Friday, November 18, 2011

एन.बी.टी.पटना राष्ट्रीय संगोष्ठी: १४ नव.२०११ -आलेख : रमेश तैलंग

बच्चों की पुस्तक में बचपन

-रमेश तैलंग


बच्चे, बचपन और किताबें, इस एक त्रिकोणीय दुनिया के अंदर न जाने कितनी दुनियाएं और बसी हुई हैं. एक दुनिया वह है जहां बच्चे हैं, बचपन है पर किताबें नहीं हैं, एक दूसरी दुनिया हैं जहां बच्चे हैं लेकिन बचपन और किताबें नहीं हैं, और एक तीसरी दुनिया भी है जहां किताबें ही किताबें हैं, पर न वहां बच्चे हैं और न बचपन. अब इन तीनों दुनियाओं में जो आपसी रिश्ते पनपते हैं वे कम अनोखे नहीं हैं. पर इन रिश्तों के अलावा भी चंद महत्वपूर्ण बातें हैं जिन पर संक्षेप में गौर कर लें और फिर अपने मूल विषय पर आयें तो श्रेयस्कर होगा.
पहली बात तो यह कि किताबों या साहित्य की ज़रूरत मनुष्य को पड़ी ही क्यों? स्विस इंस्टिट्यूट ऑफ चिल्ड्रेन लिटरेचर से जुड़ी लेखिका डेनिस वॉन स्टोकर ने इब्बी की एक कार्यशाला में इसका उत्तर बहुत ही सटीक ढंग से दिया था. उनका मानना था कि साहित्य और साक्षरता का जन्म मनुष्य की उस नैसर्गिक प्रवृत्ति या आवश्यकता का परिणाम है जिससे प्रेरित हो कर वह अपने या दूसरों के बारें में कहानियाँ गढना या सुनाना चाहता है. कहानियां गढ़ने या सुनाने की इस प्रवृत्ति के पीछे मनुष्य का एक और भी मंतव्य छुपा था - अपने स्वयं के अस्तित्व के साथ-साथ इस संसार को भी अच्छी तरह से समझना जिसमे रह कर वह अपना जीवन जीता है.
कमोबेश रूप से देखा जाए तो बाल साहित्य सृजन के पीछे भी मनुष्य की यही मनोकामना प्रेरक रही है कि वह बच्चों को इस दुनिया में जीने, अग्रसर होने और आसन्न कठिनाइयों का सामना करने के योग्य बना सके. अब इसके लिए बाल साहित्यकार का बच्चों के जीवन और तेजी से बदलते उनके संसार से गहरा तादात्म्य होना बहुत ही ज़रूरी है.
जबसे भाषा और लिपि का आविष्कार हुआ, तबसे लेकर आज तक बालसाहित्यकार इस कर्म में कितने सफल हुए हैं इस पर अनेक राय हो सकतीं हैं पर इसके विस्तार में मैं यहां नहीं जाऊंगा. अपने मूल विषय को केंद्रित रखते हुए अब बच्चों की कुछ पुस्तकों ( यहां मैं अपने को हिंदी पुस्तकों तक ही सीमित रख रहा हूं) और कुछ स्फुट बाल रचनाओं में बचपन की जो अनोखी छवियां मुझे देखने को मिली हैं उन्हें मैं यहां आपके साथ बांटना चाहूंगा. ये छवियां कहीं-कहीं आपको गुदगुदाती हैं, तो कहीं रुलाती हैं तो कहीं-कहीं सोचने को भी मजबूर भी करतीं हैं. कथ्य या शिल्प में अगर उनमे कहीं झोल भी है तो वह क्षम्य है क्योंकि बाल साहित्य का सबसे पहला उद्द्येश्य तो बच्चों का मनोरंजन करना ही है बाकी सब बातें बाद की हैं.
बाल उपन्यास विधा में देखें तो स्वतंत्रता के बाद उभरे पहले बाल उपन्यासकार भूप नारायण दीक्षित के एक अदभुत बाल उपन्यास नानी के घर में टन्टू का स्मरण सबसे पाहे करना चाहूंगा जिसमें टन्टू जैसे बाल चरित्र के माध्यम से लेखक ने बाल सुलभ चंचलता, नटखटपन और बच्चे की हर दिन के नई शैतानियों का इतनी मनोरंजक ढंग से वर्णन किया है कि उपन्यास की पूरी कथा पाठक को शुरू से अंत तक बांधे रहती है.
वरिष्ठ कथाकार देवेन्द्र कुमार के दो बाल उपन्यास –पेड़ नहीं कट रहे हैं और एक छोटी बांसुरी का भी यहां उल्लेख करना चाहूंगा. पेड़ नहीं कट रहे हैं में जानू नाम के एक गरीब बेसहारा लड़के की कथा है जो चाय की एक गुमटी के किनारे लगे पेड़ पर बसते सहित अपने सारा माल-माता रखता है पर अब वहां सड़क बनने वाली है और पेड़ का कटना निश्चित है. जानू को पेड़ के कटने के साथ-साथ अपनी नन्ही दुनिया के उजड़ जाने की चिंता हैं और कहानी कई रोमांचक मोड़ लेते हुए एक सुखद अंत पर जा कर खत्म हो जाती है. इसी तरह देवेन्द्र का दूसरा बाल उपन्यास एक छोटी बांसुरी भी एक बालक के बचपन की मार्मिक कथा का बयान करता है. इस उपन्यास में अमर नाम के एक ऐसे बालक की कथा है जिसका फौजी पिता मोर्चे से लापता हो गया है और वह उनकी खोज में जगह-जगह भटकता बांसुरी बाबा, डॉक्टर रायजादा जैसे सहृदय चरित्रों से मिलता है और वापस अपनी माँ के पास पहुंच कर एक सुखी जीवन की शुरुआत करता है.
सड़क के बच्चों के बचपन की बात करें तो हरीश तिवारी के बाल उपन्यास ‘मैली मुंबई के छोकरा लोग’ को एक महत्वपूर्ण उपन्यास कहा जा सकता है जिसमे पुण्डी जैसे प्रमुख बाल चरित्र के अलावा और भी कई बाल चरित्र आए हैं. हालांकि इस उपन्यास का अंत बहुत ही नाटकीय ढंग से हुआ है फिर भी हाशिए पर पड़े बाल चरित्रों की दृष्टि से इस एक उल्लेखनीय उपन्यास माना जा सकता है.
प्रकाश मनु के खिलंदड़े बाल उपन्यास (जिन्हें आप किशोर उपन्यास भी कह सकते हैं) – एक था ठुनठुनिया, गोलू भागा घर से बच्चों के विविधवर्णी बचपन की मनोरंजक शैली में प्रस्तुति करते हैं. एक छोटी लड़की के शैशव की कुछ मनोरंजक छवियों को देखना हो तो प्रकाश मनु के ही एक और अनोखे उपन्यास चीनू का चिड़ियाघर में देखा जा सकता है. इधर हाल ही में मनु का एक और नया बाल उपन्यास ‘पुम्पु और पुनपुन प्रकशन विभाग नयी दिल्ली से आया है जिसमे भाई बहन के बचपन की शरारत भरी झांकियां दृष्टव्य हैं.
इनके अलावा शैशव और बचपन को ही उकेरते कुछ और अच्छे उपन्यासों में श्रीनिवास वत्स का ‘गुल्लू और एक सतरंगी’ तथा मोहम्मद अरशद खां का ‘अल्लू’, प्रमुख हैं.

