Wednesday, June 15, 2011

हेमन्त शेष की कविताएं

हेमन्त शेष की कविताएं
आँसुओं को चाहिए सदैव एक असहनीय दुःख
डॉ. ओम निश्चल


बीते तीन दशकों से कविता के परिदृश्य में सक्रिय हेमन्त शेष ने हिन्दी की मुख्यधारा के कवियों में एक अलग प्रतिष्ठा अर्जित की है। उनके भीतर के कला-सजग चितेरे ने कविता को मानवीय राग की एक अनिवार्य अभिव्यक्ति के रूप में सिरजा-सहेजा है। ‘घर-बाहर’, ‘अशुद्ध सारंग’, ‘वृक्षों के स्वप्न’, ‘नींद में मोहनजोदड़ो’, ‘रंग अगर रंग हैं’, ‘कष्ट के लिए क्षमा’, ‘जारी इतिहास के विरूद्ध’, ‘कृपया अन्यथा न लें’, ‘आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी’ और ‘जगह जैसी जगह’ उनके कविता संग्रह हैं।
कवियों में हेमन्त शेष का रंग अन्य समकालीनों से बहुत अलग है। हेमन्त शेष में प्रकृति और जीवानानुभवों का विरल सहकार देखने को मिलता है। यों तो उनकी कविता के रंगों को प्रखर बनाने में उनकी कला-कूची का भी गहरा योगदान रहा है किन्तु जीवन के बड़े सवालों से अलग प्रकृति से आने वाले तादात्म्य और पास-पड़ोस के जीवनोपकरणों से उन्होने अपनी कविता का ताना-बाना बुना है।
इधर के उनके संग्रहों के शीर्षक देखें तो उनमें भी आत्मीयता की छुअन महसूस की जा सकती है। ‘कष्ट के लिए क्षमा’, ‘कृपया अन्यथा न लें’, ‘आपको यह जान कर प्रसन्नता होगी, तथा अब ‘जगह जैसी जगह’- से कवि पाठकों से जो सघन रिश्ता कायम करता है, उनकी बुनियाद गहरी है।
पत्राचार की भाषा से बेशक पदावलियां काफी रूढ़ हो गई हों, किन्तु उनके साथ संवाद का अटूट सूत्र जुड़ता है। हमारी अभिव्यक्ति को इन पदावलियों का इतना अभ्यास हो चला है कि ये लगभग यंत्रचालित कथन की तरह हमारे संप्रेषण के अचूक मुहावरों में शामिल हो गए से लगते हैं किन्तु कवि जब इन रूढ़ पदावलियों को कविता की माँस-मज्जा से गूंथता है तो वे जैसे कविता के अनिवार्य उपकरणों में बदल जाते हैं।
हेमन्त शेष जीवन के अनुभवों को तात्कालिक घटना संदर्भों के साथ न जोड़कर उन्हें रचना के व्यापक और तत्वदर्शी फलक पर उतारने का यत्न करते हैं। प्रकृति के साहचर्य से वे न केवल जीवन की मार्मिक व्याख्या करते हैं, बल्कि पार्थव चिंताओं का हल भी वे बिना किसी प्रकार की दार्शनिकता के अतिरेक में खोए निकाल लेते हैं। उनकी कविता-पंक्तियों में जीवन का अगाध मर्म मुहावरे की कौंध सा छिपा होता है।
हेमन्त शेष की कविताओं के निर्माण में वृक्षों, फूलों, चिड़ियों, तितलियों, नदियों, झरनों के बिम्बों का गहरा योगदान रहा है। इन्हीं बिम्बों के भीतर वे माननीय गुणों की तलाश करते हैं। प्रकृति को खूबसूरत बनाने वाले इन तत्वों को लेकर अतीत में अनेक कविताएं लिखी गई हैं, बल्कि एक दौर की कविता में ऐसा रहा है जब ऐसे सुकोमल प्रतीकों से राजनीतिक आशयों को व्यक्त करने की पहल की गई थी।
