गुज़रा ज़माना –गर्भनाल से सभार
प्रख्यात कवि, कथाकार, आलोचक तथा बालसाहित्यकार डा. प्रकाश मनु से मेरी
मुलाकात 1989 के आसपास कस्तूरबा गान्धी मार्ग- नई दिल्ली स्थित हिंदुस्तान टाइम्स
हाउस के तृत्तीय तल पर हुई थी और वह भी मेरे वरिष्ठ साहित्यकार मित्र देवेंद्र
कुमार (नंदन पत्रिका के तत्कालीन सहायक संपादक) के माध्यम से। तीनों के मिलने का
नतीजा था “हिदी के नये बालगीत” जिसमें हम तीनों मित्र कवियों की चुनी हुई बालकविताएं शामिल थीं। इसका प्रकाशन हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा दी गई अनुदान राशि से संभव हुआ था
और इस पुस्तक के आवरण सहित सभी मनमोहक चित्र प्रख्यात चित्रकार, लेखक, हरिपाल
त्यागी ने बनाए थे।
त्यागीजी के सादतपुर निवास पर जाने के लिये प्रकाश मनु के
साथ तब मैने काफ़ी पदयात्रा की थी। हालांकि त्यागी जी से हमारी यह पहली मुलाकात थी
पर उन जैसे सरलचित्त कलाकार से मिलकर हमें अच्छा बहुत लगा था। उन्होंने अपनी कुछ कलाकृतियां भी हमें दिखाई थीं और दाल-रोटी
का स्वादिष्ट देसी भोजन भी कराया था। यह एक संयोग ही था
कि उस दिन वहां बाबा नागार्जुन भी आ गए थे और
उनसे सभी की बतकही शुरु हो गई थी। मैंने अपनी डायरी उनके सामने रखते हुए
कहा था “-बाबा आप इसमें अपनी हस्त्लिपि में कुछ लिख दीजिये तो उन्होंने स्नेहवश अपनी
एक मशहूर कविता की तीन पंक्तियां लिख दीं – “अगर कीर्ति का फल चखना है, कलाकार ने फिर-फिर सोचा, आलोचक को खुश रखना है”
कुल
मिलाकर यह एक सुखद दिन बीता था। प्रकाश मनु से हुई एक-दो मुलाकातों में ही मुझे
लगने लगा था कि मनु अतिवादी व्यक्ति हैं। मेरी यह धारणा आज भी कमोबेश रूप में
बरकरार है। चाहे लिखने की ऊर्जा हो या फ़िर बोलने की, चाहे आक्रोश की मुद्रा
हो या फ़िर विनम्रता की, चाहे फ़कीराना
वेशभूषा हो या फ़िर शाहाना (शाहाना शब्द से यहाँ “जिसको कछु नहीं चाहिये वह है
शहंशाह” वाला भाव ग्रहण करें तो आसानी होगी) मनु अपनी उपस्थिति का एहसास सामने वाले
को अवश्य कराते रहते हैं। आज के तथाकथित भद्र समाज में करीब-करीब “मिसफ़िट” मनु देखने-दाखने मे सचमुच “फ़िट” लगते हैं पर उनके पूरे व्यक्तित्व
को समझना टेढ़ी खीर है। वे क्षणे तुष्टा-क्षणे रुष्टा की मुद्रा साधे
रहते है। आक्रोश निकालते हैं तो सामने वाले को बोलने भी नहीं देते और विनम्र होते
हैं तो उन्हें खोजने के लिए सूक्ष्मदर्शी की ज़रूरत पड़्ती है।
मनु ने
उपन्यास, कहानी, कविता, आलोचना, और बालसाहित्य सभी विधाओं मे विपुल लेखन किया है।
पर मेरी अपनी दृष्टि में मनु का गद्य उनकी कविताओं से ज्यादा प्रभावित करता है।
इसका यह अर्थ नहीं कि उनकी कविताएं सामान्य स्तर की हैं पर गद्य में वे कविताओं से
ज्यादा खुलते है, खासकर अपनी तेजतर्रार समीक्षाओं में जिनके कारण उन्होंने न जाने
कितने स्वनामधन्य साहित्यकारों को कुपित किया। समीक्षा कर्म कोई बहुत भला काम
नहीं। अच्छी-बुरी, हल्की-भारी सभी तरह की रचनाओं को पढ़ना पड़ता है और स्वयं की
