Friday, June 24, 2011

फूलन के खम्भा पाट, पटरी सुफूलन की




आषाढ़ शुरू हो गया, श्रावण भी रस्ते में है. प्रकृति का चक्र चल रहा है अपने ढंग से. कहीं सूरज दहक रहा है तो कहीं झडी लग गई है बारिश की.लोक की जिस उत्सवधर्मिता को सूरज दहक-दह्क कर राख करने पर उतारू है उसे हरियाले सावन की बौछार पूरे जी-जान से बचाने में लगी हुई है.आपको कुछ दिखाई नहीं दे रहा है न?कोई बात नहीं.

ज़रा कंक्रीट के जंगल को भूल कर प्रवेश कर जाईए उन वन-प्रांतरों में. जहाँ दो महीनों के लिए ही सही, मनुष्य के कोप से बचे हुए मोर्, कोयल, पपीहा, वृक्ष, फूल, पात सभी प्रफुल्लित हो रहे हैं

जहाँ उत्सवधर्मिता में आकंठ डूबीं गलियों, मंदिरों, चौबारों, में भक्ति काल एक बार पुनः जीवित हो उठा है और बृज के किशोर और किशोरीजी के लिए फूलों, लताओं और गोटे-किनारी वाली रज्जुओं से रंग-बिरंगे, छोटे-बड़े हिंडोरे सजाये जा चुके हैं और उन्मुक्त आकाश में गूँज रहे हैं हिंडोरा-गीतों के मनभावन स्वर.

लीजिए आप भी आनंद लीजिए हिन्दुस्तानी संगीत के जीवंत रागों में बद्ध इन पारंपरिक, भूले-बिसरे हिंडोरा-गीतों का:
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राग खेमटा :: युगल वर झूलत, दे गर बाँही /
बादर बरसे, चपला चमके, सघन कदम की छाँही/
इत-उत पोंग बढ़ावत सुंदर, मदन उमंग मन माहीं/
ललिताकिशोरी, हिंडोरा झूलें, बढ़ यमुना लौं जाही/

राग झिन्झोंटी:: बांकी छबि सों झूलत प्यारी/
बांकी आप, बिहारी बांके, बांकी संग सुकुमारी/
बांकी घटा घिरी इत चमकन, चपला हूँ की न्यारी/
ललिताकिशोरी बांकी मुस्कान, बंक पोंग पर वारी/

राग पीलू:: मेरो छांड दे अंचरवा, मैं तो न्यारी झूलोंगी/
झोंकन के मिस मोहन लंगारिया, अजहूँ टहोकत ना भूलोंगी/
ललिता संग रंगीले झूलें, झूल मनहिमन फूलोंगी/
ललितकिशोरी तरल पोंग कर, लालन तो संग तूलोंगी/




राग दादरा:: सुन सखी आज, झुलन नहिं जैहों/
श्यामसुंदर पिया रस लम्पट हैं, अति ही ढीठ यों देत/
झोका तरल करे पाछेते, धाय भुजन भर लेत/
चितवन चपल चुरावत अनतै, हमें जनावत नेह/
रसिकगोविंद अभिराम श्यामसंग, क्यों न जाय रस लेह/

कवित्त:: फूलन के खम्भा पाट, पटरी सुफूलन की,
फूलन के फूंदने फंदें हैं लाल डोरे में/
कहै पद्माकर वितान ताने फूलन के,
फूलन की झालरें सुझूलत झकोरे में/
फूल रही फूलन सु फूल फुलवारी तहां,
और फूल ही के फर्श फबे कुञ्जकोरे में/
झूल्झारी फूल्भारी फूलझरी फूलन में,
फूल ही सी फूल रही फूल के हिंडोरे में/

Thursday, June 23, 2011

महाश्वेता क्या लिखती हैं

(महाश्वेता देवी की कहानिया पढ़ने के बाद जों अनुभूतियाँ जागीं उनका प्रतिफल है यह कविता..)


महाश्वेता क्या लिखती हैं
महाश्वेवता
गल्प नहीं लिखतीं ।
महाश्वेता रचती हैं
आदिम समाज की करुणा का महासंगीत ।
वृक्षों की
वनचरों की
लोक की चिंताओं का अलापती हैं राग ।

महाश्वेवता की अनुभूतियाँ
जब ग्रहण करती हैं आकार
वृक्षों का कंपन
वनचरों का नर्तन
लोक का वंदन
सब कुछ समाहित होता चलता है
उनकी रचनाओं में ।

महाश्वेता नहीं बाँचती अपनी प्रशस्तियों
या अपने दुःखों के अतिरंजित अध्याय
वे घूमती हैं अरण्यों के बीच...
निःशंक
प्रकाशपुँज की तरह
जगाती हैं प्रतिरोध की शक्ति
निर्बल असहाय आकुल मनों में ।
देती हैं आर्त्तजनों को आश्रय
घोर हताशा के क्षणों में ।

महाश्वेता
अपने समय की सच्चाई को
मिथकों में ढाल कर
जोड़ती हैं स्मृतियों से

परंपराओं से
पुराकथाओं से ।

द्रोपदी मझेनदूलन गंजू
चण्डी वायेन श्रीपद लाल
जटी ठकुराइन
नहीं हैं महाश्वेता की कल्पना के पात्र
हाड-मांस वाले जीते जागे चरित्र हैं वे
इसी चराचर जगत के ।

महाश्वेता का लिखा
महाश्वेता का कहा
महाश्वेता का जिया
हर शब्द...
हर कर्म...
सत्ता के अनाचार से सीधा टकराता है ।
वह लोक-रंजन का नहीं
लोक-चिंतन का रास्ता दिखाता है ।

- रमेश तैलंग

इमेज सौजन्य: गूगल सर्च

Sunday, June 19, 2011

शौन टैन (Shaun Tan )आलमा (Astrid Lindgren Memorial Award) पुरस्कार से सम्मानित


image courtesy: google search

पिछले महीने आस्ट्रेलिया के युवा चित्रकार शौन टैन (Shaun Tan ) को स्वीडन के स्टॉकहोम कंसर्ट हाल में आलमा (Astrid Lindgren Memorial Award) पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इस पुरस्कार की राशि ५ मिलियन स्वीडिश क्रोन (लगभग ७५०,००० यू.एस.डॉलर) है. राशि के लिहाज़ से बाल एवं युवा साहित्य के लिए विश्व भर में दिए जाने वाले सभी पुरस्कारों में यह पुरस्कार सबसे बड़ा है.

३७ वर्षीय शौन टैन (Shaun Tan ) फ्रीलांस चित्रकार हैं और उन्होंने २० से ज्यादा पुस्तकों का चित्रांकन किया है. “द एराइवल” उनकी सबसे ज्यादा चर्चित शब्द रहित पुस्तक है जिसने सारी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया है और उस पर एनिमेशन फिल्म भी बन चुकी है. लेखक, चित्रकार होने के अलावा शौन टैन (Shaun Tan ) फिल्मकार भी हैं और उनकी लघु फिल्म “द लोस्ट थिंग” को सर्वश्रेष्ठ एनीमेटड फिल्म की श्रेणी में ऑस्कर एकेडेमी पुरस्कार मिल चुका है. शौन टैन (Shaun Tan ) ज्यादार अपनी चित्र-पुस्तकों (Picture books) के लिए विख्यात हैं और उनकी कूची शब्दों से कहीं ज्यादा बोलती है.

शौन टैन (Shaun Tan ) की ख्याति और उनके सम्मान को देखते हुए कम से कम यह आशा तो की ही जानी चाहिए कि भारत में उन चित्रकारों की चिंताजनक स्थिति पर गंभीरता से गौर फ़रमाया जाए जों पुस्तकों के लिए मुश्किल से ३०० से ५०० रुपये प्रति चित्र का पारिश्रमिक पाते हैं और जिनका पुस्तक के प्रकाशकीय विवरण में कहीं नाम तक दर्ज नहीं होता.

Saturday, June 18, 2011

हिंदी बाल कविता में कथा-सूत्र यानी किस्सागोई की बाल कविता




अपने आरंभकाल से ही हिंदी बाल कविता कुछ ऐसी अनूठी विशेषताओं को लेकर विकसित हुई है कि उसकी बानगी एवं ताजगी बस देखते ही बनती है. इन विशेषताओं में बाल मनोविज्ञान की सुन्दर अभिव्यक्ति, पारिवारिक संबंधों का आत्मीय चित्रण, जीव-जंतुओं के कार्य कलाप, प्रकृति से साहचर्य, कविता में किस्सागोई का मणिकांचन योग, भौतिक एवं तकनीकी उपकरणों का मानवीकरण, लोक-लय , लोक-भाषा एवं अंग्रेजी शब्दावली का यथा-योग्य संतुलित प्रयोग, तोतलापन, गेयता एवं नाटकीयता आदि सभी शामिल हैं.

इस लघु आलेख में मेरा उद्दयेश्य इन सभी विशेषताओं के शास्त्रीय पक्ष को उद्घाटित करना नहीं है वरन उन चंद बाल कविताओं को रेखांकित करना है जिनमे कथा-सूत्र के माध्यम से कवियों ने एक विधा से दूसरी विधा में आवागमन करने की स्वंत्रता ली है और इस प्रयास में वे काफी हद तक सफल भी हुए हैं.

आप जानते हैं कि किस्सागोई हमारे जीवन का अटूट हिस्सा रही है. पौराणिक एवं एतिहासिक महाकाव्य और आल्हाखंड जैसी गीत-गाथाएं इस तथ्य का अनुपम उदाहरण हैं. पर बाल कविताओं में किस्सागोई या कथासूत्र की उपस्थिति एक सीमा के अंतर्गत ही संभव है. इसका सबसे बड़ा कारण तो यही है कि बाल कविता का अपना कलेवर छोटा होता है इसलिए उसमे कोई बड़ी कथा समाविष्ट नहीं हो सकती. हालांकि अपवादस्वरूप "झाँसी की रानी" जैसी बाल कविताओं में इस तरह का जोखिम सफलता के साथ लिया गया है जों अपनी एतिहासिक विषयवस्तु एवं प्रवाहमयी भाषा के चलते कहीं भी नहीं अखरता. अतएव मेरा तो यह मानना है कि अगर कोई बाल कविता अपने आकार में थोड़ी बड़ी है और उसमे कथा प्रवाह अपनी पूरी दृश्यात्मकता एवं रोमांच के साथ मौजूद है तो वह बाल-पाठकों के लिए रुचिकर एवं आनंददायक सिद्ध हो सकती है. अंग्रेजी भाषा में भी ऐसे प्रयोग हुए हैं और उन्हें नरेटिव पोएट्री फॉर चिल्ड्रेन की श्रेणी में रखा गया है.

जहाँ तक हिंदी बाल कविताओं में किस्सागोई की बात है तो बहुत सी ऐसे बाल कविताएँ मेरी स्मृति में आ रही हैं जिनमे कोई न कोई छोटी-बड़ी मनोरंजक कथा पिरोई गई है और जिनका अलग-अलग प्रभाव मेरे मानस पर अंकित है. इन बाल कविताओ में सुखराम चौबे "गुणाकर" की बनावटी सिंह", दामोदर सहाय "कविकिंकर" की मोर् बेचारे", पंडित सुदर्शनाचार्य की "हाऊ और बिलाऊ", पुरुषोत्तमदस टंडन की "बन्दर सभा" मैथिलीशरण गुप्त की "माँ,कह एक कहानी", रामनरेश त्रिपाठी के "निशा मामी", पद्म पुन्ना लाल बख्शी की "बुढिया", भूप नारायण दीक्षित की "तींन बिल्लियाँ", सुभद्राकुमारी चौहान की "झांसी की रानी", हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय की "नानी की नाव", हरिवंश राय बच्चन की "काला कौआ", रामेश्वरदयाल दुबे की "खोटी अठन्नी", रामधारीसिंह दिनकर की "चांद का कुरता", निरंकार्देव सेवक की "अगर-मगर", कन्हैया लाल मत्त की "छोडो बिस्तर, ननकू भैया, तोतली बुढिया, नक़ल नवीसी की बीमारी" "कलम दवात की लड़ाई", सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की "बतूता का जूता", शेरजंग गर्ग की "तीनो बन्दर महा धुरंधर, प्रकाश मनु की "एक मटर का दाना", देवेन्द्र कुमार की "सड़कों की महारानी", कृष्ण शलभ की "खत्म हो गए पैसे" , रमेश तैलंग की "एक चपाती, निक्का पैसा और सोंन मछरिया, लता पन्त की अजब नज़ारे,सफ़दर हाशमी की "राजू और काजू", सुरेश कांत की "जंगल में क्रिकेट" और अभिरंजन कुमाँर की "छोटी चिडिया" के नाम लिए जा सकते है.

इसमें दो राय नहीं कि इनमे कई ऐसी बाल कविताएँ भी शामिल हैं, जिनमे कथा-सूत्र का निर्वाह पूरी तरह नहीं हो पाया है पर यहाँ यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि बच्चे भले ही पूरी कथा को ग्रहण न कर सकें पर उन कविताओं को पढ़-सुन कर यदि उनके मन में थोड़ी-सी भी जिज्ञासा, कल्पना-शक्ति या मनोरंजन की अनुभूति जागती है तो ऐसी बाल कविताएँ अपने श्रेय और प्रेय दोनों को पा जाती हैं.

आरम्भ काल के कवि सुखराम चौबे "गुणाकर" की एक लोक कथा पर आधारित बालकविता "बनावटी सिंह" का उदहारण देखिए जिसमे एक गधा कहीं से शेर की खाल पा जाता है और उसे ओढ कर सिंह की नकली भूमिका अदा करने लगता है. पर जब मस्ती में उसका ढेंचू-ढेंचू स्वर उभरता है तो सारा भेद खुल जाता है और उसकी वो पिटाई होती है कि पूछो मत.

"गधा एक था मोटा ताज़ा/बन बैठा वह वन का राजा/कहीं सिंह का चमड़ा पाया/चट वैसा ही रूप बनाया/सबको खूब डराता वन में/फिरता आप निडर हो मन में/..........

और जहाँ यह बाल कविता खत्म होती है तो एक सन्देश छोड़ जाती है:

"देता गधा न धोखा भाई/तो उसकी होती न ठुकाई."

ऐसी ही एक और मजेदार कविता है पंडित सुदर्शनाचार्य की "हाऊ और बिलाऊ" जिसमे दो भाइयों के चरित्र का वर्णन है. जहाँ एक ओर बड़ा भाई बिलाऊ धनवान था पर स्वाभाव का खोटा था वही छोटा भाई हाऊ गरीब था पर चतुर था. हालांकि यह कविता एक पूर्ण कथा नहीं बन पाती पर अपने वर्तमान रूप में भी बच्चों का मनोरंजन तो करती ही है.

आल्हा-गान की परंपरा हमारे यहाँ बहुत पुरातन रही है. पुरुषोत्तमदास टंडन की बाल कविता "बन्दर सभा" इसी शैली में रची गई कविता है.

मैथिलीशरण गुप्त ने "माँ, कह एक कहानी" में संवाद शैली का प्रयोग कर यशोधरा और राहुल की पूरी कथा पिरोई है-

"माँ कह एक कहानी/बेटा, समझ लिया क्या तुने/मुझको अपनी नानी? कहती है मुझ से ये चेती/तू मेरी नानी के बेटी/कह, माँ, कह लेटी-ही-लेटी/राजा था या रानी.

कविता में किस्सागोई का एक भला-सा नमूना रामनरेश त्रिपाठी की "मामी निशा" में देखा जा सकता है:-

"बुढ़िया चला रही थी चक्की/पूरे साठ साल की पक्की/दोने में थे राखी मिठाई/उस पर उड़कर मक्खी आई/बुढिया बांस उठाकर दौडी/बिल्ली खाने लगी पकौड़ी/झपटी बुढ़िया घर के अंदर/कुत्ता भागा रोटी लेकर/बुढिया तब फिर निकली बाहर/बकरा घुसा तुरत ही भीतर/बुढिया चली, गिर गया मटका/तब तक वह बकरा भी सटका/बुढिया बैठ गई तब थक कर/सौंप दिया बिल्ली को ही घर."

