Monday, March 31, 2014

राग-विराग जुगलबंदी (कुछ दोहे कुछ गीत) 31-3-2014

वही चुनावी  पैंतरे, वही पुराने झूठ
छाया,फल की आस क्या, उनसे जो हैं ठूंठ

जो दुख मारें और के, वे ही हैं अरिहंत
जो अपना स्वारथ भरें वे काहे के संत 

अधर लपेटे चाशनी, ह्रदय धरें  दुर्भाव
भरें न पूरी जिन्दगी कटु बैनन  के धाव

ज्ञान अहम् का जनक है, विनय ज्ञान का रत्न
जानें जो मानें नहीं सबसे बड़े कृतघ्न

कुए, बावड़ी, ताल सब जितने थे जलस्रोत
मरे शरम  से  देखकर, बोतल पानी ढोत

विद्या के मंदिर बने जबसे धन की खान 
कलपुर्जों में ढल गये  सब जीवित इंसान

हुआ दस गुना मूल से बढ़ते-बढ़ते सूद
देते-देते हो गया खुद का खत्म वजूद 

संघर्षों का आदि है, मगर नहीं है अंत
एक अकेला आदमी, चिंता घणी अनंत

फागुन के रंग में रंगे  फगुआ गावें फाग  
जलधारा के बीच  में, टेसू बरसे आग

मार प्रेम की खा रहे गलियन बीच अहीर 
लट्ठ  चलावें   गूजरीं, ढाल धरे हिय  वीर

बेला, जुही, गुलाब हों या कनेर के फूल 
होरी के इस पर्व  में क्षमा सभी की भूल

कालिंदी केसर हुई, धूरा हुई  गुलाल 
नंदगाँव को स्याम रंग बरसाने में लाल 

नयन गुलाबी, अधर पर मंद-मंद मुस्कान
हुरियारों के हिय लगे गूजरियों के वान 

बरजत-बरजत भी करें रंगों  की बौछार 
ग्वालिनियाँ ये  विरज की   बघ्ी तेज तर्रार

जीवन में घटती बहुत  घटनाएं अज्ञात
कुछ हर्षाती ह्रदय को कुछ देतीं आघात

माथे पर क्या लिख दिया उसने, समझे कौन
नगर ढिंढोरा पीटिये या फिर सहिये मौन

नदी कहाँ है जानती, कहाँ बहेगी धार 
टेढ़े-मेढ़े   रास्ते, उस पर तेज वयार 

कंगूरे नृप हो गए, दास नींव पाषाण
सम रथियों के चोचले,स्वारथ के गुणगान 

Wednesday, March 26, 2014

IT IS NOW TIME TO ACT UPON .........

APPEAL TO THE ACADEMY OF LETTERS (SAHITYA AKADEMI)
NEW DELHI.
On behalf of the members of the World of Children's Literature Group I appeal to the Governing Body of the Sahitya Akademi, New Delhi to note the following points for consideration:
1. To strengthen the relationship of children with good reads, the Academy should increase its budget for publication of quality children books in all genres and enrich its library with a special section devoted to children books in all indian languages with more impetus on Hindi which is our National language.
2. The eminent children writers be encouraged to undertake the project of writing History of children's literature in all indian languages with all out support by Sahitya Akademi.
3. More and More events are supposed to be organised on national/international level to discuss and promote Indian Children Literature and if possible, a bimonthly journal may also be planned to be published by S.A. in due course which carry important articles on creative as well as critical children's literature.
4. Translation of world's modern/contemporary children literature into Indian languages and vice-versa needs to given importance with immediate effect because as of now the children's literature is getting international focus and being the apex literary body of the country S.A. should make its initiative in this direction .
5. Eminent children writers from all important indian languages be invited to form a body of consultants with other govt/non.govt.officials to work on the blue print of the future plans to link up the literature with children's education and their overall personality development. Because Children are the back bone of any civilised society .
With warm regards,
RAMESH TAILANG
09211688748/rtailang@gmail.com
Modrtr: FB GROUP : W.O.C.L.