रचनात्मकता की भी बलि देनी पड़ती है। मनु ने एक बार बताया था कि शैलेश मटियानी की
भारी-भरकम किताब “बर्फ़ की चट्टानें” पर समीक्षा लिखने के लिए एक प्रतिष्ठित पत्र ने (जो दुर्भाग्य से अब बन्द हो
चुका है) सिर्फ़ पचहत्तर रुपये भेजे थे। एक किताब, जिसको पचाने में मनु ने अपनी तीन
रातें जलाकर खाक कर दीं उसका पारिश्रमिक एक संपन्न घराने के पत्र द्वारा पचहत्तर
रुपये आंकना आश्चर्य में डालता है। पर एक तरह से यह उन पत्रों से ठीक था जो
संसाधनों तथा आर्थिक स्रोत के होते हुए भी लेखक के पारश्रमिक को दबा जाते हैं। खैर,
यह एक इतर विषय है और इस पर चर्चा करना यहाa समीचीन नहीं
है।
मनु
के बारे में, उनके अंतरंग मित्रों की धारणा है कि वे किसी काम पर जुटते हैं तो
धुनी की तरह जुटते हैं। देवेन्द्र सत्यार्थी पर किया गया उनका काम इसका प्रमाण है। कहने को सत्यार्थी जी पर
प्रकाशित उनकी अनेक पुस्तकें संपादित हैं पर उनमें लिखी गईं लंबी-लंबी भूमिकाएं
स्वयं में एक किताब से कम नहीं जो
सत्यार्थी जी के अंतरंग जीवन की कितनी ही अंधेरी-उजली परतें उघाड़ती हैं। हालांकि
मनु ऐसा कोई दावा नहीं करते पर देवेन्द्र सत्यार्थी के साहित्य को पुनर्जीवित करने
में निश्चित रूप से मनु की बहुत बड़ी भूमिका रही है। एक बार जब उनसे पूछा गया कि वे
सत्यार्थी जी पर कब तक लिखते रहेंगे तो उनका कृतग्यता भाव से भरा उत्तर था – “जीवन भर!”
मनु
को उनके वयस्कसाहित्य तथा बाल-साहित्य दोनों के लिये अनेक शीर्ष पुरस्कारों से
नवाजा जा चुका है पर आरंभ से ही वे पुरस्कारों से (खासकर सरकारी संस्थाओं के या
फ़िर उन गैरसरकारी संस्थाओं के जो आदान-प्रदान की छद्म नीति की आड़ में पुरस्कृत
करते हैं) बचते रहे हैं! उनकी काव्यकृति “छूटता हुआ घर” को जब स्व- गिरिजा कुमार माथुर की
स्मृति में स्थापित प्रथम पुरस्कार के लिये चुना गया तो मनु को यूं लगा जैसे
पुरस्कार के लिए उन्हें घेर लिया गया हो। आनन-फ़ानन में उन्होंने घोषणा कर डाली कि
वे इस पुरस्कार की संपूर्ण राशि का दबे-पिसे, संघर्षशील नये कवियों के काव्यसंकलन
को प्रकाशित करने के लिये उपयोग करेंगे और उन्होंने “सदी के आखिरी दौर में” (जो दस नये, लगभग
अनजान कवियों की कविताओं का संकलन था) निकाल कर ऐसा किया भी।
मनु
का पहला उपन्यास “ये जो दिल्ली है” जब लिखा जा रहा था तो उनसे उपन्यास की विषयवस्तु, पात्रों तथा उपन्यास के
परिवेश पर घंटों का संवाद मेरी स्मृति में अभी भी ताजा है। “सत्यकाम”, “राजधानी प्रेस” और न जाने कितने नामों की सीढियां
लांघता अंत में “ये जो दिल्ली है” पर आकर अटक गया यह उपन्यास। धराशायी
होते पत्रकारिता के मूल्यों और मानदंडों पर लिखा गया यह एक विवादास्पद उपन्यास
साहित्यिक अखाड़ेवाजी में उस तरह चर्चित नहीं हुआ जिस तरह होना चाहिए था। ऐसा नहीं
कि मनु को इस सबसे पीड़ा नहीं होती पर वे इसे प्रकट न करते हुए एक मुकाम पर पहुंचने
के बाद दूसरे की खोज में निकल पड़ते हैं। यही कारण है कि लाख निराशाओं के बीच घिरे
रहने के बावजूद वे हताश नहीं होते।
उनके बाद के दो
