Thursday, August 11, 2011
एक अविस्मरणीय व्यक्तित्व : आर. सी. प्रसाद सिंह
आरसी प्रसाद सिंह
हिन्दी और मैथिली भाषाओं के महाकवि, कथाकार और एकांकीकार ।
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित
जन्म: 19 अगस्त 1911 : निधन: 15 नवंबर 1996
आर.सी. प्रसाद सिंह हिंदी के उन पुरोधा कवियों में से एक हैं जिन्हें पढते हुए हमने हिंदी का क-ख-ग सीखा. बिहार की पुण्यभूमि धन्य है जहां आर.सी.प्रसाद जी जैसे कवि का जन्म हुआ और जहां उनकी साहित्यिक प्रतिभा परवान चढी.2011 आर.सी प्रसाद सिंह जी का भी जन्मशताब्दी वर्ष है. वे प्रौढ़ एवं बाल साहित्य दोनों में रचना रत रहे. यह और बात है कि उन्हें आज के मीडिया की चकाचौंध में वह स्थान नहीं मिला जो मिलने चाहिए था.
आरज़ू में जनम भर खड़ा मैं रहा
आपने ही कभी तो पुकारा नहीं
आपके इस शहर में गुज़ारा नहीं
अजनबी को कहीं पर सहारा नहीं
आर.सी. प्रसाद जी के बारे में आप अनेक जगह अनेक महत्त्व पूर्ण बातें पढ़ सकते हैं पर उनकी बेहद मजेदार बाल कविताओं के महासागर में से चुने गये एक-दो मोतियों की आब आप यहाँ पर देखिये:
सैर सपाटा
कलकत्ते से दमदम आए
बाबू जी के हमदम आए
हम वर्षा में झमझम आए
बर्फी, पेड़े, चमचम लाए।
खाते पीते पहुँचे पटना
पूछो मत पटना की घटना
पथ पर गुब्बारे का फटना
तांगे से बेलाग उलटना।
पटना से हम पहुँचे राँची
राँची में मन मीरा नाची
सबने अपनी किस्मत जाँची
देश-देश की पोथी बाँची।
राँची से आए हम टाटा
सौ-सौ मन का लो काटा
मिला नहीं जब चावल आटा
भूल गए हम सैर सपाटा !
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चिड़िया
पीपल की ऊँची डाली पर, बैठी चिड़िया गाती है.
तुम्हें ज्ञात अपनी बोली में, क्या सन्देश सुनाती है?
चिड़िया बैठी प्रेम-प्रीति की, रीति हमें सिखलाती है।
वह जग के बन्दी मानव को, मुक्ति-मन्त्र बतलाती है।
वन में जितने पँछी हैं, खंजन, कपोत, चातक, कोकिल,
काक, हँस, शुक, आदि वास, करते सब आपस में हिलमिल।
सब मिल-जुलकर रहते हैं वे, सब मिल-जुलकर खाते हैं।
आसमान ही उनका घर है, जहाँ चाहते जाते हैं।
रहते जहाँ, वहीं वे अपनी दुनिया एक बसाते हैं।
दिनभर करते काम, रात में पेड़ों पर सो जाते हैं।
उनके मन में लोभ नहीं है, पाप नहीं, परवाह नहीं।
जग का सारा माल हड़पकर जीने की भी चाह नहीं।
जो मिलता है, अपनी श्रम से उतना भर ले लेते हैं।
बच जाता तो औरों के हित, उसे छोड़ वे देते हैं।
सीमा-हीन गगन में उड़ते निर्भय विचरण करते हैं।
नहीं कमाई से औरों की अपना घर वे भरते हैं।
वे कहते हैं - मानव, सीखो तुम हमसे जीना जग में।
हम स्वछंद, और क्यों तुमने डाली है बेड़ी पग में?
तुम देखो हमको, फिर अपनी सोने की कड़ियाँ तोड़ो।
ओ मानव, तुम मानवता से द्रोह-भावना को छोड़ो।
पीपल की डाली पर चिडिया यही सुनाने आती है।
बैठ घडी भर, हमें चकित कर, गाकर फिर उड़ जाती है।
चित्र/कवितायें सौजन्य: कविताकोश.ओआरजी
श्री कन्हैया लाल मत्त की दो बाल कविताएं
18 अगस्त, 1911 को टूंडला से चार किलोमीटर दूर ग्राम जारखी में जन्मे श्री कन्हैया लाल मत्त जी की गणना शिखरस्थ बाल कवियों में है. मत्त जी की प्रमुख बालकविता पुस्तकों के नाम हैं - बोल री मछली कित्ता पानी, आटे बोटे सैर सपाटे, जम रंग का मेला, सैर करें बाजार की, जंगल में मंगल, खेल तमाशे आदि। मत्त जी हिंदी में लोरियां लिखने वाले पहले कवि माने जाते हैं। ‘लोरियाँ और बालगीत’ ‘रजत-पालना’ और ‘स्वर्ग-हिंडोला’ उनकी लोरियों की प्रमुख पुस्तकें हैं।
यह वर्ष मत्त जी का जन्मशताब्दी वर्ष है. इस अवसर पर हम उनकी दो बाल कविताएं सम्मान सहित यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं:
डंडा-डोली पालकी
डंडा डोली पालकी
जय कन्हैया लाल की!
आगे-बागे टूल के,
झांझ-मंजीरे कूल के
शंख समंदर-कूल के
ढपली धुर बंगाल की!
जय कन्हैया लाल की.
कमर करधनी कांस की
वंशी सूखे बांस की
जिसमें जगह न सांस की,
झांकी बड़े कमाल की
जय कन्हैयालाल की.
माखन-मिस्री घोलकर
मन-भर पक्का तोलकर
खाते हैं दिल खोलकर
रबड़ी पूरे थाल की.
जय कन्हैयालाल की
***********
तोतली बुढ़िया
एक तोतली बुढिया माई,
घुमा रही थी तकली
उसके बड़े पोपले मुंह में
दांत लगे थे नकली.
