Tuesday, February 25, 2014

जुगलबंदी (कुछ दोहे कुछ गीत) 26 फरवरी, 2014

तीन चका की गाडि़या, खीच रहे दो पांव
घर आएं जब रोटियां,, भरे पेट को गांव

घास फूस की झोंपड़ी, सिर ऊपर तिरपाल 
उजड़-उजड़ हतभागिनी, रही सदा बेहाल

लरज -गरज बादर घिरे, बरसे राजनिवास 
सूनी आँखें मुंद गईं,  लिए अनबुझी प्यास

पसरा हो घर में जहां, सन्नाटे का जाल
किलकारी शिशु की करे मौनों को वाचाल


सब बस्ती बारूद की,, अम्बर बरसे आग 
हाड़-मांस जल भुन गए, बचे जंग के दाग

खेल-खिलौने छोड़कर, थामे है बन्दूक
बच्चे कठपुतली बने, देखे  दुनिया मूक 

दिवस बीतते मौन में, जागत-जाती रैन
दंश वक्त का खा गए, जब से बूढ़े नैन

फैलाकर बांहें दिया, जिनको खूब सनेह
उनकी किरपा पर पली, ढली उमर की देह

भरे कुटिलता मन करे, रोज नये छल-छंद 
अब वसंत में भी कहां, शुभता का मकरंद 

अर्थ नियंत्रित कर रहा, जीवन का व्यापार 
गिरवी रख दी जिन्दगी, जब भी बढ़ा उधार

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