Wednesday, November 9, 2011

किस्सा बनो बुआ का

किस्सा बनो बुआ का
-रमेश तैलंग




बनो बुआ की गप्प मंडली और खिलखिलाती हंसी दोनो ही सारे मोहल्ले में मशहूर थीं। उनके मोती जैसे दांत जब चमकते ता बिजली सी कौंध जाती आंखों के आगे। पर हाय री किस्मत! एक दिन उनका पैर सीढ़ी से क्या फिसला, चारों खाने चित्त हो कर पड़ गईं बनो बुआ। दायीं टांग और कमर में तो चोट आयी ही, आगे के चार दांत टूट कर गिर गए सो अलग।
अब असली दांत टूट गए तो या तो नकली दांत लगवाती बनो बुआ या फिर इस तीस साल की उम्र में छोटे-बड़ों से ‘बोंगी बुआ’, ‘बोंगी बुआ’ कहलवाती खुद को।
सोच में डूबी बनो बुआ कुछ फैसला नहीं कर पा रही थीं कि सलमा चाची ने उनके दिल के घावों को और हरा कर दिया। बोलीं- ‘ हाय बनो! तुम्हारी तो चांद सी सूरत ही बिगड़ गई। सुना है अब नकली दांत लगबाओगी तुम! मेरी मानो तो ये मसाले के दांत मती लगवाना, पता नहीं मरे क्या गंद-संद मिलावे हैं मसाले में। वो क्या कहें, आजकल तो सोने के दांत भी बन जावे हैं, वही लगवाना। दमक उठेगा ये मुखड़ा।’
सलमा चाची की बात बनो बुआ के कलेजे में सीधी उतर गई। उन्होंने निश्चय कर लिया कि लगवाऊंगी तो सोने के दांत ही लगवाऊंगी। बस, घर में जो थोड़ा-बहुत सोना था लगा दिया ठिकाने और बनवा लिये सोने के दांत।
कुछ दिन ही बीते थे कि सलमा चाची ने फिर एक उल्टा पांसा फेंक दिया। बोलीं-‘अरी बनो! ये क्या सुबह-शाम खीं ..खीं ..कर हंसती रहे है। सोने के दांत हैं, सबकी नजर में आते हैं। किसी दिन किसी चोर उचक्के की नीयत बिगड़ गई देख कर तो सीधा टेंटुआ दबा देगा। मैं कहूं हूं जरा मुंह बंद रखा कर अपना।’
सलमा चाची की बात सुन कर बनो बुआ के बदन में काटो तो खून नहीं। ये तो और मुसीबत मोल ले ली सोने के दांत लगवा कर। अब मोहल्ले की औरतें, बच्चे हंसी-ठठ्ठा करेंगे तो बनो बुआ क्या मुंह पर ताला लगा कर बैठेगी? हंसी के मौके पर हंसी तो आयेगी ही, हंसी आयेगी तो मुंह खुलेगा ही और मुंह खुलेगा तो सोने के दांत भी चमकेंगे चम-चम। पर किसी की नीयत सच में खराब हो गई तो? किसी ने सचमुच लालच में आकर गला दबा दिया तो। इन सवालों ने बनो बुआ की हंसी-खुशी सब छीन ली।
बनो बुआ को गुस्सा आता सलमा चाची पर। आखिर उन्ही के कहने पर तो लगवाये थे सोने के दांत। अब वो ही बातों-बातों में जान-माल का खतरा जता गईं।
पशोपेश में फंसी बनो बुआ एक दिन आईने के सामने बैठी थीं कि खुद को देख कर हैरान रह गईं। चेहरे पर आधा बुढ़ापा झलक आया था कुछ ही दिनों में। जब हंसी ही चली गई रूठ कर तो बनो बुआ की जवानी किसके बल पर ठहरती?
बस........बैठे-बैठे ही बनो बुआ को न जाने क्या सूझा कि उन्होंने एक झटके से अपने मुंह में फंसे सोने के दांत निकाल लिए और कमरे में पड़ी पेटियों के पीछे फेंक कर खुद से ही बोली- ‘ ले बनो! खत्म हुआ ये बबाल। अब खूब हंसा कर।
खिल-खिल...खिल।
बनो बुआ की गप्प मंडली, जिसमें अब सलमा चाची को छोड़ कर मोहल्ले की लगभग सभी औरतें और बच्चे हाते, फिर पहले की तरह जुड़ने लगीं। खूब चुहलबाजियां होतीें, मजाब होते और बनो बुआ जी खोल कर हंसतीं। बनो बुआ का बोंगा मुंह देख कर बच्चे भी खुश होते और बार-बार कहते- ‘बनो बुआ! और हंसो! बेंगी बुआ, और हंसो!’ बच्चों के साथ बनो बुआ हंसती ही चली जाती, खिल...खिल...खिल...खिल!


चित्र सौजन्य: गूगल सर्च

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