इस छोटी-सी बाल कविता में बुढिया के साथ जितनी घटनाएं जल्दी-जल्दी घटती हैं वे ही इस कविता में जान डालती हैं. जाहिर है कि ऐसी बाल कविताएँ वही कवि रच सकता है जिसका बच्चों के मनोविज्ञान और उनके संसार से भरपूर वास्ता रहा हो. वैसे भी जीव-जंतुओं के क्रिया-कलाप और उनकी अनोखी दुनिया बच्चों को सदा से आकर्षित करती रही है.भूपनारायण दीक्षित की "तीन बिल्लियाँ चिलबिल्लीं" इसी तरह की दुनिया का चित्रण करती हैं.

जैसा मैंने पूर्व में कहा कि कुछ बाल कविताओं में कथा-सूत्र बड़े होते हैं, फिर ये कथा-सूत्र पौराणिक भी हो सकते हैं अथवा ऐतिसाहिक भी. पर किसी बाल कविता में बड़े कथा-सूत्र का होना ही उसकी कमजोरी नहीं मानी जा सकती बशर्ते उसमे कथा का निर्वाह अपने पूरे प्रवाह के साथ हुआ हो. सुभद्रा कुमार चौहान की विख्यात कविता "झाँसी की रानी"(जों अब देशभक्ति और जनजागरण गीत बन चुकी है) इस तरह का अनुपम उदाहरण है:

"सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी/बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थे/गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी/दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी/चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार पुराणी थी/बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी/खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी."

हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय की "नानी की नाव" अपनी ध्वन्यात्मकता के लिए याद रखी जा सकती है. कुछ पाठकों को स्मरण होगा कि इस बाल कविता का उपयोग अपनी पूरी गेयता के साथ अशोक कुमार अभिनीत एक फिल्म में बखूबी हो चुका है:

"नाव चली, नानी के नाव चली/नीना कि नानी के नाव चली/लंबे सफर पर/आओ चलो/भागो चलो/जागो चलो/आओ/नाव चली, नानी के नाव चली/नीना की नानी की नाव चली/सामन घर से निकाले गए....एक चादी एक घड़ी/एक झाडू-एक लादू/एक संदूक/एक बन्दूक/एक सलवार-एक तलवार/एक घोड़े की जीन-एक ढोलक,एक बीन/एक घोड़ी की नाल-एक मछुए का जाल....नाव चली, नानी की नाव चली/नीना की नानी के नाव चली/फिर एक मगर ने पीछा किया/नानी की नव का पीछा किया/पीछा किया तो फिर क्या हुआ...चुपके से पीछे से/ऊपर से नीचे से/एक-एक सामन खींचा गया/एक कौड़ी छदाम/एक केला-एक आम/एक कच्चा-एक पक्का....एक तोता-एक भालू/एक लहसुन-एक भालू..."

हरिवंश राय बच्चन की यूँ तो बहुत-सी मनोरंजक बाल कविताएँ हैं पर उनकी "काला कौआ" बाल कविता में तो एक पूरी लोक-कथा ही बिंधी हुई है:

"उजला-उजला हंस एक दिन/उड़ते-उड़ते आया/हंस देख कर काला कौआ मन ही मन शरमाया/लगा सोचने उजला-उजला कमाएँ कैसे हो पाऊँ/उजला हो सकता हूँ साबुन से मैं अगर नहाऊं/यही सोचता मेरे घर आया काला कागा/और गुसलखाने से मेरा साबुन ले भगा/फिर जाकर गडही पर उसने साबुन खूब लगाया/खूब नहाया,मगर न अपना कालापन धो पाया /मिटा न उसका कालापन तो मन ही मन पछताया/पास हंस के कभी न फिर वह काला कौआ आया/"

किस्सागोई का एक और अनूठा एवं मनोरंजन उदहारण देखना है तो रामेश्वरदयाल दुबे के "खोटी अठन्नी से अच्छी बाल-कविता मुझे शायद ही कोई नज़र आई हो-

" आओ, तुम्हे सुनाएँ अपनीबात बहुत ही छोटी/किसी तरह आ गई हमारे हाह अठन्नी खोटी/रहा सोचता बड़ी देर तक, पर न याद कुछ आया/किसने दी, कैसे यह आई, अच्छा धोखा खाया/जों हो, अब तो चालाकी से, होगा इसे चलाना/किन्तु सहज है, नहीं आजकल मूरख-बुद्धू पाना/साग और सब्जी लेने में उसे खूब सरकाया/कभी सिनेमा की खिड़की पर मैंने उसे चलाया/कम निगाह वाले बुड्ढे से मैंने चाय खरीदी/बेफिक्री से मनी बैग से वही अठन्नी दे दी/किन्तु कहूँ क्या, खोटी कहकर सबने ही लौटाई/बहुत चलाई नहीं चली वह, लौट जेब में आई/रोज नई तरकीब सोचता, कैसे उसे चलाऊँ/एक दिवस जों बीती मुझ पर वह भी तुम्हे सुनाऊँ/एक भला-सा व्यक्ति एक दिन निकट हमारे आया/क्या रूपये के पैसे होंगे?रुपया एक बढ़ाया/मौका अच्छा देख. पर्स को मैंने तुरंत निकाला/ बाकी पैसे, वही अठन्नी देकर संकट टला/मैं खुश था चल गई अठन्नी, कैसे मूर्ख बनाया/इसी खुशी में मैं तम्बोली की दूकान पर आया/रुपया देख तम्बोली विहंसा, उसने मारा ताना/खूब, खूब खोटे रूपये को क्या था यहीं चलाना/मैं गरीब हूँ, किसी अन्य को जाकर मूर्ख बनाना/खोता रुपया रहा सामने, उसको देख रहा था/गई अठन्नी, आया रुपया, इस पर सोच रहा था/मूर्ख बनाने चला स्वयं वो पहले मूर्ख बनेगा/सच है जों डालेगा छींटे, कीचड बीच सनेगा/घातक है हर एक बुराई, हो कितनी ही छोटी/सिखा गई है खरी बात वह, मुझे अठन्नी खोटी/"

संदर्भवश एक बात मैं यहाँ कहना जरूर चाहूंगा कि जिस तरह फ़िल्मी संगीत में अंग्रेजी की कहावत "ओल्ड इज गोल्ड" मशहूर है उसी तरह बाल-कविताओं पर भी यह बात पूरी तरह लागू होती है. हालांकि इसमें संदेह नहीं कि आज की बाल कविता ने भी अपने रंग-रूप में अनेक नए आयाम जोड़े हैं पर बीसवीं शातब्दी के आरंभकाल के कवियों ने जैसे बेजोड बाल-कविताएँ हिंदी बाल साहित्य को दी हैं वैसी आधुनिक बाल साहित्य में कम ही मौजूद हैं.रामधारी सिंह दिनकर की "चाँद का कुर्त्ता" में कल्पना और मनोरंजन के सुखद संयोग के साथ किस्सागोई का अपना अलग अंदाज है.

बच्चे आपस में प्रेम करते हैं तो लड़ते-झगड़ते भी हैं. उनके इस झगडे का कैसे निपटारा होता है इसका एक दृश्य निरंकारदेव सेवक की रचना "अगर-मगर" में देखिए:

अगर मगर दो भाई थे/लड़ते खूब लड़ाई थे/अगर मगर से छोटा था/मगर अगर से खोता था/अगर मगर कुछ कहता था/मगर नहीं चुप रहता था/बोल बीच में पड़ता था/और अगर से लड़ता था/अगर एक दिन झल्लाया/गुस्से में भरकर आया/और मगर पर टूट गया/हुई खूब गुत्थम-गुत्था/छिड़ा महाभारत भारी/गिरीं मेज-कुर्सी सारिण/माँ यह सुनकर घबराई/बेलन ले बाहर आई/दोनों को दो-दो जड़कर/अलग कर दी अगर-मगर/ख़बरदार जों कभी लड़े/बंद करो यह सब झगडे/एक ओर था अगर पड़ा/मगर दूरी ओर खड़ा/"

कन्हैयालाल मत्त बच्चों के सिरमौर कवियों में हैं. वे न केवल उत्कृष्ट शिशु गीतों के सर्जक है वरन श्रेष्ठ बाल-कथा गीतों के प्रणेता भी हैं. उनकी बाल कविता "सूरज से यों चंदा बोला" जहाँ नाटकीयता का एक भरपूर उदाहरण है वहीँ "बिस्तर छोडो बिस्तर, ननकू भैया, तोतली बुढिया, नक़ल नवीसी की बीमारी, कलम-दवात की लड़ाई" जैसे बाल कविताएँ उनकी मनोरंजक किस्सागोई की अनूठी शैली को प्रस्तुत करती हैं.

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना आधुनिक बाल-कविता के अनूठे रचयिता माने जाते हैं. उनकी "बतूता का जूता" में कहानी भले ही छोटी है पर यह उनकी सबसे ज्यादा यादगार बाल-कविताओं में से एक है:

"इब्न बतूता पहन के जूता/निकल पड़े तूफ़ान में/थोड़ी हवा नाक में घुस गई/घुस गई थोड़ी कान में/कभी नाक को, कभी कान को/मलते इब्न बतूता/इसी बीच में निकल पड़ा/उनके पैरों का जूता /उड़ते-उड़ते जूता उनका/जा पहुंचा जापान में/इब्न बतूता खड़े रह गए/मोची की दूकान में.

शिशु-गीतों के प्रख्यात रचयिता शेरजंग गर्ग की बाल-कविता 'तीनो बन्दर महाधुरंधर" आज के सन्दर्भ में गाँधी-दर्शन को रेखांकित करती है.

"गांधीजी के तीनों बंदर पहुंचे चिड़ियाघर के अंदर/एक चढ़ाये बैठा चश्मा/देख रहां रंगीन करिश्मा/अछाई कम, अधिक बुराई/भले-बुरों में हाथा-पाई/खूब हुआ दुष्टों से परिचय/मन ही मन कर बैठा निश्चय/दुष्ट जनों से सदा लड़ेगा/इस चश्मे से रोज पढ़ेगा/ दूजा बैठा कान खोलकर/देखो कोई बात बोलकर/बुरा सुनेगा, सही सुनेगा/जों अच्छा है वही सुनेगा/गूँज रहा संगीत मधुर है/कोयल का हर गीत मधुर है/भला-बुरा सुनना ही होगा/लेकिन सच सुनना ही होगा/और तीसरा मुंह खोले है/ बातों में मिस्री घोले है/मीठा सुनकर ताली देता/नहीं किसी को गाली देता/मोहक गाना सीख रहा है/वह काफी खुश दीख रहा है/नेकी देख प्रशंसा करता/लेकिन नहीं बदी से डरता/आया नया ज़माना आया/नया तरीका सबको भाया/तीनों बंदर बदल गए हैं/तीनों बंदर संभल गए हैं."

बाल-कविता में यात्रा-कथा भी किस तरह ज्ञानवर्धक एवं मनोरंजक सिद्ध हो सकती है इसे डॉ. राष्ट्रबंधु की "टेसू जी की भारत यात्रा" में देखा जा सकता है,हालांकि वह अपने कंटेंट के लिहाज से एक पुस्तकाकार बाल कविता है. उसके बरक्स प्रकाश मनु की "एक मटर का दाना" अपनी प्रस्तुति में छोटी भी है और मनोरंजक भी. इनके अलावा देवेन्द्र कुमार की "सड़कों की महारानी", कृष्ण शलभ की "खत्म हो गए सारे पैसे, रमेश तैलंग की "एक चपाती, निक्का पैसा, सोन मछरिया, कुटकुट गिलहरी ", में भी मनोरंजक गीत-कथाएं पिरोई गई है. नई पीढ़ी के जिन अन्य बाल कवियों ने इस दिशा में महत्वपूर्ण काम किया है उनमे डॉ.मोहम्मद फहीम खां, डॉ. मोहम्मद अरशद खां, डॉ. नागेश पाण्डेय "संजय" के नाम पमुख हैं.

मेरा मानना है कि अलग-अलग विधा होते हुए भी कविता में कहानी कहने की कला को विधाओं की अराजकता के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए. वैसे भी आज फ्यूजन का ज़माना है फिर चाहे वह संगीत का क्षेत्र हो या कला-साहित्य का. बस, ध्यान रखने योग्य बात यह है कि बाल-कविताओं में ऐसे प्रयोग, लय की प्रधानता, गेयता, मनोरंजन और ज्ञानवर्द्धन की कीमत पर नहीं किए जाने चाहिए.