बाल उपन्यासों के अलावा बाल कहानियों की भी ऐसी कई महत्वपूर्ण पुस्तकें हिंदी बाल साहित्य में आई हैं जिनमे बचपन की शरारतें, मुसीवतें, मार्मिक और विनोदपूर्ण घटनाएं भरी पड़ीं हुई हैं.
सबसे पहले आपका परिचय कराना चाहूंगा किस्सागोई के महागुरु अमृतलाल नागरजी की संपूर्ण बाल रचनाओं से जो उनके बेटे शरद नागर के संपादन में अभी पिछले दिनों लोकभारती प्रकशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हो कर आई हैं. इसमें नागर जी के ४ बाल उपन्यास, ४ पद्यकथाएं,, ३ नाटक, २५ बाल कहानियां, बाल महाभारत तथा कुछ महापुरुषों की जीवनियाँ हैं. कुल मिलाकर अमृतलाल नागर के बाल रचना संसार को समग्र रूप से दर्शाती यह एक अप्रतिम पुस्तक है. मैं यहां इस पुस्तक से नागरजी की कुछ बेहद मनोरंजक एवं आत्मकथात्मक बाल कहानियों का उल्लेख करना चाहूंगा जिनमें बचपन की शैतानियाँ और नटखटपन भरपूर विनोद के साथ अभिव्यक्त हुआ है. ये कहानियां है नटखट चाची, अमृतलाल नागर बैंक लिमिटेड, लिटिल रेड इजिप्शिया और बहादुर सोमू.
बचपन को यदि बच्चे की वय में ही सीमित न किया जाय और उनके आस-पास के सम्पूर्ण संसार को भी उसमे समाविष्ट कर लिया जाए तो हिंदी की बाल कहानियों का भंडार इतना समृद्ध है कि दांतों तले उंगली दबा लेनी पड़ती है. अलग-अलग जेनरों की कहानियां जिनमे फंतासी और यथार्थ दोनों का मणिकांचन योग है, का इतना बड़ा संसार है कि उनमे इक्के-दुक्के नाम लेलेना यहां उनके प्रति अन्याय करना ही होगा.
बचपन की विविधवर्णी छवियों को कहानियों के विस्तृत संसार की तरह और किसी विधा में देखना हो तो बाल कविताओं में देखना चाहिए. बाल कविताओं की पुस्तकों के नाम लेना तो यहां संभव नहीं पर कुछ स्फुट कविताओं का यहां उल्लेख करना अवश्य चाहूंगा: श्रीधर पाठक की ‘ बाबा आज देल छे आए, ऊं-ऊं चिज्जी क्यों न लाये, स्वर्ण सहोदर की ‘नटखट हम, हां नटखट हम/करने निकले खटपट हम, सुभद्रा कुमारी चौहान की ‘मैं बचपन को बुला रही थी, बोल रही बिटिया मेरी, दिविक रमेश की घर, माँ कितनी प्यारी, देवेन्द्र कुमार की ‘मीठी अम्मा’, कुंवर बेचैन की ‘कानाबाती कुर्र’ प्रकाश मनु की ‘पापा तंग करता है भैया,,रमेश तैलंग की ‘अले छुबह होगई, आदि ऐसी ही बाल कविताएं हैं जिनममें बच्चे का पूरा बचपन छलछलाता हुआ दिखता है.

