गर्भनाल से साभार-
देखी तेरी दिल्ली-1
नई दिल्ली इलाके में जहां आज पालिका
बाज़ार है, वहां 70-80 के दशक में कभी थिएटर कम्युनिकेशन बिल्डिंग और काफ़ी हाउस हुआ
करते थे। काफ़ी हाउस में नामचीन लेखकों, कलाकारों का जमघट लगा रहता था और
साहित्य-कला-संस्कृति-राजनीति पर बहस-मुबाहसे चलते रहते थे। थियेटर कम्युनिकेशन
बिल्डिंग में हिंदी साहित्य सम्मेलन दिल्ली का भी शायद कार्यालय था और कभी-कभार वहां
साहित्यिक गोष्ठियां होती रहती थीं। ऐसी ही एक गोष्ठी में मैंने डा. रवीन्द्र
भ्रमर का नवगीत पाठ सुना था। कनाटसर्कस में रीगल बिल्डिंग से सटा गेलार्ड
रेस्ट्रां और उससे सटा हुआ टी हाउस साहित्यिकारों-पत्रकारों का एक और स्थायी अड्डा
था जिसकी जमघटों का पूरा ब्योरा बलदेव बंशी द्वारा संपादित किताब “ एक था टी हाउस” में मौजूद है। साहित्यकारों-पत्रकारों, जिनमें-चुप्पे हुड़दंगे,
पियक्कड़-चिपक्कड़ सभी तरह के व्यक्तित्व थे, के हर शाम मिलने के लिये ’टी हाउस” जैसी जगह दिल्ली के इतिहास में
शायद न तो दूसरी थी और न ही कभी होगी। सुप्रसिद्ध गांधीवादी लेखक-नाटककार विष्णु
प्रभाकर के लिये तो वहा एक टेबल सुरक्षित ही रहती थी। हर शाम उन्हें अजमेरी गेट से
कनाटप्लेस तक पैदल आते-जाते अक्सर देखा जा सकता था। वेशभूषा- वही खादी का
कुर्ता-पायजामा, सफ़ेद टोपी, कंधे पर लटका झोला और चेहरे पर हमेशा की तरह सौम्य
भाव।
उन्हीं दिनों
कादंबिनी पत्रिका में प्रूफ़रीडर के पद पर कार्यरत स्वामीशरण स्वामी से मेरा परिचय
हुआ जो जनवादी कविताओं का एक संकलन संपादित कर रहे थे। उस संकलन में अनेक कवियों
की रचनाओं के साथ मेरे भी दो गीत और एक गज़ल शामिल किये गए थे। स्वामीशरण स्वामी
नाटे कद और श्याम वर्ण के व्यक्ति थे वे हिंदुस्तान टाइम्स की यूनियन की मीटिंगो
में सक्रिय कार्यकर्ता बनकर अक्सर जनवादी/क्रांतिकारी कविताएं टेबलनुमा मंच से
सुनाया करते थे। एक बार वे मुझे हनुमान मंदिर के सामने स्थित पश्चिम बंगाल सूचना
केंद्र में आयोजित एक साहित्यिक संगोष्ठी में ले गए। वहां पहली बार मुझे
सुप्रसिद्ध कथाकार, नाटककार, अभिनेता और बलराज साहनी के छोटे भाई भीष्म साहनी तथा
हिंदी सानेट को प्रतिष्ठित करने वाले वरिष्ठ कवि त्रिलोचन के दर्शन हुए। त्रिलोचन
जी ने अध्यक्ष के रूप में सबसे बाद में “ताप के ताये हुए दिन” से कुछ कविताएं सुनाईं। उनसे पहले
अन्य कवियों के साथ हम जैसे नौसिखिए कवियों को भी एक दो कविताएं सुनाने का मौका
मिला। तेज मिजाज के गीत लिखने का तब नया-नया शौक लगा था मुझे उन्हीं में से एक गीत,
–“अपमानित होगी जब खुली हथेली/तो फ़िर/बंद मुठ्ठियां होंगीं, और एक गज़ल “जिस तरह से सवाल उठते हैं, उस तरह
से मिले जवाब कोई/बढ़ गईं दिन-व-दिन क्यूं तकलीफ़ें, पूछे उनसे जरा हिसाब कोई” मैंने सुनाई थीं।
इन
दिनों दैनिक हिंदुस्तान के संपादक श्री चंदूलाल चंद्राकर थे और उनके कार्यकाल में
प्रशिक्षु उपसंपादकों का एक पूरा समूह भर्ती हुआ था। इन प्रशिक्षुओं में कुछ मेरे
मित्र बने जिनके नाम सतीश कौशिक, सतीश सागर और आनंद शर्मा (पूरा नाम-आनंद वल्लभ