'तोता' जब कहना होता था,
कह जाती थी 'टोटा',
'गोता' को 'गोटा' हो जाता,
'सोता' बनता 'टोटा,.
भोली-भाली शक्ल बनाकर,
पहुँचे टुनमुन भाई,
काट रही थी जहां बैठकर-
तकली बुढिया माई.
*************
यह वर्ष मत्त जी का जन्मशताब्दी वर्ष है. इस अवसर पर हम उनकी दो बाल कविताएं सम्मान सहित यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं:
डंडा-डोली पालकी
डंडा डोली पालकी
जय कन्हैया लाल की!
आगे-बागे टूल के,
झांझ-मंजीरे कूल के
शंख समंदर-कूल के
ढपली धुर बंगाल की!
जय कन्हैया लाल की.
कमर करधनी कांस की
वंशी सूखे बांस की
जिसमें जगह न सांस की,
झांकी बड़े कमाल की
जय कन्हैयालाल की.
माखन-मिस्री घोलकर
मन-भर पक्का तोलकर
खाते हैं दिल खोलकर
रबड़ी पूरे थाल की.
जय कन्हैयालाल की
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तोतली बुढ़िया
एक तोतली बुढिया माई,
घुमा रही थी तकली
उसके बड़े पोपले मुंह में
दांत लगे थे नकली.
'तोता' जब कहना होता था,
कह जाती थी 'टोटा',
'गोता' को 'गोटा' हो जाता,
'सोता' बनता 'टोटा,.
भोली-भाली शक्ल बनाकर,
पहुँचे टुनमुन भाई,
काट रही थी जहां बैठकर-
तकली बुढिया माई.
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कन्हैया लाल मत्त,
जन्मशताब्दी वर्ष,
बाल कविताएँ.
Friday, August 5, 2011
एंड्रयू लैंग की क्लासिक रचना - प्रिंस प्रिजियो का हिंदी रूपांतर
विश्व बाल साहित्य की श्रृंखला में अगली कड़ी है एंड्रयू लैंग की क्लासिक रचना प्रिंस प्रिजियो. बाल/किशोर पाठकों के लिए इसका हिंदी रूपांतर शीघ्र nanikichiththiyan.blogspot.com तथा vishwabalsahitya.wordpress.com पर प्रकाशित होगा. बस, थोड़ी-सी प्रतीक्षा कीजिए अगले रविवार तक.....
इस ब्लॉग का अवलोकन करने के लिए आपका आभार
आप इस ब्लॉग का देश/विदेश की अनेक जगहों से अवलोकन कर रहे हैं इसके लिए हम आपके ह्रदय से आभारी हैं. हमारा निवेदन है कि इस ब्लॉग की रचना सामग्री पर अपने विचारों/सुझावों से भी हमें अवगत कराएं ताकि हम इसे और भी बेहतर और समृद्ध बना सकें.
Tuesday, August 2, 2011
बाल साहित्यकारों को सर्वेश्वरजी की खरी-खरी
(प्रतिष्ठित कवि, कथाकार, लेखक, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का हिंदी के वयस्क और बाल साहित्य दोनों ही क्षेत्रों में महत्वपूर्ण अवदान रहा है. वे बच्चों/किशोरों की लोकप्रिय पत्रिका "पराग" के पूर्व संपादक भी रहे और बाल साहित्य के सम्पूर्ण परिदृश्य पर पैनी नजर रखने वाले तथा अपने विचारों को खुल कर व्यक्त करने वाले एक सजग चिन्तक भी रहे. १९७९ में लखनऊ की एक बाल साहित्य संगोष्ठी में उनके द्वारा पढ़ा गया यह विचारोत्तेजक लेख " सर्वेश्वरदयाल सक्सेना: सम्पूर्ण गद्य रचनाएं" से साभार यहाँ उद्धृत किया जा रहा है. इस लेख की प्रासंगिकता आज भी जस की तस बनी हुई है और मुझे यकीन है कि इसे पढ़ कर आज के बाल साहित्यकारों को बाल साहित्य सृजन की वर्तमान चुनौतियों का सामना करने के लिए नई दृष्टि और नई शक्ति दोनों मिलेगीं.)
श्रेष्ठ बाल साहित्य की चिंता
इस देश में फिलहाल अच्छा बाल साहित्य नहीं लिखा जा सकता. अच्छा यानी देशकाल से बंधा हुआ होकर भी देशकाल से परे, जीवन के उत्स से जुड़ा हुआ. इसके तीन कारण हैं: पहला, हमारा कोई राष्ट्रीय चरित्र नहीं है, न उसकी कोई परिकल्पना ही है. दूसरा, हमारी कोई सामजिक दृष्टि नहीं है. हम कैसा आदमी और कैसा समाज बनाना चाहते हैं इसकी चिंता नहीं है. इन दोनों कारणों का मूल आधार इस देश की भ्रष्ट राजनीति है और मूल्य विहीनता सत्ता संघर्ष है. तीसरा और प्रमुख कारण आज का बाल लेखक स्वयं. अपनी संवेदना के क्षेत्र में वह वस्तुतः बच्चों से जुड़ा हुआ नहीं है, न अपनी युग चेतना से. बिना दोनों से एक साथ जुड़े हुए बाल साहित्य नहीं लिखा जा सकता. सच तों यह है कि अच्छे साहित्यकार का बच्चों से कोई सरोकार नहीं है, वह उनके लिए लिखता ही नहीं. दूसरे दर्जे का, अधिकतर घटिया दर्जे का लेखक कुछ मामूली पैसों के लालच में बच्चों के लिए कलम उठाता है. और जो भाषा बोलता है उससे बच्चे का न आतंरिक स्वस्थ संवाद हो सकता है और न बच्चे में मुक्ति का अहसास जग सकता है. बच्चे में मुक्ति का अहसास जगाना यानी यह भाव कि वह अपने समाज को ही