Saturday, June 11, 2011
वो एक कहानी... तुम कहाँ हो, नवीन भाई?
( प्रकाश मनु की यह कहानी सन २००८ में नमन प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित उनके कहानी संग्रह “मेरी तैंतीस कहानियाँ” में से एक है. प्रकाश मनु का संपर्क है : prakashmanu01@gmail.com, Phone: 9810602327 पता : 545 सेक्टर 29, फरीदाबाद-हरियाणा.)
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काफी समय पहले सुने एक गीत की पंक्तियां याद आ रही हैं -
"तुम्हारा आना बहुत भला,
तुम्हारा जाना बहुत खला."
किसी अपने का सदा के लिए चला जाना कितना दुखदायी और असहनीय होता है यह वही जानता है जिस पर ये विपदा गुज़रती है और यह अप्रत्याशित विछोह एक दिन आलाप से विलाप और विलाप से प्रलाप में कैसे बदल जाता है इसकी सघन अनुभूति का जायजा लेना हो तो प्रकाश मनु की कहानी "तुम कहाँ हो, नवीन भाई?" ज़रूर पढ़ी जानी चाहिए.
प्रकाश मनु के अधिकांश कथा-लेखन को पढते हुए मुझे हर बार न जाने क्यों ऐसा लगता है कि इस शख्स के अंदर सघन अनुभूतियों का एक महासागर उछालें मार रहा है और उन्हें अभिव्यक्ति देने के लिए उसके पास शब्द कम पड रहे हैं. सच कहें तो अनकहे शब्द शायद ज्यादा मारक होते हैं इसलिए इस कहानी को पढ़ने के बाद भी उसका "हैंग ओवर" पाठक का पीछा नहीं छोड़ता.
प्रकाश मनु पारंपरिक ढंग से कहानियां नहीं लिखते और न ही किन्ही दायरों में बंधे रहना पसंद करते हैं. इसलिए कई बार उनकी कहानियां विस्तार की अपेक्षित सीमाएं लांघ जाती हैं, इस खतरे को झेलते हुए भी कि अनपेक्षित विस्तार कथा के प्रभाव को हल्का कर देता है. पर प्रकाश मनु के लेखन की विशिष्टता ही यह है. इसे इस कहानी के मुख्य पात्र नवीन द्वारा कही गई इन पंक्तियों में भी स्पष्टता के साथ देखा जा सकता है - "मैं वह लिखता हूँ जो भीतर से मेरा मन कहता है , यही मेरा रास्ता है." ऐसी जिद लेखक को एक ऐसे बीहड़ में ले जाकर खडा कर देती है जहां अभाव, अकेलापन, असुरक्षा, और अंतहीन दुश्चिन्ताएं तो होती ही हैं साथ ही एक पूरी ज़मात विरोधियों की भी सामने होती है. ऐसी जिद बाज़ार की आवश्यकताओं के अनुकूल नहीं होती और न ही अपने स्वाभिमान को ताक पर रख कर दूसरों के मनोरथों को पूर्ण करने के लिए तत्पर.
अब नवीन को ही लें. नवीन रिसर्च स्कोलर है पर अपने विभागाध्यक्ष से उसका ३६ का आंकड़ा है. कारण कुछ भी हों पर यह एक ऐसी लड़ाई है जों प्रछन्न रूप से शीत युद्ध की तरह चलती है और प्रिया से उसके प्रेम विवाह, कैरिअर, पारिवारिक सुख-शांति सभी के लिए घातक सिद्ध होती है.
विनायक, जो नवीन के आत्मीय, परिजन, अभिन्न मित्र, सहयोगी, होने के अलावा इस कहानी के “नरेटर” भी हैं , के विलाप (या कहिये प्रलाप). का स्वर इस कहानी में नवीन की विधवा पत्नी प्रिया के विलाप से भी ज्यादा मुखर हो कर सामने आता है. गौर से देखें तो यह कहानी नवीन के साथ विनायक की भी अपनी कथा है . जब आप किसी से इस हद तक इन्वोल्व हो जाते हैं कि उसकी हर धडकन में आपकी धडकन सुनाई देने लगती है तो सब कुछ गड्ड-मड्ड होने लगता है. अपने पराये का भाव भी नष्ट हो जाता है.
