Monday, July 9, 2012

दो कमरे का मन -कहानी संग्रह -कलानाथ मिश्र


महानगरीय संत्रास और मूल्यों के संघर्ष को उकेरती कहानियां


समाज एवं परिवार जैसी संस्थाओं के जन्म के साथ-साथ मनुष्य का सामाजिक होना  और उसके इर्द-गिर्द आत्मीय संबंधों का एक विस्तृत अंतरजाल निर्मित होना यदि मानव इतिहास की सबसे बड़ी घटना है तो बाजारवाद, भूमंडलीकरण और तकनीक के विस्तार के साथ-साथ मनुष्य का निरंतर एकाकी, अवसादग्रस्त और असंवेदनशील होते जाना हमारे वर्तमान की उससे भी बड़ी दुर्घटना है.
            विडंबना यह है कि यह सब हमारे सामने घटित हो रहा है और  इस पूरे परिदृश्य को हम न केवल कातर दृष्टि से देखने के लिए विवश हैं अपितु हम इसे आधुनिक जीवन के सामान्य बदलाव के रूप में स्वीकृत भी किये जा रहे हैं. समृद्धि का अर्थ यदि अंदर से खाली होते जाना है तो ऐसी समृद्धि किस काम की? असहिष्णुता और असंवेदनशीलता की दुहरी मार हमारी वर्तमान पीढ़ी को किस खतरनाक मोड़ पर लाकर खड़ी कर चुकी है, यह सोचना ही भयावह लगता है.
कलानाथ मिश्र की ग्यारह कहानियों का सद्यः प्रकाशित संग्रह  'दो कमरे का मन' पाठकों को इसी भयावह स्थिति से दो-चार कराता है. आपा-धापी भरे महानगरीय जीवन में संयुक्त परिवारों की टूटन, पैसा कमाने की होड़, रहने की जगह की सीमितता, दाम्पत्य जीवन के तनाव और अपनी निजता बचाये रखने की मजबूरी जैसे प्रश्न जब समवेत रूप से सामने खड़े होते हैं तो समूची ज़िन्दगी ही खोखली लगने लगती है दो कमरे का मन के कथा-नायक सुदीप का दोस्त तापस जाते-जाते जब सुदीप और उसकी पत्नी सुलेखा के सामने यह सवाल छोड़ जाता है –‘कमरा छोटा होने से क्या दिल भी छोटा हो जाता है? तो बरबस रमेश रंजक की पंक्तियाँ याद हो आती हैं –‘बंधु रे, हम-तुम घने जंगल की तरह होते, नाम भर वाले अगर रिश्ते नहीं ढोते.
रिश्तों की यह टूटन मोक्ष कहानी में और भी ज्यादा उभरकर सामने आती है. बेटे का विदेश चले जाना और वहां की चमक-दमक में खोकर माँ-बाप की वर्षों सुधि न लेना और यही नहीं, निजी धनलिप्सा की पूर्ति के लिए उन्हें उन्हीं की सम्पति से बेदखल कर असहाय छोड़ देना किसी श्राप से कम नहीं, भले ही सुरेश बाबू सहृदयता से उसे मोक्ष नाम दे कर संतोष कर लें.
तेज़ाब कहानी इंसानी आस्था की अकाल मृत्यु का हिला देने वाला ऐसा बयान है जो हमें अंदर तक झकझोर देता है. सेवानिवृत्त कोंस्टेबल बनारसी को जब पता चलता है कि उसके जाली दस्तखत करके उसके नाम पर उसी के बॉस डिप्टी साहेब ने बैंक से क़र्ज़ उठा लिया है तो बैंक के प्रति उसका समूचा आक्रोश धराशायी हो जाता है और वह भावशून्य होकर रह  जाता है. बैंक के कर्मचारी उसकी निरीहता पर व्यंग्य कसते हैं –‘देखो, कल तक उसी डिप्टी साहब के बल पर हम सबों को धमका रहा था बेचारा...! भगवान समझता था उसे, उसी ने धोखा दे दिया.
      पैसा कमाने की होड़ व्यक्ति को किस हद तक असंवेदनशील बनाकर प्रकृति से दूर कर देती है और किस तरह दो पीढ़ियों के मूल्यों के संघर्ष में फलित होती है इसी को उकेरती कहानियां है आम का पेड़ पार्क और अतिथि
