Tuesday, August 2, 2011

बाल साहित्यकारों को सर्वेश्वरजी की खरी-खरी

(प्रतिष्ठित कवि, कथाकार, लेखक, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का हिंदी के वयस्क और बाल साहित्य दोनों ही क्षेत्रों में महत्वपूर्ण अवदान रहा है. वे बच्चों/किशोरों की लोकप्रिय पत्रिका "पराग" के पूर्व संपादक भी रहे और बाल साहित्य के सम्पूर्ण परिदृश्य पर पैनी नजर रखने वाले तथा अपने विचारों को खुल कर व्यक्त करने वाले एक सजग चिन्तक भी रहे. १९७९ में लखनऊ की एक बाल साहित्य संगोष्ठी में उनके द्वारा पढ़ा गया यह विचारोत्तेजक लेख " सर्वेश्वरदयाल सक्सेना: सम्पूर्ण गद्य रचनाएं" से साभार यहाँ उद्धृत किया जा रहा है. इस लेख की प्रासंगिकता आज भी जस की तस बनी हुई है और मुझे यकीन है कि इसे पढ़ कर आज के बाल साहित्यकारों को बाल साहित्य सृजन की वर्तमान चुनौतियों का सामना करने के लिए नई दृष्टि और नई शक्ति दोनों मिलेगीं.)





श्रेष्ठ बाल साहित्य की चिंता

इस देश में फिलहाल अच्छा बाल साहित्य नहीं लिखा जा सकता. अच्छा यानी देशकाल से बंधा हुआ होकर भी देशकाल से परे, जीवन के उत्स से जुड़ा हुआ. इसके तीन कारण हैं: पहला, हमारा कोई राष्ट्रीय चरित्र नहीं है, न उसकी कोई परिकल्पना ही है. दूसरा, हमारी कोई सामजिक दृष्टि नहीं है. हम कैसा आदमी और कैसा समाज बनाना चाहते हैं इसकी चिंता नहीं है. इन दोनों कारणों का मूल आधार इस देश की भ्रष्ट राजनीति है और मूल्य विहीनता सत्ता संघर्ष है. तीसरा और प्रमुख कारण आज का बाल लेखक स्वयं. अपनी संवेदना के क्षेत्र में वह वस्तुतः बच्चों से जुड़ा हुआ नहीं है, न अपनी युग चेतना से. बिना दोनों से एक साथ जुड़े हुए बाल साहित्य नहीं लिखा जा सकता. सच तों यह है कि अच्छे साहित्यकार का बच्चों से कोई सरोकार नहीं है, वह उनके लिए लिखता ही नहीं. दूसरे दर्जे का, अधिकतर घटिया दर्जे का लेखक कुछ मामूली पैसों के लालच में बच्चों के लिए कलम उठाता है. और जो भाषा बोलता है उससे बच्चे का न आतंरिक स्वस्थ संवाद हो सकता है और न बच्चे में मुक्ति का अहसास जग सकता है. बच्चे में मुक्ति का अहसास जगाना यानी यह भाव कि वह अपने समाज को ही नहीं सम्पूर्ण मानव नियति को बदल सकता है, बाल साहित्य का पहला काम है. पहले के साहित्य में बच्चा यह पाता था कि यदि वह निडर और वीर है तों अकेला तलवार उठाकर हर मुसीबत का सामना कर अंत में सारी कठिनाई पर विजय प्राप्त कर अपने सपनों को सत्य कर सकता है, उनको वर् सकता है. अब आज के युग में मूल्यों के स्तर पर सपना क्या हो सकता है यह बाल साहित्यकार ही नहीं जानता और उसे कैसे सत्य किया जा सकता है या वरा जा सकता है यह और भी नहीं. वह अभी भी अतीत के मूल्यों पर ही सिर पटक रहा है. चाहे वह बाल लेखक हो या बाल संपादक. यह दुर्भाग्य की बात है कि नए समाज की परिकल्पना लेखक के पास नहीं है और उसकी रचने के लिए किस तरह का संघर्ष जरूरी है यह तों वह और भी नहीं जानता. इस तरह उसके और बच्चे के बीच में एक दीवार खड़ी है जिसे वह पहचानता नहीं और अंधे की तरह उसी से टकराता रहता है. जबकि बच्चा, राजा-रानी और परियों के पुराने संसार के चंगुल से निकल चुका है. आज के लेखक और संपादक जैसे परियों के महल के तहखाने की जो चाभी रखते हैं उससे कहीं ज्यादा उसकी परिकल्पना की चाभी से बंधी है जिससे मोटर चलने लगती है. वह उसे ज्यादा पहचानता है. उसे न् केवल इतना बताना कि उस चाभी से मोटर कैसे चलती है बल्कि यह भी कि चाभी बनाने वाली और इस्तेमाल करने वाली ताकतें कौन है और उन नाना ताकतों में वह कहां है और उस चाभी को प्राप्त करने के लिए अन्याय और शोषण के दुर्गम पथ को कैसे पार किया जा सकता है. इतना समझ में आ जाने के बाद ही लेखक बच्चे से सार्थक संवाद की स्थिति में आ सकेगा.



