Sunday, July 3, 2011
अमृतलाल नागर की मजेदार किशोर कहानियाँ
अमृतलाल नागर हिंदी के शिखरस्थ कथा-शिल्पियों में से हैं.
उन्होंने बड़ों के साथ-साथ बच्चों के लिए भी अद्भुत साहित्य रचा. यहाँ प्रस्तुत है उनकी कुछ मजेदार किशोर कहानियों का संक्षिप्त परिचय:
नागरजी की एक बहुत ही मजेदार कहानी है "अमृतलाल नागर बैंक लिमिटेड".
कहानी क्या है, सच पूछो तो ये नागरजी के बचपन की ही एक संस्मरण-कथा है जिसमे उनकी विनोदपूर्ण शैली का अनूठा अंदाज मौजूद है..
हर बच्चे में बड़ों के समान बनने की एक अंदरूनी चाह होती है और इस चाह को पूरा करने के लिए वह ऐसे-ऐसे कारनामे करता है कि बड़े देख कर हैरान रह जाते हैं-
नागरजी के कारनामे की शुरुआत देखिए -
" तब मैं शायद छः या सात वर्ष का था. दादाजी ने किसी गलती पर मेरे कान उमेठ दिए थे. नौकर वहीँ खड़ा था, इसलिए मैं इस अपमान को न सह सका. सोचने लगा, यह बड़े हैं, इसीलिये इन्होने मेरा अपमान किया. मैं भी बड़ा होने की तरकीब सोचने लगा. ..मेरे दादा स्वर्गीय पंडित शिवरंजनी जी इलाहाबाद बैंक के संस्थापकों में से थे..मैंने भी सोचा - एक बैंक खोलना चाहिए. बैंक खोल कर ही झट से बड़ा आदमी बना जा सकता है, इसका मुझे सहसा विश्वास हो गया "
सात वरस के छोटे नागरजी अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर जिनमें एक रास बिहारी टंडन है, एक बैंक खोलने की योजना बनाते हैं. उन्हें लगता है कि दादाजी की तरह उनका बैंक होगा तो बिना पढ़े-लिखे ही, लोग बड़ों की तरह उनकी इज्जत करेंगे और उन पर कोई धौंस भी न जमा सकेगा. पर बैंक खुलने से पहले ही नागरजी द्वारा टंडन को हंसी-हंसी में सूअर कह दिए जाने पर दोनों के बीच में कहा-सुनी हो जाती है. नागरजी और टंडन दोनों ही अपने पंडितजी से बुरी तरह डरते है जो डांटते समय किसी को भी "सूअर" कहने से नहीं चूकते. इन दोनों को लड़ते देख कर पंडितजी टंडन से पूछते हैं: क्यों बे सूअर, तू भी यहीं है? और तुम लोग लड़ क्यों रहे थे. नागरजी मजे लेने के लिये टंडन की शिकायत कर देते हैं -पंडितजी, टंडन कहता है -I goes और किताब में लिखा है -I go और पंडितजी, यह भी कहता है कि आपने बताया है कि किताब में गलत लिखा है."
बस फिर क्या था पंडितजी टंडन के दोनों कान पकड़ कर उसकी पीठ पर दो घूंसे जमा देते हैं. पंडितजी के जाने के बाद जब समझौते के स्थिति बनती है तो टंडन नागरजी से कहता है .".मैंने I goes कहा ही कब था, जो आपने पंडितजी से झूठमूठ मेरी शिकायत कर दी." तो नागरजी अपने ही अंदाज में कहते हैं-"वह तो जो बात होनी थी, सो हो गई. अब उसका ज़िक्र छोडो. मगर मैं तुमसे कहता हूँ, बैंक खुल जाने के बाद अगर तुम I goes भी कहा करोगे तो भी ठीक होगा."
टंडन जब पूछता है -"तो क्या बैंक खुल जाने पर पढाई खत्म हो जाएगी?"
नागरजी टंडन को जवाब देते हैं कि उनके बैंक खुलते ही सारी समस्याएं अपने आप सुलझ जायेंगीं.. यहाँ तक कि बैंक खुल जाने के बाद वे पंडितजी को भी शहर से बाहर निकाल देंगे.
टंडन को उतावली मचती है -"तो आज ही बैंक खोल दो."
अब समस्या आती है पैसों की और बैंक के नामकरण की. जब टंडन अपने नाम पर बैंक खोलने का सुझाव देता है तो नागरजी यहाँ भी बाजी मार लेते हैं यानी बैंक का नाम "अमृतलाल नागर बैंक लिमिटेड" तय कर लिया जाता है. दोस्तों से मिल जुल कर पैसों का जुगाड होता है और एक रुपया सवा बारह आने जुड़ते हैं, घर भर की धोतियाँ छत पर तान कर ऑफिस बना लिया जाता है, कुल्लड में छेद कर के टेलीफोन बना लिया जाता है, दोस्तों में कोई बाबू बन जाता है, टंडन खजांची बन जाता है और तिजोरी की चाबी खुद नागरजी, जिनकी हैसियत मेनेजर की रहती है, हथिया लेते हैं. जोड़-तोड़ कर के बैंक चालू हो जाता है. अब समस्या आती है कि लेजर बुक कहाँ से लाएं तो हिसाब की कापी फाड़ ली जाती है.