Wednesday, June 15, 2011

हेमन्त शेष की कविताएं

हेमन्त शेष की कविताएं
आँसुओं को चाहिए सदैव एक असहनीय दुःख
डॉ. ओम निश्चल


बीते तीन दशकों से कविता के परिदृश्य में सक्रिय हेमन्त शेष ने हिन्दी की मुख्यधारा के कवियों में एक अलग प्रतिष्ठा अर्जित की है। उनके भीतर के कला-सजग चितेरे ने कविता को मानवीय राग की एक अनिवार्य अभिव्यक्ति के रूप में सिरजा-सहेजा है। ‘घर-बाहर’, ‘अशुद्ध सारंग’, ‘वृक्षों के स्वप्न’, ‘नींद में मोहनजोदड़ो’, ‘रंग अगर रंग हैं’, ‘कष्ट के लिए क्षमा’, ‘जारी इतिहास के विरूद्ध’, ‘कृपया अन्यथा न लें’, ‘आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी’ और ‘जगह जैसी जगह’ उनके कविता संग्रह हैं।
कवियों में हेमन्त शेष का रंग अन्य समकालीनों से बहुत अलग है। हेमन्त शेष में प्रकृति और जीवानानुभवों का विरल सहकार देखने को मिलता है। यों तो उनकी कविता के रंगों को प्रखर बनाने में उनकी कला-कूची का भी गहरा योगदान रहा है किन्तु जीवन के बड़े सवालों से अलग प्रकृति से आने वाले तादात्म्य और पास-पड़ोस के जीवनोपकरणों से उन्होने अपनी कविता का ताना-बाना बुना है।
इधर के उनके संग्रहों के शीर्षक देखें तो उनमें भी आत्मीयता की छुअन महसूस की जा सकती है। ‘कष्ट के लिए क्षमा’, ‘कृपया अन्यथा न लें’, ‘आपको यह जान कर प्रसन्नता होगी, तथा अब ‘जगह जैसी जगह’- से कवि पाठकों से जो सघन रिश्ता कायम करता है, उनकी बुनियाद गहरी है।
पत्राचार की भाषा से बेशक पदावलियां काफी रूढ़ हो गई हों, किन्तु उनके साथ संवाद का अटूट सूत्र जुड़ता है। हमारी अभिव्यक्ति को इन पदावलियों का इतना अभ्यास हो चला है कि ये लगभग यंत्रचालित कथन की तरह हमारे संप्रेषण के अचूक मुहावरों में शामिल हो गए से लगते हैं किन्तु कवि जब इन रूढ़ पदावलियों को कविता की माँस-मज्जा से गूंथता है तो वे जैसे कविता के अनिवार्य उपकरणों में बदल जाते हैं।
हेमन्त शेष जीवन के अनुभवों को तात्कालिक घटना संदर्भों के साथ न जोड़कर उन्हें रचना के व्यापक और तत्वदर्शी फलक पर उतारने का यत्न करते हैं। प्रकृति के साहचर्य से वे न केवल जीवन की मार्मिक व्याख्या करते हैं, बल्कि पार्थव चिंताओं का हल भी वे बिना किसी प्रकार की दार्शनिकता के अतिरेक में खोए निकाल लेते हैं। उनकी कविता-पंक्तियों में जीवन का अगाध मर्म मुहावरे की कौंध सा छिपा होता है।
हेमन्त शेष की कविताओं के निर्माण में वृक्षों, फूलों, चिड़ियों, तितलियों, नदियों, झरनों के बिम्बों का गहरा योगदान रहा है। इन्हीं बिम्बों के भीतर वे माननीय गुणों की तलाश करते हैं। प्रकृति को खूबसूरत बनाने वाले इन तत्वों को लेकर अतीत में अनेक कविताएं लिखी गई हैं, बल्कि एक दौर की कविता में ऐसा रहा है जब ऐसे सुकोमल प्रतीकों से राजनीतिक आशयों को व्यक्त करने की पहल की गई थी।
‘पेड़ हैं इस पृथ्वी के प्रथम नागरिक’ और ‘एक दिन बोलेंगे पेड़’ से लेकर प्रकृति के अनेक सुकोमल उपादानों से कविता की रंगशाला सजाई गई। हेमन्त शेष ने ‘वृक्षों के स्वप्न’ के बहाने मनुष्य की अतीतजीवी स्मृतियों और उम्मीदों को नवसृजन किया। उन्होंने लिखा है:-
‘‘अतीत की नदी में डूबने के लिए चाहिए वृक्षों को एक नींद
एक स्वप्न एक स्मृति
उम्मीद की तरह
वे अडिग रहना चाहते है
अपने अंतिम समय तक
इस अर्थ में वृक्ष मनुष्य से कितने मिलते-जुलते हैं।’’
अकारण नहीं कि राजस्थान की ‘उजाड़’ वसुंधरा में रहकर नदी, जल, वृक्ष और झरने की अहमियत को जाना जा सकता है। हेमन्त शेष भी कविताओं में ‘बहते पानी की आवाज’ दर्ज करते हैं और ‘नदियों के लिए’, ‘वृक्षों की नींद’ और उनके स्वप्न के प्रतिश्रुत दिखते हैं- यहाँ तक कि ‘पृथ्वी के भीतर छिपे प्रसत्रचित दुनिया के मंतव्य’, ‘पहाड़ की कठोरता में छिपी एक सहिष्णु समुद्र की करवट’, ‘हवा में पानी’, ‘ओस में नमक’, ‘वृक्षों में संजीवनी’ और करोड़ों प्रकाशमान दिनों की आभा की याद दिलाते हैं।
उनके यहां सूखती कुम्हलाती नदी का अवसाद है, पृथ्वी की विराट करवट में जमींदोज हुए शहर की यादें हैं-नींद में मोहनजोदड़ो की बेआवाज उदासी है और उनकी कविताएं उनके ही शब्दों में ‘किसी स्थान, नदी और अपने लिए बचाई हुई पृथ्वी का स्मरण’ हैं।
यदि हेमन्त शेष से अपनी कविता की कार्यशाला को निरंतर अपने प्रयोगों और प्रश्नाकुलताओं से उर्वर बनाए रखा है किन्तु वृक्षों के स्वप्न और नींद में मोहनजोदड़ो की अभिव्यक्तियां उनके कवि-वैभव की प्रामाणिकता के लिए पर्याप्त हैं। अपनी इस शुरूआती काव्य-कृतियों में ही वे हमारी संवेदना को छू लेने वाले और अपने काव्योद्रेक से संवलित करने वाले एक ‘बड़े’ कवि के रूप में दिखते हैं।
मुझे याद है, ‘रंग अगर रंग है’ में शामिल स्त्री पर लिखी उनकी एक कविता जो ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में भी छिपी, स्त्री के प्रति कृतज्ञता का एक ऐसा काव्यात्मक उदाहरण है जो आसानी से लभ्य नहीं है। हेमन्त शेष उस स्त्री के प्रति आभार प्रकट करते हैं:-
जो सारे संसार को बुहारती है
सम्पूर्ण दुनिया के लिए बेलती है रोटियां
विश्व भर के कपड़े धोती है
अनगिनत पतियों के लिए बिस्तर में लेटती है
असंख्य बच्चों की माँ बनने के लिए
यह कविता अपने अल्प-काया के बावजूद लगभग हतप्रभ कर लेने वाली संवेदना से भरी है। ऐसी ही कृतज्ञता इस संग्रह की ‘बाहर-घर’ कविता में भी है जहाँ कवि ने संसार भर की माँओं और बीवियों के आगे अपना हैट उतार कर रख दिया है।
‘आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी’ के कविता-कोश में चलन से बाहर हो गई चीजों जैसे लालटेन, तांगे, अनिवार्य साहचर्य के उपादानों-मेज, कुर्सी पर कविताओं के अलावा चिड़ियों, कबूतर, लड़कियों और दाम्पत्य पर कई कविताएँ हैं। जहाँ काठियावाड़ के अकाल पर ‘प्रवास काठियावाड़’ कविता ‘कष्ट के लिए क्षमा’ में शामिल ‘काठियावाड़-94’ का ही पुनर्लेखन है जो कवि के भीतर चलती उधेड़बुन और अपनी ही कविता के पुनर्प्रस्तुतीकरण के लिए उसकी अनिवार्य व्यग्रता की ओर इंगित करती है।
पृथ्वी हेमन्त शेष के लिए केवल शब्द भर नहीं है बल्कि वैविध्यपूर्ण जीवन की अनुभूतियों को आंकने के लिए एक महत् तत्व की तरह है जिसकी विराटता में धीरज और सहिष्णुता है तो ‘उसके भीतर छिपे करोड़ों प्रकाशवान दिन’ भी । इसी तरह उसके लिये आकाश ‘एक धारणा नहीं है’, वह ‘हवा की ही तरह एक सच है अनन्त तक जाता हुआ।’ उड़ती हुई चिड़िया के पंखों में वह काल की परछांई देखता है तो चीटियों में प्रगतिशीलता और काव्यात्मकता, और घर से लेकर अध्ययन-कक्ष तक मौजूद गौरेया के भीतर-कभी एक बेबस भरतीय स्त्री का चेहरा भी, जो लगातार ध्यानाकार्षण के लिए फुदकती और सक्रिय रहती है।
हेमन्त शेष इस तरह अपने अगल-बगल की जीवंत चीजों से लेकर बेजान चीजों तक में जीवन-स्थितियों की पूरी छाया देखते हैं और उसे कविता में गूंथने का उपक्रम भी करते हैं और कविता के लिए जिसकी प्रतिबद्धता विस्वसनीयता की हद तक अटल हो, वह हेमन्त शेष जैसा कवि ही कह सकता हैः-
रहूँगा ही
मैं रहूँगा
व्यस्त पृथ्वी के धीरज और
आकाश की भारहीनता में
खनिज की विलक्षणता
पानी की तरलता
आग की गर्मी और
नदियों निरीहता में
पशुओं की पवित्रता और
दिशाओं की दयालुता में
रहूँगा ही मैं
एक शब्द की अजरता अमरता में।
कुछ चीजें अब हमारी स्मृति से धुल-पुँछ कर अतीत का परिचय बन कर रह गई हैं- जैसे ‘ताँगे’ और ‘लालटेन’। तेज पहियों पर दौड़ती शहरी जिन्दगी में ताँगे प्रायः चलन से बाहर हो गए हैं, गो वे छोटे कस्बों, गाँवों, ढाणियों में अब भी होंगे पर बस प्रतीक भर ही। ताँगे उस युग की याद दिलाते हैं जो बीत चुका है। चाबुक खूँटी पर टँग गई है, टापें कहीं खो गई हैं और ताँगों के जर्जर ढाँचे दीमक चबा रही है।
एक कालखण्ड के व्यतीत होने का यह प्रतीकात्मक संकेत है, तो लालटेन की लौ एक विश्वसनीय रोशनी का परिचायक है। आज भले ही लालटेन का जमाना नहीं रहा, पर उसकी रोशनी अभी भी हमारी स्मृति में कौंधती है। कवि कहता है:-
‘ध्वंस और अँधेरे से भरी रात में कोई लालटेन जरूर है हमारे अंदर
जरूरत पड़ने पर जिसे हर सम्भ्रम में
कविता के चकमक से जलाया जा सकता है।’
आज अपनी प्रासंगिकता खो देने वाली लालटेन भले ही कभी सिर्फ हाथ भर दूर की चीजें दिखाती रही हो, पर जीवन भर लोग उस पर बेपनाह भरोसा करते थे। विडम्बना यह है कि आज सिर्फ हमारे भीतर की लालटेन ही नहीं बुझ गई है-आत्मीयता की लौ बुझ गई है, जिसे जलाना लालटेन जलाने से कहीं ज्यादा मुश्किल है।
स्मृतिजीवी कविताओं में मेरी मेज व कुर्सी एक दिलचस्प वृŸाांत-जैसी बुनी गई है किन्तु ‘मेरी मेज’ का कथ्य जहाँ आत्मनेपद में है, ‘कुर्सी’ का कथ्य नितान्त अन्य पुरुष में। मेज से कवि का करीबी रिश्ता है जो उसकी कविताओं का बोझ सबसे ज्यादा ढोती है, जो घर भर में अकेली कवि के अनगिनत दुःखों से वाकिफ है-जिसे देखकर कवि को कटे हुए घायल वृक्ष की याद आती है और जिसकी आत्मा पर वह कुहनियाँ टिकाए एक धड़कते हुए प्रेमपत्र की तरह एक छोटी सी कविता लिख रहा है-इस अत्यन्त संवेदी-कथ्य के बरक्स कुर्सी के कथ्य में उसका चारित्रिक बखान कहीं प्रमुखता से चित्रित हुआ है।
तमाम चारित्रिक गुणों के अलावा कवि उसके निमित किए गए भाषा के विकास पर ज्यादा गौर करता है जिसके चलते कितने ही मुहावरे गढ़े गए हैं और अचरज नहीं कि यदि कुर्सी में किसी भी तरह चिंतन और अभिव्यक्ति की क्षमता होती तो यह जानकर प्रसन्न होती कि मनुष्य के इतिहास-निर्माण में उसका कम हाथ नहीं है। ये दोनों कविताएँ वैचारिक रूप से प्रखर और बौद्धिक तेजस्विता के साथ रची गई हैं।
इन कविताओं के साथ दाम्पत्य-सीरीज की कविताएँ भी ध्यातव्य हैं। दाम्पत्य केवल प्रेम का प्राकट्य ही नहीं बल्कि सहजीवन से उपजी गार्हस्थ्य अनुभूतियों का प्रकाशन है। दाम्पत्य जो कवि के लेखे-‘अब जैसा भी यह जीवन हमारा है’ से शुरू होता है और आँसुओं से शुरू हुए शीतयुद्ध से गुजरते हुए देह के पठारों पर तनिक देर ठहरता और मैथुन की नमी से बिस्तर को जगा देता है।
किन्तु इस बीच ऐसा ही क्षण आता है कि दाम्पत्य में कूट-लेखों की भाषा जन्म ले लेती है, पति गुप्त-लिपियों के आविस्कार में मशरूफ हो जाते हैं, और फिर दाम्पत्य में ऊब का दौर शुरू है-जब हाशिये पर चले जाते हैं दुःख और लगता है कि थियेटर में एक बहुत ही पुरानी रद्दी फिल्म देखी जा रही है या ऐसे भी क्षण आते हैं जब यह सोचना पड़ता है:-

‘हम लोग एक दूसरे के वर्ष खा रहे हैं तश्तरी में
या दाम्पत्य’
दाम्पत्य को कईं कोनों में उधेड़ती-बुनती हेमन्त की इस कविता-सीरिज को पढ़ना बेहद दिलचस्प है। हालाँकि दाम्पत्य के साथ अपत्य की चर्चा यहाँ बिलकुल नहीं है, जिसे होना चाहिये था।
हेमन्त की कविता में रह-रह कर दार्शनिकता आ धमकती है। वे भावुकता में भी कविता में ऐेद्रिय संवेदना जगा लेते हैं। उपसंहार में वे कहते हैं:-
‘चिमनी ऋतुओं की जलती है आजन्म।
और काल का तेल कभी नहीं बीतता।’
(हालाँकि बीतता को खत्म होना या रीतता कहा जाता तो बेहतर होता) और इसी कविता में वे कथा के अंत में अकेले रह गए ईश्वर की मेज पर छूटे हुए अनुŸारित प्रत्र को सबसे कठिन दुःख की संज्ञा देते हैं।
एक जगह (चिड़िया) वे पूछते हैं, ‘काल का कौन सा भाग/एक उड़ती हुई चिड़िया के पंखों का समय होता है ?‘ ऐसी प्रश्नाकुलताओं में उनके दार्शनिक चिंतन के बीच छितरे पड़े हैं। उनकी कविता में समाज को लेकर अनदेखापन नहीं है बल्कि यह यत्र-तत्र मुखर और प्रखर सामने आया है:-
‘समाज कहाँ है समाज/
कविता पूछती है/
और जानती है कि वह एक दारुण त्रस्त अभिशत/
निरपराध आत्मा की तरह अकेली और उदास है।’
हेमन्त शेष जाने-अनजाने छुपके से बड़ी बात कह जाते हैं, जैसे यही कि ‘आँसुओं को चाहिए/ सदैव एक असहनीय दुख।’
यद्यपि हेमन्त शेष एक कविता में कहते हैं कि मुझे अपने लिए अपनी भाषा में किसी चमत्कार की जरूरत नहीं है फिर भी उनके यहाँ चमत्कार कविता में एक अनिर्वाय शर्त की तरह घटित होता है। इसलिए एक कविता का लिखा जाना उनके लिए एक मामूली उपक्रम भर नहीं है। उनका अनुभव बताता है कि एक समय कविता में दहकती नदियाँ, पिघलते हुए पेड़, बच्चों का रोना, शवयात्राओं का हाहाकार, खिलखिलाते हुए फूल-सब कुछ थे पर उनमें कविता की उदासी, उसके शब्दों का कम्पन, उसकी आत्मा की चीख, उसका होना न होना शामिल न थे। लिहाजा कविता का रस सूखना ही था-और इस सच्चाई में जूझते हुए ही उन्होंने जाना कि कविता किसी भी पराई आग और पानी के सहारे नहीं लिखी जा सकती। उसमें आत्मानुभूति की आँच होनी ही चाहिए तभी कविता दूसरों के सुख-दुःख में सरोकार रख सकती है।
हेमन्त शेष ने अब तक के अपने-जीवन में चिड़ियों, लड़कियों और चींटियों और पृथ्वी पर अनेक कविताएँ लिखी हैं, पर वे इन्हें लेकर किसी प्रतीकवाद के वशीभूत नहीं हुए। यथार्थ के अन्वेषण में उन्होंने अति-यथार्थवाद की राह नहीं अपनाई। सीधी किन्तु कवित्वपूर्ण भाषा में उन्होंने कविता को उस ऊँचाई तक पहुँचाया है जहाँ से उसकी आवाज और ऊष्मा का माप स्पष्ट महसूस किया जा सकता है।
पृथ्वी की सम्बोधित शीर्षक कविता की निम्र पंक्तियों पर गौर करें तो जिसे कविता का नैसर्गिक गुण कहते हैं, यहाँ उसका पूर्ण पारिपाक्र मिलता है:-
‘किसी अथाह के भीतर गिरती इच्छाओं के लिए
प्यारी पृथ्वी
यहाँ तुम कुछ देर ठहरो
रूको कि तुम्हें लिखलायी दे
हमारी भाषा
जिसमें हम कपड़े पहन रहे हों
वे दीप्तियाँ जो उसके अर्थ में उपजें और
शब्दों के भेस में तुम्हारे निस्सीम तक पहुँच सकें
रास्ते में मिलेंगी उदारताएँ
वाष्प से बने बादलों की शक्ल में नदियाँ
मिलेगा खार, नमक और किताबें
लोग सागर-तटों पर शीर्षासन करते मिलेंगे
हत्यारे भी मिलेंगे सन्त और कसाई भी
इतना कुछ मिलेगा
कि सब कुछ गड्ड-मड्ड होता जान पडे़गा।’
हेमन्त शेष की भाषा ‘आक्रामक’ नहीं है। वह प्रकृति और जीवनानुभवों के विरल सहकार से उपजी है। हेमन्त की कलाकारिता ने उन्हें शब्द-लाघव और सांकेतिकता का अद्भुत-संस्कार दिया है तो उनकी कूँची ने जीवन की बारीक से बारीक खरोंच को उकेर पाने और फूलों तक में छिपे प्रसन्नचित दुनिया के मंतव्य को प्रकट करने की ऐंद्रिय-क्षमता भी
हेमन्त शेष की कविता रेतीली जमीन पर दूब उगाने की एक कोशिश कही जा सकती है। अनुभवों के कठोर पठारों से गुजरते हुए उनका कवि-मन एक ही क्षण में ब्रहाण्ड के पार तक झाँक लेने की निर्भयता से भर उठता है। कहना न होगा कि ब्रह्माण्ड और पृथ्वी जैसे बिम्बों से वे ऐसे ही खेलते हैं, जैसे कन्दुक क्रीड़ा में निमग्न कोई बच्चा।
किन्तु इस भाषिक खेल में ही उनके यहाँ ऐसी पदावलियाँ आती है जिनमें अनुभव और अनुभूति की मार्मिकता पैठी होती है। तालाब में डूबी लड़की में अभिसार की अनन्त बारिशों में भीगने वाली किन्तु आत्महत्या कर चुकी लड़की के बारे में हेमन्त शेष का कवि-मन महसूस करता है:-
‘उसकी निस्पन्द गीली देह के दालान में उड़ती हैं
सुगन्धित इच्छाओं की चिटियाँ
उनकी बेजान उँगलियों को सिहरा देते हैं कुछ गुलाबी स्पर्श
अक्सर अपनी भाषाहीनता में मुखर होते हैं उसके ठण्डे होंठ
उसकी आँखें पृथ्वी के तकिए पर रखकर अपना सिर
सतत-भाव से आसमान को निहार रही होती हैं ।
और जैसा मैंने शुरू में कहीं कहा है, उनकी कविताओं के जीवन की मार्मिकतापूर्ण छवियाँ और अंतरंगता से महसूस की गई दुनिया है जिसका आस्वादन एक अव्यक्त-परितृप्ति से हमें भरता है। जिसके लिये हेमन्त शेष ने अपने हाल के एक सम्पादकीय (‘कला-प्रयोजन’) में लिखा है, ‘यह सवाल हर समय और हर समाज में प्रासंगिक रहा है कि एक रचनाकार का अपनी रचना, समय, समाज और आलोचना के अलावा अपने आस्वादक से रिश्ता कैसा हो ?’
कहने की जरूरत नहीं कि हेमन्त शेष की ये कविताएँ अपने पाठकों, आस्वादकों और अपने समय से भी एक आत्मीय रिश्ता बनाती हैं और मुझे तो, उनकी शुरूआती किताब-‘वृक्षों के स्वप्न’ जिसे मैने कोई पंद्रह बरस पहले उदयपुर के एक लगभग अज्ञात ‘संघी प्रकाशन’ से खरीदा और उस पर ‘हिन्दुस्तान’ में लिखा भी, को पढ़ कर लगा था कि हेमन्त शेष वास्तव में एक विस्तृत फलक के कवि हैं और तब से लेकर अपनी अनेक कविता-कृतियों में उन्होंने अपने उŸारोतर विकसित होने कवि-व्यक्तित्व का परिचय दिया है। ***
with courtesy from fb.