शर्मा) थे। सतीश कौशिक फ़िल्मसमीक्षाएं लिखा करते थे। सतीश सागर और आनंद शर्मा कवि
थे। यदि मैं गलत नहीं हूं तो आनंद शर्मा के माध्यम से ही मैं अपने प्रिय गीतकार
स्व. रमेश रंजक से मिला था। मौका था –एन.डी.एम.सी के सभागार में आयोजित एक
कविसम्मेलन जिसमें रमानाथ अवस्थी, रामावतार त्यागी, रमेश गौड, मधुर शास्त्री आदि
के साथ रमेश रंजक ने भी कवितापाठ किया था। रामावतार त्यागी ने “ इस सदन में मैं अकेला ही दिया
हूं, जब मिलेगी रोशनी मुझसे मिलेगी/ तथा “बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं/आदमी हूं, आदमी से
प्यार करता हूं”, रमानाथ अवस्थी ने “ भीड़ में भी रहता हूं वीरान के सहारे/जैसे कोई मंदिर किसी गांव के किनारे/”, और रमेश रंजक ने अपना नया गीत
सुनाया था –“तिनका जल तैरेगा, डूबेगी कंकरी/मत बोलो, मत बोलो, वाणी दशकंधरी”।
कवि सम्मेलन
समाप्त होने के बाद मैं और रमेश रंजक उनके आरामबाग स्थित निवास पर गए। वहां उनसे उनका
एक और गीत उन्हीं के स्वर मे सुनने का अवसर मिला- “कभी-कभी यह क्या होता है, कान चले
जाते हैं कहीं पड़ोस में/सारी रात खड़े रहते हैं ओस में”। बाद में रमेश रंजक जब गीतों से
अतुकांत कविताओं की ओर उन्मुख हुए तो मुझे अच्छा नहीं लगा था और फ़िर उनका अचानक
दुनिया से चला जाना तो मेरे लिये किसी आघात से कम नहीं था। उन्होंने बच्चों के लिए
भी कविताएं लिखीं यह मेरे लिये एक सुखद बात थी।
एक और
साहित्यिक मित्र श्री दुर्गा प्रसाद नौटियाल की यहां याद आ रही है, जो अब इस
दुनिया में नहीं हैं। नौटियाल जी प्रूफ़रीडर के रूप में हिदुस्तान टाइम्स समूह में
आए थे और उन्हें अस्थायी सेवा समाप्ति के बाद पुनर्नियुक्ति तथा पत्रकार का दर्ज़ा लम्बी
मुकदमेबाजी के बाद मिला था। फ़िर कालांतर में वे उपसंपादक के पद से लेकर मुख्य
उपसंपादक पद तक पंहुच गए थे। “साप्ताहिक हिंदुस्तान” में वे बच्चों का पृष्ठ देख रहे थे और उसके लिये कभी-कभी मुझसे भी बाल
कविताएं ले लिया करते थे। पहली बार में ही वे मुझे मितभाषी और सहृदय व्यक्ति लगे
थे मुझे। बालकविताओं के अलावा और भी कई साहित्यक मुद्दों पर उनसे चर्चा हो जाया
करती थी।
चंद्राकर जी के
बाद जब विनोद कुमार मिश्र ने दैनिक हिंदुस्तान का सम्पादन भार संभाला तो उनसे मेरा
अचानक परिचय हुआ। परिचय के पीछे एक कारण और भी था। मेरे सजातीय श्री पद्मनाभ तैलंग
भोपाल में जाने-माने स्वतंत्रता सैनानी होने के अलावा सरकारी मान्यताप्राप्त
वरिष्ठ पत्रकार थे और “साधना” नाम का एक टेब्लोय्ड अखबार निकाला करते थे। कुछ समय के लिये वे दैनिक
हिंदुस्तान के लिये अंशकालीन संवाददाता (स्ट्रिन्जर) के रूप में भोपाल से खबरें भी
भेजने का काम करते। पुराने कांग्रेसी थे और मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री श्री
अर्जुन सिंह से उनकी घनिष्ठता थी। दैनिक हिंदुस्तान के दिल्ली संपादकीय कार्यालय
में उनका कभी-कभार आना-जाना लगा रहता था। संपादक विनोद मिश्र से मिलकर आते तो सीधे
मेरे पास चले आते और अपने बुन्देलखंडी अंदाज में पूछ्ते-“कओ रमेश, कैसे हो? नौने(अच्छे) हो?
