Wednesday, March 19, 2014

राग-विराग जुगलबंदी (कुछ दोहे कुछ गीत) - 19 मार्च, 2014

सागर में हैं सब भरे  घोंघे, मोती, सीप
भाग बिना कछु ना मिले, डूबो, रहो समीप

लौट-लौट कर आएंगी, करने को उत्पात
तट समझे है खूब अब, इन लहरों की जात

तीन पीढि़यां चल बसीं, फिर भी मिला न न्याय
कथा अधूरी ही रही, बिन अंतिम अध्याय 

घूम रही है रात दिन, फाइल ही सप्राण 
जिसका अटका काज वह, लगता है निष्प्राण

निंदां और स्तुति परे,रहना ना आसान
मन पर कैसें बस रखें, हम ठहरे इंसान

राग-रंग के बीच में  बढ़ा दिनों-दिन मोह
हर्षित-विचलित कर रहे, सबको मिलन विछोह

जो कल था जीवंत अब हैं उसके अवशेष
कभी-कभी इतिहास में आता है उन्मेष 

अनुगूंजें खोई हुई ध्वनियों की पहचान
सुन लेते हैं दूर से ही चैकन्ने कान

खंडहरों में है बसा बीता हुआ अतीत
आकुल मन ही सुन सके  पर ऐसा संगीत

लेशमात्र जिसमें नहीं,  सच्चाई का वास
नहीं किसी के काम का, वह झूठा इतिहास

नृप चाहे कोई बने, रहे किसी का राज
गिरती आई है सदा, जनता पर ही गाज

राजनीति में देखिये  है अब कितना गंद
दीपक की बाती जले और उजाला मंद 

नहीं रही विश्वास के लायक काक जमात 
उनका फोड़ें ठीकरा, जिनकी पातर खात

पड़े  कब्र में पांव, पर पाले सत्ता लोभ
अंधों को कब दीखता युवा शक्ति का क्षोभ  

नीयत बिगड़ी हो गए वैरी अपने मीत 
दुर्जन चालें चल रहे, सहनशील भयभीत

जिए-मरे में हर जगह  पैसे की दरकार
कानों में उंगली दिए बैठा है करतार 

गुनीजनों के गुन हुए निर्गुनियों के दास 
सिर पर धारे मुकुट मणि, घर लाये संत्रास

स्मृतियों में बिंध गये, जाने कितने लोग 
कुछ छूटे, कुछ मिल गये  नदी-नाव संजोग

क्रोध और करुणा बसे, एक ह्रदय आगार 
पर सुभाव में एक अगन,दूजी जल की धार

आँखों के आगे रहा यूँ तो सब संसार 
पर इक्के-दुक्के मिले दुःख के बाँटनहार


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