उपन्यास “कथा सर्कस”, और “पापा के जाने के बाद” भी, जो क्रमश: साहित्य एवं कलाजगत में
व्याप्त अनेक चालाकियों पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी तथा एक संघर्षशील कलाकार के
स्वाभिमान तथा मृत्योपरांत उसकी पारिवारिक पीड़ा को मार्मिकता से अभिव्यक्त करते
है, आज लगभग गुमनामी का दंश झेल रहे हैं।
मनु
ने अपनी साहित्यिक यात्रा के बीच अनेक नामी-गिरामी साहित्यकारों के साक्षात्कार
लिये हैं जो मणिका मोहिनी के सम्पादन में निकल रही पत्रिका “वैचारिकी संकलन” में प्रकाशित हुए थे। बाद में
इनका प्रकाशन “मुलाकातें” नाम से अभिरुचि प्रकाशन द्वारा पुस्तक रूप में भी हुआ। इनमें से कुछ
मुलाकातों में मैं भी मनु का सह्भागी और साक्षी रहा। मुझे याद है, एक बार सन 1996
में हम दोनों जगदीश चतुर्वेदी का साक्षात्कार लेने उनके लारेंस रोड नई दिल्ली
स्थित निवास पर गए थे। पूरा दिन बिताकर जब हम शाम को पांच बजे उठे तो सोचा, चलो,
अब हम दोनों ठीक समय पर अपने-अपने घर पहुंच जाएंगे। लेकिन मनु जी कमरे से
निकलते-निकलते भी दरवाजे पर ही घंटों बतियाते रहे और मेरी टोका-टोकी को नजर अंदाज
करते रहे। समय निकलता गया और जब हम चतुर्वेदी जी के निवास से बाहर आए तो मनु जी को
चिंता लगी कि हज़रत निज़ामुद्दीन पहुंचने तक उनकी फ़रीदाबाद जाने वाली आखिरी लोकल ट्रेन भी कहीं न निकल जाए। और फ़िर
हुआ भी वही। अब उन्हें अपनी पत्नी सुनीता तथा दो बच्चियों के घर पर अकेले होने की
चिंता लग गई। आखिर अपने आग्रह पर मैं उन्हें उस रात्रि, ये आश्वस्ति देकर कि
सुबह_सुबह मैं उन्हें फ़रीदाबाद की पहली गाड़ी पकड़ा दूंगा, अपने घर शकरपुर ले आया।
भोजनोपरांत जब हम बिस्तर पर पड़े तो मनु जी शायद ही पूरी रात सो सके हों। सुनीता का
बच्चियों के साथ अकेले रहना उन्हें लगातार चितित कर रहा था। ठंड का मौसम था, सुबह
कोहरा बना हुआ था पर मनु जी ने मुझे ठीक पांच बजे उठा दिया. हाथ मुंह धोकर मैं
उन्हें वेस्पा स्कूटर पर बैठाकर मिन्टो ब्रिज स्टेशन के लिये निकल पड़ा. सर्दी के
कारण हाथ लकड़ी की तरह अकड़े जा रहे थे। राउज अवेन्य़ु (दीनदयाल उपाध्याय मार्ग) पर
सड़क के बीच मैनहोल सतह से नीचे होने के कारण स्कूटर कई बार उछलता जा रहा था, और
आसपास कुछ वाचाल कुत्ते भी भूंक रहे थे।
बहरहाल, हम किसी तरह गंतव्य पर पहुंचे और मनु जी ने सुबह-सुबह की अपनी गाड़ी पकड़ी।
इस बात का हमें संतोष हुआ था पर सर्दी के कारण उस कोहरीली सुबह में मेरी जो हालत
हुई थी उसके लिये मैं मनु जी को आज भी कुछ कोफ़्त के साथ याद करता हूं।
लेकिन
उनका आभारी भी हूं कि साहित्य की दुनिया में थोड़े-बहुत पैर जमाने मे जिन शख्सियतों
ने मेरी मदद की उनमें देवेन्द्र कुमार और प्रकाश मनु दो मित्रों का बहुत बड़ा हाथ
रहा है। हम तीनों ने हिंदुस्तान टाइम्स हाउस के आसपास एक साथ इतनी दोपहरें और
शामें बिताई हैं कि हमारा आत्मिक संबन्ध अनेक अंतर्विरोधों के बावजूद आज भी यथावत
अटूट बना हुआ है।
देवेंद्र
