Friday, December 12, 2014

आज बस इतना ही.......12 दिसंबर, 2014




चढते हुए दरिया में हाथ-पाँव मार कर
धुन रह्ती है सवार यही एक- "पार कर!"

जितना सँभालता हूँ ज़िंदगी के सिरों को
चल देती हैं ये आँधियाँ सब तार-तार कर

कंधों को जैसे पड़ गई है रोज की आदत
रखता हूँ नया बोझ पुराना उतार कर

इंसान के बस मे नहीं होता है सभी कुछ
पड़ता है कभी बैठना भी मन को हार कर

जब टूटता है हौसला, कहता हूं ये उससे -
"करना है जो भी अब तू ही परवरदिगार कर!"

- रमेश तैलंग


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