नहीं सम्पूर्ण मानव नियति को बदल सकता है, बाल साहित्य का पहला काम है. पहले के साहित्य में बच्चा यह पाता था कि यदि वह निडर और वीर है तों अकेला तलवार उठाकर हर मुसीबत का सामना कर अंत में सारी कठिनाई पर विजय प्राप्त कर अपने सपनों को सत्य कर सकता है, उनको वर् सकता है. अब आज के युग में मूल्यों के स्तर पर सपना क्या हो सकता है यह बाल साहित्यकार ही नहीं जानता और उसे कैसे सत्य किया जा सकता है या वरा जा सकता है यह और भी नहीं. वह अभी भी अतीत के मूल्यों पर ही सिर पटक रहा है. चाहे वह बाल लेखक हो या बाल संपादक. यह दुर्भाग्य की बात है कि नए समाज की परिकल्पना लेखक के पास नहीं है और उसकी रचने के लिए किस तरह का संघर्ष जरूरी है यह तों वह और भी नहीं जानता. इस तरह उसके और बच्चे के बीच में एक दीवार खड़ी है जिसे वह पहचानता नहीं और अंधे की तरह उसी से टकराता रहता है. जबकि बच्चा, राजा-रानी और परियों के पुराने संसार के चंगुल से निकल चुका है. आज के लेखक और संपादक जैसे परियों के महल के तहखाने की जो चाभी रखते हैं उससे कहीं ज्यादा उसकी परिकल्पना की चाभी से बंधी है जिससे मोटर चलने लगती है. वह उसे ज्यादा पहचानता है. उसे न् केवल इतना बताना कि उस चाभी से मोटर कैसे चलती है बल्कि यह भी कि चाभी बनाने वाली और इस्तेमाल करने वाली ताकतें कौन है और उन नाना ताकतों में वह कहां है और उस चाभी को प्राप्त करने के लिए अन्याय और शोषण के दुर्गम पथ को कैसे पार किया जा सकता है. इतना समझ में आ जाने के बाद ही लेखक बच्चे से सार्थक संवाद की स्थिति में आ सकेगा.
यहाँ यह प्रश्न उठाना कोई खास मतलब नहीं रखता कि संवाद किसे बच्चे से? गाँव के या शहर के? जाहिर है बातचीत का सन्दर्भ शहरी पढ़ने-लिखने में समर्थ बच्चे से है उस बच्चे का नहीं है जो पैदा होते ही रोटी कमाने की फ़िक्र में जुट जाता है. कैसी विडंबना है कि हम गाँव के बच्चे तक बाल साहित्य पहुंचाने की ख्याली बात कर रहे हैं जबकि उसको दो जून रोटी पहुंचाने की ख्वाहिश भी पूरी होते नहीं दीख पा रही है. गाँव के बच्चे के पास मौखिक बाल साहित्य की अपार सम्पदा है. परंपरा से चली आती नानी की कहानियां हैं. इन कहानियों के द्वारा उसकी ऐसी मानसिकता बनाने का षड्यंत्र सदियों से चल रहा है जिससे कि वह हर तकलीफ, अन्याय, शोषण को अपने कर्मों का फल मानकर जी सके और पीड़ा के हर क्षण में अपनी नियति पर सिर पटककर खामोश हो जाए. उस बाल साहित्य की जगह नया आप तब तक नहीं दे सकेंगे जब तक आप उसे शिक्षित न कर लें. लेकिन इस देश के करोडों ग्रामीण बच्चों की शिक्षा कौन चाहता है? उसके परिवार को आर्थिक शिकंजे में इतना कस दिया गया है कि बच्चा उसे तोड़ने की छटपटाहट से ही अपना बचपन शुरू क ता है. अतः यह सवाल कि गाँव के और शहर के बच्चे का साहित्य कितना अलग-अलग हो ढपोरशंखी सवाल लगता है. सूत न कपास जुलाहों में लट्ठमलट्ठा . इस सवाल से जूझना मौजूदा व्यवस्था से जूझना है और बिना उसे बदले हुए इस सवाल का हल नहीं निकल सकता. इसीलिए शुरू में ही कहा गया कि इस देश में श्रेष्ठ बाल साहित्य नहीं लिखा जा सकता. आप कह सकते है बाल साहित्य ग्रामीण बच्चे के लिए जिसे यदि वह पढ़ न् सके तों सुन ही सके. कौन सुनाएगा? फ़िल्में? बच्चों की एक भी फिल्म ग्रामीण बच्चों को ध्यान में रखकर नहीं बनायी गयी है. जो भी बनी हैं बच्चों के अनुपात को ध्यान में रखकर नहीं के बराबर. वह शहरी बच्चों के लिए हैं. शहरी बच्चों की जरूरत ही उससे पूरी नहीं होती. वह्बदों की ही फ़िल्में देखते हैं,बड़ों की ही दुनिया में रहते हैं. क्या इसे और साफ़ कहने की जरूरत है कि आज का हमारा बच्चा बड़ों का बोझ अपने कन्धों पर लादे डोलने के लिए अभिशप्त है.
अतः यह साफ़-साफ़ दीखता है कि व्यक्ति, समाज, संस्थाएं, सरकार तंत्र, सब बच्चे से बिना सरोकार रखे, बच्चे की बात करके अपना धंधा चलाते है. कम से कम सही लेखक को जिसे बच्चों से प्यार हो इस धंधे से दूर ही रहना चाहिए. अंतर्राष्ट्रीय बाल-दिवस इस दिशा में एक और बड़ा धंधा है वैसे ही बाल लेखक त्योहारी पर जीता हैआँखें फाड़े हर तीज-त्यौहार, होली-दिवाली पर ढेरों वाहियात रचनाएं लिखकर अखबारों का पेट पालता है और अपना भी. बच्चा वैसे का वैसा रह जाता है.