यहाँ यह प्रश्न उठाना कोई खास मतलब नहीं रखता कि संवाद किसे बच्चे से? गाँव के या शहर के? जाहिर है बातचीत का सन्दर्भ शहरी पढ़ने-लिखने में समर्थ बच्चे से है उस बच्चे का नहीं है जो पैदा होते ही रोटी कमाने की फ़िक्र में जुट जाता है. कैसी विडंबना है कि हम गाँव के बच्चे तक बाल साहित्य पहुंचाने की ख्याली बात कर रहे हैं जबकि उसको दो जून रोटी पहुंचाने की ख्वाहिश भी पूरी होते नहीं दीख पा रही है. गाँव के बच्चे के पास मौखिक बाल साहित्य की अपार सम्पदा है. परंपरा से चली आती नानी की कहानियां हैं. इन कहानियों के द्वारा उसकी ऐसी मानसिकता बनाने का षड्यंत्र सदियों से चल रहा है जिससे कि वह हर तकलीफ, अन्याय, शोषण को अपने कर्मों का फल मानकर जी सके और पीड़ा के हर क्षण में अपनी नियति पर सिर पटककर खामोश हो जाए. उस बाल साहित्य की जगह नया आप तब तक नहीं दे सकेंगे जब तक आप उसे शिक्षित न कर लें. लेकिन इस देश के करोडों ग्रामीण बच्चों की शिक्षा कौन चाहता है? उसके परिवार को आर्थिक शिकंजे में इतना कस दिया गया है कि बच्चा उसे तोड़ने की छटपटाहट से ही अपना बचपन शुरू क ता है. अतः यह सवाल कि गाँव के और शहर के बच्चे का साहित्य कितना अलग-अलग हो ढपोरशंखी सवाल लगता है. सूत न कपास जुलाहों में लट्ठमलट्ठा . इस सवाल से जूझना मौजूदा व्यवस्था से जूझना है और बिना उसे बदले हुए इस सवाल का हल नहीं निकल सकता. इसीलिए शुरू में ही कहा गया कि इस देश में श्रेष्ठ बाल साहित्य नहीं लिखा जा सकता. आप कह सकते है बाल साहित्य ग्रामीण बच्चे के लिए जिसे यदि वह पढ़ न् सके तों सुन ही सके. कौन सुनाएगा? फ़िल्में? बच्चों की एक भी फिल्म ग्रामीण बच्चों को ध्यान में रखकर नहीं बनायी गयी है. जो भी बनी हैं बच्चों के अनुपात को ध्यान में रखकर नहीं के बराबर. वह शहरी बच्चों के लिए हैं. शहरी बच्चों की जरूरत ही उससे पूरी नहीं होती. वह्बदों की ही फ़िल्में देखते हैं,बड़ों की ही दुनिया में रहते हैं. क्या इसे और साफ़ कहने की जरूरत है कि आज का हमारा बच्चा बड़ों का बोझ अपने कन्धों पर लादे डोलने के लिए अभिशप्त है.