बच्चों की चित्र-कविताओं का मनोविज्ञान

चित्र और कविताएँ - दोनों बच्चों को हमेशा से प्रिय रहे हैं. शायद यही कारण है कि बाल-साहित्य की परंपरा में अब तक जों भी बाल-कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं या हो रहें हैं उन्हें यथासंभव समुचित चित्रों से सुसज्जित किया जाता रहा है. इसलिए मोटे तौर पर देखें तो सभी बाल-कविताओं को बाल चित्र-कविताओं के श्रेणी में रखा जा सकता है. परन्तु वास्तव में ऐसा संभव है नहीं. बाल-चित्र कविताएँ बाल चित्र कथाओं के तरह ही एक विशिष्ट श्रेणी एवं सरंचना की मांग करती है. इसे ठीक से समझने के लिए हमें कुछ बातों का ध्यान रखना पड़ेगा.

जिस तरह अंग्रेजी बाल साहित्य में "पिक्चर बुक्स" की एक अलग श्रेणी है उसी तरह हमें अपनी भाषा हिंदी में भी चित्र पुस्तकों की एक अलग श्रेणी मान कर चलना होगा.

बच्चों के लिए जब हम चित्र पुस्तकों की बात करते हैं तो हम यह भी मान कर चलते हैं कि ऐसी पुस्तकों में चित्र का फैलाव "टेक्स्ट" की अपेक्षा कहीं अधिक होगा. फिर चाहे वह टेक्स्ट कथा का हो अथवा कविता का.

बाल चित्र कविताओं में चित्रों का फैलाव इसलिए भी आवश्यक है कि वे कविता में टेक्स्ट को समझने तथा उसे सम्पूरित करने के साथ-साथ बाल पाठकों की कल्पना को साकार करने में सहायक होते हैं.

यहाँ ध्यान में रखने वाली बात यह है कि बाल चित्र कविता में कविता का टेक्स्ट आकार में छोटा तथा ऐसे सरलतम शब्दों में लयबद्ध होना चाहिए जों बच्चों को उनकी उम्र के अनुसार सहज रूप से बोधगम्य हो.

बाल चित्र कविताओं में प्राथमिकता चित्र की होती है और कविता दूसरे नंबर पर आती है. यदि चित्र छोटी उम्र के बच्चों के लिए बनाए जा रहे हैं तो उनकी सुंदरता और उनके रंग संयोजन की ओर चित्रकार का विशेष ध्यान होना चाहिए.

खेद है कि हिंदी के अधिकाँश प्रकाशक ऊपर कही गई बातों के प्रति सजग नहीं हैं और शायद यही कारण है कि हिंदी में अच्छी बाल चित्र कविताओं की बहुत ही कमी है. अगर कहीं चित्र खूबसूरत है तो वहाँ कविता का "टेक्स्ट" अटपटा है और जहाँ "टेक्स्ट" ठीक है वहाँ चित्र या तो बहुत छोटे हैं या फिर सामान्य श्रेणी के हैं. इसलिए व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर मैं अपनी बात कहूँ तो हिंदी में बाल चित्र कविताओं की स्थिति दयनीय ही है.

एक तरह से देखा जाए तो चित्र किसी भी कविता के सौंदर्य में वृद्धि कर सकते हैं परन्तु छोटी उम्र के बच्चों के लिए लिखी गईं बाल कविताओं के साथ उपयुक्त चित्रों का होना एक बड़ी जरूरत है जिसे तभी पूरा किया जा सकता है जब बाल कवि और चित्रकार दोनों को बच्चों के मनोविज्ञान का मूलभूत ज्ञान हो.

बाल कविता में लय और चित्र में सौंदर्य की कमी हो तो पूरी की पूरी बाल चित्र कविता फूहड़ता में बदल सकती है. बच्चों का अपना शब्द भंडार तो सीमित होता ही है, उनका दृश्य संसार भी सीमित होता है. इसलिए इन दोनों सीमाओं को नज़र मे रखते हुए बाल कविताओं के विषय तथा उनसे संबद्ध चित्रों का चुनाव किया जाना चाहिए. आधुनिक समय में जब बच्चे की समझ और मुद्रण की तकनीक दोनों ही में तेजी से परिवर्तन आ रहा है, तो बाल कवियों तथा चित्रकारों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है.

श्रुति परंपरा में बाल कविता के साथ चित्रों की अनुपस्थिति स्वाभाविक है परन्तु चित्रों की अनुपस्थिति में स्वयं बच्चे की कल्पना को पंख लग जाते हैं. उदाहरण के लिए कोई बाल कविता किसी फूल या जानवर के बारे में है तो बच्चा चित्र की अनुपस्थिति में उस फूल या जानवर को अपनी कल्पना से क्या आकृति देगा या उसमे क्या रंग भरेगा यह हमारी-आपकी कल्पना से बाहर है. वह गाय को ऊँट या गुलाब को गेंदे के आकृति और रंग दे सकता है. इस प्रक्रिया में उसकी अपनी स्मृति और उसके सीमित दृश्य जगत का अनुभव ही काम करेगा. परन्तु जहाँ चित्र उपस्थित हैं वहां उसकी कल्पना को विराम लग सकता है. ऐसी स्थिति में बाल कविता के विषय से परिचित होने के लिए चित्र ही उसके आलंबन का काम करेंगे.

बहरहाल इधर के वर्षों में कम उम्र के बच्चों के लिए जों बाल कविता संग्रह या शिशु गीत संग्रह प्रकाशित हुए हैं उनमे से कुछ चुनी हुई बाल कविताओं का मैं यहाँ उल्लेख करना चाहूंगा जों हमारी कसौटी पर कमोवेश सही उतरती हैं. इनमे डॉ. शेरजंग गर्ग के शिशुगीतों का एक संग्रह है -"गीतों के रसगुल्ले", चित्रांकन ओम प्रकाश रावत, प्रकाशक: मेधा बुक्स-दिल्ली-३२. इस संग्रह में बहुत से ऐसे शिशुगीत हैं जों बच्चों की उम्दा चित्र कविताओं के श्रेणी में फिट होते हैं.

डॉ.शेरजंग गर्ग हिंदी शिशुगीतों के पुरोधा रचनाकारों में से हैं और उन्हें बच्चों के मनोविज्ञान तथा शिशुगीतों के संरचना का दीर्घनुभव है. उनके शिशुगीतों में सजता और विविधता दोनों का सधा हुआ संयोजन देखने को मिलता है. कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं:

हाथी की है बात महान/हाथी के हैं दांत महान/
भीतर-भीतर खाने के हैं/बाहर सिर्फ दिखाने के हैं/

चश्मा लगा के बुढिया/लगती जवान बुढिया/
कुछ बडबडा रही है/ किसको पढ़ा रही है?

मिस्टर जोकर, जागे सोकर/
ठोकर लगी/ हँसे हो-हो कर/

सीधा-सादा सधा-सधा है/
इसी जीव का नाम गधा है/

हालांकि इस संग्रह में दो-रंगे चित्रों की जगह चतुरंगे चित्र होते तो इनकी श्रेष्ठता और विश्वसनीयता अधिक बढ़ जाती परन्तु लागत की दृष्टि से प्रकाशकों की अपनी सीमाएं होती हैं, इसलिए इस मुद्दे पर ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता.

चतुरंगे चित्रों वाली बाल कविताओं की बात की जाये तो सी.बी.टी. द्वारा प्रकाशित चार बाल कविता संग्रहक्रमशः : आओ गीत गायें-लेखक: जे. सी. मेहता, चित्रांकन: सुरेन्द्र सुमन/ मूंछे ताने पहुंचे थाने - लेखक: अनेक, चित्रांकन: अजंता गुहाठाकुरता /मेरे शिशुगीत- लेखिका: प्रीत्वंती महरोत्रा, चित्रांकन: अमित कुमर तथा चंदामामा का पाजामा-लेखक: अनेक:चित्रांकन: अजंता गुहाठाकुरता का उल्लेख किया जा सकता है. इन सभी संग्रहों के चित्र खूबसूरत परन्तु कवितायेँ अधिकांशतः निम्न स्टार की हैं, जिनमे लयबद्धता की कमी तो है ही, विषयों के चयन भी ठीक नहीं है.

जैसा कि मैंने पूर्व में कहा, बच्चों की चित्र कविताओं में कविता छोटी और चित्र बड़े होने चाहिए इसलिए मैं यहाँ जानबूझ कर बड़ी बाल कविताओं की चर्चा नहीं कर रहा हूँ, हालांकि उनमे से कई ऐसी हैं जों हिंदी की आधुनिक बाल कविता के क्षेत्र में नए प्रतिमान स्थापित करती हैं. परन्तु बच्चों की चित्र-कविताओं में -टेक्स्ट का दो, चार, छः, या अधिकतम आठ पंक्तियों तक सीमित होना ही उचित है.

अंग्रेजी में प्रकाशित चिल्ड्रेन पिक्चर पोएट्री की ऐसे कई श्रेष्ठ पुस्तकें चिल्ड्रेन बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली के पुस्तकालय में उपलब्ध हैं जिन्हें बच्चों की अच्छी चित्र कविताओं के लिए याद रखा जा सकता है. संदर्भवश एक-दो उद्धरण मैं यहाँ देना चाहूँगा:

"Peeping shyly in the water
In the swetest flower of all
Rose has lovely velvet petals
Which we gather when they fall
(Flower Maidens: printed by Birn Bros Ltd. England)

"In the woodlands you will find her
Gaily dressed in yellow and green
Neath the trees sits little prim rose
Making poses fit for a queen"
(Flower Maidens: printed by Birn Bros Ltd. England)

With her graceful bell like flowers
And her stems so straight and tall
Lily looked into her mirror
She thinks she is the best of all"

इन कविता उद्धरणों की एक विशेषता यह है कि इन सभी में चित्रों को वर्णित ( narrate) किया गया है, जब कि सामान्यतः होता यह है कि कविताओं पर चित्र बनाए जाते हैं. इसीलिये इन कविताओं के साथ दिए गए चित्र बोलते हुए चित्र नज़र आते हैं.

हिंदी में उम्दा शिशुगीतों की कमी नहीं है और उनके धुरंधर रचनाकारों में निरंकार देव सेवक, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, कन्हैया लाल मत्त, विष्णुकांत पाण्डेय, शांति अग्रवाल, डॉ. श्री प्रसाद, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, बालस्वरूप राही, डॉ. राष्ट्रबंधु, योगेन्द्र कुमार लल्ला, दामोदर अग्रवाल से लेकर सूर्य कुमाँ र पाण्डेय, योगेन्द्र दत्त शर्मा, डॉ. मोहम्मद फहीम तक आधुनिक पीढ़ी के अनेक कवि हैं.परन्तु उनकी रचनाओं को बड़े रंगीन चित्रों के अभाव में सिर्फ टेक्स्ट के आधार पर आधे-अधूरे मन से बाल चित्र कविताओं की श्रेणी में रखना उचित नहीं लगता. अच्छा होगा कि इन रचनाकारों के श्रेष्ठ बालगीतों को उम्दा चित्रांकन के साथ बाल चित्र पुस्तकों के रूप में पुनर्प्रकाशित करने की जिम्मेदारी सुधी और सक्षम प्रकाशक उठाएं. उनका यह कदम निश्चित रूप से बच्चों की चित्र कविताओं के साहित्य को समृद्ध करेगा.

संदर्भवश यहाँ में एक बात और कहना चाहूंगा. अमर चित्र कथा वालों ने बाल चित्र कथा की एक सुद्रढ़ परंपरा हिंदी तथा अन्य भाषाओं में स्थापित की है. काश श्री अनंत पै का एक क्लोन और हमारे देश में जन्मा होता तो वह अमर चित्र कविताओं की भी एक श्रंखला आरम्भ करता. परन्तु क्योंकि ऐसा नहीं हुआ इसलिए क्या ही अच्छा हो यदि अमर चित्र कथा के प्रकाशक ही (दुर्योग से अब श्री अनंत पै हमारे बीच नहीं हैं) अमर चित्र कविता की श्रंखला का शुभारंभ करें. प्रयोग की दृष्टि से यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य होगा. हिंदी की अच्छी बाल कविताओं में बहुत से ऐसे कथा गीत हैं (इस विषय पर में आगे इस ब्लॉग पर लिखूंगा) जों एक पूरी अमर चित्र कविता का आकार ग्रहण कर सकते हैं. जहाँ ऐसा संभव नहीं है वहाँ स्वतंत्र बाल कविताओं के साथ पूरे पृष्ठ के रंगीन चित्र संयुक्त किए जा सकते हैं.

बाल चित्र कविताओं में प्रयोग की दृष्टि से पोस्टरों को भी शामिल किया जा सकता है या फिर बच्चों की रूचि, समझ तथा उनके वातावरण के अनुसार अच्छे चित्रांकन, छायांकन और पारदर्र्शियों का भी छोटी कविताओं के साथ उपयोग किया जा सकता है. इसमें संदेह नहीं कि यह कार्य एक सुलझी हुई दृष्टि, श्रम और संसाधन की मांग करता है परन्तु कहीं न कहीं, किसी न किसी को पहल तो
करनी ही होगी.

