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Thursday, June 2, 2011

कुत्ते की कहानी : हिंदी का पहला बाल उपन्यास


" हिंदी में ज्यादातर बाल उपन्यास आज़ादी के बाद लिखे गए.पर यह एक सुखद आश्चर्य की तरह है कि आज़ादी से पहले हिंदी उपन्यासों के क्षेत्र में पसरे सन्नाटे को तोड़ने का काम सबसे पहले उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने किया था. प्रेमचंद की रचना कुत्ते की कहानी को हिंदी का पहला बाल उपन्यास कहा जा सकता है -डॉ प्रकाश मनु संदर्भ: आजकल-नवम्बर २००४ अंक."






कथा सम्राट प्रेमचंद ने वयस्कों के अलावा बच्चों के लिए अनन्य रूप से कितना साहित्य रचा इस पर मैं साधिकार कोई टिपण्णी नहीं कर सकता हालांकि उनकी बहुत-सी कहानिया जैसे ईदगाह, ठाकुर का कुआँ, दो बैलों कि कथा, नमक का दारोगा, पञ्च परमेश्वर, कफ़न, बड़े भाई साहेब, आदि बच्चों के पाठ्यक्रम में शामिल की जा चुकी हैं और उनकी जंगल की कहानियां भी बच्चों को रुचिपूर्ण लग सकती हैं पर कुत्ते की कहानी जिसे हिंदी के अनेक विशिष्ट बाल साहित्यकार/आलोचक हिंदी का पहला बाल उपन्यास मानते हैं, निस्संदेह बच्चों के लिए ही लिखी गई रचना है और इसे अलग से प्रमाणित करने की जरूरत नहीं. कृति के आमुख के रूप में दिनांक १४ जुलाई १९३६ का बच्चों के नाम लिखा गया लेखक का निम्न संबोधन-पत्र स्वतः इसे प्रमाणित करता है:

बच्चों से
प्यारे बच्चों! तुम जिस संसार में रहते हो, वहाँ कुत्ते, बिल्ली ही नहीं, पेड़-पत्ते और ईंट-पत्थर तक बोलते हैं, बिलकुल उसी तरह, जैसे तुम बोलते हो और तुम उन सबकी बातें सुनते हो और बड़े ध्यान से कान लगाकर सुनते हो. उन बातों में तुम्हे कितना आनंद आता है. तुम्हारा संसार सजीवों का संसार है. उसमे सभी एक जैसे जीव बसते हैं. उन सबों में प्रेम है, भाईचारा है, दोस्ती है. जो सरलता साधू-संतों को बरसों के चिंतन और साधना से नहीं प्राप्त होती, वह तुम परमपिता के घर से लेकर आते हो. यह छोटी पुस्तक मैं तुम्हारी उसी आत्म-सरलता को भेंट करता हूँ. तुम देखोगे कि यह कुत्ता बाहर से कुत्ता होकर भी भीतर से तुम्हारे ही जैसा बालक है, जिसमे वही प्रेम और सेवा तथा साहस और सच्चाई है, जो तुम्हे इतनी प्रिय है.

प्रेमचंद
बनारस १४ जुलाई, १९३६
(सौजन्य-सन्दर्भ प्रकाशन-दिल्ली-३२ से प्रकाशित पुस्तक)

आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह बाल/किशोर उपन्यास अपने कथ्य और शिल्प में तो अनूठा है ही, साथ ही हमारे मानव समाज में व्याप्त अनेक असंगतियों पर भी एक सटीक व्यंग्य है. इस बिंदु पर मैं आगे विस्तार से चर्चा करूँगा पर सबसे पहले इस उपन्यास की कथा पर संक्षिप बात कर ली जाए .

उपन्यास का केंद्रीय पात्र कल्लू नाम का एक कुत्ता है जो किसी आम गांव की एक आम-सी जगह यानी एक भाड़ की राख के बिछोने पर जन्म लेता है. कल्लू के तीन भाई हैं, लाल रंग के और वह अकेला काला-कलूटा. कल्लू की माँ अनेक तकलीफें सह कर अपने चारों बच्चों को पालती है. कुछ ही समय बीतता है ठण्ड की वजह से कल्लू के दो भाई चल बसते हैं और रह जाता है वह और उसका भाई जकिया. जकिया को एक डफाली का बेटा पालने के लिए ले जाता है तो कल्लू को एक पंडित का बेटा.