‘पेड़ हैं इस पृथ्वी के प्रथम नागरिक’ और ‘एक दिन बोलेंगे पेड़’ से लेकर प्रकृति के अनेक सुकोमल उपादानों से कविता की रंगशाला सजाई गई। हेमन्त शेष ने ‘वृक्षों के स्वप्न’ के बहाने मनुष्य की अतीतजीवी स्मृतियों और उम्मीदों को नवसृजन किया। उन्होंने लिखा है:-
‘‘अतीत की नदी में डूबने के लिए चाहिए वृक्षों को एक नींद
एक स्वप्न एक स्मृति
उम्मीद की तरह
वे अडिग रहना चाहते है
अपने अंतिम समय तक
इस अर्थ में वृक्ष मनुष्य से कितने मिलते-जुलते हैं।’’
अकारण नहीं कि राजस्थान की ‘उजाड़’ वसुंधरा में रहकर नदी, जल, वृक्ष और झरने की अहमियत को जाना जा सकता है। हेमन्त शेष भी कविताओं में ‘बहते पानी की आवाज’ दर्ज करते हैं और ‘नदियों के लिए’, ‘वृक्षों की नींद’ और उनके स्वप्न के प्रतिश्रुत दिखते हैं- यहाँ तक कि ‘पृथ्वी के भीतर छिपे प्रसत्रचित दुनिया के मंतव्य’, ‘पहाड़ की कठोरता में छिपी एक सहिष्णु समुद्र की करवट’, ‘हवा में पानी’, ‘ओस में नमक’, ‘वृक्षों में संजीवनी’ और करोड़ों प्रकाशमान दिनों की आभा की याद दिलाते हैं।
उनके यहां सूखती कुम्हलाती नदी का अवसाद है, पृथ्वी की विराट करवट में जमींदोज हुए शहर की यादें हैं-नींद में मोहनजोदड़ो की बेआवाज उदासी है और उनकी कविताएं उनके ही शब्दों में ‘किसी स्थान, नदी और अपने लिए बचाई हुई पृथ्वी का स्मरण’ हैं।
यदि हेमन्त शेष से अपनी कविता की कार्यशाला को निरंतर अपने प्रयोगों और प्रश्नाकुलताओं से उर्वर बनाए रखा है किन्तु वृक्षों के स्वप्न और नींद में मोहनजोदड़ो की अभिव्यक्तियां उनके कवि-वैभव की प्रामाणिकता के लिए पर्याप्त हैं। अपनी इस शुरूआती काव्य-कृतियों में ही वे हमारी संवेदना को छू लेने वाले और अपने काव्योद्रेक से संवलित करने वाले एक ‘बड़े’ कवि के रूप में दिखते हैं।
मुझे याद है, ‘रंग अगर रंग है’ में शामिल स्त्री पर लिखी उनकी एक कविता जो ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में भी छिपी, स्त्री के प्रति कृतज्ञता का एक ऐसा काव्यात्मक उदाहरण है जो आसानी से लभ्य नहीं है। हेमन्त शेष उस स्त्री के प्रति आभार प्रकट करते हैं:-
जो सारे संसार को बुहारती है
सम्पूर्ण दुनिया के लिए बेलती है रोटियां
विश्व भर के कपड़े धोती है
अनगिनत पतियों के लिए बिस्तर में लेटती है
असंख्य बच्चों की माँ बनने के लिए
यह कविता अपने अल्प-काया के बावजूद लगभग हतप्रभ कर लेने वाली संवेदना से भरी है। ऐसी ही कृतज्ञता इस संग्रह की ‘बाहर-घर’ कविता में भी है जहाँ कवि ने संसार भर की माँओं और बीवियों के आगे अपना हैट उतार कर रख दिया है।