अन्य विधाओं में भी हिंदी बाल साहित्यकारों ने ऐसे अनेक प्रयोग किये हैं जिनमें बचपन की अप्रतिम छवियाँ दिखेंगी पर इस सीमित समय की वार्ता में उनका उल्लेख करना संभव नहीं.
बचपन उम्र का वह पड़ाव है जो एक बार छूट गया तो दुबारा देखने को नहीं मिलता. शायद इसी आशंका और डर को मैंने एक बाल कविता में व्यक्त किया था जिसे यहां उद्धृत कर के मैं अपनी बात खत्म करूँगा: उस बाल कविता का एक अंश इस प्रकार है:

मन करता है अपना बचपन
रख दूं ताले में

नटखटपन, ये शैतानी
ये हँसी खिलखालाती,
रूठा-रूठी, मान-मनौवल,
सपनों की थाती
मन करता है
यह सारा धन
रख दूं ताले में.

क्या जानूँ कल चोर चुराले
चुपके से आकर
आजाएं मेरी आखों में
आंसूं घबरा कर
फिर कैसे मुंह दिखलाऊँगा
भरे उजाले में.

मन करता है अपना बचपन रख दूं ताले में


(एन. बी. टी द्वारा १४ नवंबर २०११ को आयोजित पटना संगोष्ठी में पढ़ा गया आलेख.)

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