कविताएं लिख रए हो के नईं। लिखत रओ और खूब नाम करो। हमें तो जो करने हतो, सो खूब
करो, अब तुम लोगन को ज़मानो है, अच्छो पढ़ो, अच्छो लिखो...जस कमाओ..”
अलग गोत्र के
होते हुए भी सजातीय रिश्ते में पद्मनाभ जी हमारे चाचा, ताउओं मे से थे और हम
उन्हें आदर से कक्का कहा करते थे। मेरा जब भी भोपाल जाना होता था तो उनसे मिलना
अवश्य होता क्योंकि उनसे एक और रिश्ता जुड़ा हुआ था। मेरी छोटी इकलौती बहन सौ. वीणा
के वे चचरे श्वसुर भी लगते थे। हमारी बातचीत हिंदुस्तान टाइम्स के माहौल तथा
पत्रकारिता जगत की सच्ची-झूठी खबरों तक ही सीमित रहती थी और उनकी बुन्देली भाषा
में मुझे ज़रूरत से ज्यादा रस मिलता था। अब वे दिवंगत हो चुके हैं और उनकी स्मृति
ही शेष है।
ये साहित्यिक स्मृतियां उन दिनों की है जब मैं अपने
सात सदस्यीय परिवार के साथ अजमेरी गेट के कुंडेवालान चौक में 822 नं मकान में रहता
था। साहित्यिक प्रसंगों से हट कर अब ज़रा आत्मिक प्रसंगों की भी चर्चा कर लूं तो
कुछ बुरा नहीं। कुन्डेवालान के मकान मालिक संतभूषण लाल, टेलीकाम इन्जीनियर थे।मकान
तीन मंजिला था और उसकी छत पर हमारे पास एक ही कमरा था 10 बाई 10 फ़ीट का। उसी में
छोटी-सी जगह रसोई की थी। कमरे से सटा जीना और जीने से सटा एक छोटा-सा तिकोना
स्नानघर। इस एक कमरे में माता-पिता, हम पांच भाई और एक दो रिश्तेदार, जो यदा-कदा
आया ही करते थे, हम लोग थ्री टायर बेड रूम बनाकर सोते थे। कमरे के आगे लोहे का जाल
था और उसके आगे दूसरे किरायेदार का थोड़ा और बड़ा कमरा और एक बड़ी रसोई-स्नानघर।
दूसरे किरायेदार का नाम राजकुमार गुप्ता था। मेरी शादी हुई तो एक कमरे में
माता-पिता भाईयों के सम्मिलित परिवार मे किस तरह से गुज़ारा हो यह सवाल खड़ा हो गया।
दिन तो गुज़र जाता पर रात...इस विषम स्थिति से बचने के लिये वैकल्पिक व्यवस्था पहले
से करनी थी लेकिन कुछ कारणोंवश नहीं हो पाई। यह कमरा भी हमें हमारी नानी की वजह से
मिला था जो कई वर्षों तक यहां रहने के बाद सीलमपुर में अपने नव निर्मित मकान में चली
गई थी। हमारी आसन्न कठिनाई भांप कर सामने के किरायेदार राजकुमार गुप्ता और उनकी
पत्नी, जिन्हें हम सब भाभीजी कहते थे, ने सोने के लिये अपनी रसोई हम नव दंपति के
हवाले कर दी। तीन-चार दिनों तक मेरा और कमलेश का गुजारा वहां “पिया का घर” फ़िल्म की तरह हुआ फ़िर मेरे
हिंदुस्तान टाइम्स एक मित्र भरत अरोड़ा ने हमें पहाड़्गंज की चांदीवाली गली में एक
कमरा रसोई के साथ किराए पर दिलवा दिया। मज़बूरी थी, वहां जाते हुए हमें यह कलंक भी