“दुःख तेरा हो या मेरा हो, दुःख की परिभाषा एक है,
आंसूं तेरे हों या मेरे हों, आंसुओं की भाषा एक है...”
यह इस इन्वोलवमेंट की ही वज़ह है कि नवीन के न रहने पर विनायक को प्रिया और उसके बच्चों के भविष्य की चिंता सताने लगती है. पर प्रिया और नवीन का रिश्ता तो एक टिपिकल रिश्ता है . नवीन से नाता जोड़ते समय ही वह अपना और नवीन का भविष्य जानती थी और उन सभी दुष्परिणामों को झेलने के लिए तैयार थी जो उसे आसन्न दिख रहे थे. उसकी हर खुशी, हर ज़रूरत नवीन के साथ जुडी थी और जब नवीन ही नही रहा तो कैसी खुशी और कैसी ज़रूरत.
विनायक जब उससे कहते हैं कि “किसी भी तरह की सहायता की ज़रूरत हो तो झिझकना मत...” तो प्रिया का जवाब होता है –“अब किस चीज की ज़रूरत, भाई साहब?..अब तो सब ज़रूरतें ही खत्म हो गईं.”
विनायक प्रिया को जब नवीन के जाने का बाद देखते हैं तो हतप्रभ रह जाते हैं : “न आकाशभेदी चीखें, न चिल्लाहट , न उन्मत्त की तरह फर्श पर, दीवार पर सिर पटकना, प्रिया ने किस बहादुरी से लिया था नवीन की मौत को.. हां, बस आंखों में एक ठंडा, कारुणिक सन्नाटा आ बैठा था.”
नवीन की दृष्टि में प्रिया की अहमियत क्या थी इसे उसी की जबानी सुनें तो बेह्तर है- : “भाई साहब, जहां प्रिया है वहां कोई उदासी नहीं, जहां प्रिया है वहां कोई गम नहीं. इसके साथ तो मैं भूखा भी जिंदगी काट लूँगा और वह भी ..खुश, हर हाल में खुश.”
ज़ाहिर है कि ये नवीन का अपना नजरिया था पर प्रिया का? क्या नवीन अपने लेखकीय उन्माद, अपने उसूल, और अपने अहंकार के बीच प्रिया के बदलते स्वरुप की इस सचाई को स्वीकार कर पाया:
“सोनजुही से हाथ तुम्हारे
लकड़ी के हो गए,
कलेजा पत्थर का.
नक्शा बदल गया घर का.
(-रमेश रंजक ):
नवीन की तो अपनी अलग ही दुनिया थी तथाकथित साहित्यिक दुनिया. जिसमे रामनामी चादरें ओढकर बड़े-बड़े मगरमच्छ घुसे बैठे थे .”
एक कहानी या एक लेख का छप जाना नवीन के लिए शायद सबसे बड़ा सुख था पर विनायक की नज़र में-
“घर तो पैसे चलता है. घर साहित्य और शब्दों से नहीं चलता. घर एक ठोस हकीकत है.....अभाव की कविताएँ लिख लेना एक बात है, पर घर अभाव से नहीं, भाव से चलता है. बाज़ार का भाव-ताव देखो और कमाओ.”
कुरुक्षेत्र से रिसर्च करने के बाद भोपाल जा कर भी नवीन ने क्या हासिल कर पाया? “कोई तेईस सालों में लिखते-लिखते, खूब लिखते, और इधर-उधर भिड़ते भटकते और तमाम ज़रूरी, गैर-ज़रूरी लड़ाइयों में मुब्तिला रहते आखिर काम तमाम हो गया नवीन का.............शायद नवीन के साथ सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि जहां मुश्किलें न हों वहां नवीन खुद पैदा कर लेता था-
“भाई साहब, मैं साहित्य और जिंदगी को अलग-अलग स्तर पर नहीं जी सकता. मैं जिऊँ या मरूं, कोई फर्क नहीं.”
