हिंदी बाल कविता ने
अपनी लगभग डेढ़ सौ वर्षो की अनवरत यात्रा में कथ्य, शिल्प और प्रयोग की
दृष्टि से अनेक उपलब्धियां हासिल की हैं और नई संभावनाओं के भी नये गवाक्ष खोले
हैं जिन की चर्चा मैं यहां आगे करूंगा। बस, एक बात मैं आपको पुन: स्मरण दिलाना
चाहूंगा कि जब नदी में बाढ़ आती है तो उसमें जल के साथ अनेक अवांछित तत्व भी बह कर
साथ आ जाते हैं पर जब उस जल को निथार कर प्रयोग में लाया जाता है तो उसका आस्वाद
सदैव मधुर ही होता है। यह बात बाल-कविता
की नदी पर भी लागू होती है और इसका महत्व जांचने के लिए पाठकीय रुचि का भी परिष्कृत होना ज़रूरी
है। अपनी बात को मैं यहां सुप्रसिद्ध गीतकार रमेश रंजक के एक गीत के मुखड़े से
स्पष्ट करना चाहूंगा। उन्होंने लिखा था –“जल नदी का पी, न नल का पी/हो सके तो
सिर्फ़ तल का पी/ अब आप कहेंगे..आजकल तो नल में भी पानी नहीं आता नदी के तल की बात
तो कौन करे। आपका तर्क बिलकुल सही है। पर यह स्थिति आई क्यों, प्रकृति के दोहन की
जगह प्रकृति का शोषण शुरु कर दिया मनुष्य ने..बाल कविता की बात करें तो उसको भी
प्रदूषित करने के सतत प्रयास होते रहे है.. लेकिन प्रकृति जिस तरह “चेक एन्ड
बेलेन्स” की प्रक्रिया द्वारा अपने को संतुलित करती है उसी तरह सर्जना की
प्रक्रिया भी अपने को संतुलित करती रह्ती है।
उत्तरकाशी में आयोजित एक बाल-साहित्य संगोष्ठी मे डा. नागेश
पांडेय “संजय” ने सुरेश सरित की एक बाल-कविता को उद्धृत किया था। कविता थी-“मीठा-मीठा
नारियल का पानी चाहिए/खेलने को परियों की रानी चाहिए/आप करते रहिए परमाणु परीक्षण / हमको अपनी नानी की कहानी
चाहिए” । हम आप जानते हैं कि जब भी हिंदी बाल कविता के धुरंधरों का ज़िक्र
होता है ,सुरेश सरित का नाम उनमें शायद ही कभी किसी के द्वारा लिया जाता हो, नागेश
जैसे व्यक्ति अपवाद हैं , लेकिन अच्छी बाल कविता को अपनी आभा फ़ैलाने से आप किसी तरह नहीं रोक सकते, वह अपना रास्ता
किसी न किसी तरहबना ही लेती है। और यह भी
सत्य है कि अच्छी बाल कविता कितनी भी पुरानी क्यों न हो, उसकी आभा क्षीण नहीं होती। अब देखिए ना- पं.
श्रीधर पाठक की यह तोतली बोली वाली कविता –“बाबा आज देल छे आए/ऊं..ऊं चिज्जी
क्यों न लाए” क्या अब भी बच्चों या बड़ों को कर्णप्रिय नहीं लगती? किसी रचना का
केवल पुराना हो जाना उसकी कमजोरी नहीं , शक्ति भी होता है..