दूसरे दिन बैंक का कारोबार शुरू करने के लिए जैसे ही टंडन यानी खजांची साहब घर से निकलने लगते हैं कि पंडितजी उन्हें पढाने आ पहुँचते है. टंडन अकडकर पढ़ने से इनकार करता हैं तो पंडितजी टंडन का खजांची का रुतबा
भूल- भाल कर उनकी वहीँ मरम्मत कर देते हैं.
नतीजा - बैंक अपना जन्म लेते ही टांय-टांय फिस्स होने लगता है. जिन्होंने इकन्नी-दुअन्नी पैसे जमा कराये होते हैं वे सब अपने-अपने पैसे वापस मांगने लगते हैं. इधर जब दादाजी को इस सारे कांड का पता लगता है तो नागरजी
का क्या हाल होता है स्वयं नागरजी के ही शब्दों में सुनिए:
"फिर तो न कहना ही अच्छा होगा, क्योंकि अमृतलाल नागर बैंक लिमिटेड के मेनेजर साहब के दोनों कान सारंगी की खूंटियों की तरह कस-कस कर उमेठे जा रहे थे, गालों पर तडातड तमाचे पड़ रहे थे और चपरासी, खजांची तथा बाबू लोगों के दिलों में ठंडक पड़ रही थी."
नागरजी की यह कहानी हिंदी बाल/किशोर साहित्य की बेहतर हास्य कथाओं में गिनी जा सकती है.
नागरजी की किस्सागोई का पारंपरिक अंदाज देखना हो तो उनकी "सत्खंडी हवेली का मालिक", भागते भूतों की कहानी, पान की कहानी और फूलों की घाटी जैसी कहानियों में देखा जा सकता है. हो सकता है कुछ आलोचकों को ये कहानियां आज के सन्दर्भ में सटीक किशोर कहानियां न लगें पर उनका किस्सागोई वाला अंदाज किशोरों को भाएगा अवश्य.
जैसा कि हमारी सभी पारंपरिक कथाओं में होता है कुछ-कुछ वैसी ही अन्त्योक्ति इन कहानियों की भी है, यथा -"राम करे जैसे उसके सुख-सौभाग्य के दिन लौटे, वैसे सब के दिन अच्छे फिरें.." या फिर "जैसे उनके सुख के दिन लौटे, वैसे राम करे सबके दिन बहुरें.."
यह सभी मानते हैं कि किस्सागोई की कला में नागरजी सबके गुरु रहे हैं . वे लोक की भाषा भी जानते थे और लोक का मिजाज भी. लोकशैली में कही गई कहानी "सत्खंडी हवेली का मालिक" इसका एक प्रमाण है . यह एक बहुत बड़े जौहरी मानिक चंद के बेटे अमीचंद की कहानी है जो व्यापार में घाटा खाने के बाद अंतकाल के समय अपने बेटे अमीचंद को सलाह देता है -"तुम्हे भगवान के भरोसे सौंपता हूँ. एक बात का ध्यान रखना कि इस नगर को छोड़ कर किसी दूसरे नगर में काम शुरू करना. यहाँ तुम्हे नए सिरे से उठने में बड़ी बाधाएं आएंगी, और यह भी ध्यान रखना कि नौकरी उसी सेठ के करना, जिसकी सत्खंडी हवेली हो."
पिता के क्रियाकर्म के बाद अमीचंद अपनी बुद्धिमत्ता से एक सेठ का दिल जीतता है और उसी के लिए काम करने लगता है. रत्नों की परख में वह अपनी पैनी और बारीक दृष्टि से ऐसे कमाल दिखलाता है कि उसके अनुभवी मालिक को भी कभी-कभी आश्चर्य प्रकट करना पड़ता है. पर अमीचंद का मालिक केवल पञ्चखंडी हवेली वाला था न कि सतखंडी हवेली वाला. इसलिए उसे कई बार सेठ का गुस्सा भी सहना पड़ता है. एक बार वह सेठ के कुछ कारिंदों के साथ पैसा कमाने के लिए परदेस जाता है और जब वहाँ से कमाकर लौटता है तब सेठ उसकी व्यापार कुशलता पर पहले तो संदेह करता है फिर उसकी बुद्धिमत्ता का लोहा मान जाता है और अंत में अपनी बेटी से उसका विवाह भी कर देता है. यानी अंत भला तो सब भला.