यदि एक भी लेखक ऐसा हो जिसे बच्चों से प्यार हो, जिसे आप बच्चों के पार्कों में, बच्चों के स्कूलों के सामने उनके साथ खेलते, बतियाते, रचते देख सकें तों मेरा सब कहा झूठा माना जाए. लेकिन ऐसा नहीं है. पर ऐसा होना चाहिए. आज की इस स्थिति में जब न राष्ट्रीय चरित्र है, न सामाँजिक दृष्टि है, न बच्चों से प्रतिबद्ध लेखक है ऐसे लेखकों की और जरूरत है जो युगभाव लेकर बच्चों से सीधा रिश्ता कायम करें उनके साथ खेलें. उन्हें कविताएँ सुनाएँ, कहानियाँ सुनाएँ और अपनी उन रचनाओं का परीक्षण करें जिन वह अपने घर बेठे श्रेष्ठ मानते हैं. अबसे जरूरी है नाटक उनके साथ नाटक करें. ऐसा नाटक जिसे बच्चे खेल सकें. जिसमे गाना-नाचना, उछलकूद भी हो और जो इतना लचीला भी हो कि वह खुद उसमे जो चाहे जोड़-घटा सकें. जिसकी भाषा नर्सरी राइम्स की तरह गेंद की तरह उछले. बच्चा हर चीज से खेलना चाहता है. भाषा से भी वह खेलना चाहता है. उसे लपेटना, खोलना, उछालना चाहता है. ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ती है उसकी उधेड बुन बढ़ती है. भाषा में इतनी ताकत होनी चाहिए कि बच्चा अपनी उम्र के साथ-साथ उन्हीं शब्दों और बड़े अर्थ को ग्रहण करता जाए जिनसे वह खेलता रहा है. यह बड़ी रचना की पहचान है. बड़ी रचना पेचकश की तरह होती है जिससे छोटा बच्चा जमीन खोदता और ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ती जाती है उसका नया-नया इस्तेमाल सीखता जाता है और मशीने ठीक करने लगता है. पर ऐसी लगन नहीं है. यह लगन आने के बाद ही जबान की यानी भाषा की अपनी रचनात्मक लड़ाई है. उसमे साझेदारी भी हो सकती है पर तभी वह निष्ठां दिखाई दे और ऐसे निष्ठावान मिलकर बैठें अतः अभी इतना ही. यदि कुछ बातें सख्त हों तों इस टिपण्णीकार को क्षमा किया जाए. लेकिन यदि कोई बच्चा आपके आसपास या आपकी गोद में हो तों इस कथन के सन्दर्भ में उसकी आँखों की ओर जरूर देखिए .
(यह आलेख श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने नवंबर-१९७९ में आयोजित साक्षरता निकेतन, लखनऊ की बाल-साहित्य गोष्ठी में पढ़ा गया
श्रेष्ठ बाल साहित्य की चिंता
इस देश में फिलहाल अच्छा बाल साहित्य नहीं लिखा जा सकता. अच्छा यानी देशकाल से बंधा हुआ होकर भी देशकाल से परे, जीवन के उत्स से जुड़ा हुआ. इसके तीन कारण हैं: पहला, हमारा कोई राष्ट्रीय चरित्र नहीं है, न उसकी कोई परिकल्पना ही है. दूसरा, हमारी कोई सामजिक दृष्टि नहीं है. हम कैसा आदमी और कैसा समाज बनाना चाहते हैं इसकी चिंता नहीं है. इन दोनों कारणों का मूल आधार इस देश की भ्रष्ट राजनीति है और मूल्य विहीनता सत्ता संघर्ष है. तीसरा और प्रमुख कारण आज का बाल लेखक स्वयं. अपनी संवेदना के क्षेत्र में वह वस्तुतः बच्चों से जुड़ा हुआ नहीं है, न अपनी युग चेतना से. बिना दोनों से एक साथ जुड़े हुए बाल साहित्य नहीं लिखा जा सकता. सच तों यह है कि अच्छे साहित्यकार का बच्चों से कोई सरोकार नहीं है, वह उनके लिए लिखता ही नहीं. दूसरे दर्जे का, अधिकतर घटिया दर्जे का लेखक कुछ मामूली पैसों के लालच में बच्चों के लिए कलम उठाता है. और जो भाषा बोलता है उससे बच्चे का न आतंरिक स्वस्थ संवाद हो सकता है और न बच्चे में मुक्ति का अहसास जग सकता है. बच्चे में मुक्ति का अहसास जगाना यानी यह भाव कि वह अपने समाज को ही नहीं सम्पूर्ण मानव नियति को बदल सकता है, बाल साहित्य का पहला काम है. पहले के साहित्य में बच्चा यह पाता था कि यदि वह निडर और वीर है तों अकेला तलवार उठाकर हर मुसीबत का सामना कर अंत में सारी कठिनाई पर विजय प्राप्त कर अपने सपनों को सत्य कर सकता है, उनको वर् सकता है. अब आज के युग में मूल्यों के स्तर पर सपना क्या हो सकता है यह बाल साहित्यकार ही नहीं जानता और उसे कैसे सत्य किया जा सकता है या वरा जा सकता है यह और भी नहीं. वह अभी भी अतीत के मूल्यों पर ही सिर पटक रहा है. चाहे वह बाल लेखक हो या बाल संपादक. यह दुर्भाग्य की बात है कि नए समाज की परिकल्पना लेखक के पास नहीं है और उसकी रचने के लिए किस तरह का संघर्ष जरूरी है यह तों वह और भी नहीं जानता. इस तरह उसके और बच्चे के बीच में एक दीवार खड़ी है जिसे वह पहचानता नहीं और अंधे की तरह उसी से टकराता रहता है. जबकि बच्चा, राजा-रानी और परियों के पुराने संसार के चंगुल से निकल चुका है. आज के लेखक और संपादक जैसे परियों के महल के तहखाने की जो चाभी रखते हैं उससे कहीं ज्यादा उसकी परिकल्पना की चाभी से बंधी है जिससे मोटर चलने लगती है. वह उसे ज्यादा पहचानता है. उसे न् केवल इतना बताना कि उस चाभी से मोटर कैसे चलती है बल्कि यह भी कि चाभी बनाने वाली और इस्तेमाल करने वाली ताकतें कौन है और उन नाना ताकतों में वह कहां है और उस चाभी को प्राप्त करने के लिए अन्याय और शोषण के दुर्गम पथ को कैसे पार किया जा सकता है. इतना समझ में आ जाने के बाद ही लेखक बच्चे से सार्थक संवाद की स्थिति में आ सकेगा.
