मेला कब का उठ गया, सूने हो गए घाट
अरे बावले, तू खड़ा, किसकी जोहे बाट?
चमक-दमक से जो भरे वे तो हैं बाजार
सहज,सादगी को बना, अपना घर-संसार
ना कोई ताला जड़ा, न कुण्डी ही द्वार
बंदिश में रहता नहीं, मुक्त पवन-सा प्यार
देवे जो सो देवता, लेवे सो भिखमंग
बलिहारी जग की जहां दोनों घूमे संग
भूल चले सब दृश्य और धुंधलाई हर याद
स्मृतियां भी मांगतीं, मिटटी, पानी, खाद
स्वारथ की बलि चढ़ गई रिश्तों की रसबेल
मन को चोटिल कर गया यह गुलेल का खेल
पहले, बच्चे की तरह, पालो हर उम्मीद
फिर उसको ही टूटते, देखो, खो दो नींद
बड़ी-बड़ी सब सह गए कटु बातें मतिधीर
एक छोटी -सी बात ने दिया कलेजा चीर
सुकवि.और लेखक सभी निन्दा रस में दक्ष
स्याम वरन अब कर रहे उजला रचना पक्ष
दुनिया को आये नज़र कांटो में ही खोट
पर हमने देखे यहां, फूल मारते चोट
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