Wednesday, October 21, 2015

डा० श्रीप्रसाद की बालकविताओं का रचनात्मक वितान - रमेश तैलंग

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हिंदी के सिरमौर बालकवि डा श्रीप्रसाद की बालकविताओं को पढ़ते हुए एक रोमांचक अनुभूति होती है। इन कविताओं में वे सभी विशिष्टताएं दिखती हैं जो एक बाल कविता को श्रेष्ठ बाल कविता बनाती हैं। इनमें से एक है देशज शब्दों का मुक्त प्रयोग।
     श्रीप्रसाद जी देशज शब्दों का खुलकर प्रयोग करते हैं जो उनकी कविताओं मे एक अद्भुत चमत्कृति पैदा करता है। उदाहरण के लिये श्रीप्रसाद जी की सर्वाधिक लोकप्रिय बालकविता च्च्हाथी चल्लम चल्लमज्ज् को लें जो बच्चों के पाठ्यक्रमों में भी शामिल है, तो इसमें हौदा, चल्लम, हल्लम, फ़ट्टर-फ़ट्टर, थल्लर-थल्लर, धम्मम-धम्मम आदि ऐसे शब्द हैं जिनकी आवृत्ति तथा पुनरावृत्ति बच्चों को पढ़ते-सुनते समय एक अलग ही तरह का आनंद देती है। हाथी की विशाल काया और मस्त्ती भरी चाल को यह शब्दावली पूरी तरह से जीवंत कर देती है
हल्लम-हल्लम हौदा, हाथी चल्लम-चल्लम
हम बैठे हाथी पर, हाथी हल्लम-हल्लम
लंबी-लंबी सूँड़ फ़टाफ़टे, फ़ट्टर-फ़ट्टार
लंबे-लंबे दाँत खटाखट, खट्टर-खट्टर
दिनभर घूमेंगे हाथी पर, हल्लर-हल्लर
हाथी दादा, जरा नाच्दो, थल्लर-थल्लर
अरे नहीं, हम गिर जाएंगे, घम्मम-घम्मम
हल्लम-हल्लम हौदा, हाथी चल्लम-चल्लम

और यही कविता क्यों? श्रीप्रसाद जी की अन्य कविताओं मे भी ऐसे कई प्रयोग हैजैसे भक्काटे, धिनधिनताम, कुइयाँ, गुइयाँ, धिनतका इत्यादि। ऐसे शब्दों का यथोचित प्रयोग वही बालकवि कर सकता है जिसकी जड़ें किसी भी रूप में ग्रामीण तथा संगीतात्मक पृष्ठ्भूमि से जुड़ी हुई हों। श्रीप्रसाद जी को जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से देखा है वे उनकी वेश-भूषा, आचार-व्यवहार, मृदुभाषिता तथा विनम्रता से भली-भांति परिचित होंगे और उनके इस व्यक्तित्व की झलक कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं प्रच्छ्न्न रूप में उनकी रचनाओं मे भी मौज़ूद दिखाई देती है।
खेल-कूद, और मनोरंजन, श्रीप्रसाद जी की बाल कविताओं के प्रमुख विषय हैं। पतंगवाजी भी इन्ही खेलों मे से है, और यह शौक भला किस बच्चे को प्रिय नहीं होगा ? जब पन्द्रह अगस्त या अक्षय तृतिया का पर्व आता है तब तो पतंगों से संपूर्ण आकाश आच्छादित हो जाता है और वो काटा भक्काटा! की आवाजें दूर-दूर तक गुंजायमान होने लगती हैं। इस गूंज को भक्काटे कविता में बखूबी सुना जा सकता है
पीली, लाल, गुलाबी, नीली, भक्काटे!/ऊपर उड़ती हैं चमकीली भक्काटे!
कटी एक तो शोर हो रहा भक्काटे!/हो-हो चारों ओर हो रहा भक्काटे!

छंद के विधान पर श्रीप्रसाद जी की पूरी पकड़ है। इसीलिये उनकी बालकविताओं मे आरंभिक टेक, लय और गीतात्मकता का समुचित निर्वाह देखने को मिलता है। बाल कविताओं मे ध्वन्यात्मक शब्दों की बारंबारिता का अपना अलग प्रभाव होता है और ऐसी बाल कविताएँ बच्चों को याद जल्दी हो जाती हैं क्योंकि उनमें सामूहिकता का भाव भी अन्तर्विद्ध रहता है।
कुछ ऐसी ही बालकविताएँ देखिये