किशोर कविता की अक्सर बात की जाती है।
इस श्रेणी में अभी अच्छी कविताएं कम ही मिलती है। एक किशोर अपने मन की व्यथा किस
तरह अभिव्यक्त करता है, क्या आपने कभी सोचा है? प्रख्यात व्यंग्य एवं बाल कविइ सूर्य कुमार
पाण्डेय की जुबानी सुनिये –“घर में आए हों दोस्त जब मेरे, कम-से-कम आप तब नहीं
डाटें/ अब इसे केवल एक किशोर का अपने
माता-पिता से किया गया आग्रह ही न समझें, यह उस तथाकथित पारिवारिक सत्ता का शालीन विरोध भी है जो आज के समाज में लचर हो गई
है।आज का किशोर मूक कठपुतली की तरह आपके क्रोध, आपकी प्रताड़ना को सहने वाला नहीं।
उसका अपना स्वाभिमान है, उसकी अपनी आकांक्षाएं हैं और यही नहीं, वह अपनी उन दमित
भावनाओं को भी प्रकट करना चाहता है जो पहले की वर्जनाओं के चलते कभी अभिव्यक्त
नहीं हो सकी- सूर्य भान गुप्त के शब्दों में इसका खुलासा देखिए –“गांव भाड़
में जाए मुझे वो लड़की अच्छी लगती
है/गुड्डे-गुड़ियों के रिश्ते की बातें तय करवाने में/उसकी बातें सुने कोई
दादी मां पक्की लगती है/
गत कुछ
दशकों के दौरान हिंदी बाल-कविता में भले ही बहुत-सा कचरा सामने आया है पर इसी दौरान उसने भाषा,
शिल्प और कथ्य की नई ज़मीन भी तोड़ी है। दामोदर अग्रवाल इस क्षेत्र के सबसे अधिक
विलक्षण प्रतिभा संपन्न बाल-कवि हैं। उनकी हर बाल कविता एक उपलब्द्धि है – फ़िर
चाहे वह –“कुछ रंग भरे फ़ूल, कुछ खट्टे-मीठे फ़ल/कोई बांसुरी की धुन थोड़ा
जमुना का जल/कोई लाके मुझे दे” हो या फ़िर
“बड़ी शरम की बात है बिजली बड़ी शरम की बात ”। अनेक लोग कहते हैं बाल-कविता
में बिंबों का रचाव नहीं होना चाहिए, कम-से कम मैं ऐसा नहीं मानता। एक बच्चा अपनी
परिकल्पना में अनेक बिंब रचता है। वह एक ही बस्तु को अनेक रूपों देखता है और यदि
उसकी यह भावना बाल-कवि अपनी कविताओं में प्रकट करते हैं तो इतनी हाय-तौवा
क्यों? दामोदर जी की चर्चित बाल कविता “कोई
लाके मुझे दे” की एक दो और पंक्तियां देखिए जो अपने शिल्प और बिंबों के कारण
ही अनूठी दिखती है –“एक छाता छांव का/एक धूप की छ्ड़ी/एक बादलों का कोट/एक
दूब की छड़ी/कोई लाके मुझे दे/
इन पंक्तियों के लेखक ने
भी कभी एक बाल-कविता लिखी थी जिसमें बच्चे की दृष्टि से एक बादल को अनेक शक्लों
में देखा गया है _ एक बादल झुका मेरी छत पर सुनो, हां सुनो जी सुनो/उस बादल
ने कितने रूप धरे/हां सुनो जी सुनो/खरगोश बना, वह मोर बना/वह सिपाही बना/वह चोर
बना/उस चोर से भैया हम खूब डरे/हां, सुनो जी सुनो।“ अब इस बालगीत की टेक
और अंतरा के शिल्प विधान पर आप विचार करें तो “हां, सुनो जी सुनो” का अर्थ भी समझ
में आ जाएगा।
पिछ्ले वर्ष हिंदी के
लोकप्रिय कवि कृष्ण शलभ मेरे निवास पर आए थे। आप जानते हैं उन्होंने नये-पुराने
कवियों की बाल-कविताओं का एक विशालकाय संकलन “बचपन एक समंदर “ संपादित किया
है और अब वे शिशुगीतों का ऐसा ही वृहत संकलन निकालने का अथक प्रयास कर रहे है। इस
दुष्कर कार्य के सिलसिले में वे जब मेरे पास आये तो उनके पास “पराग” पत्रिका के
