Wednesday, June 1, 2011

मुसलमान उर्फ आबिद - इकबाल की जुगलबंदी

मुसलमान उर्फ आबिद - इकबाल की जुगलबंदी




(पिछले दिनों फेस बुक पर आबिद भाई से मित्रता हुई तो मैंने उन्हें सूचित किया कि उनके आत्मकथात्मक उपन्यास मुसलमान पर ७ मई १९९५ को अमर उजाला में प्रकाशित अपनी टीप, को स्केन कराकर उन्हें भेजूंगा ताकि सनद रहे. पर काफी समय गुजर गया और वह संभव नहीं हो सका. अब इसे यथावत टाइप सेट कर के अपने ब्लॉग की लिंक के ज़रिये उन्हें समर्पित कर रहा हूँ. लगभग सोलह साल पुरानी टीप का फिलवक्त क्या महत्त्व है नहीं जानता पर इस उपन्यास की मुझ पर क्या प्रतिक्रिया हुई उसकी गवाह है यह टीप. याद आता है कि इस उपन्यास को मेरे एक पत्रकार मित्र सुशील राजेश ले कर आये थे मेरे पास हिंदुस्तान टाइम्स के दफ्तर में और पूछा था- रमेशजी इस पुस्तक पर कुछ लिखना चाहोगे. तब मैं आबिद भाई को सिर्फ ढब्बूजी के ज़रिये जानता था और पुस्तक समीक्षा का अर्थ मेरे लिये सिर्फ एक पाठकीय नज़रिया ही था.)


मुसलमान! शब्द सुनते ही कैसी तस्वीर उभरती है आम आदमी के ज़ेहन में? इसका जवाब देना जितना आसान है उससे कहीं ज्यादा मुश्किल है. यूँ मनुष्य के चारित्रिक गुणों-दुर्गुणों की तरह एक कौम के चरित्र को भी उसके गुण- दोषों को मद्देनज़र रखते हुए आँका जाना चाहिए, पर हमारी विडंबना यह है कि हम चाहते हुए भी अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो

पाते और शायद यही कारण है कि हम किसी के भी बारे में कोई भी फतवा ज़ारी करने से नहीं चूकते. सद्भाव और दुराभाव के बीच सदियों से चली आ रही यह कशमकश आज भी

बरकरार है. हमारा एक भ्रम कांच की तरह टूटता है, बिखरता है तो एक दूसरा भ्रम उसकी जगह ले लेता है.

आबिद सुरती के आत्मकथात्मक उपन्यास "मुसलमान" ऐसे कई भ्रमों को तोड़ने की दिशा में पहल करता है. "तस्कर का मतलब मुसलमान!" यह वहम आज भी पाठकों के एक खास वर्ग के मन में घर कर गया है. जब कि हकीकत यह है कि दो नम्बर के इस काले धंधे में भारत की पंचरंगी जनता का हर रंग मिला है. "हर एक गेंग की रचना धर्मं के आधार पर नहीं, बल्कि उसके सदस्यों की ताकत और उपयोगिता के आधार पर होती है " इस रहस्य को जानने वाले अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं, क्योंकि वे गेंग और हाकिमों के बीच की कड़ी होते हैं.

आबिद का दावा है कि उनके इस उपन्यास में सिर्फ सुरैया (उपन्यास में आबिद की प्रेमिका) का नाम काल्पनिक है, ताकि उसके वैवाहिक जीवन पर कोई असर न पड़े. बाकी सभी पात्र, उनके नाम, समय, तारीख, आदि घटनाएं सच हैं. (शायद यह प्रामाणिक कथन उपन्यास की बिक्री में सहायक हो)

उपन्यास के केन्द्र में है बम्बई (आजकल मुंबई), शहर की बदनाम बस्ती डोंगरी की बदनाम गलियों में पैदा हुए...पले..बढ़े दो बच्चे. दोनों की परिस्थितियां सामान है, संयोग समान हैं, फिर भी एक को उजाले आकर्षित करते हैं तो दूसरे को अँधेरे घेर लेते हैं. एक सर्जक के रूप में विकसित होता है तो दूसरा अँधेरी दुनिया का अदृश्य मानव बन जाता है.