‘आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी’ के कविता-कोश में चलन से बाहर हो गई चीजों जैसे लालटेन, तांगे, अनिवार्य साहचर्य के उपादानों-मेज, कुर्सी पर कविताओं के अलावा चिड़ियों, कबूतर, लड़कियों और दाम्पत्य पर कई कविताएँ हैं। जहाँ काठियावाड़ के अकाल पर ‘प्रवास काठियावाड़’ कविता ‘कष्ट के लिए क्षमा’ में शामिल ‘काठियावाड़-94’ का ही पुनर्लेखन है जो कवि के भीतर चलती उधेड़बुन और अपनी ही कविता के पुनर्प्रस्तुतीकरण के लिए उसकी अनिवार्य व्यग्रता की ओर इंगित करती है।
पृथ्वी हेमन्त शेष के लिए केवल शब्द भर नहीं है बल्कि वैविध्यपूर्ण जीवन की अनुभूतियों को आंकने के लिए एक महत् तत्व की तरह है जिसकी विराटता में धीरज और सहिष्णुता है तो ‘उसके भीतर छिपे करोड़ों प्रकाशवान दिन’ भी । इसी तरह उसके लिये आकाश ‘एक धारणा नहीं है’, वह ‘हवा की ही तरह एक सच है अनन्त तक जाता हुआ।’ उड़ती हुई चिड़िया के पंखों में वह काल की परछांई देखता है तो चीटियों में प्रगतिशीलता और काव्यात्मकता, और घर से लेकर अध्ययन-कक्ष तक मौजूद गौरेया के भीतर-कभी एक बेबस भरतीय स्त्री का चेहरा भी, जो लगातार ध्यानाकार्षण के लिए फुदकती और सक्रिय रहती है।
हेमन्त शेष इस तरह अपने अगल-बगल की जीवंत चीजों से लेकर बेजान चीजों तक में जीवन-स्थितियों की पूरी छाया देखते हैं और उसे कविता में गूंथने का उपक्रम भी करते हैं और कविता के लिए जिसकी प्रतिबद्धता विस्वसनीयता की हद तक अटल हो, वह हेमन्त शेष जैसा कवि ही कह सकता हैः-
रहूँगा ही
मैं रहूँगा
व्यस्त पृथ्वी के धीरज और
आकाश की भारहीनता में
खनिज की विलक्षणता
पानी की तरलता
आग की गर्मी और
नदियों निरीहता में
पशुओं की पवित्रता और
दिशाओं की दयालुता में
रहूँगा ही मैं
एक शब्द की अजरता अमरता में।
कुछ चीजें अब हमारी स्मृति से धुल-पुँछ कर अतीत का परिचय बन कर रह गई हैं- जैसे ‘ताँगे’ और ‘लालटेन’। तेज पहियों पर दौड़ती शहरी जिन्दगी में ताँगे प्रायः चलन से बाहर हो गए हैं, गो वे छोटे कस्बों, गाँवों, ढाणियों में अब भी होंगे पर बस प्रतीक भर ही। ताँगे उस युग की याद दिलाते हैं जो बीत चुका है। चाबुक खूँटी पर टँग गई है, टापें कहीं खो गई हैं और ताँगों के जर्जर ढाँचे दीमक चबा रही है।
एक कालखण्ड के व्यतीत होने का यह प्रतीकात्मक संकेत है, तो लालटेन की लौ एक विश्वसनीय रोशनी का परिचायक है। आज भले ही लालटेन का जमाना नहीं रहा, पर उसकी रोशनी अभी भी हमारी स्मृति में कौंधती है। कवि कहता है:-
‘ध्वंस और अँधेरे से भरी रात में कोई लालटेन जरूर है हमारे अंदर
जरूरत पड़ने पर जिसे हर सम्भ्रम में
कविता के चकमक से जलाया जा सकता है।’