अतः यह साफ़-साफ़ दीखता है कि व्यक्ति, समाज, संस्थाएं, सरकार तंत्र, सब बच्चे से बिना सरोकार रखे, बच्चे की बात करके अपना धंधा चलाते है. कम से कम सही लेखक को जिसे बच्चों से प्यार हो इस धंधे से दूर ही रहना चाहिए. अंतर्राष्ट्रीय बाल-दिवस इस दिशा में एक और बड़ा धंधा है वैसे ही बाल लेखक त्योहारी पर जीता हैआँखें फाड़े हर तीज-त्यौहार, होली-दिवाली पर ढेरों वाहियात रचनाएं लिखकर अखबारों का पेट पालता है और अपना भी. बच्चा वैसे का वैसा रह जाता है.

यदि एक भी लेखक ऐसा हो जिसे बच्चों से प्यार हो, जिसे आप बच्चों के पार्कों में, बच्चों के स्कूलों के सामने उनके साथ खेलते, बतियाते, रचते देख सकें तों मेरा सब कहा झूठा माना जाए. लेकिन ऐसा नहीं है. पर ऐसा होना चाहिए. आज की इस स्थिति में जब न राष्ट्रीय चरित्र है, न सामाँजिक दृष्टि है, न बच्चों से प्रतिबद्ध लेखक है ऐसे लेखकों की और जरूरत है जो युगभाव लेकर बच्चों से सीधा रिश्ता कायम करें उनके साथ खेलें. उन्हें कविताएँ सुनाएँ, कहानियाँ सुनाएँ और अपनी उन रचनाओं का परीक्षण करें जिन वह अपने घर बेठे श्रेष्ठ मानते हैं. अबसे जरूरी है नाटक उनके साथ नाटक करें. ऐसा नाटक जिसे बच्चे खेल सकें. जिसमे गाना-नाचना, उछलकूद भी हो और जो इतना लचीला भी हो कि वह खुद उसमे जो चाहे जोड़-घटा सकें. जिसकी भाषा नर्सरी राइम्स की तरह गेंद की तरह उछले. बच्चा हर चीज से खेलना चाहता है. भाषा से भी वह खेलना चाहता है. उसे लपेटना, खोलना, उछालना चाहता है. ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ती है उसकी उधेड बुन बढ़ती है. भाषा में इतनी ताकत होनी चाहिए कि बच्चा अपनी उम्र के साथ-साथ उन्हीं शब्दों और बड़े अर्थ को ग्रहण करता जाए जिनसे वह खेलता रहा है. यह बड़ी रचना की पहचान है. बड़ी रचना पेचकश की तरह होती है जिससे छोटा बच्चा जमीन खोदता और ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ती जाती है उसका नया-नया इस्तेमाल सीखता जाता है और मशीने ठीक करने लगता है. पर ऐसी लगन नहीं है. यह लगन आने के बाद ही जबान की यानी भाषा की अपनी रचनात्मक लड़ाई है. उसमे साझेदारी भी हो सकती है पर तभी वह निष्ठां दिखाई दे और ऐसे निष्ठावान मिलकर बैठें अतः अभी इतना ही. यदि कुछ बातें सख्त हों तों इस टिपण्णीकार को क्षमा किया जाए. लेकिन यदि कोई बच्चा आपके आसपास या आपकी गोद में हो तों इस कथन के सन्दर्भ में उसकी आँखों की ओर जरूर देखिए .

(यह आलेख श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने नवंबर-१९७९ में आयोजित साक्षरता निकेतन, लखनऊ की बाल-साहित्य गोष्ठी में पढ़ा गया

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