Friday, March 7, 2014

8 मार्च की पूर्व संध्या पर : उसकी कविता




उसे हर रोज 
मैं अपने साथ
कविता रचते हुए पाता  हूँ  
जब मैं सोच रहा होता हूँ
कविता का विषय क्या हो
वह सोच रही होती है -
आज घर में क्या पकेगा?
जब मैं चुन रहा होता हूँ
कविता में जड़ने के लिए उपयुक्त शब्द
वह चुग रही होती है
कनियों से भरी थाली में से 
साबुत चावल का एक-एक दाना
जब मैं दे रहा होता हूँ घुमाव 
कविता में जन्म लेती हुई लय को 
वह घुमा रही होती है
चकले पर पडी आटे की लोई
रोटी की शक्ल देने के लिए   
जब मैं काट रहा होता हूँ
लिख-लिख कर अनचाही पंक्तियाँ
वह फेंक रही होती है 
उबले हुए आलुओं से उतारे हुए छिलके 
जब मैं ले रहा होता हूँ
राहत भरी सांस
कविता रचने के  बाद
वह पोंछ रही होती है पल्लू से
माथे पर झलक आया 
बूँद-बूँद पसीना.

- रमेश तैलंग 

2 comments:

  1. Bhartiya samaj mein nari jivan ki yahi sachchaaii hai lekin ise samajhne wale log bahut kam...

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