूबसूरत चित्र होंगे।
छुट्टियां खत्म होने पर जाते-जाते टीचर बुआ अपना कैमरा चंकी को दे गई थीं और अंग्रेजी में समझा गई थीं-‘शूट एवरी थिंग माय चाइल्ड, बट विद कैमरा, नाॅट वाय गन।’
चंकी ने टीचर बुआ की बात गांठ बांध कर रख ली थी।



चित्र सौजन्य: गूगल सर्च

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