आज किवरियां न खोल रे!
फागुन में मन डांवाडोल रे!
ए सखि!
आज किवरियां न खोल रे!
बौराई भोर और
पागल पवन है
आंखों से दूर बसा
मेरा सजन है
ऐसे में कैसी कलोल रे!
ए सखि!
आज किवरियां न खोल रे!
खेलूं होरी कैसे]
रूह ही प्यासी
रंगों पे छाई है
आज उदासी
भाएं न टेसू के बोल रे
ए सखि!
आज किवरियां न खोल रे!
ताने दे दुनिया जो
विरहा मैं गाऊं]
तू ही बता कैसे
फागुन मनाऊं
वैरी-सा लागे हिंडोल रे!
ए सखि!
आज किवरियां न खोल रे!
-रमेश तैलंग
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