आज अपनी प्रासंगिकता खो देने वाली लालटेन भले ही कभी सिर्फ हाथ भर दूर की चीजें दिखाती रही हो, पर जीवन भर लोग उस पर बेपनाह भरोसा करते थे। विडम्बना यह है कि आज सिर्फ हमारे भीतर की लालटेन ही नहीं बुझ गई है-आत्मीयता की लौ बुझ गई है, जिसे जलाना लालटेन जलाने से कहीं ज्यादा मुश्किल है।
स्मृतिजीवी कविताओं में मेरी मेज व कुर्सी एक दिलचस्प वृŸाांत-जैसी बुनी गई है किन्तु ‘मेरी मेज’ का कथ्य जहाँ आत्मनेपद में है, ‘कुर्सी’ का कथ्य नितान्त अन्य पुरुष में। मेज से कवि का करीबी रिश्ता है जो उसकी कविताओं का बोझ सबसे ज्यादा ढोती है, जो घर भर में अकेली कवि के अनगिनत दुःखों से वाकिफ है-जिसे देखकर कवि को कटे हुए घायल वृक्ष की याद आती है और जिसकी आत्मा पर वह कुहनियाँ टिकाए एक धड़कते हुए प्रेमपत्र की तरह एक छोटी सी कविता लिख रहा है-इस अत्यन्त संवेदी-कथ्य के बरक्स कुर्सी के कथ्य में उसका चारित्रिक बखान कहीं प्रमुखता से चित्रित हुआ है।
तमाम चारित्रिक गुणों के अलावा कवि उसके निमित किए गए भाषा के विकास पर ज्यादा गौर करता है जिसके चलते कितने ही मुहावरे गढ़े गए हैं और अचरज नहीं कि यदि कुर्सी में किसी भी तरह चिंतन और अभिव्यक्ति की क्षमता होती तो यह जानकर प्रसन्न होती कि मनुष्य के इतिहास-निर्माण में उसका कम हाथ नहीं है। ये दोनों कविताएँ वैचारिक रूप से प्रखर और बौद्धिक तेजस्विता के साथ रची गई हैं।
इन कविताओं के साथ दाम्पत्य-सीरीज की कविताएँ भी ध्यातव्य हैं। दाम्पत्य केवल प्रेम का प्राकट्य ही नहीं बल्कि सहजीवन से उपजी गार्हस्थ्य अनुभूतियों का प्रकाशन है। दाम्पत्य जो कवि के लेखे-‘अब जैसा भी यह जीवन हमारा है’ से शुरू होता है और आँसुओं से शुरू हुए शीतयुद्ध से गुजरते हुए देह के पठारों पर तनिक देर ठहरता और मैथुन की नमी से बिस्तर को जगा देता है।
किन्तु इस बीच ऐसा ही क्षण आता है कि दाम्पत्य में कूट-लेखों की भाषा जन्म ले लेती है, पति गुप्त-लिपियों के आविस्कार में मशरूफ हो जाते हैं, और फिर दाम्पत्य में ऊब का दौर शुरू है-जब हाशिये पर चले जाते हैं दुःख और लगता है कि थियेटर में एक बहुत ही पुरानी रद्दी फिल्म देखी जा रही है या ऐसे भी क्षण आते हैं जब यह सोचना पड़ता है:-

‘हम लोग एक दूसरे के वर्ष खा रहे हैं तश्तरी में
या दाम्पत्य’
दाम्पत्य को कईं कोनों में उधेड़ती-बुनती हेमन्त की इस कविता-सीरिज को पढ़ना बेहद दिलचस्प है। हालाँकि दाम्पत्य के साथ अपत्य की चर्चा यहाँ बिलकुल नहीं है, जिसे होना चाहिये था।
हेमन्त की कविता में रह-रह कर दार्शनिकता आ धमकती है। वे भावुकता में भी कविता में ऐेद्रिय संवेदना जगा लेते हैं। उपसंहार में वे कहते हैं:-