बच्चों की चित्र कविताएं पहली दृष्टि में ही आकर्षक होंगी तो वे बच्चों के बीच निश्चित रूप से अपना स्थान बनाएंगी. हमारे यहाँ एक बड़ी समस्या यह है बाल साहित्य पर जितनी भी छोटी-बड़ी संगोष्ठियां आयोजित होती हैं उनमे बाल साहित्यकारों की तो भागीदारी होती है पर चित्रकारों/इलस्ट्रेटरों की समुचित भागीदारी नहीं होटी . इसके पीछे क्या कारण हैं, इसके विस्तार में मैं नहीं जाना चाहूंगा, परन्तु इतना अवश्य कहना चाहूंगा कि चित्र साहित्य में चित्रकार की भूमिका लेखक की भूमिका से कहीं ज्यादा अहम होती है. वह अमूर्त्त को समूर्त करता है. वह शब्द को दृश्य में बदलता है. इसलिए उसका सामंजस्य लेखक के साथ अधिकतम होना चाहिए. कभी-कभी तो ऐसा देखा गया है कि लेखक चित्रकार के बीच में प्रकाशक एक पुल की तरह काम न कर दीवार की तरह खड़ा हो जाता है. ऐसी स्थिति में चित्रकार के सामने लेखक की रचना तो होती है परन्तु लेखक के सामने चित्रकार की दृश्य कल्पना का कहीं अत-पता नहीं होता. यदि उन दोनों के बीच सही संवाद स्थापित रहे तो रचना अपने द्विआयामी असर के साथ श्रेष्ठतम रूप में उभरकर सामने आती है. बच्चों की चित्र कविताओं के क्षेत्र में ऐसा सामंजस्य होना अभी अपेक्षित है.

बहुत से संस्थानों एवं प्रकाशन गृहों ने ऐसे भी प्रयोग किए हैं जिनमे कुछ चुने हुए कवियों के बाल कविताओं पर स्वयं बच्चों को चित्र बनाने के लिए आमंत्रित किया गया है तथा उन्चित्र कविताओं की प्रदर्शनी भी लगाईं गई है. मेरी दृष्टि में ऐसी चित्र कविताओं का महत्त्व कम नहीं हैं क्योंकि ऐसे चित्रों में बच्चों का अपना योगदान अपने शिखर पर होता है.

सारांश रूप में हम यह कह सकते हैं बच्चों की चित्र कविताओं का मनोविज्ञान बच्चों के मनोविज्ञान से अलग नहीं है. इसलिए बच्चों की अपनी पसंद, अपनी कल्पना, अपनी बौद्धिक-क्षमता जब तक किसी बाल कविता अथवा चित्र माँ प्रदर्शित नहीं होती तब तक कोई भी बाल चित्र कविता उनकी कसौटी पर खरी नहीं उतर सकती. हिंदी जगत में ऐसी बाल चित्र कविताओं का सृजन, प्रकाशन और
मूल्यांकन अभी अपनी शैशवावस्था में है.

-रमेश तैलंग

(त्रिसाम्या से साभार)

Sunday, June 12, 2011

SUNA BAHUNI -सुना बहनी के संपादक बिजोय मोहापात्र रेनल केंसर से पीड़ित

अभी कल के टाइम्स ऑफ इंडिया के कटक एडिशन में एक समाचार ने मुझे हतप्रभ कर दिया है. समाचार सुना बहनी के ४२ वर्षीय संपादकबिजोय मोहापात्र के बारे में है जों रेनल कंसर से पीड़ित है और कटक के आचार्य हरिहर रीजनल कंसर सेण्टर में अपना इलाज करा रहे हैं.बिजोय मोहापात्र अभी पिछले सितम्बर में मुझे भीलवारा राजस्थान में आयोजित बालसाहित्य समारोह में अपनी पत्नी विजयलक्ष्मी के साथ मिले थे तत् काफी प्रसन्न चित्त और उत्साही नज़र आ रहे थे. पिछले महीने भी शायद वे दिल्ली में थे तब उन्होंने मुझे फोन किया था पर तब इस बीमारी के बारे में उन्होंने कुछ नहीं बताया. विजय के बारे में क्या कहूँ, बच्चों की एक पत्रिका को निकलने में उन्हें यश जरूर मिला पर अपना घरबार तथा सब पैसा खर्च कर दिया उन्होंने. स्वाभिमान इतना कि किसी से भी कभी कुछ नहीं माँगा. पत्रिका मुफ्त में बांटी और एक मौन द्वारा सहयोग की कामना की.

ईश्वर से करबद्ध प्रार्थना है कि विजय शीघ्र स्वस्थ हो कर अस्पताल से लौटें और उनके मित्रवर्गों से उन्हें भरपूर दुआएं तथा सहयोग मिले. उड़ीसा सरकार से भी अपेक्षा है कि वह बिजोय मोहापात्र को स्वस्थ्य लाभ पाने के लिए हर तरह से मदद करे.

बिजोय मोहापात्र के समाचार से सम्बंधित लिंक नीचे दे रहा हूँ
:http://timesofindia.indiatimes.com/city/bhubaneswar/Publisher-of-childrens-magazine-battles-cancer/articleshow/8817695.cms

Saturday, June 11, 2011

वो एक कहानी... तुम कहाँ हो, नवीन भाई?


( प्रकाश मनु की यह कहानी सन २००८ में नमन प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित उनके कहानी संग्रह “मेरी तैंतीस कहानियाँ” में से एक है. प्रकाश मनु का संपर्क है : prakashmanu01@gmail.com, Phone: 9810602327 पता : 545 सेक्टर 29, फरीदाबाद-हरियाणा.)
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काफी समय पहले सुने एक गीत की पंक्तियां याद आ रही हैं -

"तुम्हारा आना बहुत भला,
तुम्हारा जाना बहुत खला."

किसी अपने का सदा के लिए चला जाना कितना दुखदायी और असहनीय होता है यह वही जानता है जिस पर ये विपदा गुज़रती है और यह अप्रत्याशित विछोह एक दिन आलाप से विलाप और विलाप से प्रलाप में कैसे बदल जाता है इसकी सघन अनुभूति का जायजा लेना हो तो प्रकाश मनु की कहानी "तुम कहाँ हो, नवीन भाई?" ज़रूर पढ़ी जानी चाहिए.

प्रकाश मनु के अधिकांश कथा-लेखन को पढते हुए मुझे हर बार न जाने क्यों ऐसा लगता है कि इस शख्स के अंदर सघन अनुभूतियों का एक महासागर उछालें मार रहा है और उन्हें अभिव्यक्ति देने के लिए उसके पास शब्द कम पड रहे हैं. सच कहें तो अनकहे शब्द शायद ज्यादा मारक होते हैं इसलिए इस कहानी को पढ़ने के बाद भी उसका "हैंग ओवर" पाठक का पीछा नहीं छोड़ता.

प्रकाश मनु पारंपरिक ढंग से कहानियां नहीं लिखते और न ही किन्ही दायरों में बंधे रहना पसंद करते हैं. इसलिए कई बार उनकी कहानियां विस्तार की अपेक्षित सीमाएं लांघ जाती हैं, इस खतरे को झेलते हुए भी कि अनपेक्षित विस्तार कथा के प्रभाव को हल्का कर देता है. पर प्रकाश मनु के लेखन की विशिष्टता ही यह है. इसे इस कहानी के मुख्य पात्र नवीन द्वारा कही गई इन पंक्तियों में भी स्पष्टता के साथ देखा जा सकता है - "मैं वह लिखता हूँ जो भीतर से मेरा मन कहता है , यही मेरा रास्ता है." ऐसी जिद लेखक को एक ऐसे बीहड़ में ले जाकर खडा कर देती है जहां अभाव, अकेलापन, असुरक्षा, और अंतहीन दुश्चिन्ताएं तो होती ही हैं साथ ही एक पूरी ज़मात विरोधियों की भी सामने होती है. ऐसी जिद बाज़ार की आवश्यकताओं के अनुकूल नहीं होती और न ही अपने स्वाभिमान को ताक पर रख कर दूसरों के मनोरथों को पूर्ण करने के लिए तत्पर.

अब नवीन को ही लें. नवीन रिसर्च स्कोलर है पर अपने विभागाध्यक्ष से उसका ३६ का आंकड़ा है. कारण कुछ भी हों पर यह एक ऐसी लड़ाई है जों प्रछन्न रूप से शीत युद्ध की तरह चलती है और प्रिया से उसके प्रेम विवाह, कैरिअर, पारिवारिक सुख-शांति सभी के लिए घातक सिद्ध होती है.
विनायक, जो नवीन के आत्मीय, परिजन, अभिन्न मित्र, सहयोगी, होने के अलावा इस कहानी के “नरेटर” भी हैं , के विलाप (या कहिये प्रलाप). का स्वर इस कहानी में नवीन की विधवा पत्नी प्रिया के विलाप से भी ज्यादा मुखर हो कर सामने आता है. गौर से देखें तो यह कहानी नवीन के साथ विनायक की भी अपनी कथा है . जब आप किसी से इस हद तक इन्वोल्व हो जाते हैं कि उसकी हर धडकन में आपकी धडकन सुनाई देने लगती है तो सब कुछ गड्ड-मड्ड होने लगता है. अपने पराये का भाव भी नष्ट हो जाता है.
“दुःख तेरा हो या मेरा हो, दुःख की परिभाषा एक है,
आंसूं तेरे हों या मेरे हों, आंसुओं की भाषा एक है...”

यह इस इन्वोलवमेंट की ही वज़ह है कि नवीन के न रहने पर विनायक को प्रिया और उसके बच्चों के भविष्य की चिंता सताने लगती है. पर प्रिया और नवीन का रिश्ता तो एक टिपिकल रिश्ता है . नवीन से नाता जोड़ते समय ही वह अपना और नवीन का भविष्य जानती थी और उन सभी दुष्परिणामों को झेलने के लिए तैयार थी जो उसे आसन्न दिख रहे थे. उसकी हर खुशी, हर ज़रूरत नवीन के साथ जुडी थी और जब नवीन ही नही रहा तो कैसी खुशी और कैसी ज़रूरत.

विनायक जब उससे कहते हैं कि “किसी भी तरह की सहायता की ज़रूरत हो तो झिझकना मत...” तो प्रिया का जवाब होता है –“अब किस चीज की ज़रूरत, भाई साहब?..अब तो सब ज़रूरतें ही खत्म हो गईं.”

विनायक प्रिया को जब नवीन के जाने का बाद देखते हैं तो हतप्रभ रह जाते हैं : “न आकाशभेदी चीखें, न चिल्लाहट , न उन्मत्त की तरह फर्श पर, दीवार पर सिर पटकना, प्रिया ने किस बहादुरी से लिया था नवीन की मौत को.. हां, बस आंखों में एक ठंडा, कारुणिक सन्नाटा आ बैठा था.”

नवीन की दृष्टि में प्रिया की अहमियत क्या थी इसे उसी की जबानी सुनें तो बेह्तर है- : “भाई साहब, जहां प्रिया है वहां कोई उदासी नहीं, जहां प्रिया है वहां कोई गम नहीं. इसके साथ तो मैं भूखा भी जिंदगी काट लूँगा और वह भी ..खुश, हर हाल में खुश.”

ज़ाहिर है कि ये नवीन का अपना नजरिया था पर प्रिया का? क्या नवीन अपने लेखकीय उन्माद, अपने उसूल, और अपने अहंकार के बीच प्रिया के बदलते स्वरुप की इस सचाई को स्वीकार कर पाया:

“सोनजुही से हाथ तुम्हारे
लकड़ी के हो गए,
कलेजा पत्थर का.
नक्शा बदल गया घर का.
(-रमेश रंजक ):

नवीन की तो अपनी अलग ही दुनिया थी तथाकथित साहित्यिक दुनिया. जिसमे रामनामी चादरें ओढकर बड़े-बड़े मगरमच्छ घुसे बैठे थे .”
एक कहानी या एक लेख का छप जाना नवीन के लिए शायद सबसे बड़ा सुख था पर विनायक की नज़र में-
“घर तो पैसे चलता है. घर साहित्य और शब्दों से नहीं चलता. घर एक ठोस हकीकत है.....अभाव की कविताएँ लिख लेना एक बात है, पर घर अभाव से नहीं, भाव से चलता है. बाज़ार का भाव-ताव देखो और कमाओ.”

कुरुक्षेत्र से रिसर्च करने के बाद भोपाल जा कर भी नवीन ने क्या हासिल कर पाया? “कोई तेईस सालों में लिखते-लिखते, खूब लिखते, और इधर-उधर भिड़ते भटकते और तमाम ज़रूरी, गैर-ज़रूरी लड़ाइयों में मुब्तिला रहते आखिर काम तमाम हो गया नवीन का.............शायद नवीन के साथ सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि जहां मुश्किलें न हों वहां नवीन खुद पैदा कर लेता था-

“भाई साहब, मैं साहित्य और जिंदगी को अलग-अलग स्तर पर नहीं जी सकता. मैं जिऊँ या मरूं, कोई फर्क नहीं.”

अहम की टकराहटे एक प्रछन्न लड़ाई को जन्म देती हैं. भोपाल जाकर भी यह मुश्किल पीछा नहीं छोडती नवीन का. “भोपाल के जिस सरकारी विभाग में वह काम कर रहा था, उसका एक अधिकारी रणविजय उसे बुरी तरह तंग कर रहा था ....

नवीन की जिंदगी जीने का यह अंदाज़ विनायक को सदैव नागवार लगता रहा और इसका इज़हार भी उन्होंने समय समय पर नवीन के सामने किया पर नवीन तो दूसरी ही काठी का बना था. ..वही जिद और वही तेवर... अंजाम ...एक दर्दनाक अंत.....और यही हुआ नवीन के साथ.
विनायक को नवीन के चले जाने का गहन दुःख ही नहीं बल्कि एक अपराधबोध भी सालता रहा:
“तो क्या नवीन को मारनेवालों में मैं भी शामिल हूँ? मैं..मैं..मैं? कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग का वरिष्ठ रीडर. डबल एम.ए., पी. एच. डी..डी.लिट. अंग्रेजी साहित्य का उद्भट विद्वान ..आचार्य विनायक..मैं..मैं. हत्यारा..”

विनायक की स्मृतियों में नवीन के कई चेहरे शामिल हैं....

एक नवीन वह जो कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी के हाल में एक बड़े कवि सम्मलेन में एक विद्रोही और आविष्ट लहजे में भुजा उठाकर अपनी कविता पढ़ रहा है...

एक नवीन वह जो रात-दिन यूनिवर्सिटी के लाइब्रेरी में नोट्स बनाते और थीसिस पूरा करने में जुटा है...

एक नवीन वह जो अचानक एक दिन झटपट..मंदिर में प्रियाँ से विवाह करके आ गया था..
फिर एक नवीन वह जो एक छोटी-सी नौकरी पर कुरुक्षेत्र से भोपाल चला गया...

“हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिसको भी देखना हो कई बार देखना.”
-निदा फाज़ली

चंद शब्दों में कहूँ तो प्रकाश मनु की यह कहानी मुझे एक लंबे शोक गीत की तरह लगती है और नवीन के चेहरे के पीछे मुझे अपने वर्तमान के कई नए-पुराने लेखक/कवियों के चेहरा भी याद हो आते हैं जिन्होंने अपने लेखकीय जूनून को परवान चढाने के लिए अपनी पत्नी, अपने परिवार को सतत विपन्नता, संघर्ष के बरक्स ले जा कर छोड़ दिया. हिंदी साहित्य के रचना कर्म पर ही जीवित रहने वाले की यह एक दर्दनाक नियति है. उनकी बात छोड़ दें जो अकादमिक पदों पर प्रतिष्ठित हो कर साहित्य को एक दोयम कामकी तरह रचते हैं या ऐसा करते हुए दर्शाते हैं.

