Friday, December 12, 2014

आज बस इतना ही .........13 दिसंबर, 2014


ये माना, उनमें बड़ी जान हुआ करती है।
समुंदरों को भी थकान हुआ करती है।

उछाल भरती हुई लहरें आसमां छू लें
ये चार पल की दास्तान हुआ करती है

शिखर पे जा के खुशी हो बुरा नहीं लेकिन
शुरु वहीं से हर ढलान हुआ करती है।

जो ज़ुल्म सह के भी चुप हैं, ये भूल मत जाना
कि उनके मुँह में भी ज़बान हुआ करती है।

वो दूसरों का दर्द अपना ही समझते हैं
अदीबों की यही पह्चान हुआ करती है।

- रमेश तैलंग

आज बस इतना ही.......12 दिसंबर, 2014




चढते हुए दरिया में हाथ-पाँव मार कर
धुन रह्ती है सवार यही एक- "पार कर!"

जितना सँभालता हूँ ज़िंदगी के सिरों को
चल देती हैं ये आँधियाँ सब तार-तार कर

कंधों को जैसे पड़ गई है रोज की आदत
रखता हूँ नया बोझ पुराना उतार कर

इंसान के बस मे नहीं होता है सभी कुछ
पड़ता है कभी बैठना भी मन को हार कर

जब टूटता है हौसला, कहता हूं ये उससे -
"करना है जो भी अब तू ही परवरदिगार कर!"

- रमेश तैलंग


Saturday, December 6, 2014

आज बस इतना ही ---- 7 दिसंबर, 2014


फ़ल में ही बीज था और बीज में फ़ल था।
इस आज में आता हुआ, जाता हुआ कल था।

जब गौर से देखा तो, चुधियां गईं आंखें
जल में थी अगन और अगन में छुपा जल था।

जिस सूत्र को लोगों ने हंसी में उड़ा दिया
उस सूत्र में जगत का रूप अष्टकमल था।

गूंगे में थी वाचालता, वाचालता में मौन
ये सत्य था कि दृष्टिभ्रम या और ही छल था।

बेचैन रहा जिसको पकड़ने में, सदा मैं
गतिमान काल में कहीं ठहरा हुआ पल था।

- रमेश तैलंग

Friday, December 5, 2014

आज बस इतना ही ---- 6 दिसंबर, 2014




हम बीच सफ़र में हैं अभी क्या भला देंगे।
लौटेंगे किसी रोज़, तो अपना पता देंगे।

आरामगाहों में जो बैठे हैं क्या करेंगे
देंगे दिलासा गमज़दों को, गमज़दा देंगे।

दहशतगरों की फ़ितरत होती ही है कुछ ऐसी
बुझते हुए शोलों को जब देंगे, हवा देंगे


आतंक के साये से अब दूर रहे दुनिया
बस बार-बार दिल से हम एक दुआ देंगे

 
टूटे हुए सपनों को ज़िंदा न कर सके तो
हम याद में उनकी एक शम्मा तो जला देंगे

 
- रमेश तैलंग

Wednesday, December 3, 2014

आज बस इतना ही…… 3 दिसंबर, 2014





घायल हों परिंदे तो उड़ानें नहीं भरते
कमजोर इरादों से मु्कद्दर नहीं बनते


तारीख माँगती है लम्हे-लम्हे का हिसाब
तारीख के साए में बहाने नहीं चलते


अपनी ख़ताओं से जो सबक ले नहीं पाते
मौसम के आने पर भी वे शजर नहीं फलते


इस जिंदगी को जीने का सलीका चाहिए
इक उम्र गुज़र जाती है ये बात समझते


हम हैं अदीब, दर्द बांटने का काम भी
करते हैं तो एहसान की तरह नहीं करते


- रमेश तैलंग

Monday, December 1, 2014

आज बस इतना ही…………2 दिसंबर, 2014


 



तन्हाई से निकल तो नज़र आएगी दुनिया।
वरना अकेला मेले में कर जाएगी दुनिया।

तू बूंद ही सही, मगर वज़ूद है तेरा
तेरे बगैर सोच, किधर जाएगी दुनिया।

परवाह न कर, ज़िंदगी छोटी है या बड़ी
तू ठान ले तो पल में ठहर जाएगी दुनिया।

जीने का हो एह्सास तो जीती है कायनात
गर ये ही न रहा तो मर जाएगी दुनिया।

मुट्ठी में पकड़ रख, नहीं तो देखना इक दिन
आंखों के सामने से गुज़र जाएगी दुनिया।
 

 - रमेश तैलग