‘चिमनी ऋतुओं की जलती है आजन्म।
और काल का तेल कभी नहीं बीतता।’
(हालाँकि बीतता को खत्म होना या रीतता कहा जाता तो बेहतर होता) और इसी कविता में वे कथा के अंत में अकेले रह गए ईश्वर की मेज पर छूटे हुए अनुŸारित प्रत्र को सबसे कठिन दुःख की संज्ञा देते हैं।
एक जगह (चिड़िया) वे पूछते हैं, ‘काल का कौन सा भाग/एक उड़ती हुई चिड़िया के पंखों का समय होता है ?‘ ऐसी प्रश्नाकुलताओं में उनके दार्शनिक चिंतन के बीच छितरे पड़े हैं। उनकी कविता में समाज को लेकर अनदेखापन नहीं है बल्कि यह यत्र-तत्र मुखर और प्रखर सामने आया है:-
‘समाज कहाँ है समाज/
कविता पूछती है/
और जानती है कि वह एक दारुण त्रस्त अभिशत/
निरपराध आत्मा की तरह अकेली और उदास है।’
हेमन्त शेष जाने-अनजाने छुपके से बड़ी बात कह जाते हैं, जैसे यही कि ‘आँसुओं को चाहिए/ सदैव एक असहनीय दुख।’
यद्यपि हेमन्त शेष एक कविता में कहते हैं कि मुझे अपने लिए अपनी भाषा में किसी चमत्कार की जरूरत नहीं है फिर भी उनके यहाँ चमत्कार कविता में एक अनिर्वाय शर्त की तरह घटित होता है। इसलिए एक कविता का लिखा जाना उनके लिए एक मामूली उपक्रम भर नहीं है। उनका अनुभव बताता है कि एक समय कविता में दहकती नदियाँ, पिघलते हुए पेड़, बच्चों का रोना, शवयात्राओं का हाहाकार, खिलखिलाते हुए फूल-सब कुछ थे पर उनमें कविता की उदासी, उसके शब्दों का कम्पन, उसकी आत्मा की चीख, उसका होना न होना शामिल न थे। लिहाजा कविता का रस सूखना ही था-और इस सच्चाई में जूझते हुए ही उन्होंने जाना कि कविता किसी भी पराई आग और पानी के सहारे नहीं लिखी जा सकती। उसमें आत्मानुभूति की आँच होनी ही चाहिए तभी कविता दूसरों के सुख-दुःख में सरोकार रख सकती है।
हेमन्त शेष ने अब तक के अपने-जीवन में चिड़ियों, लड़कियों और चींटियों और पृथ्वी पर अनेक कविताएँ लिखी हैं, पर वे इन्हें लेकर किसी प्रतीकवाद के वशीभूत नहीं हुए। यथार्थ के अन्वेषण में उन्होंने अति-यथार्थवाद की राह नहीं अपनाई। सीधी किन्तु कवित्वपूर्ण भाषा में उन्होंने कविता को उस ऊँचाई तक पहुँचाया है जहाँ से उसकी आवाज और ऊष्मा का माप स्पष्ट महसूस किया जा सकता है।
पृथ्वी की सम्बोधित शीर्षक कविता की निम्र पंक्तियों पर गौर करें तो जिसे कविता का नैसर्गिक गुण कहते हैं, यहाँ उसका पूर्ण पारिपाक्र मिलता है:-
‘किसी अथाह के भीतर गिरती इच्छाओं के लिए
प्यारी पृथ्वी
यहाँ तुम कुछ देर ठहरो
रूको कि तुम्हें लिखलायी दे
हमारी भाषा
जिसमें हम कपड़े पहन रहे हों
वे दीप्तियाँ जो उसके अर्थ में उपजें और
शब्दों के भेस में तुम्हारे निस्सीम तक पहुँच सकें
रास्ते में मिलेंगी उदारताएँ
वाष्प से बने बादलों की शक्ल में नदियाँ