एक का नाम है - आबिद सुरती, दूसरे का - इकबाल रूपाणि "सूफी".

इसमें कोई संदेह नहीं कि आबिद सुरती की आधी-अधूरी आत्मकथा (लेखक के अनुसार -"इस उपन्यास में मैंने बचपन से लेकर शादी तक (१९६५) की अवधि को लिया है. अगले भाग में मैं शादी से लेकर अब तक की अवधि लेना चाहता हूँ) से अमर बेल की तरह लिपटी इकबाल रूपाणि "सूफी" की "तस्कर कथा" उपन्यास के कथा-क्रम को गति प्रदान करती है, पर उसके सकारात्मक पक्ष को कमजोर भी करती है. सूफी की जीवनी में "थ्रिल" है, जिससे आबिद जबरदस्त रूप से प्रभावित लगते हैं, इसीलिए उपन्यास के अंत में दी गई प्रणव प्रियदर्शी की बातचीत में यह पूछे जाने पर कि क्या उन्हें नहीं लगता कि यह उपन्यास तस्करी और तस्कर को "ग्लोरिफाई" करता है, वे स्वीकारते हैं-"ग्लोरिफाई करने का मेरा कोइ इरादा नहीं था. मैंने हर जगह इकबाल के तर्क से अल्लाह पर सारी जिम्मेदारी थोप देने के उनके नज़रिए से अपनी असहमति जताई है. लेकिन उनके चरित्र के दो पहलू हैं. एक तरफ से वह तस्कर हैं तो दूसरी तरफ वे पाँचों वक़्त की नमाज़ पढते हैं, सादगीपूर्ण जीवन बिताते हैं, कुरान का उन्होंने अच्छा अध्ययन किया है. चूंकि यह बायोग्राफी है, कल्पना नहीं, इसलिए उनके चरित्र के किसी भी पहलू को मैं नज़र-अंदाज़ नहीं कर सकता. हो सकता है, इसी कारण उसका पात्र कुछ "ग्लोरिफाई" हुआ हो-जैसे कि आप कहते हैं. वरना ऐसे करना मेरा मकसद नहीं था."

आबिद की यह प्रछन्न स्वीकारोक्ति उनके अंदर पल रही किसी कुंठा की ओर इंगित करती है. आबिद शायद यह जानते हैं कि इस उपन्यास की पठनीयता उनकी अपनी "ऑटोग्राफी पर कम इकबाल की "बायोग्राफी" पर ज्यादा निर्भर करती है. इसीलिये उनकी कहानी इकबाल की जबानी से पिछडती मालूम देती है.अपराध जगत के अँधेरी-उजली तहों को खोलती और वह भी उस दुनिया के प्रामाणिक पात्रों को लेकर (जैसा कि लेखक का दावा है) आबिद की यह कृति भले ही एक मुकम्मल उपन्यास न हो पर एक "रिस्की" कार्य अवश्य है, जिसके लिए आबिद की तारीफ़ की जानी चाहिए.