जोर लगाएँ, ऊपर जाएँ, हैया हो!/आसमान में धूम मचाएँ हैया हो!/
चाँदी से चंदा पर खेलें, हैया हो! /वहाँ कठिन मौसम को झेलें हैया हो!/
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गोल बनाकर आओ नाचें, झूमें गाएँ - ताकधिना/
दोनों हाथों को फ़ैलाकर हाथ मिलाएँ -ताकधिना!/
ओहोहो हम सब कितने हैं/सब आ जाएँ-ताकधिना/
ताली दे-देकर के नाचें/मिलकर गाएँ-ताकधिना!
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पेड़ खड़े हैं जंगल में, धिनतका /पहलवान हैं दंगल में, धिनतका/
फ़ूल पेड़ पर आएँगे, धिनतका /पहलवान लड़ जाएँगे धिनतका/
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भारत जैसे देश मे जहाँ बच्चों की बड़ी आबादी ग्रामीण परिवेश से आती है, उन्हें श्रीप्रसाद जी की बालकविताएँ पढ़ने-सुनने मे बिलकुल अपनी-सी लगें तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिये। बच्चों की कल्पना का आकाश कितना विस्तीर्ण हो सकता है यह उनकी इस बाल कविता मे स्पष्ट्त: देखा जा सकता है

रसगुल्ले की खेती होती, बड़ा मजा आता/
चीनी सारी रेती होती, बड़ा मजा आता/
बाग लगे चमचम के होते बड़ा मजा आता/
शर्बत के बहते सब सोते बड़ा मजा आता/...
लड्डू की सब खानें होतीं बड़ा मजा आता/
घर मे दुनिया पेड़े बोती बड़ा मजा आता/
रुपये की दस किलो मिठाई बड़ा मजा आता/
होते रुपये पास अढ़ाई बड़ा मजा आता/

हां, इस कविता को पढ़्ते समय एक समस्या आजकल के पब्लिक स्कूल में पढ़ रहे बच्चों के सामने अवश्य आ सकती है और वह समस्या है च्च्अढाईज्ज् शब्द की। ऐसे समय में जब आठ आने और पचास पैसे के सिक्के चलन से बाहर हो गए हैं तब अढ़ाई रुपये को किस तरह बच्चे की समझ में डाला जाएगा यह बात कविता पढाने/सुनाने वाले को अवश्य परेशान करेगी! इन पंक्तियों के लेखक को भी अपना एक बालगीत च्च्टिन्नी जी ओ टिन्नी जी ये लो एक चवन्नी जी...ज्ज् इसी कारण चलन से बाहर होता दिखाई पड़ रहा है। पर साहित्य में नये शब्दों का प्रवेश और पुराने (निष्क्रिय हो गये) शब्दों का निष्कासन कोई नई बात नहीं है। ऐसा पहले भी होता रहा है और आगे भी होता रहेगा क्योंकि भाषा तो बहता नीर है। इसलिये मात्र इस बिना पर इस मजेदार कविता का रसभंग नहीं हो सकता. इसका मज़ा तो बच्चे और बड़े सभी लेंगे इसमें संदेह नहीं।
                कल्पना की ऐसी उड़ान  भरती हुई कुछ अन्य कविताएं भी हैं

एक पेड़ पर विद्यालय हो/एक पेड् पर खाना
डाली-डाली पर हम बैठें/वहीं पढें मिल करके
बातें करें, हँसे हम बच्चे/फ़ूलों से खिल करके
बजे वहीं पढ़्ने का घंटा/कोयल गाए गाना
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आठ फ़ीट की टांगें होतीं/चार फ़ीट के हाथ बड़े
तो मैं आम तोड़कर खाता/ धरती से ही खड़े-खड़े
कान बड़े होते दोनों ही/दो केले के पत्ते से
तो मैं सुन लेता मामा की/ बातें सब कलकत्ते से
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बच्चों का संसार सिर्फ़ माता-पिता, घर-परिवार तक सीमित नहीं होता, उस संसार में पशु, पक्षी, पेड़, फ़ूल, हवा, पानी, बादल, बिजली, पठन-पाठन, खेल-कूद सभी शामिल होते हैं। श्रीप्रसाद जी ने अपने बालकाव्य में इन सभी को समेटा है और यही कारण है कि उनकी बालकविताएं एक विस्तृत फ़लक पर खड़ी नज़र आती हैं। पारंपरिक खेल तो वैसे भी हमारे समाज से विदा ले चुके हैं और उनके साथ-साथ पारंपरिक खेलगीत भी स्मृति से लुप्त हो गए हैं इसलिये बालसाहित्य मे जब इक्के-दुक्के खेलगीत कहीं दिखाई देते हैं तो लगता है जैसे सूखी मिट्टी पर पानी का छिड़्काव हो गया हो और उसकी महक पूरे वातावरण में फ़ैल गई हो। श्रीप्रसाद जी के कुछ खेल गीतों के अंश यहां देखिये

 छुक-छुक गाती बढ़्ती जाती रेल हमारी
डिब्बों में बैठी हँसती हर एक सवारी
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तीन कुर्सियाँ आगे रक्खीं
पीछे रक्खी एक, हमारी घोड़ागाड़ी!
पीछे की कुर्सी पर बैठे
दादा लाठी टेक हमारी घोड़ागाड़ी!
तीनों घोड़े चले दौड़कर
सरपट-सरपट चाल, हमारी घोड़ागाड़ी!
चट से नानी के घर पहुँचे
कैसा किया कमाल हमारी घोड़ागाड़ी!
 