मिलेगा खार, नमक और किताबें
लोग सागर-तटों पर शीर्षासन करते मिलेंगे
हत्यारे भी मिलेंगे सन्त और कसाई भी
इतना कुछ मिलेगा
कि सब कुछ गड्ड-मड्ड होता जान पडे़गा।’
हेमन्त शेष की भाषा ‘आक्रामक’ नहीं है। वह प्रकृति और जीवनानुभवों के विरल सहकार से उपजी है। हेमन्त की कलाकारिता ने उन्हें शब्द-लाघव और सांकेतिकता का अद्भुत-संस्कार दिया है तो उनकी कूँची ने जीवन की बारीक से बारीक खरोंच को उकेर पाने और फूलों तक में छिपे प्रसन्नचित दुनिया के मंतव्य को प्रकट करने की ऐंद्रिय-क्षमता भी
हेमन्त शेष की कविता रेतीली जमीन पर दूब उगाने की एक कोशिश कही जा सकती है। अनुभवों के कठोर पठारों से गुजरते हुए उनका कवि-मन एक ही क्षण में ब्रहाण्ड के पार तक झाँक लेने की निर्भयता से भर उठता है। कहना न होगा कि ब्रह्माण्ड और पृथ्वी जैसे बिम्बों से वे ऐसे ही खेलते हैं, जैसे कन्दुक क्रीड़ा में निमग्न कोई बच्चा।
किन्तु इस भाषिक खेल में ही उनके यहाँ ऐसी पदावलियाँ आती है जिनमें अनुभव और अनुभूति की मार्मिकता पैठी होती है। तालाब में डूबी लड़की में अभिसार की अनन्त बारिशों में भीगने वाली किन्तु आत्महत्या कर चुकी लड़की के बारे में हेमन्त शेष का कवि-मन महसूस करता है:-
‘उसकी निस्पन्द गीली देह के दालान में उड़ती हैं
सुगन्धित इच्छाओं की चिटियाँ
उनकी बेजान उँगलियों को सिहरा देते हैं कुछ गुलाबी स्पर्श
अक्सर अपनी भाषाहीनता में मुखर होते हैं उसके ठण्डे होंठ
उसकी आँखें पृथ्वी के तकिए पर रखकर अपना सिर
सतत-भाव से आसमान को निहार रही होती हैं ।
और जैसा मैंने शुरू में कहीं कहा है, उनकी कविताओं के जीवन की मार्मिकतापूर्ण छवियाँ और अंतरंगता से महसूस की गई दुनिया है जिसका आस्वादन एक अव्यक्त-परितृप्ति से हमें भरता है। जिसके लिये हेमन्त शेष ने अपने हाल के एक सम्पादकीय (‘कला-प्रयोजन’) में लिखा है, ‘यह सवाल हर समय और हर समाज में प्रासंगिक रहा है कि एक रचनाकार का अपनी रचना, समय, समाज और आलोचना के अलावा अपने आस्वादक से रिश्ता कैसा हो ?’
कहने की जरूरत नहीं कि हेमन्त शेष की ये कविताएँ अपने पाठकों, आस्वादकों और अपने समय से भी एक आत्मीय रिश्ता बनाती हैं और मुझे तो, उनकी शुरूआती किताब-‘वृक्षों के स्वप्न’ जिसे मैने कोई पंद्रह बरस पहले उदयपुर के एक लगभग अज्ञात ‘संघी प्रकाशन’ से खरीदा और उस पर ‘हिन्दुस्तान’ में लिखा भी, को पढ़ कर लगा था कि हेमन्त शेष वास्तव में एक विस्तृत फलक के कवि हैं और तब से लेकर अपनी अनेक कविता-कृतियों में उन्होंने अपने उŸारोतर विकसित होने कवि-व्यक्तित्व का परिचय दिया है। ***
with courtesy from fb.

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