Monday, February 20, 2012
जी हां, एक गांव हुआ करता था यहां कभी.
जी हां, एक गांव हुआ करता था यहां कभी.
पहले वह लोगों की स्मृति से लुप्त हुआ
फिर धीरे-धीरे भूगोल से विलुप्त हुआ
जी हां, एक गांव हुआ करता था यहां कभी.
बड़, पीपल, नीम गाछ उसके सहवासी थे
एक नदी के तट पर काबा और कासी थे
गालीं गलियारों की, छींटे मनुहारों के
बाहर कुभासी हों, भीतर सुवासी थे.
जी हां, एक गांव हुआ करता था यहां कभी.
फिर अंदर-अंदर जाने क्या पकने लगा
एक धूल का गुबार सब कुछ ढंकने लगा,
इससे पहले कि कुछ पता चले लोगों को
खान-पान, आचरण सब बदलने लगा
जी हां, एक गांव हुआ करता था यहां कभी.
सरल ह्रदय लोग कुछ सयाने होते गए
पर्व सब ढकोसले पुराने होते गए
वर्षों के नाते अनजाने होते गए
शब्द वही थे, अलग माने होते गए
जी हां, एक गांव हुआ करता था यहां कभी.
छोटा-मोटा धंधा जीवित था जो घर में
वह भी जाता रहा हाथों से, चक्कर में
तप्त सरोवर, सूखे गाछ देख पतझर में
सिमट गया गांव अचानक एक सपने भर में.
जी हां, एक गांव हुआ करता था यहां कभी.
-रमेश तैलंग
चित्र सौजन्य: गूगल
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संस्कृति
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बदलते गांव को रेखांकित करती अच्छी कविता है यह। धन्यवाद।
ReplyDeleteगांवों के वर्तमान हालात को रेखांकित करती सुंदर कविता।
ReplyDelete------
’प्राचीन बनाम आधुनिक बाल कहानी’
’ब्लॉग लेखन और वैज्ञानिक मनोवृत्ति’
छोटा-मोटा धंधा जीवित था जो घर में
ReplyDeleteवह भी जाता रहा हाथों से, चक्कर में
तप्त सरोवर, सूखे गाछ देख पतझर में
सिमट गया गांव अचानक एक सपने भर में.
जी हां, एक गांव हुआ करता था यहां कभी.
शब्द - शब्द सजीव चित्रण करता गांव का ... आभार
समय के साथ बदलते गांव की मार्मिक तस्वीर सामने रखी है आपने तैलंग जी। मैंने एकाध वर्ष पहले ‘मेरा गांव मेरे लोग’ लेखमाला लिखी थी। उसमें पचास-साठ वर्ष पहले का मेरा गांव और मेरे लोग थे। आज गांव जाता हूं तो उसे उसी तरह बदला-बदला सा देखता हूं जैसा आपने अपनी कविता में चित्रण किया है। - देवेंद्र मेवाड़ी
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