Wednesday, February 26, 2014

जुगलबंदी : ( कुछ दोहे कुछ गीत) 27 फरवरी, 2014


pic.credit : google

तीन गीत


-1-
खुरदरे चरित्रों की
स्मृति-कथाएं तो होती हैं
पर उनके अभिनंदन-ग्रंथ नहीं होते हैं.

जानबूझ कर वे सीधी-सपाट
जिंदगी का रास्ता नहीं चुनते
झूठी प्रशस्तियों  के वास्ते
ताने-बाने प्रपंच के वे नहीं बुनते

उनके जीवन का बस
इतना-सा हासिल है
जितना पाते हैं उससे ज्यादा खोते हैं.

उनकी आँखों में जब भी देखो
हरा-भरा  जंगल ही दिखता है,
कितनी भी कडुवी वाणी बोलें
पर उसमें मंगल ही दिखता है

दुनियादारी में वे
भले मात खा जाएँ,
दुःख की हिस्सेदारी में आगे होते हैं.


-2-

कागज़ पर पानी की बूँद पड़े,
लिखा-पढ़ा सब कुछ धुल जाएगा,
बंधु रे, भूल नहीं जाना

कंधों पर जितना बोझा
हर दिन लादे तू  फिरता है,
और लडखडाते क़दमों से तू
चलते-चलते जैसे गिरता है,

बटमारों की बस्ती में,प्यारे!
पलक झपकते सब लुट जाएगा.
बंधु रे, भूल नहीं जाना.

स्मृति पर विस्मृति
देखो कैसे  डाल रही है  डेरा,
सिर पर का सूरज
ढलने को है संध्या ने आ घेरा,

अब ये पल-पल मारा-मारी क्यों,
हर सुख के पीछे दुःख आएगा..
बंधु रे, भूल नहीं जाना.

-3-


झूठी पड़ जाएंगीं सब भविष्यवाणियां
मेघों का अहंकार टूटेगा जिस पल भी 
धरती से अंकुर तो फूटेगे, फूटेंगे.

कैसी भी हो सर्जन की परंपरा
पूरी तरह न मरती है,
लचकदार बेल, तेज आंधी  की
धमकी से रोज कहाँ डरती है,

शब्द तो जटायु हैं,जब तक हैं शेष प्राण,  
वे अंतिम सांस तक जूझेंगे, जूझेंगे.

वे जो व्यापारी है, भाव-ताव
तय करते फिरते  हैं,
तिनकों जैसे  ऊपर चढ़ते हैं,
बूंदों जैसे नीचे  गिरते हैं

उनके भी चेहरों से उतरेगी हर नकाब
उनके भी मनसूबे डूबेंगे, डूबेंगे,


- रमेश तैलंग 

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