स्वभाव से गुस्सैल और शरीर से ताकतवर जकिया न केवल कल्लू को डराता धमकाता रहता है बल्कि मौका पड़े तो अपने दांतों से उसे खूब काट-खसोट भी लेता है. पर कल्लू पंडित जी के सामने ही जकिया को पछाड़ देता है तो कल्लू की वाहवाही होने लगती है. कल्लू की इज्जत पंडितजी की नज़रों में तब और भी बढ़ जाती है जब वह पंडित जी के दो बच्चों को नाले में डूबने से बचाता है. इधर कल्लू पर पंडितजी का स्नेह बरसता है तो उधर कल्लू की कहानी में गडरिया नाम का एक खलनायक पैदा हो जाता है जो पंडितजी के खेतों में आग लगाने के बाद जब कल्लू की पकड़ में आता है तो कल्लू से बदला लेने की जुगाड में लग जाता है. पर वो कहावत है न – “जाको राखे साइंया मार सके न कोय”. तो, गडरिया अपनी बुरी करनी के कारण पिटाई खाता है और कल्लू की कहानी धीरे-धीरे परवान चढ़ने लगती है. या यूँ कहिये कि कल्लू की कहानी में कुछ बदमाश चोरों की , शरारती सूअरों की , गांव के थाने के बड़े अंग्रेज अफसर अंग्रेज बहादुर और उनकी मेम साहब की कई उप-कथाएं जुड जाती हैं. जब कल्लू को साहब बहादुर और उनकी मेंम साहब जहाज में बैठा कर अपने देश विलायत ले जाने लगते हैं तो तूफ़ान आ जाता है और उनका जहाज डूबने लगता है. कल्लू अपनी वफ़ादारी से साहब और मेंम साहब को बचा कर एक ऐसी जगह पर ले जाता है जहाँ आदिम जाति के लोग उन्हें देवता समझ कर कैद कर लेते हैं. पर कल्लू यहाँ भी उनका मददगार सिद्ध होता है और जब सारी मुसीबतों से बचता-बचाता कल्लू साहब के साथ वापस अपने गांव लौटता है तो उसकी बहादुरी और वफ़ादारी के किस्से हर जगह मशहूर हो चुके होते हैं. कल्लू का सार्वजनिक सम्मान किया जाता है पर कल्लू है कि उसे अपना सम्मान भी कैद की तरह लगता है. वह तो उस आजादी के लिए तडपता है जिसके साये में वह मस्ती से हर जगह घूमता रहता था.

इस तरह कुत्ते की कहानी के माध्यम से प्रेमचंद केवल एक मनोरंजक कथा ही नहीं सुनाते वरन बच्चों को एक बहुत ही स्पष्ट सन्देश भी देते है और वह सन्देश यह है कि हर बच्चे को अपने ह्रदय में जीव-जंतुओं के प्रति करुणा और सम्मान का भाव रखना चाहिए और उन पर अकारण न तो हिंसा का प्रयोग करना चाहिए औ न ही उन्हें दुत्कारना चाहिये.

गौर से देखें तो इस उपन्यास का आरम्भ ही लेखक की इन पंक्तियों से होता है:-

“बालकों!, तुमने राजाओं और वीरों की कहानियां तो बहुत सुनी होंगी, लेकिन किसी कुत्ते की जीवन-कथा शायद ही सुनी हो. कुत्तों के जीवन में ऐसी बात ही कौन-सी होती है, जो सुनाई जा सके. न वह देवों से लड़ता है, न परियों के देश में जाता है, न बड़ी-बड़ी लड़ाईयां जीतता है. इसलिए भय है कि कहीं तुम मेरी कहानी को उठाकर फेंक न दो. किन्तु मैं तुम्हे विश्वास दिलाता हूँ कि मेरे जीवन में ऐसी कितनी ही बातें हुई हैं, जो बड़े-बड़े आदमियों के जीवन में भी न हुई होंगी. इसीलिय मैं आज अपनी कथा सुनाने बैठा हूँ . जिस तरह तुम कुत्तों को दुत्कार दिया करते हो उसी भाँति मेरी इस कहानी को ठुकरा न देना. इसमें तुम्हे कितनी ही बातें मिलेंगी और अच्छी बातें जहाँ मिले, तुरंत ले लेनी चाहिए.

कुत्ते की कहानी के सन्दर्भ में मैं एक और बात यहाँ रेखांकित करना चाहूंगा कि प्रेमचंद बनारस के लमही गांव में पैदा हुए. ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े. खेती-बाडी, महाजनी सभ्यता, भुखमरी, गरीबी, आज़ादी की लड़ाई, भारतीय समाज की रूढियाँ, सभी को उन्होंने अपनी नंगी आँखों से देखा और जहाँ भी, जिस तरह संभव हुआ, अपने समय की कुरीतियों का विरोध किया. जीव-जंतुओं के जगत को उन्होंने किसी चिडियाघर में नहीं देखा, वह तो उनके ग्रामीण -परिवेश का ही अटूट हिस्सा थे. दो बैलों की कहानी में जिस तरह हीरा-मोती जैसे यादगार चरित्र उन्होंने रचे ठीक उसी तरह इस बाल उपन्यास का नायक कल्लू कुत्ता भी एक यादगार चरित्र के रूप में हमारे सामने आता है.