और चलते-चलते कहानी का वह ठंडाई घोटन प्रसंग जिससे कहानी कि शुरुआत होती है और बाद में जिसमे बल्लभजी (वास्तविक चरित्र?) के साथ अन्य बुद्धजीवियों की उपस्थिति तथा बौद्धिक बहस..... यह प्रसंग नवीन के चरित्र का एक अलग ही पक्ष सामने लाता है. और यही प्रसंग ही क्यों, कैफ साहब का वह दारू वाला प्रसंग....

आप साहित्य में कितने ही महांन और उदात्त बने रहे पर असल जिंदगी में आपके द्वारा किया गया वमन सिर्फ संडाध ही पैदा करता है. आखिर ये कौन सा नशा है जो आपके मन को तो ऊर्जा देता है पर तन को सडांध से भर देता है. ....
ज्यादा क्या कहूँ, साहित्य और कला की दुनिया का यह एक ऐसा विद्रूप और वीभत्स चेहरा है जो इस पूरी कहानी में व्याप्त करुणा को एक तीखी व्यंजना में बदल देता है..


-रमेश तैलंग
१० जून, २०११

Wednesday, June 8, 2011

जिन खोजा तिन पाइयां...

मैं अक्सर कहता रहता हूँ कि रचना तभी तक लेखक की होती है जब तक वह पाठक के पास नहीं पहुँच जाती. पाठक के पास पहुँचते ही वह पाठकों की हो जाती है. पर इस वक्तव्य के पीछे मेरा ध्येय सिर्फ यह होता है कि लेखक को अपनी रचना से अति मोह नहीं रखना चाहिए न कि ये कि रचना के लेखक का नाम ही विसार देना चाहिए. रचना और लेखक का नाभि- नाल का रिश्ता है और वह नाल के विच्छेदन पर भी बना रहता है, टूटता नहीं. लेखक के रचनात्मक अवदान की समीक्षा इसी तथ्य पर आधारित होती है और अगर इस तथ्य पर समय की धूल जमने लगे तो कभी न कभी एक अप्रत्याशित संशय की स्थिति उत्पन्न हो जाती है.

हाल का एक उदहारण है , श्री शरद जोशी की सुपुत्री और वेब पत्रिका इन्द्रधनुष की संपादिका सुश्री नेहा शरद ने फेसबुक पर एक मनोरंजक चर्चा छेड़ रखी है ये कविता किस कवि कि है -

"लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है, चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है, चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है, जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में, बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो, क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम, संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।"

ज्यादातर लोग निरालाजी और हरिवंश राय बच्चन के बीच झूला झूल रहे हैं. इन्टरनेट पर इसे बच्चन जी की ही बताया गया है जबकि कुछ फेसबुक सदस्यों ने जानकारी दी है कि महाराष्ट्र में ७वीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक में इसे निरालाजी की रचना बताया गया है. सुश्री नेहा शरद ने इसे बच्चन जी नहीं है कह कर नकार दिया है. इसका अर्थ है कि उनके पास अवश्य कोई प्रामाणिक जानकारी है. खैर यह रहस्य शीघ्र ही खुल जाएगा. पर इससे एक बात तो तय हो जाती है कि आम पाठक अथवा आम आदमी में शोध की जो नैसर्गिक प्रवत्ति होनी चाहिए वह बिलकुल कम होती जा रही है.

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अभी पिछले दिनों दुनिया भर में गाई जाने वाली आरती "ओम जय जगदीश हरे" के रचनाकार का नाम मुझ जैसे बहुत से लोगों को पता चला तो हैरानी हुई कि ये रचनाकार श्री श्रद्धाराम फिल्लौरी जी हैं. जो फिल्लौरी जी के वारे में नहीं जानते उनको बता दूं कि फिल्लौरीजी पंजाबी तथा हिंदी के परम प्रतिष्ठित लेखक, समाज सुधारक और ज्योतिर्विद थे. उनका जन्म लुधियाना के फिल्लौर कस्बे के एक ब्राह्मण परिवार में ३० सितम्बर १८३७ को हुआ था.
हैरानी की बात यह है कि जिन फिल्लौरी जी की पुस्तक " पंजाबी बातचीत" को अंग्रेज, ब्रिटिश राज के समय पंजाबी भाषा सीखने के लिए सबसे बड़ा सहारा समझते थे, उन्ही फिल्लौरी जी को, ब्रिटिश राज का विरोधी मानकर, तत्त्कालीन अंग्रेज अधिकारियों ने उनके अपने गृहनगर से कुछ समय के लिए निष्कासित कर दिया था.

फिल्लौरी जी पर गहन शोध करने वाले परम विद्वान डॉ. हरमिंदर सिंह बेदी, डीन एवं हिंदी विभागाध्यक्ष गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी जिन्होंने त्रिखंडीय "श्रद्धाराम ग्रंथावली " का संपादन किया है, का मानना है कि फिल्लौरी जी की रचना "भाग्यवती" जो सन १८८८ में निर्मल प्रकाशन" से प्रकाशित हुई, हिंदी का सबसे पहला प्रकाशित उपन्यास है.

ज्ञातव्य है कि अब तक लाला श्रीनिवासदास के "परीक्षा गुरु" को ( जो सन १९०२ में प्रकाशित हुआ) हिंदी का पहला उपन्यास माना जाता रहा है.

द ट्रिब्यून ( १७ मार्च, २००५/ १७ सितम्बर-१९९८) में प्रकाशित समाचार/लेखों का सन्दर्भ लिया जाए तो भारतीय साहित्य अकादेमी ने भी फिल्लौरीजी के उपन्यास "भाग्यवती" को हिंदी का सबसे पहला उपन्यास माने जाने को मान्यता दे दी है. इस तरह हिंदी साहित्य के इतिहास को और खासकर हिंदी उपन्यास के इतिहास के पुनर्लेखन की दिशा में एक नई पहल हुई है.

स्मरणीय बात यह है कि " भाग्यवती " जेंडर इश्यू के सन्दर्भ में भी एक क्रांतिकारी रचना है क्योंकि इस उपन्यास की केंद्रीय मान्यता ही यही है कि बेटी बेटे से किसी बात में कम नहीं होती.

हिंदी/पंजाबी दोनों भाषाओं में सामान अधिकार रखने वाले फिल्लौरी जी का देहांत २४ जून, १८८१ को हुआ . उनकी अन्य रचनाओं में "सिख्खां दे राज दि विथिया" प्रमुख है.

चित्र सौजन्य :पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी चेरिटेबल ट्रस्ट

Sunday, June 5, 2011

सर्वेश्वर की प्रयोगशील बाल कहानियां




सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने बच्चों के लिए कहानियाँ कम लिखीं पर जितनी भी लिखीं उनकी पहचान सबसे अलग है, चाहे वह कंटेंट की दृष्टि से हो या फॉर्म की दृष्टि से. उनकी बाल कहानियों के पात्र निम्न- मध्य वर्ग के ऐसे बच्चे हैं जो गरीब तो हैं पर खुद्दार भी हैं. ऐसा नहीं है कि उनके अंदर लालसा नहीं जगती , जगती है, मगर वह ऐसी लालसा नहीं है जिसकी पूर्ति दूसरों की दया पर आश्रित
हो. वे अपने सीमित संसाधनों या कहिए अपने वर्तमान भाग्य से संतुष्ट हैं और अगर उन्हें कुछ अतिरिक्त की चाह है भी तो वे उसे स्वयं द्वारा अर्जित करना ज्यादा पसंद करते हैं न कि भीख मांग कर.

"देख पराई चूपडी मत ललचावे जीभ, रूखी सूखी खायके ठंडा पानी पीव." वाली कहावत ऐसे पात्रों पर सटीक बैठती है.

इच्छाओं की पूर्ति न हो तो मन के अंदर एक ऊहां-पोह चलने लगता है और अगर वह मन बालक का हो तो स्थिति और भी चिंतनीय हो जाती है. इस अनुभूति को सर्वेश्वर जितनी शिद्दत के साथ महसूस करते हैं, वह देख कर आश्चर्य होता है. उदहारण के लिए सर्वेश्वर की दो चर्चित बाल कहानियाँ "अपना दाना" और "सफ़ेद गुड" को ले लीजिए. इन दोनों ही कहानियों के मुख्य पात्र निम्न-मध्य वर्ग के बच्चे हैं जिनके कोई नाम नहीं हैं. गरीबों के भी भला क्या नाम होते है, हाँ, उनके सर्वनाम हो सकते हैं. इसीलिये सर्वेश्वर की ये कहानियां कुछ इस तरह से शुरू होती है -

(अपना दाना )-
"वह एक गरीब लड़का था. स्कूल जाते समय उसकी माँ उसके बस्ते में थोड़े से चने रख देती थी. खाने की छुट्टी में वह कक्षा के बाहर सीढ़ियों पर बैठकर उन्हें खाता था......उसकी माँ ने कह रखा था बेटा, अपना दाना ही खाना चाहिए, न दूसरों से माँगना चाहिए न लालच करना चाहिए."

(सफ़ेद गुड)-
"दूकान पर सफ़ेद गुड रखा था. दुर्लभ था. उसे देखकर बार-बार उसके मुंह में पानी आ जाता था. आते-जाते वह ललचाई नज़रों से गुड की ओर देखता, फिर मन मसोस कर रह जाता."

सर्व विदित है कि गरीब आदमी दूसरों के लिए वह सब कुछ करता है जो वह अपने लिए नहीं कर पाता. मसलन वह दूसरों के लिए एक से एक शानदार इमारतें बनाता है पर स्वयं खुले आसमान तले रह जाता है. दूसरों के लिए सुख सुविधाओं का अम्बार लगाता है पर स्वयं के लिए टूटी खाट भी नहीं जुटा पाता. कहने का तात्पर्य यह है कि मजदूर की विरासत तो हो सकती है, पर रियासत नहीं.

"अपना दाना" का मुख्य पात्र "वह लड़का" जब अपने दोस्त के लिए खोमचे वाले के चक्के की सूई घुमाता है तो सुई १०० के अंक पर रूकती है. दोस्त कहता है -"तू बड़ा भाग्यवान है. हम सब सूई घुमाते हैं, पर दस-पांच पर ही घूमकर रुक जाती है, सौ पर नहीं रुकती. तूने तो मज़ा ला दिया. लोग कहते हैं, जो नेक होता है, उसका हाथ जहाँ भी लगता है बरक्कत होती है . तू नेक है, यह साबित हो गया."

लेकिन जब अक्सर ऐसा होने लगता है और उसकी शोहरत एक "नेक लड़का" होने की फ़ैल जाती है तो लड़के के अंदर अपनी स्वयं की एक इकन्नी होने की इच्छा बलबती होने लगती है जिससे वह सूई घुमा कर ढेर सारे बिस्किट खाने का मज़ा ले सके. इसलिए वह माँ से कहता भी है कि उसे एक इकन्नी चाहिए. पर माँ से जब उसे सुनना पड़ता है कि इकन्नी में कितने और जरूरी काम हो सकते है तो वह मन मसोस कर रह जाता है. एक दिन हिम्मत कर माँ की संदूकची से इकन्नी ले अपनी अंटी में खोंस कर वह स्कूल जाता है तो तब तक स्वप्न लोक में विचरता है जब तक खाने की छुट्टी में वह खोमचे वाले के पास नहीं पहूँच जाता पर हाय री किस्मत, अंटी में रखी इक न्नीअचानक गायब हो जाती है. खोमचा वाला उसकी दयनीय स्थिति देख कर उससे कहता है-"पैसे गिर गए? कोई बात नहीं, तुम चक्का चलाओ , पैसे कल दे देना. पर लड़का तैयार नहीं होता और सोचने लगता है -" आखिर इकन्नी कहाँ गई. उसे जरूर चोरी की सजा मिली है, उसने लालच किया है "

घर पहुँच कर वह उदास हो जाता है और जब शाम को माँ अपना हिसाब लगाते हुए कहती है-"बेटा तेरी किस्मत अच्छी है, देख कागज के नीचे से एक इकन्नी निकल आई. तू मांग रहा था न. ले इसे कल स्कूल ले जाना, जो जी में आये खाना.
पर लडके की हिम्मत नहीं होती उठने की और माँ है कि अँधेरे में देख भी नहीं पाती कि वह रो रहा है.

कहानी का यह एक ऐसा स्थल है जो संवेदना के स्तर पर मन के बहुत गहरे जाकर छूता है.

कमोबेश इसी तरह की स्थितियां "सफ़ेद गुड " कहानी में मिलती हैं. वहाँ भी एक ग्यारह साल का गरीब लड़का है जो सफ़ेद गुड खाने के लिए बेचैन है. माँ बाजार से नमक लाने के लिए भेजती है पंसारी के यहाँ. वहाँ सफ़ेद गुड भी है पर
लड़का है कि पैसे न होने के कारण अपनी इच्छा पूर्ति नहीं कर पा रहा है. ईश्वर में उसकी आस्था जागती है तो मस्जिद के सामने खड़े हो कर मन ही मन कहता है: ईश्वर, यदि तुम हो और मैंने सच्चे मन से तुम्हारी पूजा की है तो मुझे पैसे दो, यहीं इसी वक़्त."

ईश्वर उसकी सुन लेता है और दिवास्वप्नावस्था में जैसे ही ठंडी ज़मीन पर हाथ रखता है तो उसकी हथेली में एक अठन्नी दमक रही होती है.

अठन्नी को पंसारी की दुकान पर उछालते हुए वह कहता है: आठ आने का सफ़ेद गुड देना:
पंसारी अठन्नी को उछलते हुए देखता है पर उसे अठन्नी नहीं मिलती. लड़का निराश हो जाता है. लड़के को दुखी देख कर पंसारी
कहता है:"गुड ले लो, पैसे फिर आ जायेंगे." लड़का नहीं लेता. पंसारी फिर कहता है: अच्छा पैसे मत देना, मेरी ओर से थोडा-सा ले लो." पर लड़का खुद्दार है नहीं लेता. "गुड उसने ईश्वर से माँगा था, पंसारी से नहीं. दूसरों की दया उसे नहीं चाहिए.

अब लड़के की आस्था डगमगा जाती है." मस्जिद रोज सामने पड़ती है लेकिन अब वह ईश्वर से कुछ नहीं मांगता." यह एक ऐसा सन्देश है जो लाउड न होकर भी मारक बन जाता है.

एक तरह से देखा जाए तोसर्वेश्वर की ये कहानियां आम बाल कहानियों के फ्रेम में फिट नहीं बैठतीं क्योंकि इनमे कथ्य से ज्यादा बच्चे के अंतर्मन की गुत्थियों की अभिव्यक्ति है.

अंतर्मन की बात चली है तो इसकी अभिव्यक्ति सर्वेश्वर की एक और बाल कहानी "अब इसका क्या जवाब है?" में भी हुई है पर थोड़े अलग ढंग से. बच्चों के मन में अनेक तरह के भय पनपते हैं. इनमे से एक भय है भूत का भय. क्या भूतों का सचमुच अस्तित्व है? अँधेरे में एक सफ़ेद सी आकृति भूत की ही हो जरूरी तो नहीं. वह किसी सांड की भी हो सकती है. पर सर्वेश्वर इस कहानी में कोई निश्चित जवाब न देकर एक बीच का रास्ता अपनाते हैं:

"नहीं, वह भूत ही था, तुझे देखकर सांड बन गया होगा. भूत अक्सर वेश बदल लेते हैं.

सर्वेश्वर की ही एक और कहानी है "जूं चट्ट पानी लाल"

लोक कथा की शैली में लिखी गई यह बाल कहानी पढ़ने में जितनी अच्छी लगती है उससे कही ज्यादा अच्छी सुनने में लगती है.
बात से बात कैसे निकलती है और फिर उन बातों को कैसे पर लग जाते हैं यह देखना हो तो इस कहानी को जरूर पढ़ा जाना चाहिए.. गौर करने की बात यह है कि इस कहानी की मुख्य पात्र भी एक निम्न परिवार की लड़की है. ऐसी लड़की जो हमेशा धूल में खेलती थी जिसके कारण उसके सिर में जुएं भर गयीं. माँ जुएं निकाल लड़की हथेली पर रखती जाटी , लड़की उन्हें नाखून पर रखकर मारती जाती. नतीजा,उसके नाखून लाल हो गए. वह लाल नाखून नदी पर धोने गई तो नदी ने पूछा-"लड़की, लड़की, तेरे नाखून कैसे लाल हो गए? लड़की ने उत्तर दिया, "जूं चट्ट, पानी लाल".