सिर पर ढोना पड़ा कि “देखो, शादी होते ही बड़ा लड़का मां-बाप तथा छोटे भाईयों से अलग हो कर रहने लगा।“
लेकिन इसके पीछे जो लज्जा, पीड़ा और विवशता थी, उसने हमारा पीछा नहीं छोड़ा
और वह लगभग एक वर्ष तक हम दोनों को दिन में कुंडेवालान और रात में पहाड़गंज के बीच
भटकाती रही।
चांदीवाली गली वाला
वह मकान, मुझे बताया गया कि दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री श्री मदनलाल खुराना के
भाई (?) श्री बरकतराम खुराना का था। बरकतराम की पहाड़्गंज बाज़ार में जूतों की दुकान
थी। लेकिन इस मकान में प्रवेश के दिन ही हमारा सामना एक विचित्र हिंसात्मक
परिस्थिति से हो गया। शाम ढलने को ही और अन्धेरा पहला कदम रख रहा था तभी मकान के
चौबारे में लिमका-कोकाकोला की टूटी बोतलें आ-आ कर गिरने लगीं। गली के बाहर काफ़ी
शोरगुल मचा हुआ था। बाद में पता चला कि वहां गली के बाहर ब्राइट होटल के मालिक के
साथ किसी का झगड़ा हो गया था और लड़ाई हाथ-पैर से आगे बढकर शीतल पेय की बोतलों तक आ
पहुंची थी। इस मकान में रहने की एक शर्त यह थी कि हर किरायेदार को एक सप्ताह
रोटेशन से नीचे का बेड़ा (चौक) धोना पडेगा। नीचे तीन किराएदार थे इसलिये तीन सप्ताह
नीचे की सफ़ाई-धुलाई हम सबके जिम्मे थी और बाकी के दिन ऊपर वालों की।
नीचे के कमरों
में सीलन काफ़ी थी जिसके कारण वहां काक्रोचों की भरमार रहा करती थी। बहरहाल, हमने
वहां एक साल काटा और फ़िर बड़े ही नाट्कीय ढंग से पूर्वी दिल्ली की कालोनी गणेश
नगर-2 शकरपुर आ गए। पहाड़गंज वाला कमरा छोड़्ते समय हम वहां मारे हुए काक्रोचों का
एक बड़ा सा पेकैट भेंटस्वरूप छोड़ आए थे।
पहाड़्गंज मे
हमारा एक साल (1976-77) का समय कुल मिलाकर सुख-शांति में बीता। गली में ज्यादातर
पंजाबी परिवार थे और शाम को वहां साझा चूल्हा जलता था जिसमें कभी हम भी तंदूरी
रोटियां सिकवाकर ले आते थे। चूल्हा एक सुन्दर-सी स्थूलकाया वाली पंजाबी औरत जलाती
थी जो सरल स्वभाव की थी। उसका बास्तविक नाम तो हम नहीं जानते थे पर मैंने और कमलेश
ने उसका नाम अपनी और से क्रिस्टीना रख लिया था जो हमें अच्छा लगता था। सप्ताह में
एक दो शामें हमारी कनाट्प्लेस के सेन्ट्रल पार्क में गुज़रती थीं। तब न तो आज के
ज़माने जैसा आतंकवाद था और न ही देर रात मे आने-जाने का डर। पर एक बार अवश्य हम
छोटी-सी मुसीबत में फ़ंस गये थे। हुआ यूं कि मेरी बड़ी साली जोधपुर से दिल्ली आई हुई
थीं। रीगल थियेटर में नई मूवी चल रही थीं –“अर्जुन पंडित”। कमलेश और उन्हें साथ लेकर रात नौ बजे का शो देखने
गए। लौटते हुए बारह-सवा बारह बज रहे थे और हम पैदल रीगल से पहाड़्गंज लौट रहे थे।
