Monday, November 7, 2011

मेरी चार ग़ज़लें

(व्यंग्य-यात्रा-नवंबर २०११ अंक से साभार )

१.
साठ-सत्तर फीसदी दर पर खरीदी जाएंगी
और फिर ताबूतों में सब बंद कर दी जाएंगी.

वाह री किस्मत, किताबें हिंदी में साहित्य की
अब दहाई में बड़ी मुश्किल से बेचीं जाएंगी.

ज़िन्दगी अपनी खपा कर चल दिए लिख-लिख के जो,
खावाहिशें उनकी सुना है बस अधूरी जाएंगी.

चार, छह तमगे, समोसे, चाय और कुछ तालियाँ
लेखकों के साथ अब ये चंद चीजें जाएंगी.

सोचता हूं, क्या करेगा आदमी बाज़ार में
जब सभी संवेदनाएं जब्त कर ली जाएंगी.

२.

वह कहता था, वह शब्दों की खेती करता है.
और ज़िन्दगी जीते-जीते, पल-पल मरता है.

खुद्दारी पहचान बनी जब से उसकी, तब से
हर आईना उससे नज़र मिलाते डरता है.

अस्पताल में एक दिन शैया पर वह पड़ा हुआ
लगा पूछने -'खोटा सिक्का कब तक चलता है?

उसको अक्सर ही दौरे आते ठे अजब-अजब,
जिन्हें ज़माना बहुत बड़ा पागलपन कहता है.

बुरे वक्त में एक कलम की पूँजी थी उसकी,
पास अदीबों के इससे ज्यादा क्या रहता है?

३.

सच कहा साहित्य से रोटी नहीं चलती.
क्या करूँ, मन पर ज़बरदस्ती नहीं चलती.

ज़िन्दगी में दुःख लिखे हैं तो चलो ये ही सही,
ज़िन्दगी में हर समय मस्ती नहीं चलती.

वो नदी हो या समंदर पर सुना हमने यही
हौसलें टूटे हों तो कश्ती नहीं चलती.

शौक से पाला है जिसने भी जुनूँ फनकारी का
उसके पेशे में कभी ज़ल्दी नहीं चलती.

जिसको जो देना था उसने वो खुशी से दे दिया
उसके आगे आपकी मर्ज़ी नहीं चलती.

४.

वो जहां होगा मचायेगा वहां पर शोर ही.
रोशनी को खींच कर लाएगा कोई और ही.

देख लो इतिहास का पन्ना कोई भी खोल कर
इंकलाबी पहला होगा बस कोई कमज़ोर ही.

रहनुमाई में रखा है मुझको जब से आपने
जानलेवा लग रहा है अपने मुंह का कौर ही.

वो तरक्की क्या संवारेगी हमारी ज़िन्दगी
जो हमें लगती रही ताउम्र आदमखोर ही.

-रमेश तैलंग
09211688748









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