सहृदयता और संवेदनशीलता लेखक के सबसे गुण होते हैं. “मूकम करोति वाचालं” वाली उक्ति को चरितार्थ करते हुए प्रेमचंद इस बाल उपन्यास में कल्लू कुत्ते को मनुष्य की वाणी देते हैं और उसी की जबानी एक मनोरंजक एवं प्रेरक कथा सुनाते हैं जिससे कतिपय उपकथाएँ भी जुडी हुई हैं.

सद्गुणों के आधार पर देखा जाय तो पशु मनुष्य से किसी तरह कमतर नहीं होते. यह बात इस बाल उपन्यास में अनेक जगहों पर उभर के सामने आती है. यही नहीं, प्रेमचंद अनेक स्थलों पर बैलौस संवादों एवं टिप्पणियों से मानव समाज और उसकी विडंबनाओं पर तीखा व्यंग्य भी करते हैं –
“ जाने दो भई, भूख में तो आदमियों की बुद्धि भी भृष्ट हो जाती है, यह तो पशु है. इसे क्या मालूम, किसका फायदा हो रहा है, किसका नुक्सान. अब तो जो हो गया, ओ हो गया, इसे मारकर क्या पाओगे?” (अध्याय १ )

“पेट भी क्या चीज है. इसके लिए लोग अपने पराए को भूल जाते हैं. नहीं तो अपनी सगी माता और अपना सगा भाई क्यों दुश्मन हो जाते? यह तो हम जानवरों की बातें है. मनुष्यों की ईश्वर जाने.” (अध्याय-२)

“अब मैं सोचता हूँ तो मालूम होता है कि बच्चे जो हम लोगों को अपने विनोद के लिए कष्ट देते थे, वह कोई निर्दयता का काम नहीं करते थे. विनोद में इन सब बातों पर ध्यान ही नहीं दिया जाता. पंडित जी बहुत खुश होते जब हम चंद मिनटों में पचासों चूहों को सदा के लिए बेहोश कर देते. उस समय पंडित जी पर मुझे बहुत हंसी आती थी. अब इनके गणेश जी क्या हुए? क्या अब इस हत्या से नाराज होकर गणेश हग्न पंडित जी को दंड न देंगे? वह, क्या समझ है. इससे तो यही मालूम होता है कि जी बात से लोगों को नुक्सान तो कम होता है और प्रतिष्ठा बहुत बढती है, उसे तो लोग हँसते-हँसते वर्दाश्त करते हैं, लेकिन जग अधिक हानि पहुँचती है, तो सब प्रतिज्ञा टूट जाती है.” (अध्याय-३)

-एक समय वह था कि पशुओं के साठ भी न्याय किया जाता था. एक समय यह है कि पशुओं की जान का मूल्य ही नहीं. इसके साठ ही यह संतोष भी हुआ कि पशु होने पर भी मैं ऐसे धूर्त महंतों से तो अच्छा ही हूँ. (अध्याय-६)

“मैंने अपनी जाती में यह आहूत बड़ा ऐब देखा है कि एक-दूसरे को देखकर ऐसा काट खाने को दौड़ते हैं गोया उनके जानी दुश्मन हों. कभी-कभी अपने उजड्ड भाइयों को देखकर मुझे क्रोध आ जाता है, पर मैं जब्त कर लेता हूँ. मैंए पशुओं को देखा ऐसे जो आपस में प्यार सेमिलते हैं, एक साठ सोते हैं, कोई चुन तक नहीं करता. मेरी जाती में यह बुराई कहाँ से आ गई – कुछ समझ में नहीं आता. अनुमान से यह कह सकता हूँ कि यह बुराई हमने आदमियों से ही सीखी है. आदमियों ही में यह दस्तूर है कि भाई से भाई लड़ता है, बाप बेटा से भाई बहन से. भाई एक -दूसरे की गर्दन तक काट डालते हैं, नौकर मालिक को धोखा देता है. हम तो आदमियों के सेवक हैं, उन्ही के साथ रहते हैं. उनकी देखा-देखी अब यह बुराई हम में आ गई तो अचरज की कौन बात है? कम-से-कम हम् में इतना गुन तो है कि अपने स्वामी के लिए प्राण तक देने को तैयार रहते हैं. जहाँ उसका पसीना गिरे, वहाँ अपना खून तक बहा देते हैं. आदमियों में तो इतना भी नहीं. आखिर ये साहब के कुत्ते भी तो कुत्ते ही हैं. वे क्यों नहीं भोंकते? क्यों इतने सभ्य और गंभीर हैं. इसका कारण यही है कि जिसके साथ वे रहते हैं, उनमे इतनी फूट और भेद नहीं है. मुझे तो वे सब देवताओं से लगते थे. उनके मुख पर कितनी प्रतिभा थी, कितनी शराफत थी.” – अध्याय-७