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आओ आओ, आओ, खेलें/आओ खेलें गुइयाँ
छत पर खूब चाँदनी छाई/ जैसे उतरा चंदा/
गाना मीठा-सा गाएगी / नन्ही-नन्ही नंदा
सोने के गोटे की साड़ी पहने आई टुइयाँ
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श्रीप्रसाद जी उस पीढ़ी के बालकवि हैं जिन्होंने परतंत्रता और स्वतंत्रता दोनों का समय देखा है और जिस तरह पं सोहन लाल द्विवेदी, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जैसे प्रभृति कवियों ने देशप्रेम और प्रयाण के गीत लिखे हैं उसी तरह श्रीप्रसाद जी ने भी अनेक ऐसी बाल कविताएं लिखी हैं। जिनमें से कुछके अंश यहां प्रस्तुत हैं :

चलो सिपाही, वीर चलो तुम/आगे चलो सिपाही/
मिलकर चलो, मिलेगी मंजिल तुमको तब मनचाही/

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सिर ताने, सीना ताने/हम चले वीर मस्ताने
हम चले हवा की गति से/हम चले एक ही मति से/
गाते साहस के गाने/हम चले वीर मस्ताने!
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भारत अपना देश, देश की मिट्टी कितनी प्यारी
भारत बने महान, कामना रहती यही हमारी

परियां यथार्थ मे हों न हों पर बच्चों की कल्पना में वे अवश्य होती हैं, और उन बच्चों को सबसे अधिक आकर्षित करती हैं जो अकेलेपन क अभिशाप झेलते हुए किसी ऐसे सहारे को खोज रहे होते है. जो उनसे दोस्त की तरह बात-चीत कर सके, और उनके निराश मन को आशा के भाव से भर सके !
एक परी है नीली -नीली/एक परी है हरी-हरी/एक परी है पीली, जिसकी/फ़ूलों से है फ़्राक भरी
तीनों परियाँ गाना गातीं/नाच दिखाती छम-छम-छम/आओ, आओ, इन तीनों/सुंदर परियों को देखें हम।

हाशिये पर पडे बच्चों और खासकर लड़्कियों पर बहुत कम कवियों ने कलम चलाई है फ़िर लड़कियों में भी कामवाली की बेटी हो तो वह और भी ज्यादा उपेक्षित होती है.........
पर श्रीप्रसाद जी की नज़र ऐसे पात्रों पर भी नहीं चूकी है

लड़की अंतरिक्ष में जाती/साहस इतना भारी/लड़की खेल रही खतरों से/लड़की कभी न हारी
यह प्रकाश लेकर निकली है/मिटा रही है अंधियारी/लड़्की अंतरिक्ष में जाती/साहस इतना भारी
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आई है महरिन की बेटी/महरिन आज नहीं आएगी
यही आज मांजेगी बरतन/झाड़ू करके घर जाएगी..
नाम रमोला है लड़की का/कोयल जैसा स्वर पाया है
एक बार गाया था गाना/लगा, स्वर्ग नीचे आया है
*****

                इन कविताओं के अलावा  और भी विविध विषय है जिन पर श्रीप्रसाद जी ने अपना कमाल दिखाया है। उनके सैंकड़ों शिशुगीत हैं जिन पर विस्तृत टिप्पणी की जा सकती है, पर यह एक इतर विषय है। बच्चों की कविताएं आकार में छोटी हों तो उनकी ज़बान पर आसानी से चढ़ती हैं। इस बात से श्रीप्रसाद जी भी सहमत है. तभी तो वे लिखते हैं

बच्चे छोटे हैं, जिनकी हैं छोटी-छोटी कविताएँ/छोटे मुँह से बच्चे अपनी छोटी कविताएँ गाएँ
छोटी बात अगर अच्छी है, अगर सही, है बात बड़ी/समय बड़ा है जिसे बताती/बिल्कुल छोटी एक घड़ी/

फ़िर भी कतिपय जगहों पर श्रीप्रसाद जी की कुछ बालकविताएं आकार में थोड़ी बड़ी हो गई हैं और कुछ ऐसी भी हैं जो अपने रचाव-कसाव में सामान्य हैं पर यह बात उनकी श्रेष्ठ कविताओं को प्रभावित नहीं करती और वे हर तरह से आधुनिक हिंदी बालकविता के शीर्ष प्रणेताओं में ही शुमार होते हैं। ***

सम्पर्क :

09211688748

5 comments:

  1. डॉ. श्रीप्रसाद की बालकविताओं का रचनात्मक वितान का बहुत सुन्दर समीक्षा प्रस्तुति हेतु आभार!
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  3. अद्भुत सृजनशिल्पी थे डा0श्रीप्रसाद। आपके आलेख बहुत सुंदर है।

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