Wednesday, June 8, 2011

जिन खोजा तिन पाइयां...

मैं अक्सर कहता रहता हूँ कि रचना तभी तक लेखक की होती है जब तक वह पाठक के पास नहीं पहुँच जाती. पाठक के पास पहुँचते ही वह पाठकों की हो जाती है. पर इस वक्तव्य के पीछे मेरा ध्येय सिर्फ यह होता है कि लेखक को अपनी रचना से अति मोह नहीं रखना चाहिए न कि ये कि रचना के लेखक का नाम ही विसार देना चाहिए. रचना और लेखक का नाभि- नाल का रिश्ता है और वह नाल के विच्छेदन पर भी बना रहता है, टूटता नहीं. लेखक के रचनात्मक अवदान की समीक्षा इसी तथ्य पर आधारित होती है और अगर इस तथ्य पर समय की धूल जमने लगे तो कभी न कभी एक अप्रत्याशित संशय की स्थिति उत्पन्न हो जाती है.

हाल का एक उदहारण है , श्री शरद जोशी की सुपुत्री और वेब पत्रिका इन्द्रधनुष की संपादिका सुश्री नेहा शरद ने फेसबुक पर एक मनोरंजक चर्चा छेड़ रखी है ये कविता किस कवि कि है -

"लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है, चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है, चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है, जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में, बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो, क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम, संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।"

ज्यादातर लोग निरालाजी और हरिवंश राय बच्चन के बीच झूला झूल रहे हैं. इन्टरनेट पर इसे बच्चन जी की ही बताया गया है जबकि कुछ फेसबुक सदस्यों ने जानकारी दी है कि महाराष्ट्र में ७वीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक में इसे निरालाजी की रचना बताया गया है. सुश्री नेहा शरद ने इसे बच्चन जी नहीं है कह कर नकार दिया है. इसका अर्थ है कि उनके पास अवश्य कोई प्रामाणिक जानकारी है. खैर यह रहस्य शीघ्र ही खुल जाएगा. पर इससे एक बात तो तय हो जाती है कि आम पाठक अथवा आम आदमी में शोध की जो नैसर्गिक प्रवत्ति होनी चाहिए वह बिलकुल कम होती जा रही है.

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अभी पिछले दिनों दुनिया भर में गाई जाने वाली आरती "ओम जय जगदीश हरे" के रचनाकार का नाम मुझ जैसे बहुत से लोगों को पता चला तो हैरानी हुई कि ये रचनाकार श्री श्रद्धाराम फिल्लौरी जी हैं. जो फिल्लौरी जी के वारे में नहीं जानते उनको बता दूं कि फिल्लौरीजी पंजाबी तथा हिंदी के परम प्रतिष्ठित लेखक, समाज सुधारक और ज्योतिर्विद थे. उनका जन्म लुधियाना के फिल्लौर कस्बे के एक ब्राह्मण परिवार में ३० सितम्बर १८३७ को हुआ था.
हैरानी की बात यह है कि जिन फिल्लौरी जी की पुस्तक " पंजाबी बातचीत" को अंग्रेज, ब्रिटिश राज के समय पंजाबी भाषा सीखने के लिए सबसे बड़ा सहारा समझते थे, उन्ही फिल्लौरी जी को, ब्रिटिश राज का विरोधी मानकर, तत्त्कालीन अंग्रेज अधिकारियों ने उनके अपने गृहनगर से कुछ समय के लिए निष्कासित कर दिया था.

फिल्लौरी जी पर गहन शोध करने वाले परम विद्वान डॉ. हरमिंदर सिंह बेदी, डीन एवं हिंदी विभागाध्यक्ष गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी जिन्होंने त्रिखंडीय "श्रद्धाराम ग्रंथावली " का संपादन किया है, का मानना है कि फिल्लौरी जी की रचना "भाग्यवती" जो सन १८८८ में निर्मल प्रकाशन" से प्रकाशित हुई, हिंदी का सबसे पहला प्रकाशित उपन्यास है.

ज्ञातव्य है कि अब तक लाला श्रीनिवासदास के "परीक्षा गुरु" को ( जो सन १९०२ में प्रकाशित हुआ) हिंदी का पहला उपन्यास माना जाता रहा है.

द ट्रिब्यून ( १७ मार्च, २००५/ १७ सितम्बर-१९९८) में प्रकाशित समाचार/लेखों का सन्दर्भ लिया जाए तो भारतीय साहित्य अकादेमी ने भी फिल्लौरीजी के उपन्यास "भाग्यवती" को हिंदी का सबसे पहला उपन्यास माने जाने को मान्यता दे दी है. इस तरह हिंदी साहित्य के इतिहास को और खासकर हिंदी उपन्यास के इतिहास के पुनर्लेखन की दिशा में एक नई पहल हुई है.

स्मरणीय बात यह है कि " भाग्यवती " जेंडर इश्यू के सन्दर्भ में भी एक क्रांतिकारी रचना है क्योंकि इस उपन्यास की केंद्रीय मान्यता ही यही है कि बेटी बेटे से किसी बात में कम नहीं होती.

हिंदी/पंजाबी दोनों भाषाओं में सामान अधिकार रखने वाले फिल्लौरी जी का देहांत २४ जून, १८८१ को हुआ . उनकी अन्य रचनाओं में "सिख्खां दे राज दि विथिया" प्रमुख है.

चित्र सौजन्य :पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी चेरिटेबल ट्रस्ट

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