पुराने अंकों में प्रकाशित सैंकड़ों शिशुगीतों की फ़ोटोकापियां थीं – मैं देख कर
हैरान था कि “पराग” जैसी नई डृष्टि वाली प्रयोगशील बाल पत्रिका में प्रकाशित
शिशुगीतों मे लगभग 90 प्रतिशत वे थे जो चूहे और बिल्ली पर लिखे गए थे। शायद यही
कारण है कि उनमें बहुत से “टायप्ड” भी हो गए थे। आखिर आप चूहे बिल्ली को लेकर
कितने अनूठे शिशुगीत लिख लेंगे? पर यह समस्या केवल हिंदी में ही नहीं, अंग्रेजी में भी इसी तरह मौज़ूद है..वहां भी केट
एन्ड माउस को लेकर नर्सरी राइम्स की भरमार है। तो यह जो अतिरेक है वह बाल-कविता को
कमजोर बनाता है। मौसमी बाल-कविताओं के साथ
भी यही खतरा है जिनकी हर भाषा में भरमार है। हां, अच्छी कविताओं के कुछ अपवाद हो
सकते हैं और वे हर जगह होते हैं और जहां हैं, उनकी विशेषताओं को रेखांकित भी किया
जाना चाहिए।
आप जानते हैं कि बच्चों का
संसार भी वही है जो बड़ों का है। बस, उस संसार को बच्चों द्वारा देखने की दृष्टि अलग होती है जिसे बाल-कवि को परखना होता
है। बाल साहित्य सृजन में आप क्या कह रहे हैं, यह कम महत्व का है, आप किस तरह कह
रहे, यह ज्यादा महत्वपूर्ण है। बाल-मनोविज्ञान की परख यहीं कसौटी पर कसी जाती है।
कुछ रचनाएं, संभव है, बच्चों की समझ के ऊपर चली जाएं, लेकिन यहां थोड़े धैर्य की
ज़रूरत है। सिर्फ़ इसी बिना पर सुंदर बाल-कविताओं या बाल-गीतों में परिवर्तन की अपेक्षा
करके आप उनकी आत्मा ही नष्ट कर सकते हैं। अच्छा संगीत बाल-गीत को समृद्ध भी बनाता
है और गौड़ भी। यू-ट्यऊब पर चले जाइये, आप्को फ़र्क समझ में आ जाएगा। कवि-गीतकार
योगेन्द्र दत्त शर्मा का एक बाल गीत है-“ लौटकर वनवास से जैसे अवध मे राम
आए/साल भर के बाद ऐसे ही अचानक आम आए/ छुट्टियों के दिन, उमस, लू से भरे होने लगे
थे/हम घनी अमरियों की छांह में सोने लगे थे/मन मनौती-सी मनाता था कि जल्दी घाम
जाए/” अब आप इस बाल-गीत के कथ्य
और शिल्प का रचाव और कसाव देखिए और “घाम” जैसे देशज शब्द का सटीक प्रयोग भी देखिए।
यह एक समन्वित प्रयोग है जो किसी तुकबंदी पर आश्रित नहीं है..। ऐसी बाल-कविताएं सचमुच
हमारी बहुत बड़ी उप्लब्द्धि हैं।
बाल-कविताऒं में हास्य और
नटखट्पन को ले कर भी अनेक प्रयोग हुए हैं । उनमें कुछ बहुत अच्छे हैं तो कुच्छ
हास्यास्पद हो गए हैं। यही हाल उन बाल कविताओं का भी है जो जबरन
विज्ञान के विषयों को लेकर लिखी गई हैं। जहां यह स्वाभाविक रूप से किया गया है
वहां ठीक है लेकिन जहां मात्र सूचनाओं के साथ तुकबंदी की गई है वहां स्थिति
हास्यास्पद हो गई है।
बहुत अच्छा लेख।
ReplyDeleteसुन्दर आलेख
ReplyDeleteकई दिनों बाद फिर से .. ऐसे ही सक्रियता देख अच्छा लगता है ! लगे रहो भाई साब....बाल साहित्य पर आपका ज्ञान से हम भी कुछ पते ही हैं !!
ReplyDeleteसुन्दर लेख
ReplyDeleteसुन्दर लेख
ReplyDeleteसुन्दर लेख
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 5 मार्च 2016 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!