यहाँ यह प्रश्न उठाना कोई खास मतलब नहीं रखता कि संवाद किसे बच्चे से? गाँव के या शहर के? जाहिर है बातचीत का सन्दर्भ शहरी पढ़ने-लिखने में समर्थ बच्चे से है उस बच्चे का नहीं है जो पैदा होते ही रोटी कमाने की फ़िक्र में जुट जाता है. कैसी विडंबना है कि हम गाँव के बच्चे तक बाल साहित्य पहुंचाने की ख्याली बात कर रहे हैं जबकि उसको दो जून रोटी पहुंचाने की ख्वाहिश भी पूरी होते नहीं दीख पा रही है. गाँव के बच्चे के पास मौखिक बाल साहित्य की अपार सम्पदा है. परंपरा से चली आती नानी की कहानियां हैं. इन कहानियों के द्वारा उसकी ऐसी मानसिकता बनाने का षड्यंत्र सदियों से चल रहा है जिससे कि वह हर तकलीफ, अन्याय, शोषण को अपने कर्मों का फल मानकर जी सके और पीड़ा के हर क्षण में अपनी नियति पर सिर पटककर खामोश हो जाए. उस बाल साहित्य की जगह नया आप तब तक नहीं दे सकेंगे जब तक आप उसे शिक्षित न कर लें. लेकिन इस देश के करोडों ग्रामीण बच्चों की शिक्षा कौन चाहता है? उसके परिवार को आर्थिक शिकंजे में इतना कस दिया गया है कि बच्चा उसे तोड़ने की छटपटाहट से ही अपना बचपन शुरू क ता है. अतः यह सवाल कि गाँव के और शहर के बच्चे का साहित्य कितना अलग-अलग हो ढपोरशंखी सवाल लगता है. सूत न कपास जुलाहों में लट्ठमलट्ठा . इस सवाल से जूझना मौजूदा व्यवस्था से जूझना है और बिना उसे बदले हुए इस सवाल का हल नहीं निकल सकता. इसीलिए शुरू में ही कहा गया कि इस देश में श्रेष्ठ बाल साहित्य नहीं लिखा जा सकता. आप कह सकते है बाल साहित्य ग्रामीण बच्चे के लिए जिसे यदि वह पढ़ न् सके तों सुन ही सके. कौन सुनाएगा? फ़िल्में? बच्चों की एक भी फिल्म ग्रामीण बच्चों को ध्यान में रखकर नहीं बनायी गयी है. जो भी बनी हैं बच्चों के अनुपात को ध्यान में रखकर नहीं के बराबर. वह शहरी बच्चों के लिए हैं. शहरी बच्चों की जरूरत ही उससे पूरी नहीं होती. वह्बदों की ही फ़िल्में देखते हैं,बड़ों की ही दुनिया में रहते हैं. क्या इसे और साफ़ कहने की जरूरत है कि आज का हमारा बच्चा बड़ों का बोझ अपने कन्धों पर लादे डोलने के लिए अभिशप्त है.
अतः यह साफ़-साफ़ दीखता है कि व्यक्ति, समाज, संस्थाएं, सरकार तंत्र, सब बच्चे से बिना सरोकार रखे, बच्चे की बात करके अपना धंधा चलाते है. कम से कम सही लेखक को जिसे बच्चों से प्यार हो इस धंधे से दूर ही रहना चाहिए. अंतर्राष्ट्रीय बाल-दिवस इस दिशा में एक और बड़ा धंधा है वैसे ही बाल लेखक त्योहारी पर जीता हैआँखें फाड़े हर तीज-त्यौहार, होली-दिवाली पर ढेरों वाहियात रचनाएं लिखकर अखबारों का पेट पालता है और अपना भी. बच्चा वैसे का वैसा रह जाता है.
यदि एक भी लेखक ऐसा हो जिसे बच्चों से प्यार हो, जिसे आप बच्चों के पार्कों में, बच्चों के स्कूलों के सामने उनके साथ खेलते, बतियाते, रचते देख सकें तों मेरा सब कहा झूठा माना जाए. लेकिन ऐसा नहीं है. पर ऐसा होना चाहिए. आज की इस स्थिति में जब न राष्ट्रीय चरित्र है, न सामाँजिक दृष्टि है, न बच्चों से प्रतिबद्ध लेखक है ऐसे लेखकों की और जरूरत है जो युगभाव लेकर बच्चों से सीधा रिश्ता कायम करें उनके साथ खेलें. उन्हें कविताएँ सुनाएँ, कहानियाँ सुनाएँ और अपनी उन रचनाओं का परीक्षण करें जिन वह अपने घर बेठे श्रेष्ठ मानते हैं. अबसे जरूरी है नाटक उनके साथ नाटक करें. ऐसा नाटक जिसे बच्चे खेल सकें. जिसमे गाना-नाचना, उछलकूद भी हो और जो इतना लचीला भी हो कि वह खुद उसमे जो चाहे जोड़-घटा सकें. जिसकी भाषा नर्सरी राइम्स की तरह गेंद की तरह उछले. बच्चा हर चीज से खेलना चाहता है. भाषा से भी वह खेलना चाहता है. उसे लपेटना, खोलना, उछालना चाहता है. ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ती है उसकी उधेड बुन बढ़ती है. भाषा में इतनी ताकत होनी चाहिए कि बच्चा अपनी उम्र के साथ-साथ उन्हीं शब्दों और बड़े अर्थ को ग्रहण करता जाए जिनसे वह खेलता रहा है. यह बड़ी रचना की पहचान है. बड़ी रचना पेचकश की तरह होती है जिससे छोटा बच्चा जमीन खोदता और ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ती जाती है उसका नया-नया इस्तेमाल सीखता जाता है और मशीने ठीक करने लगता है. पर ऐसी लगन नहीं है. यह लगन आने के बाद ही जबान की यानी भाषा की अपनी रचनात्मक लड़ाई है. उसमे साझेदारी भी हो सकती है पर तभी वह निष्ठां दिखाई दे और ऐसे निष्ठावान मिलकर बैठें अतः अभी इतना ही. यदि कुछ बातें सख्त हों तों इस टिपण्णीकार को क्षमा किया जाए. लेकिन यदि कोई बच्चा आपके आसपास या आपकी गोद में हो तों इस कथन के सन्दर्भ में उसकी आँखों की ओर जरूर देखिए .