कहानी आगे बढ़ती है और सवाल-जवाब की सीढियां चढती हुई अपने मुकाम पर इस तरह पहुँचती है: जूं चट्ट, पानी लाल/सींग सड /पत्ते झड/कुआ काना/बनिया दीवाना/रानी नचनी/राजा ढोल बजावें/

अब राजा ढोल बजा रहे हैं और उन्हें देख कर लोग नाच रहे हैं. " किसी को यह पता नहीं लगा कि इसका कारण क्या है."

कई बार मुझे लगता है कि सर्वेश्वर की रचनाओं में, फिर चाहे वे बाल रचनाएं ही क्यों न हो, तीखे व्यंग्य की प्रछन्न उपस्थिति ठीक उसी तरह रहती है जैसी कि चर्चित कहानी "राजा नंगा है" में मिलती है.

और अब अंत में सर्वेश्वर की सबसे छोटी पर सबसे अधिक मार्मिक बाल कहानी "टूटा हुआ विश्वास "
.
कक्षा का काम पूरा न हो पाने के कारण मास्टर जी की प्रताडना का डर बच्चे के मन पर कुछ ऐसा दुष्प्रभाव डालता है कि उसकी हँसती-खेलती दुनिया एक डरावने जंगल में बदल जाती है.. तीन पेराग्राफ की इस कहानी पर कोई टिपण्णी करनी हो तो इसे चंद शब्दों में "छोटे कद की बड़ी कहानी" कहा जा सकता है.

मैं समझता हूँ, सर्वेश्वर हमारे समय के एक बड़े ही प्रयोगधर्मी रचनाकार रहे हैं इसलिए उनकी रचनाओं की विशिष्टता उनकी एक अलग तरह की पहचान बनाती है.

Thursday, June 2, 2011

कुत्ते की कहानी : हिंदी का पहला बाल उपन्यास


" हिंदी में ज्यादातर बाल उपन्यास आज़ादी के बाद लिखे गए.पर यह एक सुखद आश्चर्य की तरह है कि आज़ादी से पहले हिंदी उपन्यासों के क्षेत्र में पसरे सन्नाटे को तोड़ने का काम सबसे पहले उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने किया था. प्रेमचंद की रचना कुत्ते की कहानी को हिंदी का पहला बाल उपन्यास कहा जा सकता है -डॉ प्रकाश मनु संदर्भ: आजकल-नवम्बर २००४ अंक."






कथा सम्राट प्रेमचंद ने वयस्कों के अलावा बच्चों के लिए अनन्य रूप से कितना साहित्य रचा इस पर मैं साधिकार कोई टिपण्णी नहीं कर सकता हालांकि उनकी बहुत-सी कहानिया जैसे ईदगाह, ठाकुर का कुआँ, दो बैलों कि कथा, नमक का दारोगा, पञ्च परमेश्वर, कफ़न, बड़े भाई साहेब, आदि बच्चों के पाठ्यक्रम में शामिल की जा चुकी हैं और उनकी जंगल की कहानियां भी बच्चों को रुचिपूर्ण लग सकती हैं पर कुत्ते की कहानी जिसे हिंदी के अनेक विशिष्ट बाल साहित्यकार/आलोचक हिंदी का पहला बाल उपन्यास मानते हैं, निस्संदेह बच्चों के लिए ही लिखी गई रचना है और इसे अलग से प्रमाणित करने की जरूरत नहीं. कृति के आमुख के रूप में दिनांक १४ जुलाई १९३६ का बच्चों के नाम लिखा गया लेखक का निम्न संबोधन-पत्र स्वतः इसे प्रमाणित करता है:

बच्चों से
प्यारे बच्चों! तुम जिस संसार में रहते हो, वहाँ कुत्ते, बिल्ली ही नहीं, पेड़-पत्ते और ईंट-पत्थर तक बोलते हैं, बिलकुल उसी तरह, जैसे तुम बोलते हो और तुम उन सबकी बातें सुनते हो और बड़े ध्यान से कान लगाकर सुनते हो. उन बातों में तुम्हे कितना आनंद आता है. तुम्हारा संसार सजीवों का संसार है. उसमे सभी एक जैसे जीव बसते हैं. उन सबों में प्रेम है, भाईचारा है, दोस्ती है. जो सरलता साधू-संतों को बरसों के चिंतन और साधना से नहीं प्राप्त होती, वह तुम परमपिता के घर से लेकर आते हो. यह छोटी पुस्तक मैं तुम्हारी उसी आत्म-सरलता को भेंट करता हूँ. तुम देखोगे कि यह कुत्ता बाहर से कुत्ता होकर भी भीतर से तुम्हारे ही जैसा बालक है, जिसमे वही प्रेम और सेवा तथा साहस और सच्चाई है, जो तुम्हे इतनी प्रिय है.

प्रेमचंद
बनारस १४ जुलाई, १९३६
(सौजन्य-सन्दर्भ प्रकाशन-दिल्ली-३२ से प्रकाशित पुस्तक)

आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह बाल/किशोर उपन्यास अपने कथ्य और शिल्प में तो अनूठा है ही, साथ ही हमारे मानव समाज में व्याप्त अनेक असंगतियों पर भी एक सटीक व्यंग्य है. इस बिंदु पर मैं आगे विस्तार से चर्चा करूँगा पर सबसे पहले इस उपन्यास की कथा पर संक्षिप बात कर ली जाए .

उपन्यास का केंद्रीय पात्र कल्लू नाम का एक कुत्ता है जो किसी आम गांव की एक आम-सी जगह यानी एक भाड़ की राख के बिछोने पर जन्म लेता है. कल्लू के तीन भाई हैं, लाल रंग के और वह अकेला काला-कलूटा. कल्लू की माँ अनेक तकलीफें सह कर अपने चारों बच्चों को पालती है. कुछ ही समय बीतता है ठण्ड की वजह से कल्लू के दो भाई चल बसते हैं और रह जाता है वह और उसका भाई जकिया. जकिया को एक डफाली का बेटा पालने के लिए ले जाता है तो कल्लू को एक पंडित का बेटा.

स्वभाव से गुस्सैल और शरीर से ताकतवर जकिया न केवल कल्लू को डराता धमकाता रहता है बल्कि मौका पड़े तो अपने दांतों से उसे खूब काट-खसोट भी लेता है. पर कल्लू पंडित जी के सामने ही जकिया को पछाड़ देता है तो कल्लू की वाहवाही होने लगती है. कल्लू की इज्जत पंडितजी की नज़रों में तब और भी बढ़ जाती है जब वह पंडित जी के दो बच्चों को नाले में डूबने से बचाता है. इधर कल्लू पर पंडितजी का स्नेह बरसता है तो उधर कल्लू की कहानी में गडरिया नाम का एक खलनायक पैदा हो जाता है जो पंडितजी के खेतों में आग लगाने के बाद जब कल्लू की पकड़ में आता है तो कल्लू से बदला लेने की जुगाड में लग जाता है. पर वो कहावत है न – “जाको राखे साइंया मार सके न कोय”. तो, गडरिया अपनी बुरी करनी के कारण पिटाई खाता है और कल्लू की कहानी धीरे-धीरे परवान चढ़ने लगती है. या यूँ कहिये कि कल्लू की कहानी में कुछ बदमाश चोरों की , शरारती सूअरों की , गांव के थाने के बड़े अंग्रेज अफसर अंग्रेज बहादुर और उनकी मेम साहब की कई उप-कथाएं जुड जाती हैं. जब कल्लू को साहब बहादुर और उनकी मेंम साहब जहाज में बैठा कर अपने देश विलायत ले जाने लगते हैं तो तूफ़ान आ जाता है और उनका जहाज डूबने लगता है. कल्लू अपनी वफ़ादारी से साहब और मेंम साहब को बचा कर एक ऐसी जगह पर ले जाता है जहाँ आदिम जाति के लोग उन्हें देवता समझ कर कैद कर लेते हैं. पर कल्लू यहाँ भी उनका मददगार सिद्ध होता है और जब सारी मुसीबतों से बचता-बचाता कल्लू साहब के साथ वापस अपने गांव लौटता है तो उसकी बहादुरी और वफ़ादारी के किस्से हर जगह मशहूर हो चुके होते हैं. कल्लू का सार्वजनिक सम्मान किया जाता है पर कल्लू है कि उसे अपना सम्मान भी कैद की तरह लगता है. वह तो उस आजादी के लिए तडपता है जिसके साये में वह मस्ती से हर जगह घूमता रहता था.

इस तरह कुत्ते की कहानी के माध्यम से प्रेमचंद केवल एक मनोरंजक कथा ही नहीं सुनाते वरन बच्चों को एक बहुत ही स्पष्ट सन्देश भी देते है और वह सन्देश यह है कि हर बच्चे को अपने ह्रदय में जीव-जंतुओं के प्रति करुणा और सम्मान का भाव रखना चाहिए और उन पर अकारण न तो हिंसा का प्रयोग करना चाहिए औ न ही उन्हें दुत्कारना चाहिये.

गौर से देखें तो इस उपन्यास का आरम्भ ही लेखक की इन पंक्तियों से होता है:-

“बालकों!, तुमने राजाओं और वीरों की कहानियां तो बहुत सुनी होंगी, लेकिन किसी कुत्ते की जीवन-कथा शायद ही सुनी हो. कुत्तों के जीवन में ऐसी बात ही कौन-सी होती है, जो सुनाई जा सके. न वह देवों से लड़ता है, न परियों के देश में जाता है, न बड़ी-बड़ी लड़ाईयां जीतता है. इसलिए भय है कि कहीं तुम मेरी कहानी को उठाकर फेंक न दो. किन्तु मैं तुम्हे विश्वास दिलाता हूँ कि मेरे जीवन में ऐसी कितनी ही बातें हुई हैं, जो बड़े-बड़े आदमियों के जीवन में भी न हुई होंगी. इसीलिय मैं आज अपनी कथा सुनाने बैठा हूँ . जिस तरह तुम कुत्तों को दुत्कार दिया करते हो उसी भाँति मेरी इस कहानी को ठुकरा न देना. इसमें तुम्हे कितनी ही बातें मिलेंगी और अच्छी बातें जहाँ मिले, तुरंत ले लेनी चाहिए.

कुत्ते की कहानी के सन्दर्भ में मैं एक और बात यहाँ रेखांकित करना चाहूंगा कि प्रेमचंद बनारस के लमही गांव में पैदा हुए. ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े. खेती-बाडी, महाजनी सभ्यता, भुखमरी, गरीबी, आज़ादी की लड़ाई, भारतीय समाज की रूढियाँ, सभी को उन्होंने अपनी नंगी आँखों से देखा और जहाँ भी, जिस तरह संभव हुआ, अपने समय की कुरीतियों का विरोध किया. जीव-जंतुओं के जगत को उन्होंने किसी चिडियाघर में नहीं देखा, वह तो उनके ग्रामीण -परिवेश का ही अटूट हिस्सा थे. दो बैलों की कहानी में जिस तरह हीरा-मोती जैसे यादगार चरित्र उन्होंने रचे ठीक उसी तरह इस बाल उपन्यास का नायक कल्लू कुत्ता भी एक यादगार चरित्र के रूप में हमारे सामने आता है.

सहृदयता और संवेदनशीलता लेखक के सबसे गुण होते हैं. “मूकम करोति वाचालं” वाली उक्ति को चरितार्थ करते हुए प्रेमचंद इस बाल उपन्यास में कल्लू कुत्ते को मनुष्य की वाणी देते हैं और उसी की जबानी एक मनोरंजक एवं प्रेरक कथा सुनाते हैं जिससे कतिपय उपकथाएँ भी जुडी हुई हैं.

सद्गुणों के आधार पर देखा जाय तो पशु मनुष्य से किसी तरह कमतर नहीं होते. यह बात इस बाल उपन्यास में अनेक जगहों पर उभर के सामने आती है. यही नहीं, प्रेमचंद अनेक स्थलों पर बैलौस संवादों एवं टिप्पणियों से मानव समाज और उसकी विडंबनाओं पर तीखा व्यंग्य भी करते हैं –
“ जाने दो भई, भूख में तो आदमियों की बुद्धि भी भृष्ट हो जाती है, यह तो पशु है. इसे क्या मालूम, किसका फायदा हो रहा है, किसका नुक्सान. अब तो जो हो गया, ओ हो गया, इसे मारकर क्या पाओगे?” (अध्याय १ )

“पेट भी क्या चीज है. इसके लिए लोग अपने पराए को भूल जाते हैं. नहीं तो अपनी सगी माता और अपना सगा भाई क्यों दुश्मन हो जाते? यह तो हम जानवरों की बातें है. मनुष्यों की ईश्वर जाने.” (अध्याय-२)

“अब मैं सोचता हूँ तो मालूम होता है कि बच्चे जो हम लोगों को अपने विनोद के लिए कष्ट देते थे, वह कोई निर्दयता का काम नहीं करते थे. विनोद में इन सब बातों पर ध्यान ही नहीं दिया जाता. पंडित जी बहुत खुश होते जब हम चंद मिनटों में पचासों चूहों को सदा के लिए बेहोश कर देते. उस समय पंडित जी पर मुझे बहुत हंसी आती थी. अब इनके गणेश जी क्या हुए? क्या अब इस हत्या से नाराज होकर गणेश हग्न पंडित जी को दंड न देंगे? वह, क्या समझ है. इससे तो यही मालूम होता है कि जी बात से लोगों को नुक्सान तो कम होता है और प्रतिष्ठा बहुत बढती है, उसे तो लोग हँसते-हँसते वर्दाश्त करते हैं, लेकिन जग अधिक हानि पहुँचती है, तो सब प्रतिज्ञा टूट जाती है.” (अध्याय-३)

-एक समय वह था कि पशुओं के साठ भी न्याय किया जाता था. एक समय यह है कि पशुओं की जान का मूल्य ही नहीं. इसके साठ ही यह संतोष भी हुआ कि पशु होने पर भी मैं ऐसे धूर्त महंतों से तो अच्छा ही हूँ. (अध्याय-६)

“मैंने अपनी जाती में यह आहूत बड़ा ऐब देखा है कि एक-दूसरे को देखकर ऐसा काट खाने को दौड़ते हैं गोया उनके जानी दुश्मन हों. कभी-कभी अपने उजड्ड भाइयों को देखकर मुझे क्रोध आ जाता है, पर मैं जब्त कर लेता हूँ. मैंए पशुओं को देखा ऐसे जो आपस में प्यार सेमिलते हैं, एक साठ सोते हैं, कोई चुन तक नहीं करता. मेरी जाती में यह बुराई कहाँ से आ गई – कुछ समझ में नहीं आता. अनुमान से यह कह सकता हूँ कि यह बुराई हमने आदमियों से ही सीखी है. आदमियों ही में यह दस्तूर है कि भाई से भाई लड़ता है, बाप बेटा से भाई बहन से. भाई एक -दूसरे की गर्दन तक काट डालते हैं, नौकर मालिक को धोखा देता है. हम तो आदमियों के सेवक हैं, उन्ही के साथ रहते हैं. उनकी देखा-देखी अब यह बुराई हम में आ गई तो अचरज की कौन बात है? कम-से-कम हम् में इतना गुन तो है कि अपने स्वामी के लिए प्राण तक देने को तैयार रहते हैं. जहाँ उसका पसीना गिरे, वहाँ अपना खून तक बहा देते हैं. आदमियों में तो इतना भी नहीं. आखिर ये साहब के कुत्ते भी तो कुत्ते ही हैं. वे क्यों नहीं भोंकते? क्यों इतने सभ्य और गंभीर हैं. इसका कारण यही है कि जिसके साथ वे रहते हैं, उनमे इतनी फूट और भेद नहीं है. मुझे तो वे सब देवताओं से लगते थे. उनके मुख पर कितनी प्रतिभा थी, कितनी शराफत थी.” – अध्याय-७

कुत्ते की कहानी बाल उपन्यास सन १९३६ के आस-पास प्रकाशित हुआ था. तब से लेकर अब तक लगभग सात दशक से ज्यादा का समय बीत गया पर इस देश की पुलिस के चरित्र में कोई मूलभूत फर्क आया हो, ऐसा नहीं लगता. इस उपन्यास का एक संवाद “ चौधरी बोले- अजी, पुलिस का ढकोसला बहुत बुरा होता है. वे भी आकर कुछ-न-कुछ चूसते ही हैं. मैंने तो इतनी उम्र में सैंकडों बार इत्तलाएं कीं मगर चोरी गई हुई चीज कभी न मिली.” आज के जमाने में भी सटीक बैठता है.