सत्यार्थी मनु के कथागुरु रहे हैं और मनु उनके स्नेह्भाजक भी। मनु के ज़रिये ही
मेरी भी सत्यार्थी जी से उनके जीवन काल में यदा-कदा भेंट हुई है। एक बार दुर्ग से
प्रकाशित “सापेक्ष” पत्रिका के संपादक महावीर अग्रवाल के आग्रह पर मुझे सत्यार्थी जी से “कबीर” पर साक्षात्कार लेना था। ज़ाहिर है
कि यह कार्य मनु के सहयोग से ही संपन्न हो सका था। उन्होंने सलाह दी थी कि
सत्यार्थी जी से सीधे-सीधे सवाल-जवाब की आशा मत रखना बल्कि उन्हें अपने आप ही बोलने देना। फ़िर उसी
में से सवाल-जवाब बना लेंगे। मनु जी की बात को ध्यान में रखते हुए मैं सत्यार्थी
जी के रोहतक रोड स्थित निवास पर जा पहुंचा। सत्यार्थी जी उस समय बीमार चल रहे थे
और उन्हें ज्यादा बोलने में भी तकलीफ़ हो रही थी। सत्यार्थी जी की पत्नि श्रीमति
शांति सत्यार्थी, जो लोकमाता के नाम से प्रसिद्ध थीं, उनकी सेवा-सुश्रूषा में लगी
थीं। ऐसे माहौल में वह साक्षात्कार शुरु हुआ और मनु जी की चेतावनी भी वहीं सच हो
गई। बीच-बीच में वह बोलते हुए पटरी से उतरते रहे और कबीर की जगह वह मुझे लाहौर की
अनारकली की सैर कराते रहे, डा. इकबाल और साहिर के किस्सों के बीच घुमाते रहे। जब
मैंने उन्हें कबीर के बारे में चेताया तो बोले –“हां मै उन्हीं के बारे में ही कह
रहा था.... और फ़िर ये अनोखा साक्षात्कार आदिग्रंथ तथा खुशबंत सिंह के संदर्भों के
साथ संपन्न हुआ. इस बीच वे बार-बार पूछ्ते रहे – “मनु के क्या हालचाल हैं...आप
हिंदुस्तान टाइम्स हाउस की किस मंजिल में बैठते हैं...मेरी तबीयत आजकल ठीक नहीं
रहती है...क्या आपके पास भीष्म साहनी की नाट्य रचना- कबिरा खड़ा बाजार में” की कापी है, हो तो भिजवा देना।
मैं उसे पढ़ना चाह्ता हूं”
मनु के ऊपर
देवेंद्र सत्यार्थी और शैलेश मटियानी के व्यक्तित्व का काफ़ी प्रभाव पड़ा है इससे
इन्कार नहीं किया जा सकता। “यह जो दिल्ली” है के नायकीय चरित्र सत्यकाम में कुछ हिस्सा सत्यार्थी जी के चरित्र का भी
रहा हो तो आश्चर्य नहीं हालांकि कथा साहित्य में सृजित चरित्र बहुत ही संश्लिष्ट होते
हैं और उनमें किसी व्यक्ति का आरोपण करना दूर की कौड़ी फ़ेंकने से ज्यादा नहीं होता।
एक और घटना याद
आ रही है, जब मनु, मैं और शैलेन्द्र चौहान कथापुरुष शैलेश मटियानी से दिल्ली के
गोविन्द वल्लभ पंत अस्पताल में बातचीत करने गये थे। यह शायद जगदीश चतुर्वेदी से
लिये गए साक्षात्कार के लगभग एक महीने पहले का समय रहा होगा यानी नवंबर, 1996 का
कोई दिन। मटियानी जी उस समय भयंकर मानसिक पीड़ा के आघात से थोड़ा-सा उबरे थे और
बातचीत करने के लिये मनु को शायद स्वयं ही आमंत्रित कर लिया था। इसलिये यह
साक्षात्कार उस सुखद माहौल में नहीं हुआ था जैसी सुखद स्थिति चतुर्वेदी जी के
साक्षात्कार के समय रही थी.। कारण स्पष्ट थे। चतुर्वेदी जी के साथ गुज़रा दिन
ठहाकों से भरा था और मटियानी जी के साथ का समय उत्तेज़नाओं तथा कुछ-कुछ विषाद मे
लिपटा हुआ। मटियानी जी को अस्पताल में जो कमरा मिला था उसमें मटियानी जी की पत्नि