(यह आलेख श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने नवंबर-१९७९ में आयोजित साक्षरता निकेतन, लखनऊ की बाल-साहित्य गोष्ठी में पढ़ा गया
बाल-साहित्य पर रघुवीर सहाय की विचारोत्तेजक टिप्पणी
[हिंदी के अत्यधिक सम्मानित कवि, चिन्तक, कथाकार, नाटककार, और संपादक श्री रघुवीर सहाय का यह लेख मुझे श्री सुरेश शर्मा द्वारा सम्पादित "रघुवीर सहाय रचनावली-२" में देखने को मिला. बाल-साहित्य से जुड़े सभी सहृदय लेखकों, पाठकों एवं मनीषियों के अवलोकनार्थ इस लेख को (रचनावली के संपादक मंडल के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए ) मैं यहाँ साभार प्रस्तुत कर रहा हूँ.]
तुरता किताब और लंबी उम्र
बहुत दिन बाद बच्चों के साहित्य पर बहस का एक नया दौर शुरू हुआ है. इसमें एक तरह की सामाजिकता, प्रतिष्ठा और कुछ के लिए पैसे भी है. बच्चे भी हैं इसमें, पर ऐसे हैं मानो "बच्चा लोग बैठ जाओ" की मीठी डाँट पिलाकर पुरुषों की दवाई बेचनेवाले ने उन्हें बिठा दिया हो और वे उस मजमे का एक हिस्सा बनकर रह गए हैं जिसे कुछ दुखद और दिलचस्प बीमारियों के हकीम की आवाज में मजा आ रहा है. बहस करनेवालों में लेखक भी हैं जिनके परिचय में बताया जाता है कि कितनी किताबों के और कितने अनुवादों के रचयिता हैं एवं कितनी समितियों के सदस्य हैं. उनकी एक पुस्तक या पुस्तक छोडिये एक कहानी-कविता-नाटक का नाम देकर उनका परिचय नहीं कराया जाता कि आप ही उसके लेखक हैं. करने पर कोई कह उठेगा, "ओह, हां, हां, मैंने बच्चों से उसका नाम सुना था, मैंने भी पढ़ी."
यह कहकर मैंने शायद उन "कृतिकारों" के साथ कुछ अन्याय कर दिया है जिनकी किताबें धडाधड छप और बिक रही हैं. इन्हें तों बहुत बच्चे जानते हैं. जानते ही नहीं इनकी किताबें मांग-मांगकर, बाँट-बाँट, खरीद-खरीदकर पढते हैं.परन्तु ये किताबें उस तरह की नहीं हैं जिनको हम किताब मानते हैं. इनमे भाषा है पर केवल यह बताने के लिए तस्वीर में दिखाई देते आदमी ने जो कुछ कहा वह कम शब्दों में क्या है-इतने कम शब्दों में कि तस्वीर नंबर एक पर हम जल्दी से जल्दी ध्यान हटाकर तस्वीर नंबर दो पर ले जा सकें क्योंकि अभी ऐसी ही कई तस्वीरें देखनी हैं. किसी भी तस्वीर पर देर तक आँख गडा कर देखना नहीं है ताकि तस्वीर का अर्थ उजागर हो जाए. वैसे अर्थ जो तस्वीर में ही छिपा हो उसमे है ही नहीं. यह तस्वीर ही नहीं है-यानी उस तरह की तस्वीर जिसे हम चित्र प्रदर्शनी में देखने जाते हैं. यह वह तस्वीरें भी नहीं हैं जो हमें किसी माने में (जिसे अब समर्थ लोग (पुराना ज़माना" कहने लगे हैं_ किताबों में (हममें से जो पचास के ऊपर हैं उन्हें (अपनी किताबों में") छपी मिलती थी. वे तस्वीरें भी लिखी कहानी के ही साथ छपी होती थीं परन्तु बच्चे कहानी को पढते समय तस्वीर को देखते थे और तस्वीर उसी कहानी को फिर से कहती थी जिसे वे पढ़ चुके थे. उसकी अपनी-तस्वीर की-भाषा थी. बच्चे दोनों भाषाओं को जान जाते थे, शब्दों की भाषा को और चित्रों की भाषा को.
इसकी तुलना में आज बच्चों के पढ़ने के लिए तस्वीरों और कहानियों का जो मिला-जुला रूप मिलता है वह बहुत खोखला है. उसमे कहानी तस्वीर की मदद नहीं करती और तस्वीर कहानी की मदद नहीं करती. दोनों अपने-अपने को किसी तीसरी सत्ता की सेवा में लगा देते हैं.यह तीसरी सत्ता और कुछ नहीं एक दबाव का नाम है. दबाव यह है कि जल्दी पढ़ो, पढकर आगे का छपा पढ़ो, और जब यह सब पढ़ना पूरा हो जाए तों दिमाग खाली रहे-ऐसे ही एक और अनुभव के लिखे खाली. पढ़ने और समझने की बीच में से ये किताबें कल्पना को धकेलकर हटा देती है क्योंकि कल्पना ही वह चीज है जो पढ़नेवाले के पास कुछ छोड़ जाती है. वह कुछ छोड़ा हुआ जो है, किताब पढ़ना खत्म हो जाने के बाद किताब का समझना जारी रखता है और बहुत से अर्थ और अनुभव पढ़ने वाले के मन और मस्तिष्क में पैदा करता रहता है जो हो सकता है किताब की भाषा में ही छिपे रहे हों या उसकी तस्वीरों ने दिए हों या पढ़नेवाला उन्हें किताब के बाहर की दुनिया में से कहीं, अपने निजी अनुभवों से, ले आया हो और किताब के साथ उनके मिलन हो गया हो. यह चिंतन किताब पढ़ने के बाद एक बार तुरंत हो जाता है और फिर समय-समय पर कभी-कभी बहुत देर बाद दुबारा और बार-बार होता रहता है. यही तों किताब की ज़िन्दगी और उसकी आयु होती है - आप कह सकते हैं उसकी बैटरी होती है जो बार-बार चार्ज हुआ करती है और हमें करेंट दिया करती है.