इसमें संदेह नहीं कि लेखक , चिन्तक, कहानीकार, उपन्यासकार एवं संपादक सभी रूपों में प्रेमचंद रचनाकारों के प्रेरणास्रोत रहे हैं. हिंदी, उर्दू, समेत कई भाषाओं पर उनका समान अधिकार था . मुहावरों, कहावतों का विपुल भण्डार मिलता है उनकी साहित्य निधि में. कुत्ते की कहानी भी इससे अछूती नहीं रही है. यथा – “शाह की मुहर आने-आने पर, खुदा की मुहर दाने-दाने पर...”जावक रखे साइयां मर सकहिं न कोय...”रुपया-पैसा हाथ का मेल है....”अपनी कमाई में से कुछ-न-कुछ दान अवश्य करना चाहिए...तकदीर से उठी हेज कहाँ मिलती है...”रात पहाड हो गई.....”प्राण जैसे आँखों में थे...”

लोकोक्तियों के अलावा प्रेमचंद ने इस बाल उपन्यास में एक लोक-कथा को भी समाविष्ट कर लिया है जिसमे एक कुत्ता श्री रामचन्द्रजी से अपनी कहानी कहता है. पूर्वजन्म की धारणा और कर्मानुसार फलप्राप्ति के विचार को प्रेमचंद की स्वीकृति थी , यह बात यहाँ स्पष्ट हो जाती है.

इस बाल उपन्यास में एक प्रसंग आता है ब एक महाशय बोलते हैं-“पुराने जमाने में जानवर आदमी की तरह बातें करते थे और आदमियों की बातें समझ भी जाते थे.संभव है आधुनिक युग में लोग इस बात पर संदेह करें पर हमारे पारंपरिक ग्रंथों तथा आधुनिक साहित्य में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमे पशु-पक्षी, जीव-जंतु और यहाँ तक कि कुर्सी-मेज जैसी निर्जीव वस्तुओं को भी मनुष्यों के सभी प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक गुणों से संपन्न दिखाया गया है. यही नहीं, कहीं-कहीं तो उन्हें अलौकिक शक्तियों से भी संपन्न दर्शाया गया है

फंतासी कथाओं में तो ऐसा होना आम बात है. पाश्चात्य बाल साहित्य में पशु-पक्षियों को पात्र बनाने के पीछे जो तर्क दिए जाते रहे हैं वे भी कम मनोरंजक नहीं हैं. जरा बानगी देखिये:

१. बोलते हुए पशु-पक्षी साहित्यिक पात्र के रूप में मनुष्य समाज की अच्छाइयों एवं बुराईयों को ज्यादा कारगर ढंग से प्रस्तुत करते हैं.
२. पशु-पक्षियों का संसार बच्चों का प्रिय संसार है इसलिए बच्चे ऐसे पात्रों से ज्यादा लगाव महसूस करते हैं.
३. पशु-पक्षी पात्रों पर नस्लभेद का आरोप नहीं लगाया जा सकता जबकि मानवीय पात्रों पर ऐसे होना असंभव नहीं.
४. पशु-पक्षियों में दैवीय अथवा अलौकिक शक्तियों का आरोपण पाठकों को सहजता से स्वीकृत हो जाता है जबकि मानवीय पात्रों में ऐसा करना अविश्वसनीय एवं हास्यास्पद स्थिति पैदा कर देता.
५. फंतासी कथाओं में पशु-पक्षी प्रिय पात्र माने जाते हैं.

यहाँ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय पारंपरिक ग्रंथों में काकभुशुंडी, शुकदेव, जटायु, गरुड़ आदि पक्षी होते हुए भी संतों के समकक्ष समादृत किये जाते हैं जबकि पाश्चात्य साहित्य में ब्लेक ब्यूटी जैसे उपन्यास,या वाल्ट डिस्ने की कामिक सीरीज आदि सभी पशु-पक्षी पात्रों के बल पर ही लोकप्रिय एवं विश्वविख्यात हुए हैं.

कुत्ते की कहानी इसका अपवाद नहीं है.

Wednesday, June 1, 2011

मुसलमान उर्फ आबिद - इकबाल की जुगलबंदी

मुसलमान उर्फ आबिद - इकबाल की जुगलबंदी




(पिछले दिनों फेस बुक पर आबिद भाई से मित्रता हुई तो मैंने उन्हें सूचित किया कि उनके आत्मकथात्मक उपन्यास मुसलमान पर ७ मई १९९५ को अमर उजाला में प्रकाशित अपनी टीप, को स्केन कराकर उन्हें भेजूंगा ताकि सनद रहे. पर काफी समय गुजर गया और वह संभव नहीं हो सका. अब इसे यथावत टाइप सेट कर के अपने ब्लॉग की लिंक के ज़रिये उन्हें समर्पित कर रहा हूँ. लगभग सोलह साल पुरानी टीप का फिलवक्त क्या महत्त्व है नहीं जानता पर इस उपन्यास की मुझ पर क्या प्रतिक्रिया हुई उसकी गवाह है यह टीप. याद आता है कि इस उपन्यास को मेरे एक पत्रकार मित्र सुशील राजेश ले कर आये थे मेरे पास हिंदुस्तान टाइम्स के दफ्तर में और पूछा था- रमेशजी इस पुस्तक पर कुछ लिखना चाहोगे. तब मैं आबिद भाई को सिर्फ ढब्बूजी के ज़रिये जानता था और पुस्तक समीक्षा का अर्थ मेरे लिये सिर्फ एक पाठकीय नज़रिया ही था.)


मुसलमान! शब्द सुनते ही कैसी तस्वीर उभरती है आम आदमी के ज़ेहन में? इसका जवाब देना जितना आसान है उससे कहीं ज्यादा मुश्किल है. यूँ मनुष्य के चारित्रिक गुणों-दुर्गुणों की तरह एक कौम के चरित्र को भी उसके गुण- दोषों को मद्देनज़र रखते हुए आँका जाना चाहिए, पर हमारी विडंबना यह है कि हम चाहते हुए भी अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो

पाते और शायद यही कारण है कि हम किसी के भी बारे में कोई भी फतवा ज़ारी करने से नहीं चूकते. सद्भाव और दुराभाव के बीच सदियों से चली आ रही यह कशमकश आज भी

बरकरार है. हमारा एक भ्रम कांच की तरह टूटता है, बिखरता है तो एक दूसरा भ्रम उसकी जगह ले लेता है.

आबिद सुरती के आत्मकथात्मक उपन्यास "मुसलमान" ऐसे कई भ्रमों को तोड़ने की दिशा में पहल करता है. "तस्कर का मतलब मुसलमान!" यह वहम आज भी पाठकों के एक खास वर्ग के मन में घर कर गया है. जब कि हकीकत यह है कि दो नम्बर के इस काले धंधे में भारत की पंचरंगी जनता का हर रंग मिला है. "हर एक गेंग की रचना धर्मं के आधार पर नहीं, बल्कि उसके सदस्यों की ताकत और उपयोगिता के आधार पर होती है " इस रहस्य को जानने वाले अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं, क्योंकि वे गेंग और हाकिमों के बीच की कड़ी होते हैं.

आबिद का दावा है कि उनके इस उपन्यास में सिर्फ सुरैया (उपन्यास में आबिद की प्रेमिका) का नाम काल्पनिक है, ताकि उसके वैवाहिक जीवन पर कोई असर न पड़े. बाकी सभी पात्र, उनके नाम, समय, तारीख, आदि घटनाएं सच हैं. (शायद यह प्रामाणिक कथन उपन्यास की बिक्री में सहायक हो)

उपन्यास के केन्द्र में है बम्बई (आजकल मुंबई), शहर की बदनाम बस्ती डोंगरी की बदनाम गलियों में पैदा हुए...पले..बढ़े दो बच्चे. दोनों की परिस्थितियां सामान है, संयोग समान हैं, फिर भी एक को उजाले आकर्षित करते हैं तो दूसरे को अँधेरे घेर लेते हैं. एक सर्जक के रूप में विकसित होता है तो दूसरा अँधेरी दुनिया का अदृश्य मानव बन जाता है.

एक का नाम है - आबिद सुरती, दूसरे का - इकबाल रूपाणि "सूफी".

इसमें कोई संदेह नहीं कि आबिद सुरती की आधी-अधूरी आत्मकथा (लेखक के अनुसार -"इस उपन्यास में मैंने बचपन से लेकर शादी तक (१९६५) की अवधि को लिया है. अगले भाग में मैं शादी से लेकर अब तक की अवधि लेना चाहता हूँ) से अमर बेल की तरह लिपटी इकबाल रूपाणि "सूफी" की "तस्कर कथा" उपन्यास के कथा-क्रम को गति प्रदान करती है, पर उसके सकारात्मक पक्ष को कमजोर भी करती है. सूफी की जीवनी में "थ्रिल" है, जिससे आबिद जबरदस्त रूप से प्रभावित लगते हैं, इसीलिए उपन्यास के अंत में दी गई प्रणव प्रियदर्शी की बातचीत में यह पूछे जाने पर कि क्या उन्हें नहीं लगता कि यह उपन्यास तस्करी और तस्कर को "ग्लोरिफाई" करता है, वे स्वीकारते हैं-"ग्लोरिफाई करने का मेरा कोइ इरादा नहीं था. मैंने हर जगह इकबाल के तर्क से अल्लाह पर सारी जिम्मेदारी थोप देने के उनके नज़रिए से अपनी असहमति जताई है. लेकिन उनके चरित्र के दो पहलू हैं. एक तरफ से वह तस्कर हैं तो दूसरी तरफ वे पाँचों वक़्त की नमाज़ पढते हैं, सादगीपूर्ण जीवन बिताते हैं, कुरान का उन्होंने अच्छा अध्ययन किया है. चूंकि यह बायोग्राफी है, कल्पना नहीं, इसलिए उनके चरित्र के किसी भी पहलू को मैं नज़र-अंदाज़ नहीं कर सकता. हो सकता है, इसी कारण उसका पात्र कुछ "ग्लोरिफाई" हुआ हो-जैसे कि आप कहते हैं. वरना ऐसे करना मेरा मकसद नहीं था."

आबिद की यह प्रछन्न स्वीकारोक्ति उनके अंदर पल रही किसी कुंठा की ओर इंगित करती है. आबिद शायद यह जानते हैं कि इस उपन्यास की पठनीयता उनकी अपनी "ऑटोग्राफी पर कम इकबाल की "बायोग्राफी" पर ज्यादा निर्भर करती है. इसीलिये उनकी कहानी इकबाल की जबानी से पिछडती मालूम देती है.अपराध जगत के अँधेरी-उजली तहों को खोलती और वह भी उस दुनिया के प्रामाणिक पात्रों को लेकर (जैसा कि लेखक का दावा है) आबिद की यह कृति भले ही एक मुकम्मल उपन्यास न हो पर एक "रिस्की" कार्य अवश्य है, जिसके लिए आबिद की तारीफ़ की जानी चाहिए.

यूँ आबिद का यह उपन्यास मुंबई के महानगर सांध्य दैनिक में "डोंगरी की भूल-भुलैंया" नाम से धारावाहिक रूप में १९९२ में पहले प्रकाशित हो चुका है , इसलिए इसमें आए कई पात्रों, घटनाक्रमो के सम्बन्ध में अब विवाद पैदा हो, कम ही लगता है पर अगर ऐसा होता है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. जो नहीं जानते, उनके लिए ये जानकारियाँ रुचिकर (और शायद विवादस्पद, असहनीय भी) हो सकती हैं, जैसे -"सबसे पहले गौ हत्या प्रतिबन्ध का ख्याल किसे आया - बाबर को. "गर्ब से कहो, हम हिंदू है" का नारा देने वाले शिव सेना - प्रमुख बाल ठाकरे का निजी अंगरक्षक इदरीस मुसलमान है. "एक वरदा के चले जाने पर उसका स्थान दूसरा वरदा ले लेता है. एक मस्तान के सन्यास लेते ही उसका रिक्त स्थान दूसरा मस्तान भर देता है. एक सरकार के गिरने पर दूसरी सरकार सत्ता ग्रहण कर लेती है. यह काम अपराध जगत में भी चलता है."

एक को दूसरे से फिर दूसरे को तीसरे से स्थानापन्न करते अपराध-जगत के सरगना केवल मुस्लिम कौम में नहीं, हर कौम में मौजूद हैं. दरअसल, गुडों, मवालिओं तस्करों, हत्यारों की कौमें उनके उन्ही नामों से जानी जाती है, जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं.अगर ऐसे नहीं होता टू करीम लाला, इकबाल रूपाणि, हाजी मस्तान और दाऊद इब्राहीम के अलावा सिंह, और डी. के (जिसके सही "इनिशिअल्स" आबिद के.डी बताते हैं) सांप-सीढ़ी के इस खतरनाक खेल के खिलाडी नहीं होते. व्यवस्था की कमजोरियाँ और बर्तमान कानून की कमियाँ जहाँ अपराधियों के मनोबल को ऊंचा करती हैं, वहीँ भ्रष्ट पुलिस एवं राजस्व अधिकारियों की मिली-भगत इस सांप-सीढ़ी के खेल को कभी खत्म नहीं होने देती. भेसडिया जैसे पात्र इसके प्रमाण है. इकबाल रूपाणि का यह बयान कि अपने देश में कभी किसी दोषी को सजा वर्तमान स्थिति में मिल ही नहीं सकती, अपने आप में एक सवाल है. इकबाल के अनुसार, " दोषियों के नाम पर उनके हलके के कुछ लोगों को सज़ा हो जाती है...अलावा इसके अपराध में मुख्य अपराधी का साथ देने वाले कुछ टपोरी (छुटभैये) भी फंस जाते हैं, लेकिन मुख्य अपराधी कभी गिरफ्त में नहीं आता.

अपराधियों को राजनीतिक सरंक्षण दिया जाना हमारे वर्तमान समाज की जड़ें खोखली करने के लिए काफी है. भ्रष्टाचार का परनाला ऊपर से नीचे की ओर गिरता है, यह जानते-बूझते भी हमारी व्यवस्था भ्रष्टाचार का उद्गम नीचे-नीचे तलाशती है. कुल मिलाकर आबिद सुरती का यह आत्मकथात्मक उपन्यास इस दुखती रग पर फिर अंगुली रखता है.

फिल्मों की तरह इस उपन्यास से भी कुछ नौसिखिए अपराधी प्रेरणा ले सकते हैं कि एक हत्या के आरोपी (हमित) को मृतक साबित करके फांसी के तख्ते से कैसे बचाया जा सकता है.

अंत में एक सवाल रह जाता है. आम पाठक आबिद सुरती से पूछ सकता है कि इस उपन्यास का नाम "मुसलमान" क्यों रखा गया? क्या ये नाम "सांप-सीढ़ी" अथवा "डोंगरी की भूल-भुलैयाँ" नहीं हो सकता था? (पर अंततः यह विशेषाधिकार तो लेखक का ही है.)

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पुस्तक: मुसलमान (उपन्यास), लेखक: आबिद सुरती, प्रष्ट: ३६४+११, मूल्य: १७५.०० रुपये, प्रकाशक: आशा प्रकाशन गृह, ३० नाई बालान, करोल बाग, नई दिल्ली-११० ००५.