Saturday, October 17, 2015

माफ़ कीजिये, मैं नहीं लौटा रहा हूं अपना अकादमी सम्मान


गत कुछ दिनों से अखबार की सुर्खियां पढ़ कर मेरा मन भी मीडिया में उछलने का कर रहा था। लेकिन अपनी मज़बूरी है। पता नहीं आप समझेंगे या नहीं । इसलिए थोड़ा-सा खुलासा कर रहा हूं जो कुछ तिक्त भी है और कुछ सच भी, वरना अपनी जांघ उघाड़ने का उपक्रम कौन करता है।
दरअसल, जब मुझे साहित्य अकादमी सम्मान मिला था तब उसके साथ कुछ अर्थ की प्राप्ति भी हुई थी जो मेरे जैसे अदना लेखक के लिये आड़े वक्त में बहुत बड़ी राशि थी और जिससे मैंने न केवल बहुत पुराने ऋण का कुछ अंश चुकता किया बल्कि दो-चार दिनों की दाल-रोटी भी खा ली थ। (अब तो दाल भी इतनी मंहगी है कि दाल की जगह हवा से काम चलाना पड़ेगा बशर्ते, पानी की तरह कल हवा भी न बिकने लगे) इसलिए उस सम्मान राशि को एक बार गृहण कर के दोबारा लौटा पाना मेरे लिये संभव नही।  यह काम वे करें जो तथा कथित संभ्रांत-जन हैं, जिनके भरे हुए पेट हैं,और जो अपने कृतित्व से ज्यादा अपने व्यक्तित्व, पद, और संपर्क के कारण चर्चा में हैं।
पुरस्कार या सम्मान लौटाना सिर्फ़ कागज का पत्र या धातु का स्मृति-चिन्ह लौटाना नहीं हैं। उसके साथ मिली उस खुशी का भी लौटाना है जो आपके साथ-साथ आपके परिजनों को भी मिली थी। उस धन-राशि का लौटाना भी है जिसे लौटाने  के लिये हो सकता है फ़िलहाल आपकी जेब खाली हो पर अपनी अहंतुष्टि के लिए आप ब्याज पर कोई ऋण उठालें। और क्या आप समझते हैं कि अकादमी या कोई भी सरकारी संस्था इस सम्मान राशि के बहाने अपनी खुद की कमाई का हिस्सा आपको सौंपती है? जी नहीं जो पैसा आपको मिलता है या मिला है वह भी आपकी कमाई से ही करादि के रूप में सरकार द्वारा वसूल किया गया धन है। इसलिए जो पैसा मेरा ही था या है उसे वापस सरकार या सरकारी संस्थान को लौटाने का तो सवाल ही नहीं उठता।
हां, यदि मुझे अपनी आत्मा कुछ ज्यादा ही झकजोरती है और मुझे अपनी ज़िद ही पूरी करनी है (फ़िर चाहे अपने घर के बर्तन बेच कर ये काम करना पड़े) तो यह पैसा मैं सरकार को वापस न कर के उन हत-आहत परिवारों को ही क्यों न दूं जो सांप्रदायिक हिंसा का शिकार हुए हैं। क्या यह प्रतिरोध का जायज़ तरीका नहीं हो सकता? क्या अकादमियों के काम में अब सांप्रदायिक हिंसा को रोकने और व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी भी शामिल करनी होगी? क्योंकि उनके द्वारा दिये गये सम्मान को उन्हें लौटाने का अर्थ तो यही हुआ न कि देश के किसी कोने में भी साम्प्रदायिक हिंसा होती है तो ठीकरा सीधे आप उन के माथे पर फ़ोड़ सकते हैं।
हो सकता है, आपको मेरा यह तर्क लचर या जन विरोधी लगे पर ज़रूरी तो नहीं कि एक जो करे वही बाकी भी सभी करें। और अकादमी या पद्म सम्मान लौटाने से सब कुछ ठीक हो सकता है तो आप लौटाने की जगह यह संकल्प ही क्यों नहीं ले लेते कि सरकार कोई भी क्यों न हो  उससे न तो जीवनपर्यंत कोई सम्मान लेंगे, न वृत्ति लेंगे और न ही विशिष्ट श्रेणी (पत्रकार-लेखक) के लिये दिये जाने वाले आरक्षित अनुग्रह लेंगे। (संतन को कहा सीकरी सों काम.. वशर्ते आप संत हों) आपका निर्णय और  अन्याय के प्रतिरोध का तरीका सार्वकालिक होना चाहिए, अवसरवादी नहीं।
      हमारे एक बड़े लेखक भाई ने यदि यह कह दिया है कि आप जिस सम्मान को लौटाने की घोषणा मीडिया में उछल-उछल कर रहे हैं उसके साथ उस और उस कीर्ति को भी लौटाईये जो आप उस सम्मान के बाद  भोग चुके हैं और भुना चुके हैं,  तो शायद आपको बुरा लग रहा है? लेकिन गुड़ खाएं और गुलगुलों से परहेज करें, यह तो ठीक नहीं
      इसलिए, माफ कीजिये, मैं अपने साहित्य अकादमी का सम्मान (बाल-साहित्य की श्रेणी में है तो क्या) को लौटाने की स्थिति में अपने को नहीं पा रहा हूं।  क्योंकि यह अकादमी का ही नहीं मेरी अपने रचनाकर्म का भी अपमान है। मेरे इस नकार के पीछे  केवल मेरी आर्थिक  विवशता ही नहीं बल्कि उस छ्द्म को अस्वीकार करने की ज़िद भी है जिसे कुछ नामी-गिरामी लोग आवेश, भावुकता, दल-विधान या लोभवश अपने कमजोर क्षणों मे ओढ़ लेते हैं।

-          रमेश तैलंग
-          rtailang@gmail.com

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2 comments:

  1. मुझे अपनी आत्मा कुछ ज्यादा ही झकजोरती है और मुझे अपनी ज़िद ही पूरी करनी है तो यह पैसा मैं सरकार को वापस न कर के उन हत-आहत परिवारों को ही क्यों न दूं जो सांप्रदायिक हिंसा का शिकार हुए हैं। क्या यह प्रतिरोध का जायज़ तरीका नहीं हो सकता?..क्यों नहीं यह भी प्रतिरोध का नेक तरीका हो सकता है बस सोच का ही तो फर्क होता है ..
    सबके अपने अपने तरीके है प्रतिरोध जताने के .. जितने लोग उतनी उनकी सोच ...और सोच पर किसी का जोर नहीं ... भेड़चाल चलने में और कुछ हटकर कर गुजरने वाले विरले होते है

    बहुत बढ़िया

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