बच्चे की ज़िन्दगी एक लंबी ज़िन्दगी है. उसमे एक किताब आकर चली नहीं जानी चाहिए. बच्चे को बड़ा होना है. अगर उसे किताब में कल्पना की बैटरी नहीं मिली जो बार-बार चार्ज हो जाती हो तों बड़े होकर भी वह बड़ा नहीं होगा, एक बच्चा ही रहेगा. हां, उस बचपने में उसने जो कल्पनाहीन भाषा पढ़ी थी वही उसकी संपत्ति होगी, उसमे वह बार-बार वृद्धि नहीं कर पा रहा होगा. वह जीवन भर दूसरों की वेदना को और खुशी को बस उतना ही जान पाएगा, जितना जाने से वह उसमे भागीदार होने की जिम्मेदारी से बचा रहता है.
इस समय ऐसी तस्वीरें और ऐसी भाषा के मेल से तैयार किताबें बच्चों के हाथों में पहुँच चुकी हैं. वे अपने ऊपर सोचने का कोई बोझ डाले बिना इनको पढते चले जा रहे हैं. इस हल्के होने में बच्चों का नुकसान है. उनको ऐसे-ऐसे मजों से हाथ धोना पड़ रहा है जो सिर्फ एक कल्पना जगानेवाली और अपने से बाहर ले जानेवाली किताब से मिल सकते हैं. उसकी जगह "तुरता किताबें" पढकर वे अपने भीतर लौट जा रहें हैं जहां बाहर की दुनिया की पीडाओं से मुक्ति नहीं-केवल घुटन, आत्मदया और पराजय है. परन्तु बच्चे को बड़ा होना ही है और दुनिया को झेलना ही है इसलिए वह इसी घुटन को घृणा, हिंसा (और प्रतिहिंसा) और दमन बना लेता है-जीवन भर बनाता ही रहता है.
बच्चों के साहित्य में क्या होना चाहिए इस पर आजकल जगह-जगह विचार विमर्श चल रहे हैं. अगर कहीं इन "तुरत किताबों" के लेखक-प्रकाशक उनमे मौजूद होंगे तों शायद सफ़ाई देंगे कि कितने कम वक्त में हमारी किताब बच्चों को कितना अधिक बता देती है. इसे पढकर वह और किताबें भी पढ़ने का समय पा सकेगा. मुझे केवल इतना कहना है देखिये, बच्चे के पास समय की कमी नहीं है. आपके पास होगी. उसके पास अपनी ज़िन्दगी भर लंबा समय पड़ा है. और ऊपर से वह उसे जब चाहता तब खींच-खींचकर बढाता रहता है. आप अपनी किताब लाइए, देखें कि वह उसकी ज़िन्दगी में अंट जाती है या नहीं? बच्चा तों लंबी उम्र पाएगा जो कहीं लिखकर अभी नहीं बताई जा सकती. आपकी किताब की उम्र क्या है? वह तों उसी में लिखी हुई होगी?
( श्री सुरेश शर्मा द्वारा सम्पादित :रघुवीर सहाय रचनावली-२ से साभार )
तुरता किताब और लंबी उम्र
बहुत दिन बाद बच्चों के साहित्य पर बहस का एक नया दौर शुरू हुआ है. इसमें एक तरह की सामाजिकता, प्रतिष्ठा और कुछ के लिए पैसे भी है. बच्चे भी हैं इसमें, पर ऐसे हैं मानो "बच्चा लोग बैठ जाओ" की मीठी डाँट पिलाकर पुरुषों की दवाई बेचनेवाले ने उन्हें बिठा दिया हो और वे उस मजमे का एक हिस्सा बनकर रह गए हैं जिसे कुछ दुखद और दिलचस्प बीमारियों के हकीम की आवाज में मजा आ रहा है. बहस करनेवालों में लेखक भी हैं जिनके परिचय में बताया जाता है कि कितनी किताबों के और कितने अनुवादों के रचयिता हैं एवं कितनी समितियों के सदस्य हैं. उनकी एक पुस्तक या पुस्तक छोडिये एक कहानी-कविता-नाटक का नाम देकर उनका परिचय नहीं कराया जाता कि आप ही उसके लेखक हैं. करने पर कोई कह उठेगा, "ओह, हां, हां, मैंने बच्चों से उसका नाम सुना था, मैंने भी पढ़ी."