"भागते भूतों के कहानी" एक राजा के शानदार महल की कहानी है जिसमे कुछ भागे हुए भूत बसेरा कर लेते हैं. अब समस्या यह है कि उन भूतों को भगाया कैसे जाए. पंडितों के पूजा पाठ से जब बात नहीं बनती तो चारों ओर ढिंढोरा पिटवा दिया जाता है कि जो महल से भूतों को निकाल देगा, उसे राजा की ओर से पचास लाख रूपये इनाम में दिए जायेंगे. ओझे-सयाने आते हैं मगर कोई कामयाब नहीं हो पता. अब राजा परेशान. इनाम बढ़ा दिया जाता है और नया ढिंढोरा पीटा जाता है-"खल्क खुदा का मूलक हिंदुस्तान का, हुक्म राजा बहादुर का कि जो कोई भूतों को निकाल देगा वह राजकुमारी का पति बन जाएगा." महीनों बीत जाते हैं मगर कोई नहीं आता.
संयोग की बात एक दिन एक गरीब लड़का महल के दरबाजे पर आता है और वहाँ तैनात सिपाहियों से कहता है: फाटक खोल दो, मैं भूतों से लड़ने के लिए आया हूँ. सिपाही पहले तो लड़के का मजाक उड़ाते हैं फिर महल का
दरबाजा खोल देते हैं. लड़का अपनी सूझ-बूझ से किस तरह भूतों को भगाता है वह इस कहानी का असली रहस्य है जिसे यहाँ खोल देना पाठकों के साथ अन्याय होगा. हाँ, सफलता के बाद लड़का क्या कहता है उसे अवश्य सुन लीजिए: "महाराज मैं कायस्थ का बेटा हूँ, बुद्धि से काम लेता हूँ, इसलिए बुद्धुओं से जीत गया." लड़के की बात सुन कर राजा-रानी खुश हो जाते हैं और लड़के को माँ के साथ महल में ही बुला लेते हैं.
"पान की कहानी" में पान का इतिहास भी है और लोकश्रुति भी.
संस्कृत में पान को पुंगीफल कहा जाता है और उसका चूना, कत्था से मेल-जोल किस तरह हुआ इसकी रोचक कथा है "पान की कहानी" में.
इसी तरह "फूलों की घाटी" मे नागरजी कल्पना की भरपूर उड़ान भरते है. अंतरिक्षवासियों और पृथ्वीवासियों के बीच शहद के व्यापार का छोटा-सा किस्सा किस तरह एक मनोरंजक कहानी का रूप ले लेता है इसे "फूलों की घाटी" में साक्षात् देखा जा सकता है.
न जाने क्यों नागरजी की इन किशोर कहानियों को पढते हुए मुझे बार-बार ऐसा लगा है जैसे उनमे कथ्य से ज्यादा शिल्प महत्वपूर्ण है. वैसे भी बाल कहानियों में या पूरे बाल साहित्य में क्या कहा जा रहा है इसका उतना महत्त्व नहीं होता जितना इसका कि उस कथ्य को कहा किस तरह जा रहा है. नागरजी इस शिल्प के महत् धनी है और यह सम्पदा उन्होंने खुले मन से अपने शिष्यों में भी बांटी है. बल/किशोर कहानियों के अलावा नागरजी ने किशोर उपन्यास लेखन का क्षेत्र भी अछूता नहीं छोड़ा जिसका अनुपम उदहारण "बजरंगी स्मगलरों के फंदे में" है.
कहानी सन्दर्भ सूत्र: अमृतलाल नगर रचना-संचयन
चित्र सौजन्य: गूगल सर्च
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अमृतलाल नागर की बाल कथाओं से परिचय कराने का शुक्रिया।
ReplyDelete------
तांत्रिक शल्य चिकित्सा!
…ये ब्लॉगिंग की ताकत है...।
सधा हुआ सारगर्भित आलेख . बधाई हो भाई साहब .
ReplyDeleteचाहता हूँ
सदा उसका
मानवर्धन हो
शोधपरक अमूल्य लेख। आपका आभारी होना चाहिए उन सबको जो हिन्दी बाल साहित्य में तहे-दिल से रुचि रखते हैं।
ReplyDeleteनागरजी की किशोर कथाओं से परचाने के लिए आभार, मैंने अभी तक उनके उपन्यास ही पढ़े हैं. उनकी बालकथाओं के बारे में पढ़ा था, लेकिन किशोर कथाओं में उन्होंने जो किस्सागोई का जादू बिखेरा है, उसके बारे परिचय आज आप ही से हुआ. बहुत-बहुत आभार....अच्छा आलेख.
ReplyDelete-ओमप्रकाश कश्यप
आप सभी सुविज्ञजनों का ह्रदय से आभार. आपके प्रोत्साहन भरे शब्दों से निश्चय ही मेरा मनोबल बढ़ा है.
ReplyDeleteआपने ठीक ही कहा -कथ्य कहने के अंदाज में बाल कहानी के प्राण बसते हैं । नागर जी व उनके साहित्य से परिचित कराने के लिए बहुत -बहुत आभार ।
ReplyDeleteसारगर्भित और संग्रहणीय आलेख। बहुत- बहुत बधाई।
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