उसी दिन पहाड़्गंज के आस-पास रेडलाईट एरिया मे पुलिस की रेड पड़ी थी इसलिये मेरे साथ
दो महिलाओं को देख कर गश्ती पुलिस ने पूछ्ताछ के लिये रोक लिया। मैंने उन्हें
बताया – “ मैं हिन्दुस्तान टाइम्स में कार्यरत हूं। मेरे साथ मेरी पत्नी और बड़ी साली
हैं और हम रीगल से रात क अंतिम शो देखकर लौट रहे हैं”। इस सबके बावजूद हम तीनों को
अनावश्यक रूप से पंचकुइया रोड के नज़दीक आधा-पौन घंटा तक रुकना पड़ गया। “अर्जुन पंडित” मूवी का आधा सुख इस व्यर्थ की
पूछ्ताछ ने तबाह कर दिया था।
थके मन से उस
रात हम पहाड़गंज लौटे। और फ़िर कुछ दिनों बाद मेरा पूरा परिवार – माता, पिता, भाईयों
सहित गणेश नगर-2, की गली नं 2 में शिफ़्ट कर गया जो बड़े ही नाट्कीय ढंग से हमे
किराये पर मेरे हिंदुस्तान टाइम्स के एक मित्र प्रकाश चन्द्र झा, जो अप्रेन्टिस के
रूप मे काम करता था और उसी मकान के एक कमरे मे किराये पर रहता था, ने दिलवाया था। यह
मकान काफ़ी बड़ा था उसमें एक बड़ा ड्राइंग रूम, एक बेड रूम और एक सुविधाजनक रसोइ तथा
स्नानघर थे। आगे लान था जिसमें गुलमोहर का एक पेड़ था। मकान का नाम था “शांतिकुन्ज” जो मकान मालकिन के नाम पर था।
किराया बसूली आदि का जिम्मा उनके बेटे अरुण कुमार अग्रवाल पर था। अरुण अग्रवाल
इन्कम टेक्स आफ़िसर थे और प्रकाश चन्द्र झा ने हमें किरायेदार के रूप में यह कहकर
रखवाया था कि हम प्रकाश के रिश्तेदार हैं और बिहार से आए हैं। प्रकाश की मेहरबानी
से किरायेनामे की औपचारिक्ता तक हमसे पूरी नहीं करवाई गई थी। हां, एक दो बार अरुण
जी हम सबसे मिलने अवश्य आए और पहली मुलाकात में ही उन्हें पता चल गया कि हम बिहार
से नहीं मध्य प्रदेश के बुन्देलखंड से संबन्ध रखते हैं। प्रकाश के झूठ बोलने पर उन्हें
गुस्सा तो बहुत आया पर हमारे परिवार का परिचय जानकर हमें कुछ नहीं कहा। हम वहां
लगभग एक दो-साल तक रहे और फ़िर उसी कालोनी की गली न. 1 में हमने एक सौ गज का प्लाट
ले लिया जिस पर, कुछ दिनों बाद अपनी ज़रूरत लायक आधा कच्चा-आधा पक्का आशियाना बना
लिया। लेकिन प्रकाश तब तक कमरा छोड़ कर बिहार वापस जा चुका था और बाद में एक दिन
अपने पुलिसकर्मी पिता के साथ मिला तो पता चला कि वह पागल हो चुका था और दिल्ली के
अस्पताल में मानसिक चिकित्सा हेतु लाया गया था। ज़ाहिर था कि ऐसी स्थिति में वह
मुझे देखता रह गया था पर हमारी पह्चान खो चुकी थी। उसके हाथ बंधे हुए थे और बंधन
के दोनों सिरे उसके पिता के हाथों मे थे।
ReplyDeleteअच्छ है
बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं/आदमी हूं, आदमी से प्यार करता हूं”, शायद नीरज