Thursday, August 11, 2011
एक अविस्मरणीय व्यक्तित्व : आर. सी. प्रसाद सिंह
आरसी प्रसाद सिंह
हिन्दी और मैथिली भाषाओं के महाकवि, कथाकार और एकांकीकार ।
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित
जन्म: 19 अगस्त 1911 : निधन: 15 नवंबर 1996
आर.सी. प्रसाद सिंह हिंदी के उन पुरोधा कवियों में से एक हैं जिन्हें पढते हुए हमने हिंदी का क-ख-ग सीखा. बिहार की पुण्यभूमि धन्य है जहां आर.सी.प्रसाद जी जैसे कवि का जन्म हुआ और जहां उनकी साहित्यिक प्रतिभा परवान चढी.2011 आर.सी प्रसाद सिंह जी का भी जन्मशताब्दी वर्ष है. वे प्रौढ़ एवं बाल साहित्य दोनों में रचना रत रहे. यह और बात है कि उन्हें आज के मीडिया की चकाचौंध में वह स्थान नहीं मिला जो मिलने चाहिए था.
आरज़ू में जनम भर खड़ा मैं रहा
आपने ही कभी तो पुकारा नहीं
आपके इस शहर में गुज़ारा नहीं
अजनबी को कहीं पर सहारा नहीं
आर.सी. प्रसाद जी के बारे में आप अनेक जगह अनेक महत्त्व पूर्ण बातें पढ़ सकते हैं पर उनकी बेहद मजेदार बाल कविताओं के महासागर में से चुने गये एक-दो मोतियों की आब आप यहाँ पर देखिये:
सैर सपाटा
कलकत्ते से दमदम आए
बाबू जी के हमदम आए
हम वर्षा में झमझम आए
बर्फी, पेड़े, चमचम लाए।
खाते पीते पहुँचे पटना
पूछो मत पटना की घटना
पथ पर गुब्बारे का फटना
तांगे से बेलाग उलटना।
पटना से हम पहुँचे राँची
राँची में मन मीरा नाची
सबने अपनी किस्मत जाँची
देश-देश की पोथी बाँची।
राँची से आए हम टाटा
सौ-सौ मन का लो काटा
मिला नहीं जब चावल आटा
भूल गए हम सैर सपाटा !
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चिड़िया
पीपल की ऊँची डाली पर, बैठी चिड़िया गाती है.
तुम्हें ज्ञात अपनी बोली में, क्या सन्देश सुनाती है?
चिड़िया बैठी प्रेम-प्रीति की, रीति हमें सिखलाती है।
वह जग के बन्दी मानव को, मुक्ति-मन्त्र बतलाती है।
वन में जितने पँछी हैं, खंजन, कपोत, चातक, कोकिल,
काक, हँस, शुक, आदि वास, करते सब आपस में हिलमिल।
सब मिल-जुलकर रहते हैं वे, सब मिल-जुलकर खाते हैं।
आसमान ही उनका घर है, जहाँ चाहते जाते हैं।
रहते जहाँ, वहीं वे अपनी दुनिया एक बसाते हैं।
दिनभर करते काम, रात में पेड़ों पर सो जाते हैं।
उनके मन में लोभ नहीं है, पाप नहीं, परवाह नहीं।
जग का सारा माल हड़पकर जीने की भी चाह नहीं।
जो मिलता है, अपनी श्रम से उतना भर ले लेते हैं।
बच जाता तो औरों के हित, उसे छोड़ वे देते हैं।
सीमा-हीन गगन में उड़ते निर्भय विचरण करते हैं।
नहीं कमाई से औरों की अपना घर वे भरते हैं।
वे कहते हैं - मानव, सीखो तुम हमसे जीना जग में।
हम स्वछंद, और क्यों तुमने डाली है बेड़ी पग में?
तुम देखो हमको, फिर अपनी सोने की कड़ियाँ तोड़ो।
ओ मानव, तुम मानवता से द्रोह-भावना को छोड़ो।
पीपल की डाली पर चिडिया यही सुनाने आती है।
बैठ घडी भर, हमें चकित कर, गाकर फिर उड़ जाती है।
चित्र/कवितायें सौजन्य: कविताकोश.ओआरजी
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