भीमताल में आयोजित राष्ट्रीय बालसाहित्य संगोष्ठी के बहाने कुछ बातें :
6-8 जून, 2014 के बीच भीमताल में आयोजित राष्ट्रीय बालसाहित्य संगोष्ठी तथा अन्य ऐसी ही संगोष्ठियों के मूल चरित्र पर लेखक/संपादक/पत्रकार श्री पंकज चतुर्वेदी की छोटी सी टिप्पणी -" वही चेहरे वही शाल/माला/प्रशस्तिपत्र..आदि" तीखी जरूर है पर है सत्य. लेकिन ऐसी संगोष्ठियों के कुछ ऐसे महत्वपूर्ण बिंदु हैं जो सहृदयता से विचारणीय हैं:
१. बालसाहित्य की स्वस्थ रचनात्मकता को आन्दोलन का रूप देने में इन्हीं संगोष्ठियों के आयोजकों का महत्वपूर्ण योगदान है जो देश भर के युवा/वरिष्ठ बुद्धिजीवियों/बालसाहित्य रचनाकारों को स्वयं के खर्चे पर बुलाकर मेला जोड़ते हैं और पारस्परिक संवाद के अवसर प्रदान करते हैं. सरकारी स्तर पर तो ऐसे प्रयास शून्य हैं.
२. इनमें बहुत से ऐसे आयोजन हैं जिनमें बच्चों की सतत और खुली भागीदारी होती है और उनमें साहित्य के प्रति अनुराग पैदा होता है. भीमताल में सम्मानित होने वाले बालसाहित्यकारों के बीच एक सातवीं कक्षा का विद्यार्थी दीपक तेंगुरिया अद्भुत मेधा एवं वैज्ञानिक सोच वाला साहित्यकार था जिसने कम उम्र में एक पुस्तक लिख डाली और अपने संक्षिप्त वक्तव्य से( किन्ही-किन्ही लोकमान्यताओं/अंधविश्वासों के पीछे भी क्या कोई वैज्ञानिक दृष्टि होती है) सभी प्रबुद्ध श्रोताओं को चौंका डाला. उसे हार्दिक शुभकामनाएं.
३. पुरस्कारों के चयन और उनकी प्रक्रिया पर मतभेद हो सकता है पर मुझे लगता है कि प्रविष्टियाँ मांगने के वजाय उन बालसाहित्यकारों की खोज करनी चाहिए जो वर्षों से बिना किसी प्रचार/प्रसार के स्वस्थ बालसाहित्य की रचना कर रहे हैं...भले ही वे क्षेत्रीय हों या राष्ट्रीय/ .बहुत कुछ न लिखते हुए बस इतना कह सकता हूँ कि इस मद की राशि/प्रशस्ति योग्य व्यक्ति को अयाचित रूप में दी जानी चाहिए.
४. अपनी-अपनी आंचलिक भाषा को यथोचित गरिमा देते हुए कोशिश की जानी चाहिए कि वहां के साहित्यकार/बालसाहित्यकार द्विभाषी साहित्य रचें और एक ही पुस्तक को अपनी आंचलिक भाषा तथा राष्ट्रभाषा हिंदी दोनों में एक साथ प्रकाशित करें. ऐसे प्रयास मुझे भीमताल की संगोष्ठी में दिखे एक प्रयास था -डॉ. प्रभा पन्त का और दूसरा डॉ. दीपा कांडपाल का. अन्य प्रदेशों में भी ऐसे प्रयास हो रहे होंगे लेकिन मेरी सदेच्छा है की ऐसी पुस्तकें और भी आनी चाहिए जिससे हिंदी के साथ सम्बंधित आंचलिक भाषा साहित्य की समृद्धि हो और उसका प्रसार उनके बीच भी हो जो वह आंचलिक भाषा नहीं जानते.
५. बालसाहित्यकारों को स्कूलों/शिक्षा संस्थानों से जुड़कर बालसाहित्य सृजन/पठन/श्रवण की कार्यशालाओं में बुलवा कर बच्चों से उनका खुला संवाद कराया जाना चाहिए . एन.बी .टी. तथा सी.बी.टी. तथा अन्य गैर सरकारी संगठनों के प्रभावी प्रयासों का अनुसरण करते हुए ऐसी कार्यशालाएं आयोजित करना बच्चों को साहित्यिक संस्कार देने में ज्यादा सहायक होंगी.
६. यह बात भूलनी नहीं चाहिए की व्यावसायिक शिक्षा बच्चों को श्रेष्ठ व्यवसायी बना सकती है लेकिन श्रेष्ठ बाल साहित्य की पुस्तकें उन्हें एक बेहतर संवेदन शील मनुष्य बनाती हैं.
७. संभव हो तो आप अपनी अल्मारी में निष्क्रिय पडी बाल पुस्तकों को ऐसे आयोजनकर्ताओं को भेंट कर सकते हैं. बच्चों को उनके जन्मदिन पर नई बाल पुस्तकों को उपहार में दे कर एक स्वस्थ ज्ञान परंपरा को समृद्ध कर सकते हैं . शुरुआत करिए और बच्चों को विचारशील बनाइये और डिजिटल मीडिया के उस मारक प्रभाव से जो उन्हें विवेक/विचारशून्य बना रहा है, बचाइये.
८. निजी मीडिया जितना राजनैतिक तंत्र का अनुगामी बना हुआ है उसका दो चार प्रतिशत भी साहित्य/कला/संस्कृति को अपने प्रसारणों में प्रश्रय दे तो यह देश के मानस का कुछ तो भला करेगा. बार-बार प्रश्न उठता है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे, तो बिल्ली को ही कहिये कि वह अपने गले में एक घंटी बांध ले .
९. बच्चों की दुनिया भर में क्या हालत है, उनकी विचार शक्ति छीनकर उन्हें किस तरह कंडीशंड किया जा रहा है इस पर बालसाहित्यकारों को अवश्य कलम चलानी चाहिए...खेंद है कि मैं स्वयम इस महत्वपूर्ण बिंदु की शुरुआत नहीं कर सका हूँ और चाहूंगा कि इस दिशा में अपना दीपक आप बने के लोकोक्ति चरितार्थ कर सकूं.
१०. भीमताल में आयोजित राष्ट्रीय बाल साहित्य संगोष्ठी से लौटकर जो त्वरित प्रतिक्रिया हुई है उसे मैंने यहाँ निवेदित किया है. शेष फिर इस संवाद को उपयुक्त मंच से पुनः जारी रखने का प्रयत्न करूंगा...शायद कुछ प्रबुद्धजनों को यह आभासी मंच ऐसे बिन्दुओं पर चर्चा के लिए उपयुक्त न लगे. लेकिन जैसा की दुष्यंत ने कहा है -"हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए"
-रमेश तैलंग
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