Wednesday, March 19, 2014

राग-विराग जुगलबंदी (कुछ दोहे कुछ गीत) - 19 मार्च, 2014

सागर में हैं सब भरे  घोंघे, मोती, सीप
भाग बिना कछु ना मिले, डूबो, रहो समीप

लौट-लौट कर आएंगी, करने को उत्पात
तट समझे है खूब अब, इन लहरों की जात

तीन पीढि़यां चल बसीं, फिर भी मिला न न्याय
कथा अधूरी ही रही, बिन अंतिम अध्याय 

घूम रही है रात दिन, फाइल ही सप्राण 
जिसका अटका काज वह, लगता है निष्प्राण

निंदां और स्तुति परे,रहना ना आसान
मन पर कैसें बस रखें, हम ठहरे इंसान

राग-रंग के बीच में  बढ़ा दिनों-दिन मोह
हर्षित-विचलित कर रहे, सबको मिलन विछोह

जो कल था जीवंत अब हैं उसके अवशेष
कभी-कभी इतिहास में आता है उन्मेष 

अनुगूंजें खोई हुई ध्वनियों की पहचान
सुन लेते हैं दूर से ही चैकन्ने कान

खंडहरों में है बसा बीता हुआ अतीत
आकुल मन ही सुन सके  पर ऐसा संगीत

लेशमात्र जिसमें नहीं,  सच्चाई का वास
नहीं किसी के काम का, वह झूठा इतिहास

नृप चाहे कोई बने, रहे किसी का राज
गिरती आई है सदा, जनता पर ही गाज

राजनीति में देखिये  है अब कितना गंद
दीपक की बाती जले और उजाला मंद 

नहीं रही विश्वास के लायक काक जमात 
उनका फोड़ें ठीकरा, जिनकी पातर खात

पड़े  कब्र में पांव, पर पाले सत्ता लोभ
अंधों को कब दीखता युवा शक्ति का क्षोभ  

नीयत बिगड़ी हो गए वैरी अपने मीत 
दुर्जन चालें चल रहे, सहनशील भयभीत

जिए-मरे में हर जगह  पैसे की दरकार
कानों में उंगली दिए बैठा है करतार 

गुनीजनों के गुन हुए निर्गुनियों के दास 
सिर पर धारे मुकुट मणि, घर लाये संत्रास

स्मृतियों में बिंध गये, जाने कितने लोग 
कुछ छूटे, कुछ मिल गये  नदी-नाव संजोग

क्रोध और करुणा बसे, एक ह्रदय आगार 
पर सुभाव में एक अगन,दूजी जल की धार

आँखों के आगे रहा यूँ तो सब संसार 
पर इक्के-दुक्के मिले दुःख के बाँटनहार


Friday, March 7, 2014

8 मार्च की पूर्व संध्या पर : उसकी कविता




उसे हर रोज 
मैं अपने साथ
कविता रचते हुए पाता  हूँ  
जब मैं सोच रहा होता हूँ
कविता का विषय क्या हो
वह सोच रही होती है -
आज घर में क्या पकेगा?
जब मैं चुन रहा होता हूँ
कविता में जड़ने के लिए उपयुक्त शब्द
वह चुग रही होती है
कनियों से भरी थाली में से 
साबुत चावल का एक-एक दाना
जब मैं दे रहा होता हूँ घुमाव 
कविता में जन्म लेती हुई लय को 
वह घुमा रही होती है
चकले पर पडी आटे की लोई
रोटी की शक्ल देने के लिए   
जब मैं काट रहा होता हूँ
लिख-लिख कर अनचाही पंक्तियाँ
वह फेंक रही होती है 
उबले हुए आलुओं से उतारे हुए छिलके 
जब मैं ले रहा होता हूँ
राहत भरी सांस
कविता रचने के  बाद
वह पोंछ रही होती है पल्लू से
माथे पर झलक आया 
बूँद-बूँद पसीना.

- रमेश तैलंग 

Wednesday, March 5, 2014

राग-विराग -जुगलबंदी : (कुछ दोहे कुछ गीत) 5 मार्च, 2014



आज किवरियां न खोल रे!

फागुन में मन डांवाडोल रे!
ए सखि!
आज किवरियां न खोल रे!

बौराई भोर और  
पागल पवन है 
आंखों से दूर बसा 
मेरा  सजन है
ऐसे में कैसी कलोल रे!
ए सखि!
आज किवरियां न खोल रे!

खेलूं होरी कैसे] 
रूह ही प्यासी
रंगों पे छाई है 
आज  उदासी   
भाएं न टेसू के बोल रे
ए सखि!
आज किवरियां न खोल रे!

ताने दे दुनिया जो
विरहा  मैं गाऊं]
तू ही बता  कैसे 
फागुन मनाऊं
वैरी-सा लागे हिंडोल रे! 

ए सखि!
आज किवरियां न खोल रे!

-रमेश तैलंग 






  

Sunday, March 2, 2014

राग-विराग जुगलबंदी (कुछ दोहे कुछ गीत) : 3 मार्च, 2014




मेला कब का उठ गया, सूने हो गए घाट 
अरे बावले, तू खड़ा, किसकी जोहे बाट?

चमक-दमक से जो भरे वे तो  हैं बाजार
सहज,सादगी को बना, अपना  घर-संसार

ना कोई ताला जड़ा, न कुण्डी ही द्वार
बंदिश में रहता नहीं, मुक्त पवन-सा प्यार

देवे जो सो देवता, लेवे सो भिखमंग 
बलिहारी जग की जहां दोनों घूमे संग

भूल चले सब दृश्य और धुंधलाई हर याद
स्मृतियां भी  मांगतीं,  मिटटी, पानी, खाद

स्वारथ की बलि चढ़ गई रिश्तों की रसबेल
मन को चोटिल कर गया यह गुलेल का खेल

पहले, बच्चे की तरह, पालो  हर उम्मीद 
फिर उसको ही टूटते, देखो, खो दो  नींद 

बड़ी-बड़ी सब सह गए कटु बातें  मतिधीर 
एक छोटी -सी बात ने दिया कलेजा चीर

सुकवि.और लेखक सभी निन्दा रस  में दक्ष 
स्याम वरन अब कर रहे  उजला रचना पक्ष

दुनिया को आये  नज़र  कांटो में ही खोट 
पर हमने देखे यहां,  फूल मारते चोट 

Saturday, March 1, 2014

राग-विराग जुगलबंदी -2 मार्च, 2014


चित्र सौजन्य -googal 


- :: गीत :: -

सबके दिन फिरते हैं,
तू क्यों इतना 
निराश मन है रे!

बड़ी-बड़ी 
लहरें तट को छूकर 
रोज गुज़र जाती हैं 
रेतीली 
आकृतियां बनती हैं 
और बिखर जाती हैं 

पर हठी समंदर के 
आगे अपराजित सर्जन है रे!

जीवन का 
हर पल संभावना 
नई लिए आता है  
फूटता नया अंकुर  
जीर्ण पात 
जब भी झर जाता है

संशय में 
हारे मनुष्य का 
आशा आलंबन है रे! 
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