यूँ आबिद का यह उपन्यास मुंबई के महानगर सांध्य दैनिक में "डोंगरी की भूल-भुलैंया" नाम से धारावाहिक रूप में १९९२ में पहले प्रकाशित हो चुका है , इसलिए इसमें आए कई पात्रों, घटनाक्रमो के सम्बन्ध में अब विवाद पैदा हो, कम ही लगता है पर अगर ऐसा होता है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. जो नहीं जानते, उनके लिए ये जानकारियाँ रुचिकर (और शायद विवादस्पद, असहनीय भी) हो सकती हैं, जैसे -"सबसे पहले गौ हत्या प्रतिबन्ध का ख्याल किसे आया - बाबर को. "गर्ब से कहो, हम हिंदू है" का नारा देने वाले शिव सेना - प्रमुख बाल ठाकरे का निजी अंगरक्षक इदरीस मुसलमान है. "एक वरदा के चले जाने पर उसका स्थान दूसरा वरदा ले लेता है. एक मस्तान के सन्यास लेते ही उसका रिक्त स्थान दूसरा मस्तान भर देता है. एक सरकार के गिरने पर दूसरी सरकार सत्ता ग्रहण कर लेती है. यह काम अपराध जगत में भी चलता है."

एक को दूसरे से फिर दूसरे को तीसरे से स्थानापन्न करते अपराध-जगत के सरगना केवल मुस्लिम कौम में नहीं, हर कौम में मौजूद हैं. दरअसल, गुडों, मवालिओं तस्करों, हत्यारों की कौमें उनके उन्ही नामों से जानी जाती है, जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं.अगर ऐसे नहीं होता टू करीम लाला, इकबाल रूपाणि, हाजी मस्तान और दाऊद इब्राहीम के अलावा सिंह, और डी. के (जिसके सही "इनिशिअल्स" आबिद के.डी बताते हैं) सांप-सीढ़ी के इस खतरनाक खेल के खिलाडी नहीं होते. व्यवस्था की कमजोरियाँ और बर्तमान कानून की कमियाँ जहाँ अपराधियों के मनोबल को ऊंचा करती हैं, वहीँ भ्रष्ट पुलिस एवं राजस्व अधिकारियों की मिली-भगत इस सांप-सीढ़ी के खेल को कभी खत्म नहीं होने देती. भेसडिया जैसे पात्र इसके प्रमाण है. इकबाल रूपाणि का यह बयान कि अपने देश में कभी किसी दोषी को सजा वर्तमान स्थिति में मिल ही नहीं सकती, अपने आप में एक सवाल है. इकबाल के अनुसार, " दोषियों के नाम पर उनके हलके के कुछ लोगों को सज़ा हो जाती है...अलावा इसके अपराध में मुख्य अपराधी का साथ देने वाले कुछ टपोरी (छुटभैये) भी फंस जाते हैं, लेकिन मुख्य अपराधी कभी गिरफ्त में नहीं आता.

अपराधियों को राजनीतिक सरंक्षण दिया जाना हमारे वर्तमान समाज की जड़ें खोखली करने के लिए काफी है. भ्रष्टाचार का परनाला ऊपर से नीचे की ओर गिरता है, यह जानते-बूझते भी हमारी व्यवस्था भ्रष्टाचार का उद्गम नीचे-नीचे तलाशती है. कुल मिलाकर आबिद सुरती का यह आत्मकथात्मक उपन्यास इस दुखती रग पर फिर अंगुली रखता है.

फिल्मों की तरह इस उपन्यास से भी कुछ नौसिखिए अपराधी प्रेरणा ले सकते हैं कि एक हत्या के आरोपी (हमित) को मृतक साबित करके फांसी के तख्ते से कैसे बचाया जा सकता है.

अंत में एक सवाल रह जाता है. आम पाठक आबिद सुरती से पूछ सकता है कि इस उपन्यास का नाम "मुसलमान" क्यों रखा गया? क्या ये नाम "सांप-सीढ़ी" अथवा "डोंगरी की भूल-भुलैयाँ" नहीं हो सकता था? (पर अंततः यह विशेषाधिकार तो लेखक का ही है.)

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पुस्तक: मुसलमान (उपन्यास), लेखक: आबिद सुरती, प्रष्ट: ३६४+११, मूल्य: १७५.०० रुपये, प्रकाशक: आशा प्रकाशन गृह, ३० नाई बालान, करोल बाग, नई दिल्ली-११० ००५.

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