कुत्ते की कहानी बाल उपन्यास सन १९३६ के आस-पास प्रकाशित हुआ था. तब से लेकर अब तक लगभग सात दशक से ज्यादा का समय बीत गया पर इस देश की पुलिस के चरित्र में कोई मूलभूत फर्क आया हो, ऐसा नहीं लगता. इस उपन्यास का एक संवाद “ चौधरी बोले- अजी, पुलिस का ढकोसला बहुत बुरा होता है. वे भी आकर कुछ-न-कुछ चूसते ही हैं. मैंने तो इतनी उम्र में सैंकडों बार इत्तलाएं कीं मगर चोरी गई हुई चीज कभी न मिली.” आज के जमाने में भी सटीक बैठता है.

इसमें संदेह नहीं कि लेखक , चिन्तक, कहानीकार, उपन्यासकार एवं संपादक सभी रूपों में प्रेमचंद रचनाकारों के प्रेरणास्रोत रहे हैं. हिंदी, उर्दू, समेत कई भाषाओं पर उनका समान अधिकार था . मुहावरों, कहावतों का विपुल भण्डार मिलता है उनकी साहित्य निधि में. कुत्ते की कहानी भी इससे अछूती नहीं रही है. यथा – “शाह की मुहर आने-आने पर, खुदा की मुहर दाने-दाने पर...”जावक रखे साइयां मर सकहिं न कोय...”रुपया-पैसा हाथ का मेल है....”अपनी कमाई में से कुछ-न-कुछ दान अवश्य करना चाहिए...तकदीर से उठी हेज कहाँ मिलती है...”रात पहाड हो गई.....”प्राण जैसे आँखों में थे...”

लोकोक्तियों के अलावा प्रेमचंद ने इस बाल उपन्यास में एक लोक-कथा को भी समाविष्ट कर लिया है जिसमे एक कुत्ता श्री रामचन्द्रजी से अपनी कहानी कहता है. पूर्वजन्म की धारणा और कर्मानुसार फलप्राप्ति के विचार को प्रेमचंद की स्वीकृति थी , यह बात यहाँ स्पष्ट हो जाती है.

इस बाल उपन्यास में एक प्रसंग आता है ब एक महाशय बोलते हैं-“पुराने जमाने में जानवर आदमी की तरह बातें करते थे और आदमियों की बातें समझ भी जाते थे.संभव है आधुनिक युग में लोग इस बात पर संदेह करें पर हमारे पारंपरिक ग्रंथों तथा आधुनिक साहित्य में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमे पशु-पक्षी, जीव-जंतु और यहाँ तक कि कुर्सी-मेज जैसी निर्जीव वस्तुओं को भी मनुष्यों के सभी प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक गुणों से संपन्न दिखाया गया है. यही नहीं, कहीं-कहीं तो उन्हें अलौकिक शक्तियों से भी संपन्न दर्शाया गया है

फंतासी कथाओं में तो ऐसा होना आम बात है. पाश्चात्य बाल साहित्य में पशु-पक्षियों को पात्र बनाने के पीछे जो तर्क दिए जाते रहे हैं वे भी कम मनोरंजक नहीं हैं. जरा बानगी देखिये:

१. बोलते हुए पशु-पक्षी साहित्यिक पात्र के रूप में मनुष्य समाज की अच्छाइयों एवं बुराईयों को ज्यादा कारगर ढंग से प्रस्तुत करते हैं.
२. पशु-पक्षियों का संसार बच्चों का प्रिय संसार है इसलिए बच्चे ऐसे पात्रों से ज्यादा लगाव महसूस करते हैं.
३. पशु-पक्षी पात्रों पर नस्लभेद का आरोप नहीं लगाया जा सकता जबकि मानवीय पात्रों पर ऐसे होना असंभव नहीं.
४. पशु-पक्षियों में दैवीय अथवा अलौकिक शक्तियों का आरोपण पाठकों को सहजता से स्वीकृत हो जाता है जबकि मानवीय पात्रों में ऐसा करना अविश्वसनीय एवं हास्यास्पद स्थिति पैदा कर देता.
५. फंतासी कथाओं में पशु-पक्षी प्रिय पात्र माने जाते हैं.

यहाँ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय पारंपरिक ग्रंथों में काकभुशुंडी, शुकदेव, जटायु, गरुड़ आदि पक्षी होते हुए भी संतों के समकक्ष समादृत किये जाते हैं जबकि पाश्चात्य साहित्य में ब्लेक ब्यूटी जैसे उपन्यास,या वाल्ट डिस्ने की कामिक सीरीज आदि सभी पशु-पक्षी पात्रों के बल पर ही लोकप्रिय एवं विश्वविख्यात हुए हैं.

कुत्ते की कहानी इसका अपवाद नहीं है.