तथा बेटा राकेश भी साथ थे। मटियानी जी ने उस साक्षात्कार में अपनी रचनाओं, तथा
साहित्यिक अनुभवों के साथ-साथ अपनी जानलेवा बीमारी एवम जीवन के कुछ अछूते निजी
प्रसंग हम सब से साझा किये थे। मनु तथा शैलेन्द्र चौहान की तो शायद मटियानी जी से मुलाकात पहले भी हो चुकी थी पर मेरी उनसे यह
पहली मुलाकात थी और उसी दिन मुझे पता चला था कि मनु को वे कितना अगाध स्नेह और
सम्मान देते थे। बचपन से ही संघर्ष और पलायन की विपदा झेलने वाले शैलेश मटियानी,
जो अपने रचनाकर्म के बल पर (आत्म्श्लाघा वश नहीं) स्वयं को प्रेमचंद के बाद का
सबसे बड़ा कहानीकार मानते थे, से मिलना हमारे लिये एक विरल अनुभव था। हालांकि,
देवेन्द्र सत्यार्थी, नागार्जुन आदि की तरह मटियानी जी द्वारा की गई परिवार की
उपेक्षा से उनकी पत्नि तथा पुत्र दोनों ही दुखी दिखे लेकिन पंत अस्पताल में बीत
रहे वे दिन सेवा करने के दिन थे गिले-शिकवे करने के नहीं। मनु स्वयं बहुत भावुक हैं।
और हम दोनों भी इसके अपवाद नहीं थे, इसलिये मटियानी जी जब भी अपनी
विक्षिप्तावस्था, असहनीय मानसिक पीड़ा तथा पारिवारिक चिंताओं की चर्चा करते तो हम
सब की आंखें भर आतीं!
विपरीत
परिस्थितियों में हमारी सह्भागिता सहित मनु द्वारा लिया गया मटियानी जी का यह साक्षात्कार
उनके द्वारा लिये गए साक्षात्कारों मे सबसे अधिक लंबा था। “मुलाकात” पुस्तक के 57-58 प्रष्ठ घेरे थे उसने। यह वह समय था जब प्रकाश मनु द्वारा लिये गए
साहित्यकारों के लंबे-लंबे साक्षात्कार, वह भी बिना रेकार्ड किये, काफ़ी चर्चा का विषय बन चुके थे और जिनसे मनु की
एक अलग ही पह्चान बनी थी।
एक दो साक्षात्कारों पर विवाद भी खडा हुआ था। एक बड़े साहित्यकार ने तो अपने साक्षात्कार में कही गई कुछ बातों को सिरे से नकार दिया था और सारा दोष मनु की भंग-स्मृति पर डाल कर मुक्त हो गये थे। इससे मनु कुछ दिनों तक काफ़ी विचलित रहे थे। इस संदर्भ मे मुझे कन्हैयालाल नंदन द्वारा लिये गए जैनेंद्र कुमार के एक साक्षात्कार का स्मरण भी आ रहा था जिसमें जैनेंद्र जी द्वारा नकारी गईं कुछ बातों का प्रमाण नंदन जी ने जैनेंद्र जी द्वारा हस्ताक्षरित पांडुलिपि को प्रकाशित कर के दिया था। जबकि मनु ने ऐसी सावधानी शायद कभी नही बरती और न ही उनके किसी साहित्यकार से प्रकटत: ज़रूरत से ज्यादा कटु संबंध बने।
एक दो साक्षात्कारों पर विवाद भी खडा हुआ था। एक बड़े साहित्यकार ने तो अपने साक्षात्कार में कही गई कुछ बातों को सिरे से नकार दिया था और सारा दोष मनु की भंग-स्मृति पर डाल कर मुक्त हो गये थे। इससे मनु कुछ दिनों तक काफ़ी विचलित रहे थे। इस संदर्भ मे मुझे कन्हैयालाल नंदन द्वारा लिये गए जैनेंद्र कुमार के एक साक्षात्कार का स्मरण भी आ रहा था जिसमें जैनेंद्र जी द्वारा नकारी गईं कुछ बातों का प्रमाण नंदन जी ने जैनेंद्र जी द्वारा हस्ताक्षरित पांडुलिपि को प्रकाशित कर के दिया था। जबकि मनु ने ऐसी सावधानी शायद कभी नही बरती और न ही उनके किसी साहित्यकार से प्रकटत: ज़रूरत से ज्यादा कटु संबंध बने।
बीस-पच्चीस वरस