अहम की टकराहटे एक प्रछन्न लड़ाई को जन्म देती हैं. भोपाल जाकर भी यह मुश्किल पीछा नहीं छोडती नवीन का. “भोपाल के जिस सरकारी विभाग में वह काम कर रहा था, उसका एक अधिकारी रणविजय उसे बुरी तरह तंग कर रहा था ....
नवीन की जिंदगी जीने का यह अंदाज़ विनायक को सदैव नागवार लगता रहा और इसका इज़हार भी उन्होंने समय समय पर नवीन के सामने किया पर नवीन तो दूसरी ही काठी का बना था. ..वही जिद और वही तेवर... अंजाम ...एक दर्दनाक अंत.....और यही हुआ नवीन के साथ.
विनायक को नवीन के चले जाने का गहन दुःख ही नहीं बल्कि एक अपराधबोध भी सालता रहा:
“तो क्या नवीन को मारनेवालों में मैं भी शामिल हूँ? मैं..मैं..मैं? कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग का वरिष्ठ रीडर. डबल एम.ए., पी. एच. डी..डी.लिट. अंग्रेजी साहित्य का उद्भट विद्वान ..आचार्य विनायक..मैं..मैं. हत्यारा..”
विनायक की स्मृतियों में नवीन के कई चेहरे शामिल हैं....
एक नवीन वह जो कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी के हाल में एक बड़े कवि सम्मलेन में एक विद्रोही और आविष्ट लहजे में भुजा उठाकर अपनी कविता पढ़ रहा है...
एक नवीन वह जो रात-दिन यूनिवर्सिटी के लाइब्रेरी में नोट्स बनाते और थीसिस पूरा करने में जुटा है...
एक नवीन वह जो अचानक एक दिन झटपट..मंदिर में प्रियाँ से विवाह करके आ गया था..
फिर एक नवीन वह जो एक छोटी-सी नौकरी पर कुरुक्षेत्र से भोपाल चला गया...
“हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिसको भी देखना हो कई बार देखना.”
-निदा फाज़ली
चंद शब्दों में कहूँ तो प्रकाश मनु की यह कहानी मुझे एक लंबे शोक गीत की तरह लगती है और नवीन के चेहरे के पीछे मुझे अपने वर्तमान के कई नए-पुराने लेखक/कवियों के चेहरा भी याद हो आते हैं जिन्होंने अपने लेखकीय जूनून को परवान चढाने के लिए अपनी पत्नी, अपने परिवार को सतत विपन्नता, संघर्ष के बरक्स ले जा कर छोड़ दिया. हिंदी साहित्य के रचना कर्म पर ही जीवित रहने वाले की यह एक दर्दनाक नियति है. उनकी बात छोड़ दें जो अकादमिक पदों पर प्रतिष्ठित हो कर साहित्य को एक दोयम कामकी तरह रचते हैं या ऐसा करते हुए दर्शाते हैं.
और चलते-चलते कहानी का वह ठंडाई घोटन प्रसंग जिससे कहानी कि शुरुआत होती है और बाद में जिसमे बल्लभजी (वास्तविक चरित्र?) के साथ अन्य बुद्धजीवियों की उपस्थिति तथा बौद्धिक बहस..... यह प्रसंग नवीन के चरित्र का एक अलग ही पक्ष सामने लाता है. और यही प्रसंग ही क्यों, कैफ साहब का वह दारू वाला प्रसंग....
आप साहित्य में कितने ही महांन और उदात्त बने रहे पर असल जिंदगी में आपके द्वारा किया गया वमन सिर्फ संडाध ही पैदा करता है. आखिर ये कौन सा नशा है जो आपके मन को तो ऊर्जा देता है पर तन को सडांध से भर देता है. ....
ज्यादा क्या कहूँ, साहित्य और कला की दुनिया का यह एक ऐसा विद्रूप और वीभत्स चेहरा है जो इस पूरी कहानी में व्याप्त करुणा को एक तीखी व्यंजना में बदल देता है..
-रमेश तैलंग
१० जून, २०११
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