यह कहकर मैंने शायद उन "कृतिकारों" के साथ कुछ अन्याय कर दिया है जिनकी किताबें धडाधड छप और बिक रही हैं. इन्हें तों बहुत बच्चे जानते हैं. जानते ही नहीं इनकी किताबें मांग-मांगकर, बाँट-बाँट, खरीद-खरीदकर पढते हैं.परन्तु ये किताबें उस तरह की नहीं हैं जिनको हम किताब मानते हैं. इनमे भाषा है पर केवल यह बताने के लिए तस्वीर में दिखाई देते आदमी ने जो कुछ कहा वह कम शब्दों में क्या है-इतने कम शब्दों में कि तस्वीर नंबर एक पर हम जल्दी से जल्दी ध्यान हटाकर तस्वीर नंबर दो पर ले जा सकें क्योंकि अभी ऐसी ही कई तस्वीरें देखनी हैं. किसी भी तस्वीर पर देर तक आँख गडा कर देखना नहीं है ताकि तस्वीर का अर्थ उजागर हो जाए. वैसे अर्थ जो तस्वीर में ही छिपा हो उसमे है ही नहीं. यह तस्वीर ही नहीं है-यानी उस तरह की तस्वीर जिसे हम चित्र प्रदर्शनी में देखने जाते हैं. यह वह तस्वीरें भी नहीं हैं जो हमें किसी माने में (जिसे अब समर्थ लोग (पुराना ज़माना" कहने लगे हैं_ किताबों में (हममें से जो पचास के ऊपर हैं उन्हें (अपनी किताबों में") छपी मिलती थी. वे तस्वीरें भी लिखी कहानी के ही साथ छपी होती थीं परन्तु बच्चे कहानी को पढते समय तस्वीर को देखते थे और तस्वीर उसी कहानी को फिर से कहती थी जिसे वे पढ़ चुके थे. उसकी अपनी-तस्वीर की-भाषा थी. बच्चे दोनों भाषाओं को जान जाते थे, शब्दों की भाषा को और चित्रों की भाषा को.
इसकी तुलना में आज बच्चों के पढ़ने के लिए तस्वीरों और कहानियों का जो मिला-जुला रूप मिलता है वह बहुत खोखला है. उसमे कहानी तस्वीर की मदद नहीं करती और तस्वीर कहानी की मदद नहीं करती. दोनों अपने-अपने को किसी तीसरी सत्ता की सेवा में लगा देते हैं.यह तीसरी सत्ता और कुछ नहीं एक दबाव का नाम है. दबाव यह है कि जल्दी पढ़ो, पढकर आगे का छपा पढ़ो, और जब यह सब पढ़ना पूरा हो जाए तों दिमाग खाली रहे-ऐसे ही एक और अनुभव के लिखे खाली. पढ़ने और समझने की बीच में से ये किताबें कल्पना को धकेलकर हटा देती है क्योंकि कल्पना ही वह चीज है जो पढ़नेवाले के पास कुछ छोड़ जाती है. वह कुछ छोड़ा हुआ जो है, किताब पढ़ना खत्म हो जाने के बाद किताब का समझना जारी रखता है और बहुत से अर्थ और अनुभव पढ़ने वाले के मन और मस्तिष्क में पैदा करता रहता है जो हो सकता है किताब की भाषा में ही छिपे रहे हों या उसकी तस्वीरों ने दिए हों या पढ़नेवाला उन्हें किताब के बाहर की दुनिया में से कहीं, अपने निजी अनुभवों से, ले आया हो और किताब के साथ उनके मिलन हो गया हो. यह चिंतन किताब पढ़ने के बाद एक बार तुरंत हो जाता है और फिर समय-समय पर कभी-कभी बहुत देर बाद दुबारा और बार-बार होता रहता है. यही तों किताब की ज़िन्दगी और उसकी आयु होती है - आप कह सकते हैं उसकी बैटरी होती है जो बार-बार चार्ज हुआ करती है और हमें करेंट दिया करती है.
बच्चे की ज़िन्दगी एक लंबी ज़िन्दगी है. उसमे एक किताब आकर चली नहीं जानी चाहिए. बच्चे को बड़ा होना है. अगर उसे किताब में कल्पना की बैटरी नहीं मिली जो बार-बार चार्ज हो जाती हो तों बड़े होकर भी वह बड़ा नहीं होगा, एक बच्चा ही रहेगा. हां, उस बचपने में उसने जो कल्पनाहीन भाषा पढ़ी थी वही उसकी संपत्ति होगी, उसमे वह बार-बार वृद्धि नहीं कर पा रहा होगा. वह जीवन भर दूसरों की वेदना को और खुशी को बस उतना ही जान पाएगा, जितना जाने से वह उसमे भागीदार होने की जिम्मेदारी से बचा रहता है.
इस समय ऐसी तस्वीरें और ऐसी भाषा के मेल से तैयार किताबें बच्चों के हाथों में पहुँच चुकी हैं. वे अपने ऊपर सोचने का कोई बोझ डाले बिना इनको पढते चले जा रहे हैं. इस हल्के होने में बच्चों का नुकसान है. उनको ऐसे-ऐसे मजों से हाथ धोना पड़ रहा है जो सिर्फ एक कल्पना जगानेवाली और अपने से बाहर ले जानेवाली किताब से मिल सकते हैं. उसकी जगह "तुरता किताबें" पढकर वे अपने भीतर लौट जा रहें हैं जहां बाहर की दुनिया की पीडाओं से मुक्ति नहीं-केवल घुटन, आत्मदया और पराजय है. परन्तु बच्चे को बड़ा होना ही है और दुनिया को झेलना ही है इसलिए वह इसी घुटन को घृणा, हिंसा (और प्रतिहिंसा) और दमन बना लेता है-जीवन भर बनाता ही रहता है.
बच्चों के साहित्य में क्या होना चाहिए इस पर आजकल जगह-जगह विचार विमर्श चल रहे हैं. अगर कहीं इन "तुरत किताबों" के लेखक-प्रकाशक उनमे मौजूद होंगे तों शायद सफ़ाई देंगे कि कितने कम वक्त में हमारी किताब बच्चों को कितना अधिक बता देती है. इसे पढकर वह और किताबें भी पढ़ने का समय पा सकेगा. मुझे केवल इतना कहना है देखिये, बच्चे के पास समय की कमी नहीं है. आपके पास होगी. उसके पास अपनी ज़िन्दगी भर लंबा समय पड़ा है. और ऊपर से वह उसे जब चाहता तब खींच-खींचकर बढाता रहता है. आप अपनी किताब लाइए, देखें कि वह उसकी ज़िन्दगी में अंट जाती है या नहीं? बच्चा तों लंबी उम्र पाएगा जो कहीं लिखकर अभी नहीं बताई जा सकती. आपकी किताब की उम्र क्या है? वह तों उसी में लिखी हुई होगी?
( श्री सुरेश शर्मा द्वारा सम्पादित :रघुवीर सहाय रचनावली-२ से साभार )
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