पहले के और आज के प्रकाश मनु को देखता हूं तो मुझे दोनों में काफ़ी कुछ परिवर्तन
नज़र आता है। ज्यों-ज्यों मनु का रचनात्मक
कद बढा है, उनके अंदर की विध्वंसात्मक ऊर्ज़ा शांत होती गई है। एक परिवर्तन यह भी
आया है कि वे जबसे बालसाहित्य सृजन की ओर उन्मुख हुए हैं, उन्होंने अपने आप को
बालसाहित्य की धारा में ही संपूर्णत: बहा दिया है।
बालसाहित्य की
लगभग सभी विधाओं में मनु ने विपुल मात्रा में लेखन किया है और अभी भी कर रहे हैं।
आलोचना के क्षेत्र मे हिंदी बाल कविता का इतिहास, हिंदी बाल साहित्य-नई चुनौतियां
और संभावनाएं जैसी गंभीर विवेचनात्मक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं और शीघ्र ही उनके
द्वारा कई वर्षों तक लिखा गया “हिदी बाल साहित्य का इतिहास” भी अब पाठकों के सामने आने वाला है।
मनु की अथक
रचनात्मक ऊर्जा के पीछे उनकी लेखिका पत्नी
डा- सुनीता की सतत शक्ति रही है, और मनु की रचनाओं की सबसे पहली पाठक और आलोचक भी
वे ही रही हैं। मनु की रचनाओं की तुलना में सुनीता की प्रकाशित कृतियां कम हैं पर
उनमें जो गंवई महक और पारिवारिक जीवन के आत्मीय सम्बंधों की झलक है वह मनु की
रचनाओं में मुझे कम दिखती है। एक में अनुभवों की समृद्धि का आधिक्य है तो दूसरे में
अनुभूतियों की सघनता का।
मनु अबतक जीवन
के 65 वसन्त देख चुके हैं और वय में वे मुझसे लगभग तीन-चार वर्ष छोटे हैं पर वे
(और डा- सुनीता भी) मुझे हमेशा छोटा भाई मानकर ही व्यवहार करते हैं और इसमें सचमुच
मुझे सबसे बड़ा सुख मिलता है। उम्र जैसे-जैसे बढती जाती है, वैसे-वैसे आत्मीयजनों
और अपनी चीजों से मोह भी बढ़ता जाता है, जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए। बच्चन जी ने
शायद ऐसी ही मनस्थिति में कभी लिखा होगा - ”अंगड़-खंगड़ मोह सभी से क्या बांधूं क्या छोड़ू रे/ जिसका
सारा माल मता है उससे नाता जोड़ूं रे”। ****
rtailang@gmail.com
बहुत सुंदर लिखा है रमेश तैलंग भाई। पढ़कर मन खुश हो गया।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर संस्मरण है सर. आदरणीय प्रकाश मनु जी के व्यक्तित्व से परिचय कराने के लिए आपका धन्यवाद
ReplyDeleteवाह ....बहुत खूब...पढ़कर मन को सुकून मिला...आपकी कलम को नमन तैलंग जी भाई साहब......
ReplyDeleteवाह ....बहुत खूब...पढ़कर मन को सुकून मिला...आपकी कलम को नमन तैलंग जी भाई साहब......
ReplyDeleteबहुत अच्छा और सारगर्भित संस्मरण....
ReplyDeleteचिरंजीव भव।जगत का कल्याण होगा।आप जैसे साक्ष्य भाव से संसार का दर्शन करने वाले विरले ही होते हैं।तैलंग जी आप मेरी स्मृति से कभी ओझल नहीं होंगे।मैं सदैव आपके अच्छे स्वास्थ्य की कामना करता रहूँगा।
ReplyDeletepahle kahin padhaa hai...aaj fir padhaa...vaah!
ReplyDeleteFound interesting sir, I had an occasion to spend time with him
ReplyDeleteरमेश जी मनु जी के बहुत करीब रहे हैं और उनको बहुत अच्छी तरह समझे भी हैं, इसीलिए उनका यह संस्मरण बहुत प्रभावशाली बन पड़ा है
ReplyDelete