धन लिप्सा की यही विद्रूपता और मूल्यों का यही संघर्ष डॉलरपुत्र कहानी में भी देखने को मिलता है हालांकि वहां बालेश्वर बाबू के रूप में पूर्ववर्ती तीसरी पीढ़ी भी मौजूद हैंजो शैलेश बाबू और उनके पुत्र भानूं के चरमराते संबंधों से निराश हो कर अपनी स्थिति पर संतोष कर लेती हैं-शैलेश मुझे खुद पर ईर्ष्या होती है. मैं तुमसे अधिक भाग्यशाली पिता हूं...मुझे लगता है इसमें भानू की भी कोई गलती नहीं. सब समय का खेल है. समय के प्रवाह से कोई बच नहीं सकता. सबको उसके साथ बहना ही है. आज पूरे विश्व में स्पर्धा है, पैसे का बोलबाला है. ऐसे में डॉलर कमाना भी तो एक उपलब्धि है. भानू समय के हाथों विवश है. हो सकता है समय फिर पलटी खाय. पर अभी तुम अपने डॉलर पुत्र के डॉलर प्रेम में ही खुश रहो.
निर्मम कहानी में रिश्तों का अजनबीपन कुछ दूसरी तरह का है जहां राजलक्ष्मी इस बात को नहीं भूल पाती कि किस तरह उसके पिता उसे और उसकी छोटी बहन को उनकी माँ के गुजरने के बाद बचपन में ही देश से कोसों दूर लन्दन के होस्टल में निर्ममता पूर्वक छोड़ गए थे. यह एक घटना ही राजलक्ष्मी को सुजाता में एक नए आत्मीय रिश्ते की तलाश करने को प्रेरित करती है. उसका छिन्न-भिन्न व्यक्तित्व यह कहने को मजबूर कर देता है-क्या करूँ दीदी! मैं तो टुकड़ों में बंट गयी हूं. एक ओर बहन का मोह खींचता है तो दूसरी ओर मात्रभूमि, जन्मस्थान की मिट्टी के मोह...
ज्वार-भाटा कहानी जहां युवावस्था में विधवा हुई तनु के अपनी शिक्षा जारी रखने की मजबूरी और उसके मन की ऊहा-पोह को चित्रित करती है तो सृष्टिचक्र कहानी पारिवारिक जिम्मेदारियों से बचने तथा कम से कम समय में अधिक से अधिक पैसा कमाने के लिए बच्चों को जन्म न देने की प्रवृति पर सटीक व्यंग्य करती है.-डिंक...यानि डबल इनकम नो किड्स.
संग्रह की ही एक और कहानी शिकायत में भी युवा पीढ़ी के मोहभंग और मन की ऊहां-पोह का मनोवैज्ञानिक चित्रण हुआ है.
इसमें संदेह नहीं कि मिश्र जी की इन कहानियों का फलक बड़ा है और उनके अनुभव भी विविध हैं. पर पाठकों  के मन में एक सवाल का उठना स्वाभाविक है पुरानी और नई पीढ़ियों के मूल्यों के जिस संघर्ष और असंवेदनशीलता की भयावहता का बयां ये कहानियां करती हैं क्या वही हमारा अंतिम सच है?
इन कहानियों के लेखक के रूप में मिश्र जी ऐसा कोई दावा कहीं नहीं करते. यूं भी, महानगरों को छोड़ दें तो भारत के ग्रामीण अंचलों में अभी भी आत्मीय संबंधों की गर्माहट, सहजता और सघनता के दर्शन किये जा सकते हैं. हालांकि महानगरीय चमक-दमक और तद्जन्य संत्रास की धमक वहां बहुत पहले से पहुंच चुकी है. पर सब कुछ नष्ट होने के बाद भी बहुत कुछ शेष रहता है. एक रचनाकार की यही आश्वस्ति भी है और  संबल भी.
अंत में अगर इन कहानियों की भाषा पर बात की जाए तो इनमे साहित्य और बोलचाल की भाषा, दोनों का मणिकांचन योग देखा जा सकता है. बोलचाल की भाषा से मेरा तात्पर्य टी-वी और पत्रकारिता की भाषा से बिलकुल नहीं है जहां हिंगलिश का भदेस घालमेल बना हुआ  है.बल्कि मेरा संकेत उस भाषा की ओर है जिसमे स्थानीयता का प्रभाव अपने स्वाभाविक रूप में मौजूद होता है. शायद यही कारण है कि यहां सुलेखा टी.वी ऑन कर रखी थी, कौशल्या के कान में यह यथार्थ का दस्तक था, तुम क्या जानो बेटा क्वालिटी ऑफ लाइफ क्या होता है?, आपकी बैंक से मुझे ---- या रिक्शा आगे निकल चुकी थी, जैसे वाक्य हमें चौंकाते नहीं हैं.



-रमेश तैलंग
e-mail: rtailang@gmail.com

दो कमरे का मन
कहानी संग्रह:लेखक-कलानाथ मिश्र
इन्द्रप्रस्थ प्रकशन के -27 कृष्णा नगर, दिल्ली-110032.
प्रथम संस्करण 2011, मूल्य : 200/- रूपये. 

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